सोमवार, 6 जनवरी 2020

ननकाना साहिब के सबक

मित्रों, यह वह समय था जब पूरे उत्तर भारत पर लगातार मुस्लिम आक्रान्ताओं के हमले हो रहे थे और हताश हिन्दू मन के पास आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में सिवाय भगवान की शरण में जाने के और कोई विकल्प ही नहीं था. इन्हीं परिस्थितियों में भारत में भक्ति आन्दोलन ने जन्म लिया जिसने हिन्दू धर्म को पुनर्जीवन तो दिया ही हिंदी साहित्य को भी समृद्ध किया.
मित्रों, भक्ति आन्दोलन की गंगा को विद्वानों ने दो भागों में विभाजित किया है-निर्गुण और सगुण. इसी पहले वाले निर्गुण पंथ के प्रवर्तकों में से एक थे गुरु नानक. गुरु नानक ने सरल और सहज जीवन का उपदेश दिया. उन्होंने कहा कि ईश्वर एक है। सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो। ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है. ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता। ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।
बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएं. सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा मांगनी चाहिए। मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए। सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं। भोजन शरीर को जि़ंदा रखने के लिए ज़रूरी है पर लोभ−लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।
मित्रों, बाद के समय में जब मुग़ल शासन में भारत में हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया जाने लगा और मना करने पर उनकी हत्या होने लगी और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाने लगे तब सिख पंथ के छठे गुरु हरगोविंद सिंह ने कहा कि जरुरत पड़ने पर धर्म रक्षा के लिए तलवार उठाना भी हमारे धर्म का भाग है. इसके लिए पंजाब के प्रत्येक हिन्दू परिवार से एक व्यक्ति बलिदानी सैनिक बनने लगा. यह परंपरा पंजाब में आज भी कायम है. बाद में औरंगजेब ने जब कश्मीर में हिन्दुओं के धर्म-परिवर्तन का हिंसक अभियान चलाया तब कश्मीरी हिन्दू नवम गुरु गुरु तेगबहादुर के पास अपनी शिकायत लेकर पहुँचने लगे. उस समय गुरूजी बिहार की राजधानी पटना में रह रहे थे. गुरूजी ने अपने परिवार के समक्ष सनातन धर्म पर छाए संकट का जिक्र करते हुए कहा कि किसी महान आत्मा को बलिदान देना पड़ेगा अन्यथा धर्म-रक्षा नहीं हो पाएगी. तब बालक गोविन्द ने कहा था कि पिताजी किसी और का इंतजार क्यों, आप खुद बलिदान क्यों नहीं देते? तब सनातन धर्म के प्रतिनिधि बनकर गुरु तेगबहादुर दिल्ली गए और औरंगजेब से धर्म के नाम पर अत्याचार बंद करने को कहा. तब अत्यंत अत्याचारी औरंगजेब ने शर्त रखी कि अगर आपने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो सारे कश्मीरियों को भी इस्लाम स्वीकार करना पड़ेगा. उसके बाद औरंगजेब ने गुरूजी पर बेइंतहा जुल्म किए मगर गुरूजी सबको सह गए. अंत में उसने गुरूजी का सिर कटवा दिया. यह घटना जहाँ घटी वहां आज गर्व से खड़ा शीशगंज गुरुद्वारा शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले की कहावत को चरितार्थ कर रहा है.
मित्रों, इसके बाद तो औरंगजेब जैसे पागल ही हो गया और उसने हिन्दुओं के ऊपर और भी ज्यादा अत्याचार ढाहना शुरू कर दिया. तब बलिदानी गुरु तेगबहादुर जी के बेटे और सिखों के दशम और अंतिम गुरु गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने धर्म रक्षा के लिए तलवार उठाई और सर्वस्व बलिदान का आह्वान किया. वर्ष १७०४ ई. के उत्तरार्द्ध में सरसा नदी पर गुरु गोबिंद सिंह जी का परिवार हमेशा के लिए जुदा हो गया. एक ओर जहां बड़े साहिबजादे अजित सिंह और जुझार सिंह गुरु जी के साथ चले गए, वहीं दूसरी ओर छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह, माता गुजरी जी के साथ रह गए थे। उनके साथ ना कोई सैनिक था और ना ही कोई उम्मीद थी जिसके सहारे वे परिवार से वापस मिल सकते। अचानक रास्ते में उन्हें अपना ब्राह्मण नौकर गंगू मिल गया, जो किसी समय पर गुरु महल में उनकी सेवा करता था। गंगू ने उन्हें यह आश्वासन दिलाया कि वह उन्हें उनके परिवार से फिर से मिलाएगा और तब तक के लिए वे लोग उसके घर में रुक जाएं। माता गुजरी जी और साहिबजादे गंगू के घर चले तो गए लेकिन वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे। गंगू ने लालच में आकर तुरंत वजीर खां को गोबिंद सिंह की माता और छोटे साहिबजादों के उसके यहां होने की खबर दे दी जिसके बदले में वजीर खां ने उसे सोने की मोहरें भेंट की। खबर मिलते ही वजीर खां के सैनिक माता गुजरी और 7 वर्ष की आयु के साहिबजादा जोरावर सिंह और 5 वर्ष की आयु के साहिबजादा फतेह सिंह को गिरफ्तार करने गंगू के घर पहुंच गए। उन्हें लाकर ठंडे बुर्ज में रखा गया और उस ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक ना दिया गया। दिसंबर १७०४ में रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया। कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबजादों ने ज़ोर से जयकारा लगा “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल”। यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता लेकिन गुरु जी की नन्हीं जिंदगियां ऐसा करते समय एक पल के लिए भी ना डरीं। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबजादों को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा. तब दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं’। वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए राज़ी करना चाहा, लेकिन दोनों अपने निर्णय पर अटल थे। आखिर में दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। कहते हैं दोनों साहिबजादों को २७ दिसंबर १७०४ को जब दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने ‘जपुजी साहिब’ का पाठ करना शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद अंदर से जयकारा लगाने की आवाज़ भी आई। ऐसा कहा जाता है कि वजीर खां के कहने पर दीवार को कुछ समय के बाद तोड़ा गया, यह देखने के लिए कि साहिबजादे अभी जिंदा हैं या नहीं। तब दोनों साहिबजादे जीवित थे, लेकिन मुगल मुलाजिमों का कहर अभी भी जिंदा था। उन्होंने दोनों साहिबजादों को जबर्दस्ती मौत के गले लगा दिया। उधर दूसरी ओर साहिबदाजों की शहीदी की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने अकाल पुरख को इस गर्वमयी शहादत के लिए शुक्रिया किया और अपने प्राण त्याग दिए।
मित्रों, लगभग उसी समय दिसंबर १७०४ के अंतिम सप्ताह में बड़े साहबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर के युद्ध में  अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए पांच प्यारों ने अजीत सिंह को समझाने की कोशिश की कि वे ना जाएं, क्योंकि वे ही सिख धर्म को आगे बढ़ाने वाली अगली शख्सियत हो सकते हैं लेकिन पुत्र की वीरता को देखते हुए गुरु जी ने अजीत सिंह को निराश ना किया। ‌ उन्होंने स्वयं अपने हाथों से अजीत सिंह को युद्ध लड़ने के लिए तैयार किया, अपने हाथों से उन्हें शस्त्र दिए थमाए और पांच सिखों के साथ उन्हें किले से बाहर रवाना किया। कहते हैं रणभूमि में जाते ही अजीत सिंह ने मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया। अजीत सिंह कुछ यूं युद्ध कर रहे थे मानो स्वयं भगवन शिव शस्त्र धारण कर असुरों से लड़ने के लिए आ गए हों. अजीत सिंह एक के बाद एक वार कर रहे थे, उनकी वीरता और साहस को देखते हुए मुगल फौज पीछे भाग रही थी लेकिन वह समय आ गया था जब अजीत सिंह के तीर खत्म हो रहे थे। जैसे ही दुश्मनों को यह अंदाज़ा हुआ कि अजीत सिंह के तीर खत्म हो रहे हैं, उन्होंने साहिबजादे को घेरना आरंभ कर दिया। लेकिन तभी अजीत सिंह ने म्यान से तलवार निकाली और बहादुरी से मुगल फौज का सामना करना आरंभ कर दिया। कहते हैं तलवार बाजी में पूरी सिख फौज में भी अजीत सिंह को कोई चुनौती नहीं दे सकता था तो फिर ये मुगल फौज उन्हें कैसे रोक सकती थी। अजीत सिंह ने एक-एक करके मुगल सैनिकों का संहार किया, लेकिन तभी लड़ते-लड़ते उनकी तलवार भी टूट गई। 17 वर्ष की आयु में शहीद हुए अजित ने फिर अपनी म्यान से ही लड़ना शुरू कर दिया, वे आखिरी सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वह समय आया जब उन्होंने शहादत को अपनाया और महज़ 17 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए। इसके बाद गुरु जी के मंझले बेटे जुझार सिंह जिनकी आयु मात्र १५ वर्ष थी, भी तलवार लेकर मैदान में आ गए और अतुलनीय वीरता प्रदर्शित करते हुए शहादत दी.
मित्रों, बाद के समय में भी जब आवश्यकता महसूस हुई सिखों ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए बढ़-चढ़ कर बलिदान दिया. इतिहास गवाह है कि १७०८ ई. में गुरूजी की कायरपूर्ण हत्या के बाद डोगरा राजपूत परिवार में जन्मे माधो दास उर्फ़ लक्ष्मण दास उर्फ़ बंदा बहादुर सिंह ने सिखों को एकजुट किया और पूरे पंजाब में मुगलों के खिलाफ जंग छेड़ दी. बन्दा सिंह बहादुर उर्फ़ बंदा बैरागी एक सिख सेनानायक थे। वे पहले ऐसे सिख राजपूत सेनापति हुए, जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी। यही नहीं, उन्होंने गुरु नानक देव और गुरू गोविन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहरे जारी करके निम्न वर्ग के लोगों को उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मज़दूरों को ज़मीन का मालिक बनाया। उनको भी मुगलों ने अपने सैन्यबल के बल पर बंदी बना लिया और अपार अमानुषिक यातनाएं दीं. यहाँ तक कि उनके मुंह में उनके बेटे का मांस तक ठूंसा गया, गर्म चिमटे से उनके शरीर से मांस नोचा गया और गर्म तवे पर बिठाया गया. लेकिन वे बंदा बैरागी को मुसलमान नहीं बना सके.अन्ततः १६ जून, १७१६ को मुग़ल बादशाह फर्रुख्सियर के आदेश पर बंदा के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए.
मित्रों, इसी तरह पूरा सनातन परिवार रामसिंह कूका का हमेशा ऋणी रहेगा जिन्होंने १८६०-७० के दशक में गोहत्या के खिलाफ अपने समस्त नामधारी शिष्यों के साथ संघर्ष किया और अनंत यातनाएं झेलीं. अयोध्या के राम मंदिर में भी सबसे पहले पूजन और हवन करने का श्रेय निहंग सिखों को जाता है जिन्होंने नवम्बर-दिसंबर १८५८ में वहां बाबरी ढांचे में रातों-रात चबूतरा बनाकर भगवान राम की प्रतिमा स्थापित की थी.इस घटना का वर्णन माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने निर्णय किया है.
मित्रों,आश्चर्य है कि ऐसे सिखों को कैसे सियासत और कुर्सी के लिए हिन्दुओं से अलग बताया जाता है? क्या बंटवारे के समय हिन्दुओं और सिखों को एक साथ जेहादी हिंसा का शिकार नहीं होना पड़ा था? आश्चर्य तो इस बात पर भी होता है कि कैसे झारखण्ड में अभी हाल ही में आदिवासियों को भी हेमंत सोरेन ने अहिंदू बता दिया? इससे पहले बौद्धों और जैनियों को भी सनातन धर्म से अलग कर देने की कुचेष्टा हो चुकी है जबकि हिन्दू भगवन बुद्ध और महावीर दोनों की पूजा करते हैं. दलितों को लेकर भी इस तरह के गंदे प्रयास किए जा रहे हैं. हद हो गयी. कुर्सी का खेल खेलो खूब खेलो लेकिन सनातन धर्म को बांटकर कमजोर नहीं करो अन्यथा देश कमजोर होगा.
मित्रों, तो हम बात कर रहे थे सिखों की. उन्हीं सिखों के पहले गुरु गुरु नानकदेव जी के जन्मस्थान ननकाना साहिब पर अभी कुछ दिन पहले वहां के स्थानीय मुसलमानों ने हमला किया है और गुरूद्वारे के दरवाजे को तोड़ दिया है. इससे पहले वहां के ग्रंथि भगवान सिंह जी की पुत्री का भी अपहरण कर अगस्त महीने में जबरन मुस्लिम लड़के के साथ विवाह कर दिया गया था. हम समझ सकते हैं कि पूरी दुनिया में प्रसिद्ध ननकाना साहिब पर जब हमला और पथराव हो सकता है तो पाकिस्तान में आम सनातन धर्मियों की क्या स्थिति होगी? एक तरफ जहाँ पूरी कथित धर्मनिरपेक्ष लॉबी सीएए के खिलाफ सड़क पर है जो भारत के मुस्लिम पडोसी देशों में प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करनेवाला कानून है वहीँ पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार लगातार बढ़ता ही जा रहा है. जो लोग समझते हैं कि मुस्लिमों के बहुसंख्यक होने के बाद भी भारत में कुछ भी नहीं बदलेगा उनके लिए ननकाना साहिब पर हुआ हमला एक सबक है. भारत सरकार को चाहिए कि ननकाना साहिब की त्रासद घटना से सबक लेते हुए जल्द-से-जल्द जनसंख्या नियंत्रण बिल लाए जिससे देश का जनसँख्या अनुपात स्थिर हो जाए और भारत को भविष्य में शरियत का शासन न देखना पड़े.
मित्रों, इसके साथ ही समान नागरिक संहिता को भी अविलम्ब लागू किया जाना चाहिए जो संविधान के निर्माण के समय से ही भारतीय संविधान के भाग चार के अनुच्छेद ४४ में कैद अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहा है. हमारे शास्त्र कहते हैं शठं शाठ्यम समाचरेत. अर्थात सरल शब्दों में लात के देवता बातों से नहीं मानते. जिस तरह से मोदी सरकार ने देश की ऐतिहासिक भूलों में सुधार करने का अभी अभियान चला रखा है हमें पूर्ण विश्वास है कि वो अविलम्ब इन दोनों कानूनों का निर्माण कर भारत को पाकिस्तान बनने से बचा लेगी क्योंकि पता नहीं कब फिर से भाजपा की सरकार केंद्र में बने या न बने.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें