मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

भारत को चाहिए विकास का नया मॉडल


मित्रों, भारत जब आजाद हुआ तब देश के समक्ष बड़ी महती समस्याएँ थीं. सबसे बड़ा सवाल जो भारत के नीति निर्माताओं के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था वो यह था कि भारत को कौन-सा विकास मॉडल चुनना चाहिए. उस समय दुनिया में दो तरह की अर्थव्यवस्था थी-अमेरिका वाली पूंजीवादी और सोवियत संघ वाली समाजवादी. चूंकि नेहरु भारत को गुटनिरपेक्ष दिखाना चाहते थे इसलिए उन्होंने दोनों में से थोड़े-थोड़े गुणों को समाहित करते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था का चयन किया. देखते-देखते गाँव और शहर दोनों बदलने लगे. पशुधन आधारित कृषि का तीव्र यंत्रीकरण कर दिया गया और उसको हरित क्रांति का नाम दिया गया.

मित्रों, उधर शहरों में बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना भी की जा रही थी जिनमें बड़े पैमाने पर श्रम की आवश्यकता थी. अब गाँव के मजदूरों के पास एक विकल्प उपलब्ध था जिससे गांवों से देश के पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी भागों की तरफ पलायन शुरू हुआ. कांग्रेस की किराया समानीकरण की नीति के चलते खनिज उत्पादक राज्य मुंह देखते रह गए और कालांतर में मजदूरों के आपूर्तिकर्ता मात्र बनकर रह गए. उधर गांवों में सिर्फ गेंहू और धान के उत्पादन को बढ़ावा देने से कृषि से विविधता समाप्त हो गयी और मोटे अनाजों की खेती लगभग बंद हो गयी.

मित्रों, सदियों से हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था एक बंद अर्थव्यवस्था थी. ग्रामीणों की जरुरत की सामग्री गांवों में ही उत्पादित की जाती थी जिससे प्रत्येक गाँव अपने-आपमें आत्मनिर्भर था. तब लोगों की जरूरतें भी कम थीं. लेकिन १९४७ के बाद गांवों की अर्थव्यवस्था को बंद से खुली अर्थव्यवस्था में बदल दिया गया और वो भी जबर्दस्ती. अब गाँव के लोगों को कृषि के लिए रासायनिक खाद और कीटनाशकों की जरुरत पड़ने लगी जिनका उत्पादन बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बड़े-बड़े शहरों में करती थीं. प्रमाणित व संकर किस्म के बीजों का प्रचालन बढाया गया जिससे भोजन से स्वाद गायब हो गया साथ ही पौष्टिकता पर भी असर पड़ा.

मित्रों, १९९० में सोवियत संघ के विघटन के बाद अचानक पूरी दुनिया में पूंजीवाद और निजीकरण ने जोर पकड़ा साथ ही उपभोक्तावाद ने भी. भारत भी इससे अछूता नहीं रहा और शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी व्यय में समय के साथ कमी आती गयी. इसका असर यह हुआ कि सरकारी स्कूलों में पढाई का स्तर गिरने लगा जिससे गाँव के लोग मजबूरी में आस-पास के शहरों में बसने लगे और शहरीकरण काफी तेज हो गया.

मित्रों, इन सभी कारणों से गांवों में एक तरफ मजदूरों तो दूसरी तरफ किसानों की संख्या घटती गयी और गांवों के घरों में ताले लटकने लगे. मगर जैसे ही कोरोना महामारी के चलते देश में लॉक डाउन करना पड़ा पूरा विकास मॉडल चरमरा गया. भारी संख्या में मजदूर अपने घरों से हजारों किमी दूर फंस गए. उनकी हालत ऐसी हो गई है कि वे अपने कार्यस्थलों पर न तो रह सकते हैं और न ही अपने घर ही जा सकते हैं. अगर इन मजदूरों को अपने घरों के आस-पास ही काम मिल गया होता तो इनको अपने गांवों से बाहर निकलना ही नहीं पड़ता. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत सरकार को अब उद्योगों का भी विकेंद्रीकरण करना होगा जिससे सिर्फ क्षेत्र विशेष में उद्योगों का जमघट न हो और कोरोना महामारी जैसी परिस्थितियों में मजदूर घर से बहुत दूर फंस न जाएँ. हालाँकि अब कृषि में सौ-पचास साल पहले वाला समय नहीं लौटाया जा सकता है क्योंकि मनुष्य मूलतः सुविधाभोगी होता है लेकिन कृषि आधारित लघु और माध्यम उद्योगों को स्थापित कर गांवों को आत्मनिर्भर जरूर बनाया जा सकता है इसके लिए उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले का अनुकरण किया जा सकता है. साथ ही बढती जनसंख्या को भी रोकना होगा.

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