शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

मोदी राजा भोज मनमोहन गंगू तेली



मित्रों,कल लगातार दसवीं बार मुझे लाल किले से अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सुनने का अवसर मिला। इसे मैं सुअवसर कहूँ या कुअवसर समझ में नहीं आता। कितनी बड़ी विडंबना है कि आज आजादी के 67 साल बाद भी प्रधानमंत्री ने देश के समक्ष कमोबेश वही चुनौतियाँ गिनाईं जिनको 15 अगस्त,1952 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने गिनाई थी। इसका सीधा मतलब यह है कि कैलेंडरों में भले ही 60 साल गुजर गए मगर हमारा देश आज भी वहीं-का-वहीं खड़ा है। वही गरीबी,वही भुखमरी,वही बेरोजगारी,वही सीमा विवाद,वही जनसंख्या-विस्फोट और वही सांप्रदायिक दंगे।
              मित्रों,फिर हमने गुजरात के मुख्यमंत्री और भारत के कथित भावी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को भी सुना जो लालन कॉलेज,भुज से जनता को संबोधित कर रहे थे। उनमें जोश था,ओज था,देश के बेहतर भविष्य के लिए योजनाएँ थीं। उन्होंने भ्रष्टाचार पर खूब बातें कीं,जमकर हल्ला बोला। पारदर्शिता बढ़ाने पर भी जोर दिया लेकिन यह नहीं बताया कि राजनैतिक दलों को सूचना का अधिकार के दायरे से बाहर कर देने से कैसे तंत्र में पारदर्शिता बढ़ेगी। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि गुजरात में लोकायुक्त नहीं होने से भ्रष्टाचार को कम करने में कैसे सहायता मिल रही है। वैसे मैं आपको यह भी बता दूँ कि अधिकतर राज्यों में लोकायुक्त महोदय भ्रष्टाचार का कुछ खास नहीं उखाड़ पाए हैं और यह पद अभी भी महज सांकेतिक ही बना हुआ है। इतना ही नहीं आज भी जबकि मोदीजी की पार्टी में दागियों की बड़ी फौज मौजूद है तो फिर उनकी पार्टी कैसे पार्टी विथ डिफरेंस हुई?
                                   मित्रों,2014 के चुनावों में किस पार्टी को बहुमत मिलेगा या फिर किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिलेगा अभी से कहा नहीं जा सकता। ऐसे में अगर भाजपा और एनडीए को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाता है तो पता नहीं कि भाजपा और नरेंद्र मोदी को किन-किन मुद्दों पर कौन-कौन से समझौते करने पड़ेंगे? फिर क्या पता कि आज से दस साल बाद नरेंद्र मोदी की भी वही स्थिति हो जाए,उनका स्वर भी उसी तरह निराशाजनक हो जाए जिस तरह कि आज 15 अगस्त,2004 को उम्मीदों से लबरेज रहे मनमोहन सिंह का है।
                    मित्रों, यह सच है कि वर्तमान दशक में हमारे राजनेताओं का काफी तेजी से नैतिक स्खलन हुआ है जिससे जनता का उनमें विश्वास लगातार बहुत तेजी से कम हुआ है लेकिन यह हमारे लोकतंत्र की मूलभूत कमजोरी नहीं है। हमारे लोकतंत्र की मूलभूत समस्या नेता नहीं हैं बल्कि मौलिक समस्या है हमारी गलत और खर्चीली चुनाव प्रणाली। आपको यह जानकर घोर आश्चर्य हो सकता है कि कई बार चुनावों में कुल जमा ज्यादा मत पानेवाला दल हार जाता है और कुल जमा कम मत पानेवाले दल की जीत हो जाती है। कोई भी दल मात्र 20-30% मतदाताओं का समर्थन पाकर ही प्रचंड बहुमत से सत्ता में आ जाता है जबकि असलियत तो यही होती है कि वह सरकार कुल प्राप्त मतों के आधार पर अल्पमत की सरकार होती है।
                          मित्रों,यह घोर दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले कुछ सालों में गाँव से लेकर संसद तक के लिए होनेवाले चुनावों में पैसों का जोर बढ़ा है। आज किसी भी विधानसभा चुनाव में प्रति उम्मीदवार कम-से-कम 1 करोड़ और लोकसभा चुनाव में प्रति उम्मीदवार कम-से-कम 10 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। हमारे राजनेताओं ने चुनाव-दर-चुनाव जनता के साथ इतनी वादाखिलाफी की है कि अब जनता यह मानकर चलने लगी है कि हमारा नेता वादों को पूरा करनेवाला है नहीं इसलिए जनता चुनावों के समय ही उम्मीदवारों से पैसे मांगने लगी है और अब वह मत का दान नहीं करती बल्कि अपनी मत बेचती है। जनप्रतिनिधियों और जनता के इस द्विपक्षीय नैतिक स्खलन का परिणाम यह हुआ है कि अब ईमानदार और गरीब व्यक्तियों के लिए चुनाव लड़ना और लड़कर जीतना संभव ही नहीं रह गया है। जनबल पर धनबल के हावी होने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम जो बीते वर्षों में सामने आया है वह यह है कि राज्यसभा और विधान परिषद् जो कभी गैर राजनैतिक गणमान्य लोगों की सभा मानी जाती थी आज पूंजीपतियों का आरामगाह बन गई है। आज सरकारों के गठन में जमकर सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त की जाती है। राजनीति ने व्यवसाय का स्वरूप ग्रहण कर लिया है। पहले चुनाव में पूंजी लगाओ और फिर जीत के बाद वैध-अवैध तरीके से जमकर पैसे बनाओ और बनाने दो। लूटो और लूटने दो। कभी तो नेताओं के खराब होने से तंत्र खराब होता है तो कभी तंत्र के भ्रष्ट होने से नेता भ्रष्ट हो जा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस बिगड़ैल तंत्र को सुधारने का मंत्र क्या है?
                                                          मित्रों,मैं आपसे बार-बार निवेदन कर चुका हूँ कि जब तक भारत में संसदीय शासन-प्रणाली है हम भय,भूख और भ्रष्टाचार का कुछ नहीं उखाड़ सकते। देश में जनप्रतिनिधियों द्वारा सत्ता के प्रधान के चुनाव की परंपरा तुरंत बंद होनी चाहिए क्योंकि हमारे वार्ड सदस्य,पंचायत-समिति सदस्य,जिला-परिषद् सदस्य,विधायक और सांसद चोर और लालची हो गए हैं,उनके मन में अब रंचमात्र भी जनकल्याण की भावना शेष नहीं बची है। कुछेक को छोड़कर सबके सब सिर्फ आत्मकल्याण में लगे हुए हैं इसलिए अब जनता को सीधे-सीधे अपना शासक चुनने का अधिकार मिलना चाहिए कुछ-कुछ उसी तरह जैसे ग्राम-पंचायतों में ग्रामीणों को मुखिया को चुनने का मिला हुआ है। चुनावों के समय जनता दोहरा मतदान करे। मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री के लिए अलग और विधायक-सांसद के लिए अलग ठीक पंचायत चुनावों की तरह।
                         मित्रों,ऐसा जब होगा तब होगा आज की कड़वी सच्चाई तो यही है कि हमें संसदीय शासन-प्रणाली के माध्यम ही अगले साल मोदी और मनमोहन में से एक को चुनना होगा। यदि हम दोनों के कल के भाषण की तुलना और देश की विस्फोटक स्थिति पर दृष्टिपात करें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे सामने मोदी को चुनने के अलावा कोई विकल्प है ही नहीं। दरअसल मनमोहन चुके हुए तीर हैं,गीले हो चुके बारूद हैं,बुझी हुई मोमबत्ती के मोम हैं,घोटालों के घंटाघर और नाकामियों का नगाड़ा हैं,मात खा चुके राजा हैं इसके विपरीत मोदी में अपार संभावनाएँ हैं,उम्मीदें हैं,जोश है,जुनून है और सिर्फ देश के लिए जीने-मरने का जज्बा है। एक डूबता हुआ सूरज है दूसरा ऊपर चढ़ता पूर्णमासी का चंद्रमा। एक ने विषम परिस्थितियों से पूरी तरह से हार मान ली है तो दूसरे ने कभी हार मानना सीखा ही नहीं है। एक बीमार है तो दूसरा बलवान तन से भी और मन से भी। मोदी कुछ भाइयों के लिए कड़वे कुनैन भी हो सकते हैं लेकिन सच्चाई तो यही है कि देश को चढ़ रहे मलेरिया बुखार से निजात पाने के लिए हमें देर-सबेर उनको स्वीकार करना ही पड़ेगा।
                     मित्रों,आईए हम डूबते हुए सूरज को अलविदा कहें और क्षितिज पर निविड़ अंधकार को अपने तेज से चीर कर उभरते हुए मृगांक का स्वागत करें। यही वर्तमान समय की जरुरत है और हमारी खतरे में पड़ती दिख रही आजादी की रक्षा के लिए अपरिहार्य भी। अगर हम आजाद रहे फिर कभी संविधान और शासन-प्रणाली को भी बदल लेंगे। देखिए नजर उठाकर उत्तर की ओर कि किस प्रकार से शंकरपुरी में चीन की सेना आक्रामक हो रही है और किस तरह कश्मीर में पाकिस्तान पागल हुआ जा रहा है। मनमोहन की अब तक की सबसे मजबूर,कमजोर और सत्तालोलुप सरकार ने अपनी नाकामियों से इनके मन में एक बार फिर भारत-विजय की आस जगा दी है। अब हमें कदापि केंद्र में मजबूर नेता या सरकार नहीं चाहिए बल्कि बेहद मजबूत मनस्वी प्रधानमंत्री और सिंह-गर्जना करनेवाली सरकार चाहिए (हमारे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी यही चाहते हैं) और वैसी सरकार खुद को देंगे,खुद के लिए चुनेंगे हम। क्योंकि हमीं इस मुल्क के असली मालिक हैं,कोई संसद या सांसद नहीं।

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