मित्रों,जब ग्राम+पोस्ट-राहतपुर,थाना-बलिया,जिला-बेगूसराय निवासी बलराम सिंह ने वर्ष 2002 में अपनी फूल से भी ज्यादा नाजुक पुत्री पुष्पम का हाथ ग्राम+पोस्ट-हरखपुरा,थाना-गढ़पुरा,जिला-बेगूसराय निवासी चिरंजीवी मुरारी राय के हाथों में सौंपा था तब उन्होंने यह सपनों में भी नहीं सोंचा था कि एक दिन इन्हीं हाथों से उनकी पुत्री की दो-दो बच्चों की माँ बन जाने के बाद चंद रूपयों की मांग को उनके द्वारा पूरा न कर पाने के कारण हत्या कर दी जाएगी। उन्होंने सोंचा तो यह भी नहीं था कि सुशासन की पुलिस मोटी रिश्वत खाकर उनके बजाए उनकी बेटी के हत्यारों की ही पैरोकार हो जाएगी और उनकी बेटी तो क्या उसकी आत्मा तक को भी न्याय नहीं मिल पाएगा। मित्रों,बलराम बाबू ने जो सपने में भी नहीं सोंचा था वही हुआ और हकीकत में हुआ। 10/11 मई,2013 की रात में उनकी बेटी पुष्पम को उसके पति और परिवारवालों ने मिलकर मार डाला और चुपके से उसका दाह-संस्कार भी कर दिया। सूचना मिलते ही उन्होंने हत्या का मुकदमा भी किया (केस नं.-46/2013,थाना-गढ़पुरा,जिला-बेगूसराय),डीएसपी उपेन्द्र प्रसाद के यहाँ वीडियो कैमरे के सामने बिटिया की ससुराल के 7 लोगों से गवाही भी दिलवाई लेकिन हुआ कुछ भी नहीं,यहाँ तक कि हत्यारों को गिरफ्तार भी नहीं किया गया। थक हारकर जब वे डीएसपी श्री प्रसाद के यहाँ गुहार लगाने पहुँचे तो पूरे परिदृश्य को ही उल्टा पाया। डीएसपी ने उनको कार्रवाई का आश्वासन तो नहीं दिया लेकिन समझौते के लिए दबाव खूब डाला। यहाँ तक कि हत्यारों से उनकी अपने मोबाईल पर बात भी करवाई और अपने सामने बिठाकर फोन पर उनको गालियाँ भी सुनवाई। उसी दिन डीएसपी कार्यालय के एक स्टाफ ने कार्रवाई के लिए उनसे मोटी रकम की मांग की। बाद में मुकदमे के अनुसंधान पदाधिकारी ने भी उनसे समझौता कर लेने को कहा और यह भी कहा कि वह उनको इसके बदले अच्छी-खासी रकम दिलवा देगा। साथ ही यह धमकी भी दी कि अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो वो मामले को आत्महत्या का मामला बना देगा। अब बेचारे बलराम बाबू,सपरिवार चारों तरफ से असहाय हैं। मन में क्षोभ और गुस्से का लावा उबल रहा है। उनका बस चले तो वे पूरे सरकारी तंत्र को ही जलाकर राख कर दें। आज हत्या को पूरे 2 महीने हो चुके हैं और सुशासन बाबू की पुलिस ने (मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद बिहार के गृह मंत्री भी हैं) हत्यारों की गिरफ्तारी तक नहीं की है और शायद कभी करेगी भी नहीं। मित्रों,पुष्पम का मामला तो सिर्फ एक नमूना है बिहार पुलिस की महानता का। सारे मामलों को तो सात समंद की मसि करौं और लेखनी सब बनराई करके भी स्वयं गणेश जी भी नहीं लिख सकते। बिहार के प्रत्येक थाने में चाहे वो घोषित रूप से आदर्श हों या नहीं सत्य और ईमानदारी के प्रतीक गाँधी जी की तस्वीर जरूर टंगी होती है। ऊपर दीवार पर गाँधी की तस्वीर लगी होती है और उसके ही नीचे बैठकर गाँधी का लेन-देन किया जाता है,व्यापार किया है। थानों में एक पंक्ति भी मोटे-मोटे अक्षरों में लिखी होती है कि क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ? जबकि वास्तव में लिखा हुआ यह होना चाहिए कि क्या मैं हत्यारों की सहायता कर सकता हूँ? अथवा क्या मैं आपको तंग कर सकता हूँ? अथवा क्या मैं आपको लूट सकता हूँ? मित्रों,काफी साल पहले मैंने कादम्बिनी पत्रिका में चंबल के मशहूर डाकू मोहर सिंह का साक्षात्कार पढ़ा था जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर गाँव का पटवारी ईमानदार रहे तो पूरे चंबल क्षेत्र में कोई बागी नहीं बनेगा। मैं कहता हूँ कि अगर हमारी पुलिस ईमानदार हो जाए तो पूरे भारत में कोई नक्सली नहीं बने और नहीं रहे और साल लगते-लगते नक्सलवाद सिर्फ इतिहास की किताबों में सिमटकर रह जाए। लेकिन ऐसा होगा क्या? जिस देश और प्रदेश में नेताओं द्वारा अधिकारियों की पोस्टिंग रिश्वत लेकर की जाती हो,तबादलों ने उद्यम का रूप ले लिया हो,जहाँ अच्छे अफसरों को (उदाहरणस्वरूप शिवदीप लांडे,अरविन्द पांडे वगैरह) शौक से शंटिंग करके रखा जाता हो वहाँ ऐसा कदापि नहीं होगा। वहाँ तो बस यही होगा कि इसी तरह पुष्पम जलाई जाती रहेंगी,इसी तरह डीएसपी की सहानुभूति पीड़ितों के बजाए पीड़कों के साथ बनी रहेगी और जीवित या मृत पुष्पमों के लिए न्याय इसी तरह आकाशपुष्प बनी रहेगी।
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