रविवार, 7 अक्टूबर 2018

आशिफाओं को समर्पित कविता

इन दिनों
जब भी मैं खिडकियों से बाहर झांकता हूँ,
तो पाता हूँ कि हवा पेड़ों को झंकझोर रही है,
और कह रही है मानों
यूं कि मैं तुम्हें जगा रही हूँ
फिर भी तुम सो रहे हो?
तुम इस तरह कैसे सो सकते हों?
तभी मुझे खुद की स्थिति पर दया आने लगती है
यूं कि मैं भी तो सदियों से सोये हुए और
आज सोशल मीडिया में खोये हुए
लोगों को पिछले कई सालों से
जगा ही तो रहा हूँ
लेकिन लोग जाग नहीं रहे.

इन दिनों भारत के मुक्ताकाश मंच पर
जेसिका लाल हत्याकांड का जीवंत मंचन
हो रहा है,
एक साथ हजारों स्थानों पर
बलात्कार हो रहे हैं, हत्याएं हो रही हैं
लेकिन पोस्टमोर्टेम करनेवाले डॉक्टर से लेकर
जाँच करनेवाले पुलिसवाले तक बता रहे हैं कि
न तो कहीं किसी का रेप हुआ
और न ही कहीं किसी की हत्या ही हुई.
पीडिता जमीन पर चलती हुई पैदल-पैदल
पांव फिसलने से गिर पड़ी
जिससे कुल्हाड़ी से काटने जैसा घाव लग गया;
या सिर में जो सुराख़ थी वो १९६५ की भारत-पाकिस्तान
की लडाई में गोली के लगने से हुई है शायद;
हमारे देश में ट्रेन लेट हो सकती है,
डाक लेट हो सकती है
तो क्या गोली लेट नहीं हो सकती?

इन दिनों भारत के कई महान नेता बता रहे हैं कि
रेप में दुष्कर्मियों की कोई गलती नहीं,
गलती है तो लड़कियों की जो कम कपडे पहनती हैं
खासकर उन लड़कियों की ज्यादा;
जो पालने में झूलते समय सिर्फ डाईपर पहने रहती हैं.
सिर्फ डाईपर.

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