गुरुवार, 9 जुलाई 2020

कोरोना के प्रति लापरवाही खतरनाक



मित्रों, आजादी के बाद से ही हम भारतियों में एक अजीबोगरीब प्रवृत्ति ने जन्म लिया है. हम हर काम के लिए सरकार की तरफ देखते हैं. मानो हमारा कोई कर्त्तव्य ही नहीं है. नाली गन्दी है तो सरकार साथ कराए, बांध टूट रहा है तो सरकार मरम्मत करवाए, सड़क में छोटा सा गड्ढा है तो सरकार भरवाए. यहाँ तक कि हम घर में एक डंडा तक नहीं रखते और जब हमारे साथ कोई अपराधिक घटना घट जाती है तो सरकार को कोसते हैं.

मित्रों, हमारी केंद्र सरकार ने कोरोना को लेकर तभी से कदम उठाने शुरू कर दिए  थे जब यह हमारे देश में आया भी नहीं था. फिर भी अहतियातन कदम उठाते हुए सरकार ने लॉक डाउन की घोषणा की जो चार चरणों में २४ मार्च से पूरे मई तक चला. इस दौरान उत्पादन और विक्रय पूरी तरह से बंद होने के कारण अर्थव्यवस्था की हालत ख़राब होने लगी. साथ ही मजदूरों को घर पहुँचाने की समस्या भी खडी हो गयी. बहुत-से मजदूरों को तो हजारों किलो मीटर पैदल भी चलना पड़ा. अंततः सरकार को मजबूरन १ जून से अनलॉक को प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी और धीरे-धीरे शिक्षण संस्थानों, मॉल और सिनेमा घरों को छोड़कर सबकुछ खोल दिया गया लेकिन सरकार की इस अपील के साथ कि लॉक डाउन ख़त्म हुआ है कोरोना ख़त्म नहीं हुआ इसलिए पहले की तरह ही सावधानियां बरती जाए जिसमें बेवजह घर से नहीं निकलना, दो गज की दूरी बनाए रखना, मास्क का प्रयोग करना और बार-बार साबुन से हाथ धोना शामिल है. लेकिन ऐसा देखा गया कि अन लॉक की प्रक्रिया शुरू होते ही लोग कोरोना को लेकर लापरवाह हो गए. यहाँ तक कि पुलिसकर्मी भी दो गज की दूरी को लेकर लापरवाही बरतने लगे जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जिन ईलाकों में अभी तक इस वैश्विक बीमारी का प्रकोप कम था वहां भी यह बम की तरह फूटने लगा.

मित्रों, बिहार में तो स्थिति इतनी ख़राब हो गई कि आज से बिहार के पांच जिलों में आज से फिर से लॉक डाउन लगाना पड़ रहा है. देश के बांकी राज्यों में भी कमोबेश यही हालात है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कब हम अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे? क्या सरकार आकर हमें बसों और ऑटो में बिठाएगी? क्या प्रधानमंत्री अपने हाथों से हमें आकर मास्क पहनाएंगे? क्या सरकार आकर हमारे हाथ साबुन से धुलवाएगी? क्या हम खुद से इतना भी नहीं कर सकते? क्या हम गोद के बच्चे हैं? अगर हाँ, तो हम कब बड़े होंगे?

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