शनिवार, 30 सितंबर 2017

दुर्गा पूजा के नाम पर पापाचार

मित्रों, अगर मैं कहूं कि धर्म दुनिया का सबसे जटिल विषय है तो यह कदापि अतिशयोक्ति नहीं होगी. विडंबना यह है कि कई बार जब कोई धर्म अपने मूल स्वरुप में सर्वकल्याणकारी हो तो उसमें स्वार्थवश इतने अवांछित परिवर्तन कर दिए जाते हैं कि वह घृणित हो जाता है तो वहीँ दूसरी ओर कोई धर्म जब अपने मूल स्वरुप में ही राक्षसी होता है और उसमें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन आवश्यक हो जाता है तब उसके अनुयायी परिवर्तन को तैयार ही नहीं होते.
मित्रों, पहले प्रकार के धर्म का सर्वोत्तम उदाहरण बौद्ध धर्म है और दूसरे प्रकार के धर्म का इस्लाम. बुद्ध ने कहा कि ईश्वर होता ही नहीं है लेकिन उनके अनुयायियों ने परवर्ती काल में उनको ही ईश्वर बना दिया. फिर महायान-हीनयान-वज्रयान-तंत्रयान इतने यान आते गए कि बुद्ध द्वारा संसार को दिया गया मूल ज्ञान ही लुप्त हो गया. कुछ ऐसी ही स्थिति कबीर पंथ की हुई. कबीर ने कहा मैं तो कूता राम का मोतिया मेरा नाऊं, गले राम की जेवड़ी जित खींचे तित जाऊं. लेकिन कबीरपंथियों ने उनको इन्सान से सीधे उनके आराध्य राम से भी बड़ा पारब्रह्मपरमेश्वर बना दिया. राधे मां और राम रहीम सिंह ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए खुद को ही भगवान घोषित कर दिया. एक और बाबा थे पंजाब के जिनका जन्म बिहार में हुआ था नाम था आशुतोष महाराज. उनके अनुयायी यह कहकर पिछले ३-४ साल से उनका अंतिम संस्कार नहीं कर रहे हैं कि आशुतोष फिर से जीवित हो जाएंगे. मतलब कि चाहे धर्मगुरु हो या उनके अनुयायी वे धर्म, ईश्वर और नैतिकता की कई बार वैसी व्याख्या करते हैं जिससे उनका स्वार्थ सधता हो. 
मित्रों, दुर्भाग्यवश इस तरह की दुष्टता से जगत की जननी और पालक माँ दुर्गा भी नहीं बची हैं. यह सही है कि मार्कंडेय पुराण के अनुसार दुर्गा माता ने रक्तबीज का खून पीया था और राक्षसों की सेना को सीधे निगल गई थीं लेकिन ऐसा करना युद्धकाल की आवश्यकता थी. रक्तबीज खून के हर बूँद के भूमि पर गिरने से एक रक्तबीज पैदा हो जा रहा था. इसी प्रकार चंड-मुंड के संहार के समय उन्होंने रथ-हाथी-घोड़े और युद्धास्त्रों सहित सीधे-सीधे पूरी सेना को ही निगल लिया था लेकिन वह तो उनकी लीला थी. इसका मतलब यह नहीं कि हम उनको निर्दोष और मजबूर जानवरों की बलि देने लगें. माता ने राक्षसों का संहार किया था न कि निरीह और निर्दोष जानवरों का. इसी पुस्तक के अनुसार महिषासुर-वध से पहले उन्होंने मधुपान किया था जिससे उनके नेत्र लाल हो गए थे. हो सकता है कि यहाँ लेखक ने मदिरा को मधु कहा हो. मगर युद्ध की स्थिति विशेष होती है सामान्य नहीं. कई बार अग्रिम पर्वतीय मोर्चे पर तैनात सैनिकों को भारत सरकार स्वयं शराब उपलब्ध करवाती है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सैनिक शराबी हो जाएँ और रिटायर्मेंट के बाद सामाजिक समस्या बन जाएँ.
मित्रों, अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि पुराणों की रचना गुप्त और परवर्ती गुप्त काल में हुई थी. इतिहास साक्षी है कि यह वही काल था जब बौद्ध और सनातन धर्म पर तांत्रिकों का कब्ज़ा हो चुका था इसलिए हो सकता है कि तांत्रिकों ने जानबूझकर श्री दुर्गा सप्तशती में इस तरह के वर्णन डाल दिए हों जिनमें माता को रक्त-मांसभक्षक और मद्यप बताया गया हो. समयानुसार ईश्वर का रूप कैसे बदलता है इसके बुद्ध के बाद सबसे बड़े प्रमाण हैं श्रीकृष्ण जो महाभारत काल में योगेश्वर होते हैं लेकिन रीतिकाल आते-आते अपने भक्तों द्वारा भोगेश्वर बना दिए जाते हैं.
मित्रों, कहने का तात्पर्य यह कि मां के नाम पर बलि देना, मांस खाना या शराब पीना न केवल गलत है बल्कि अपराध है इसलिए इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए. फिर गीता-प्रेस द्वारा प्रकाशित दुर्गा-सप्तशती में दुर्गा पूजा की जो विधि बताई गयी है उसमें तो कहीं भी इन राक्षसी या तांत्रिक विधियों की चर्चा नहीं है. यानि जब माँ को सात्विक विधि से भी प्रसन्न किया जा सकता है तो फिर राक्षसी कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है?
मित्रों, माता क्या सिर्फ मानवों की माता हैं? क्या वो अन्य प्राणियों की माता नहीं हैं? या फिर अन्य प्राणियों में प्राणरूप में माता की मौजूदगी नहीं है? दुर्गा-सप्तशती तो कहती है कि देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य। प्रसीद विश्वेश्वरी पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य।। (अध्याय ११-३) सम्पूर्ण जगत की माता प्रसन्न होओ. विश्वेश्वरी विश्व की रक्षा करो. देवी तुम्ही चराचर जगत की अधीश्वरी हो. विद्याः समस्तास्तव देवी भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगस्तु. त्वयैकया पूरितम्बयैतत का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः. (अध्याय ११-६) देवी, सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरुप हैं. जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं वे सब तुम्हारी ही मूर्तियां हैं. जगदम्ब एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है. तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? आदि-आदि.
मित्रों, मेरे कहने का मतलब यह है कि जिसको मांस-मदिरा का भक्षण करना है करें (यद्यपि मानव शरीर इसके हिसाब से नहीं बनाया गया है) लेकिन इसमें परम करुणामयी और परमपवित्र माता का नाम न घसीटें-खस्सी मार घरबैया खाए हत्या लेले पाहुन जाए क्यों? मेरी माँ तो करुणा की महासागर हैं, निरंतर अहैतुकी कृपा बरसाने वाली हैं वे कैसे किसी मूक-मजबूर का रक्तपान कर प्रसन्न हो सकती हैं? हाँ मेरी माँ दुष्टों का संहार करनेवाली जरूर हैं और तदनुसार दुष्टता का भी इसलिए माँ के साथ माँ का नाम लेकर कृपया छल करने की सोंचिएगा भी नहीं.
मित्रों, इसी प्रकार कई स्थानों पर दुर्गा पूजा के नाम पर किशोरियों को पुजारियों के साथ अधनंगे रखे जाने की परंपरा है. इस तरह की देवदासी प्रकार की हरेक लोकनिन्दित परंपरा भी तत्काल बंद होनी चाहिए क्योंकि स्वयं दुर्गा सप्तशती कहती है कि प्रत्येक स्त्री स्वयं दुर्गास्वरूप है इसलिए स्त्री की गरिमा और सम्मान के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ करना सीधे-सीधे स्वयं दुर्गा माता की गरिमा और सम्मान के साथ खिलवाड़ करना होगा.


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