मित्रों,भारतीय अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में फंसने की आशंका सच साबित हो रही है। सरकार में छाये भ्रष्टाचार,नीतिगत जड़ता और फैसले लेने में देरी के चलते चालू वित्त वर्ष 2013-14 की पहली तिमाही में आर्थिक विकास दर ने भी रुपये की तरह गोता लगा दिया है। इस अवधि में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर घटकर मात्र 4.4 फीसद पर सिमट गई है। बीते चार साल में किसी एक तिमाही में अर्थव्यवस्था की यह सबसे कम रफ्तार है। बीते एक साल में आर्थिक हालात तेजी से खराब हुए हैं। वित्त वर्ष 2012-13 की पहली तिमाही में आर्थिक विकास दर 5.4 फीसद रही थी। महंगे कर्ज और रुपये के गोता लगाने से न सिर्फ औद्योगिक उत्पादन व खनन क्षेत्र की रफ्तार घटाई, बल्कि सरकार के फैसलों की सुस्ती का असर देश में होने वाले निवेश पर भी पड़ा है। बीते वित्त वर्ष के मुकाबले चालू साल की पहली तिमाही में कुल निवेश 1.4 फीसद घट गया है। पहली तिमाही में कारखानों की सुस्ती से विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर 1.2 फीसद नीचे आ गई है। यही हाल खनन क्षेत्र का भी रहा है। इसकी विकास दर 2.8 फीसदी गिर गई। बीते साल विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर में एक फीसद की कमी आई थी। खनन क्षेत्र की विकास दर 0.4 फीसद रही थी। सरकार द्वारा जारी पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़ों के मुताबिक कृषि से भी जीडीपी को बहुत अधिक मदद नहीं मिली और इस क्षेत्र की विकास दर 2.7 फीसद पर सिमट गई। बीते वित्त वर्ष की इस अवधि में कृषि क्षेत्र ने 2.9 फीसद की बढ़त हासिल की थी। वित्तीय और सामाजिक सेवा क्षेत्रों ने अवश्य सरकार को कुछ राहत दी है। लेकिन ऊर्जा और कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की विकास दर ने सरकार को निराश किया है। बिजली, गैस क्षेत्र की विकास दर बीते साल के 6.2 से घटकर पहली तिमाही में 3.7 फीसद पर आ गई है। कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की विकास दर सात फीसद से लुढ़कती हुई 2.8 फीसद पर आ टिकी है। अर्थव्यवस्था में बदहाली का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहली तिमाही में सकल पूंजी निर्माण की रफ्तार भी धीमी हुई है। बीते साल की पहली तिमाही में पूंजी निर्माण यानी निवेश की दर 33.8 फीसद रही थी। लेकिन चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में यह 32.6 फीसद पर रुक गई है। इसका मतलब है कि देश में घरेलू निवेश की रफ्तार रुक गई है। यह गिरावट निजी और सरकारी दोनों तरह के निवेश में हुई है।
मित्रों, हमारी केंद्र सरकार किसी अफीमची की तरह अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार और शर्मनाक हालत के बावजूद पांच करोड़ लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने की बात कर रही है। जबकि सच तो यह है कि अर्थव्यवस्था में नरमी के चलते भारत में रोजगार के नए अवसरों के सृजन में कमी आई है। 2012-13 की अक्टूबर-मार्च अवधि के दौरान देश में रोजगार के नए अवसरों के सृजन की रफ्तार 14.1 प्रतिशत तक घट गई और इस दौरान 2.72 लाख रोजगार पैदा हुए। उद्योग मंडल एसोचैम द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, अक्टूबर-मार्च, 2011 -12 के दौरान 3.17 लाख नौकरियां पैदा हुई थीं। सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत की नरम पड़ती आर्थिक वृद्धि दर और नीतिगत अनिश्चितताओं से नए निवेश आने की रफ्तार धीमी पड़ी है जिससे देशभर में रोजगार सृजन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इतना ही नहीं हमारी सर्वनाशी केंद्र सरकार इस लोकसभा चुनावों में 1971 की तरह एक बार फिर गरीबी हटाओ का नारा देनेवाली है। सिर्फ नारों से अगर गरीबी को भागना होता तो वो कब की भाग चुकी होती। सरकार को खैरात बाँटने के बदले देश के लिए लाभकारी रोजगारों के सृजन के उपाय करने चाहिए क्योंकि दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र भारत में बेराजगारी बढ़ने लगी है। कोरे नारों से न तो आज तक गरीबी का बाल बाँका हुआ है और न ही भविष्य में होने वाला ही है।
मित्रों,सरकार ने अर्थव्यवस्था के इस संक्रमण काल में राजकोषीय घाटा और मुद्रास्फीति को बढ़ानेवाला खाद्य सुरक्षा बिल और नए उद्योगों की स्थापना को लगभग असंभव बना देना वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक अभी-अभी पारित करवाया है। ये तो वही बात हुई कि कोई डायबिटीज का मरीज हो और डॉक्टर उसको जान-बूझकर चीनी खिलाए या कोई सरे बाजार लुट रहा हो और लोगों से मदद की गुहार लगा रहा हो और लोग बजाए उसकी मदद करने के उसको पीटने लगें। अर्थव्यवस्था की वर्तमान दुरावस्था ने सार्वकालिक सत्य को जरूर हमारे सामने एक बार फिर से प्रकट कर दिया है और वो यह है कि हम चाहे जितना भी आर्थिक सुधार कर लें परन्तु तब तक हमारे देश का कुछ भी भला नहीं हो सकता जब तक कि उनको लागू करनेवाले हाथ ईमानदार न हों। वरना सुधारों की बटलोही से देश का कल्याण बाहर नहीं निकलेगा,निकलेगा तो सिर्फ आर्थिक घोटाला।
मित्रों,मैं अपने पूर्व के दो आलेखों समय की जरुरत है अध्यक्षीय शासन प्रणाली (15 जनवरी,2013) और लोकतंत्र का मंदिर नहीं कैदखाना है संसद (6 अगस्त,2013) में निवेदन कर चुका हूँ कि हमारी संसद और संसदीय प्रणाली अब देश पर छाये संकटों से निबटने में सर्वथा असमर्थ है और उसने हमारे लोकतंत्र को ही बंधक बना लिया है। अगर सरकार द्वारा उठाया गया कदम देशविरोधी या सामयिक नहीं था तो फिर विपक्ष ने संसद में सरकार का समर्थन क्यों किया? अगर खाद्य सुरक्षा विधेयक में कोई नई बात नहीं थी बल्कि वह भोजन छीनने वाला कानून था या वोट सुरक्षा बिल था या उससे राजकोषीय घाटा के बढ़ने की संभावना थी तो फिर क्या मजबूरी थी विपक्ष की उसके पक्ष में मतदान करने की? इसी तरह विपक्ष ने सरकार से कदम मिलाते हुए भूमि अधिग्रहण विधेयक,सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक (जिसके द्वारा राजनैतिक दलों को इसकी परिधि से बाहर कर दिया गया) और जन प्रतिनिधित्व कानून संशोधन विधेयक (जिससे दागी नेताओं के चुनाव लड़ने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का आदेश निरस्त हो गया) पर भी विधेयकों के पक्ष में मतदान किया और यह साबित कर दिया कि आज की तारीख में पूरा-का-पूरा संसद देशविरोधी मानसिकता से ग्रस्त है। ऐसे में हम कैसे यह उम्मीद रख सकते हैं कि भविष्य में सत्ता में आने के बाद विपक्ष देशोद्धार की दिशा में अलोकप्रिय व कड़वे कदम उठाएगा? अच्छा तो होता कि हम अगले चुनावों में सरकार के बदलने का इंतजार करने के बजाए भारत में नए तरह का अमेरिका सदृश अध्यक्षीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक वृहत आंदोलन शुरू करते। परन्तु सवाल यह उठता है कि ऐसा करेगा कौन? कहाँ से आएगा ऐसा विश्वसनीय नेतृत्व? बेशक अन्ना हजारे ऐसा कर सकते थे। उन्होंने कुछ दिन पहले अमेरिका की धरती से मेरे इन विचारों का समर्थन भी किया है लेकिन वे जिस तरह बार-बार हमारे वर्तमान भारत के सत्तालोलुप नेताओं कभी नीतीश तो कभी केजरीवाल पर मोहित हो जा रहे हैं उससे एक आम भारतीय का मन उनको लेकर सशंकित हो उठा है। फिर भी मैं समझता हूँ कि अब हम देशभक्तों के लिए वेट एंड वाच का समय नहीं रहा अब कुछ कर गुजरने का समय आ गया है। हमें अब दूसरे स्वतंत्रता संग्राम के लिए कमर कस लेना होगा जो होगा संसद से हमारे लोकतंत्र की आजादी के लिए। ऐसा करके ही हम चीन और पाकिस्तान जैसे गद्दार पड़ोसियों से अपनी सीमाओं व सोनिया,मनमोहन जैसे देशद्रोही नेताओं से अपनी राष्ट्रीय संपदा की रक्षा कर सकते हैं और यह साबित भी कर सकते हैं कि भारत की आजादी के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने गलत कहा था कि अभी भारतीय अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा करने के योग्य नहीं हुए हैं।
अंत में एक ताजातरीन दोहा अर्ज कर रहा हूँ-
रुपया मरा बाजार में
मांगे सरकार का साथ।
सरकार ने की गजब मदद
गले पर रक्खा हाथ।।
मित्रों, हमारी केंद्र सरकार किसी अफीमची की तरह अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार और शर्मनाक हालत के बावजूद पांच करोड़ लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने की बात कर रही है। जबकि सच तो यह है कि अर्थव्यवस्था में नरमी के चलते भारत में रोजगार के नए अवसरों के सृजन में कमी आई है। 2012-13 की अक्टूबर-मार्च अवधि के दौरान देश में रोजगार के नए अवसरों के सृजन की रफ्तार 14.1 प्रतिशत तक घट गई और इस दौरान 2.72 लाख रोजगार पैदा हुए। उद्योग मंडल एसोचैम द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, अक्टूबर-मार्च, 2011 -12 के दौरान 3.17 लाख नौकरियां पैदा हुई थीं। सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत की नरम पड़ती आर्थिक वृद्धि दर और नीतिगत अनिश्चितताओं से नए निवेश आने की रफ्तार धीमी पड़ी है जिससे देशभर में रोजगार सृजन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इतना ही नहीं हमारी सर्वनाशी केंद्र सरकार इस लोकसभा चुनावों में 1971 की तरह एक बार फिर गरीबी हटाओ का नारा देनेवाली है। सिर्फ नारों से अगर गरीबी को भागना होता तो वो कब की भाग चुकी होती। सरकार को खैरात बाँटने के बदले देश के लिए लाभकारी रोजगारों के सृजन के उपाय करने चाहिए क्योंकि दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र भारत में बेराजगारी बढ़ने लगी है। कोरे नारों से न तो आज तक गरीबी का बाल बाँका हुआ है और न ही भविष्य में होने वाला ही है।
मित्रों,सरकार ने अर्थव्यवस्था के इस संक्रमण काल में राजकोषीय घाटा और मुद्रास्फीति को बढ़ानेवाला खाद्य सुरक्षा बिल और नए उद्योगों की स्थापना को लगभग असंभव बना देना वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक अभी-अभी पारित करवाया है। ये तो वही बात हुई कि कोई डायबिटीज का मरीज हो और डॉक्टर उसको जान-बूझकर चीनी खिलाए या कोई सरे बाजार लुट रहा हो और लोगों से मदद की गुहार लगा रहा हो और लोग बजाए उसकी मदद करने के उसको पीटने लगें। अर्थव्यवस्था की वर्तमान दुरावस्था ने सार्वकालिक सत्य को जरूर हमारे सामने एक बार फिर से प्रकट कर दिया है और वो यह है कि हम चाहे जितना भी आर्थिक सुधार कर लें परन्तु तब तक हमारे देश का कुछ भी भला नहीं हो सकता जब तक कि उनको लागू करनेवाले हाथ ईमानदार न हों। वरना सुधारों की बटलोही से देश का कल्याण बाहर नहीं निकलेगा,निकलेगा तो सिर्फ आर्थिक घोटाला।
मित्रों,मैं अपने पूर्व के दो आलेखों समय की जरुरत है अध्यक्षीय शासन प्रणाली (15 जनवरी,2013) और लोकतंत्र का मंदिर नहीं कैदखाना है संसद (6 अगस्त,2013) में निवेदन कर चुका हूँ कि हमारी संसद और संसदीय प्रणाली अब देश पर छाये संकटों से निबटने में सर्वथा असमर्थ है और उसने हमारे लोकतंत्र को ही बंधक बना लिया है। अगर सरकार द्वारा उठाया गया कदम देशविरोधी या सामयिक नहीं था तो फिर विपक्ष ने संसद में सरकार का समर्थन क्यों किया? अगर खाद्य सुरक्षा विधेयक में कोई नई बात नहीं थी बल्कि वह भोजन छीनने वाला कानून था या वोट सुरक्षा बिल था या उससे राजकोषीय घाटा के बढ़ने की संभावना थी तो फिर क्या मजबूरी थी विपक्ष की उसके पक्ष में मतदान करने की? इसी तरह विपक्ष ने सरकार से कदम मिलाते हुए भूमि अधिग्रहण विधेयक,सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक (जिसके द्वारा राजनैतिक दलों को इसकी परिधि से बाहर कर दिया गया) और जन प्रतिनिधित्व कानून संशोधन विधेयक (जिससे दागी नेताओं के चुनाव लड़ने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का आदेश निरस्त हो गया) पर भी विधेयकों के पक्ष में मतदान किया और यह साबित कर दिया कि आज की तारीख में पूरा-का-पूरा संसद देशविरोधी मानसिकता से ग्रस्त है। ऐसे में हम कैसे यह उम्मीद रख सकते हैं कि भविष्य में सत्ता में आने के बाद विपक्ष देशोद्धार की दिशा में अलोकप्रिय व कड़वे कदम उठाएगा? अच्छा तो होता कि हम अगले चुनावों में सरकार के बदलने का इंतजार करने के बजाए भारत में नए तरह का अमेरिका सदृश अध्यक्षीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक वृहत आंदोलन शुरू करते। परन्तु सवाल यह उठता है कि ऐसा करेगा कौन? कहाँ से आएगा ऐसा विश्वसनीय नेतृत्व? बेशक अन्ना हजारे ऐसा कर सकते थे। उन्होंने कुछ दिन पहले अमेरिका की धरती से मेरे इन विचारों का समर्थन भी किया है लेकिन वे जिस तरह बार-बार हमारे वर्तमान भारत के सत्तालोलुप नेताओं कभी नीतीश तो कभी केजरीवाल पर मोहित हो जा रहे हैं उससे एक आम भारतीय का मन उनको लेकर सशंकित हो उठा है। फिर भी मैं समझता हूँ कि अब हम देशभक्तों के लिए वेट एंड वाच का समय नहीं रहा अब कुछ कर गुजरने का समय आ गया है। हमें अब दूसरे स्वतंत्रता संग्राम के लिए कमर कस लेना होगा जो होगा संसद से हमारे लोकतंत्र की आजादी के लिए। ऐसा करके ही हम चीन और पाकिस्तान जैसे गद्दार पड़ोसियों से अपनी सीमाओं व सोनिया,मनमोहन जैसे देशद्रोही नेताओं से अपनी राष्ट्रीय संपदा की रक्षा कर सकते हैं और यह साबित भी कर सकते हैं कि भारत की आजादी के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने गलत कहा था कि अभी भारतीय अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा करने के योग्य नहीं हुए हैं।
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रुपया मरा बाजार में
मांगे सरकार का साथ।
सरकार ने की गजब मदद
गले पर रक्खा हाथ।।
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