गुरुवार, 12 सितंबर 2019

१९२९ के अमेरिका से भारत की आश्चर्यजनक समानता



मित्रों, इन दिनों भारत में मंदी की चर्चा बड़े जोर-शोर से हो रही है. यह उस भारत में हो रहा है जिसकी सरकार अगले ५ वर्षों में जीडीपी को दोगुना कर देने का दंभ भर रही है. हमारे जैसे फिजूल में देश के लिए चिंतित रहनेवाले लोगों ने पिछले सालों में कई बार सरकार को सचेत भी किया लेकिन सब बेकार.
मित्रों, वर्तमान सरकार किसी भी तरह से अर्थव्यवस्था की दुरावस्था के लिए पिछली सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकती क्योंकि ५ साल का समय कम नहीं होता. पिछले पांच सालों में सरकार ने ऐसा कोई काम नहीं किया है जिससे देश की अर्थव्यवस्था को गति मिलती. अगर हम १९२९ की अमेरिका की महामंदी से वर्तमान भारत की तुलना करें तो आश्चर्यजनक रूप से आज भारत की अर्थव्यवस्था की हालत ठीक वही है जैसी १९२९ में अमेरिका की अर्थव्यवस्था की थी. १९२० के दशक में अमेरिका के सबसे धनी ०.१ प्रतिशत लोगों ने ३४ प्रतिशत बचत को नियंत्रित कर रखा था जबकि देश के ८० प्रतिशत लोगों की कोई बचत ही नहीं थी.
मित्रों, १९२० के दशक के अमेरिका में उद्योग में उत्पादकता तो बढ़ रही थी किन्तु लोगों की मजदूरी उस अनुपात में नहीं बढ़ रही थी. उद्योगपतियों को अधिक मजदूरी नहीं देनी पड़ती थी इसलिए उन्होंने अकूत मुनाफा कमाया किन्तु अगर मजदूरी कम होगी तो उत्पाद खरीदेगा कौन? किसी भी अर्थव्यवस्था के समुचित रूप से काम करने के लिए जरूरी है कि मांग और पूर्ति के संतुलन को कायम रखा जाए. १९२० के दशक के अंत तक अमेरिका में वस्तुओं की आपूर्ति आवश्यकता से अधिक हो गयी किन्तु उन्हें खरीदने के लिए लोगों के पास पर्याप्त पैसे नहीं थे. चूंकि अधिसंख्य अमेरिकियों के पास अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं थी अतः वे इन वस्तुओं को उधार पर खरीदने लगे. 'खरीदो अभी, भुगतान बाद में' की संकल्पना जोर पकड़ने लगी. १९२० के दशक के अंत तक ६० प्रतिशत कारें और ८० प्रतिशत रेडियो सेट किस्तों पर ख़रीदे गए. १९२५ और १९२९ के बीच बकाया किस्तों की कुल रकम १.३८ अरब डॉलर से बढ़कर ३ अरब डॉलर से भी अधिक हो गयी. यह एक खतरनाक स्थिति थी क्योंकि लोगों को अपनी कम आय का अधिकांश भाग विवश होकर अपने पिछले ऋणों की चुकौती के लिए रखना पड़ता था.
मित्रों, तत्कालीन अमेरिकी अर्थव्यवस्था विलास-व्यय और अमीर व्यक्तियों के निवेश पर बहुत अधिक निर्भर थी. यह स्थिति तभी तक चल सकती थी जब तक कि अमीर लोगों को अर्थव्यवस्था पर विश्वास हो. अमेरिकी उद्योग के अनेक क्षेत्र गरीब थे. केवल २०० कम्पनियों ने आधी से अधिक निगमित संपत्ति को नियंत्रित कर रखा था. ऑटोमोबाइल क्षेत्र उन्नति कर रहा था और कृषि क्षेत्र की उपेक्षा हो रही थी. अधिकांश उद्योग, जो १९२० के दशक में फले-फूले, किसी-न-किसी रूप में ऑटोमोबाइल, रेडियो उद्योग, इस्पात, शीशा, रबर टायर, पेट्रोल उत्पादों, होटलों, निर्माण कार्यों आदि के साथ जुड़े हुए थे. स्वाभाविक रूप से यह एक खरतनाक स्थिति थी क्योंकि लोग अनगिनत कारें और रेडियो तो खरीद नहीं सकते थे. जो चीजें रोज खरीदी जाती थीं वे थी खाद्य वस्तुएं. १९२९ तक अमेरिका की कृषि बर्बाद हो चुकी थी.
मित्रों, १९२० के दशक में अमेरिका में सट्टेबाजी की संस्कृति पनपने लगी. चौतरफा निराशा के वातावरण में लोगों ने भारी मुनाफा कमाने की आशा में स्टॉक एक्सचेंजों में निवेश करना शुरू कर दिया, जबकि इस राशि से वे अपने पुराने ऋण चुकता कर सकते थे. वेतन-वृद्धि के अभाव में वे कर भी क्या सकते थे? जल्दी ही लोगों ने अपने ही दलालों से, शेयर खरीदने के लिए पैसे उधार लेना शुरू कर दिया. कोई भी व्यक्ति अपने दलाल से ६५ डॉलर उधार लेकर ७५ डॉलर मूल्य के शेयर खरीद सकता था, इसके लिए उसे १० डॉलर ही अपनी जेब से देने होते थे. इस प्रकार की बेतहाशा खरीद से शेयरों के दाम आसमान छूने लगे. एक साल के भीतर ही खरीदार उन्हीं शेयरों को ४२० डॉलर में बेच सकता था और ब्याज सहित अपने दलाल को ऋण चुका सकता था और पर्याप्त राशि घर भी ले जा सकता था. किन्तु सट्टेबाजी में आया यह उछाल मजबूत आधारों पर टिका हुआ नहीं था. अनेक कम्पनियाँ, जिनके शेयरों की कीमत बहुत ज्यादा बढ़ी हुई थी, वास्तव में अच्छी स्थिति में नहीं थी.
मित्रों, १९२९ की गर्मियों तक शेयर दलालों को देय कुल बकाया ऋण ७ अरब डॉलर से अधिक था. अगली तिमाही में यह बढ़कर ८.५ अरब डॉलर हो गया. अचानक शेयरों के दाम गिरने लगे. फिर ये ये दाम इतने गिर गए कि लोगों के पास जो भी शेयर थे वे उन्हें बेचने लगे. 'काले मंगलवार' यानि २९ अक्टूबर १९२९ को दाम इतने गिर गए कि शेयरों को किसी भी दाम पर खरीदने के लिए कोई भी खरीदार नहीं बचा.
मित्रों, स्टौक मार्केट के यूं ढह जाने के बाद अमेरिका के 'चंद' धनाढ्य लोगों का भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था में विश्वास जाता रहा. उन्होंने विलासिता की वस्तुओं पर खर्च कम कर दिया और निवेश धीमा कर दिया. मध्य वर्ग और गरीब वर्ग तो अपने पुराने ऋणों को ही नहीं चुका पा रहा था; बहुत ही कम लोगों ने कार और रेडियो खरीदने के लिए नए ऋण लिए. मांग में कमी से सभी उद्योग प्रभावित हुए और इस प्रकार औद्योगिक उत्पादन में भारी गिरावट आ गयी. परिणामतः भारी संख्या में मजदूरों की छंटनी कर दी गयी. १९३० में बेरोजगारों की संख्या ५० लाख थी वह १९३२ में बढ़कर १३० लाख हो गई. देश महाविपत्ति से घिर चुका था. इस घटना को 'महामंदी' के नाम से भी जाना जाता है.
मित्रों, दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं-एक जो दूसरों की गलतियों से सबक लेते हैं और दूसरे जो दूसरों की गलतियों से सबक नहीं लेते और खुद के लिए महाविपत्ति की प्रतीक्षा करते हैं. अब यह भारत सरकार पर निर्भर है कि वो १९२९ की अमेरिका की महामंदी से सबक लेकर समय रहते निवारण के उपाय करती है या फिर देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह से ढह जाने का इंतज़ार करती है. वैसे भी ऐसे वित्त मंत्री से हम क्या आशा रखें जो उबर और ओला को मंदी के लिए जिम्मेदारी ठहरा रही हों. सरकार के समक्ष इस समय क्या रास्ते हैं इस पर चर्चा अगले आलेख में.

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