गुरुवार, 31 दिसंबर 2020
अलविदा २०२० स्वागत २०२१
मित्रों, मुझे याद आ रहा है जब एक साल पहले २०२० की शुरुआत हो रही थी तब मैंने अपने ज्येष्ठ पुत्र भगत सिंह को मजाकिया लहजे में कहा था कि इसका तो नाम ही २०-२० है सो ये साल तो देखते-देखते चुटकियों में बीत जाएगा. मुझे तो क्या भारत में किसी को पता नहीं था कि यह साल इस तरह भयानक तरीके से बीतनेवाला है.
मित्रों, होली तक तो सब ठीक था लेकिन फिर जैसे अचानक सबकुछ बदल गया. गाड़ियों का परिचालन बंद हो गया, फैक्ट्रियां बंद हो गई, स्कूल, दुकानें, मॉल सब बंद. सड़कों पर मजदूरों का सैलाब. हर कोई जहाँ भी था जल्दी-से-जल्दी अपने गाँव और घर पहुँच जाना चाहता था. हजारों लोग तो हजारों किमी पैदल चलकर घर गए. कई सारे मजदूर रेल की पटरी पर सोते हुए ट्रेन से कटकर मर गए. कई जेठ की दोपहरी में पैदल चलते-चलते मौत की गोद में सो गए.
मित्रों, जाहिर है कि जब सब कुछ बंद था तो अर्थव्यवस्था की तो बाट लगनी ही थी. सो लगी. इस बीच चीन उसी चीन ने जिसने बड़े ही सोचे-समझे तरीके से दुनिया को कोरोना की आग में झोंक दिया था भारत-चीन सीमा पर घुसपैठ कर दी. मजबूरन भारत को भी अपनी सेना सीमा पर भेजनी पड़ी और कई सारे नए सियाचिन पैदा हो गए जो भविष्य में वर्षों तक भारत की जेब पर भारी पड़नेवाले हैं.
मित्रों, बच्चे घर में बैठे-बैठे उब गए, हजारों नौकरीपेशा लोग जिनमें हजारों पत्रकार भी शामिल थे को या तो नौकरी से हाथ धोना पड़ा या फिर वेतन कटौती झेलनी पड़ी. दूसरी तरफ बहुत सारे व्यवसायियों के सामने जीवन-मृत्यु का प्रश्न खड़ा हो गया. एक तरह आमदनी का पूरी तरह बंद या कम हो जाना और दूसरी तरफ कमरतोड़ लगातार बढती महंगाई और बैंक की किश्तें.
मित्रों, इन सबके बीच बस एक ही बात भारतीयों के लिए संतोषजनक थी और वो यह थी कि सिर्फ भारत ही नहीं चीन को छोड़कर पूरी दुनिया २०२० में परेशान रही. जर्मनी, इटली, स्पेन आदि देशों में तो शवों के ढेर लग गए जबकि भारत में अपेक्षाकृत कोरोना से मरनेवालों को संख्या कम रही.
मित्रों, अब जबकि २०२० समाप्त होनेवाला है तब भी भारत में कई चीजें बंद हैं. बच्चे अभी भी घरों में ही कैद हैं. इस बीच इंग्लैण्ड में कोरोना का नया स्ट्रेन सामने आया है जो भारत में भी प्रवेश कर चुका है. उम्मीद करनी चाहिए कि इसका भारत पर कम-से-कम असर होगा और जल्दी ही भारत में जीवन और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएंगे. निराशा का कोई कारण नहीं है क्योंकि मानवता इससे पहले इससे भी बुरा समय और दौर देख चुकी है. हम पहले भी जीते थे और इस बार भी जीतेंगे चीन, पाकिस्तान, तुर्की जैसे देशों, इस्लाम जैसे मजहब और माओवाद जैसी विचारधारा की मौजूदगी के बावजूद जीतेंगे. जरुरत है तो बस धैर्य बनाए रखने की. स्वागत २०२१.
नए साल का,नया सबेरा,
जब, अम्बर से धरती पर उतरे,
तब,शान्ति,प्रेम की पंखुड़ियाँ,
धरती के कण-कण पर बिखरे.
रविवार, 27 दिसंबर 2020
मनुस्मृति का मूल्यांकन
मित्रों, हम सभी जानते हैं कि सनातन धर्म किसी एक धर्मग्रन्थ के आधार पर नहीं चलता. साथ ही इसमें हमेशा-से एक लचीलापन रहा है अर्थात इसमें कभी कट्टरता नहीं रही है. फिर भी जब अंग्रेज भारत आए तो उन्होंने मनुस्मृति को उसी प्रकार हिन्दुओं का आधार-ग्रन्थ मान लिया जैसे कि दुनियाभर के मुसलमानों के लिए कुरान एक मात्र आधार-ग्रन्थ है.
मित्रों, हमें मनुस्मृति का निष्पक्ष मूल्यांकन करने से पहले यह जान लेना चाहिए कि स्मृति होती क्या है. सनातन धर्म में कई सारी स्मृतियाँ हैं जो तत्कालीन समाज को व्यवस्थित करने के लिए लिखी गईं. तब लगातार विदेशी जातियों का भारत में आगमन हो रहा था. साथ ही वर्णसंकरता को रोकने और उससे उत्पन्न संतानों को जाति व वर्ण व्यवस्था में स्थान देने की चुनौती लगातार बनी हुई थी अतः समय-समय पर कई सारी स्मृतियों की रचना की गई जिनमें मनुस्मृति सबसे पुरानी मानी जाती है.
मित्रों, वैसे तो लगभग सारे हिन्दू धर्म-ग्रंथों के साथ छेड़-छाड़ की गई है और मनुस्मृति भी अपवाद नहीं है लेकिन हम यहाँ उन अपवादों को परे रखते हुए उसी मनुस्मृति का मूल्यांकन करेंगे जो हमें आज भी प्राप्त है. खासकर हम यह देखेंगे कि मनुस्मृति में स्त्रियों और शूद्रों के बारे में क्या कहा गया है.
मित्रों, भारतीय समाज में ऋग्वैदिक काल के बाद से ही स्त्रियों और शूद्रों को हमेशा हीन की श्रेणी में रखा गया है. तथापि हम पाते हैं कि मनुस्मृति में स्त्रियों को यह कहते हुए उत्तम स्थान दिया गया है कि
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। मनुस्मृति ३/५६ ।।
अन्वय: यत्र तु नार्यः पूज्यन्ते तत्र देवताः रमन्ते, यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) ।
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।। मनुस्मृति ३/५७ ।।
अन्वय: यत्र जामयः शोचन्ति तत् कुलम् आशु विनश्यति, यत्र तु एताः न शोचन्ति तत् हि सर्वदा वर्धते ।
जिस कुल में स्त्रियाँ कष्ट भोगती हैं,वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती है वह कुल सदैव फलता फूलता और समृद्ध रहता है ।
मित्रों, किन्तु जब वही मनु शूद्रों पर बात करते हैं तो काफी निर्मम प्रतीत होते हैं. मनु कहते हैं कि
द्विकं त्रिकं चतुष्कं च पंचकंचशतं समं।
मासस्य वृद्धिं गृह्याद्वर्णानामनुपूर्वशः ।। मनुस्मृति ८/१४२ ।।
मित्रों, किन्तु जब वही मनु शूद्रों पर बात करते हैं तो काफी निर्मम प्रतीत होते हैं. मनु कहते हैं कि
द्विकं त्रिकं चतुष्कं च पंचकंचशतं समं।
मासस्य वृद्धिं गृह्याद्वर्णानामनुपूर्वशः ।। मनुस्मृति ८/१४२ ।।
अर्थात ऋणदाता को चाहिए कि वह वर्णानुसार ब्राह्मण से दो प्रतिशत, क्षत्रिय से तीन प्रतिशत, वैश्य से चार प्रतिशत और शूद्र से पांच प्रतिशत ब्याज हर माह वसूल करे. इतना ही नहीं मनु कहते हैं कि अगर कोई शूद्र किसी द्विज जो अपशब्द कहे तो उसी जीभ काट लेनी चाहिए. साथ ही अगर कोई शूद्र किसी द्विज के नाम या जाति का उपहास करे तो उसके मुंह में दस अंगुल लम्बी तप्त लौह-शलाका डाल देनी चाहिए. यदि शूद्र दर्प में आकर द्विजों को धर्मोपदेश दे तो उसके मुंह और कान में खौलता हुआ तेल डाल देना चाहिए. शूद्र जिस अंग से द्विजों पर आघात करे उसका वह अंग कटवा देना चाहिए. मनुस्मृति ८/ २६९,२७०, २७१, २७८.
मित्रों, इस प्रकार हम पाते हैं कि धर्म की अच्छी परिभाषा देने और वृद्धों, स्त्रियों और शिक्षकों को सम्मान देने सम्बन्धी सुन्दर सुभाषितों के बावजूद मनुस्मृति हिन्दू समाज के एक महत्वपूर्ण अंश शूद्रों के प्रति काफी निर्मम हैं. साथ ही मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि उस समय भी हिन्दू बड़े पैमाने पर मांस खाते थे भले ही खाने से पहले उनकी बलि दी जाए. मैं ऐसा बेहिचक कह सकता हूँ कि अगर मैं बाबा साहब की जगह होता तो मैं भी एक शूद्र होने के नाते मनुस्मृति को पसंद नहीं करता. हालांकि जैसा कि मैंने शुरुआत में ही कहा कि सनातन धर्म शुरू से ही काफी लचीला रहा है और हमेशा इसमें सुधार और विरोध की गुंजाईश रही है. स्वयं भगवान बुद्ध के समय भारत में वैदिक धर्म से ईतर ५ दर्जन के लगभग दर्शन और संप्रदाय प्रचलन में थे और उनके बीच कभी कोई हिंसक संघर्ष नहीं हुआ.
रविवार, 20 दिसंबर 2020
सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार का सुप्रीम झूठ
मित्रों, हम बचपन से ही पढ़ते आ रहे हैं कि भारत में जनसँख्या विस्फोट की स्थिति है जो लगातार भयावह रूप लेती जा रही है. गांवों और शहरों में खेत और बगीचे कंक्रीट के जंगल में बदलते जा रहे हैं. प्रदुषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है. बेरोजगारी चरम पर है. अपराध बढ़ रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार की मानें तो जनसँख्या-विस्फोट कोई समस्या ही नहीं है इसलिए भारत को जनसँख्या-नियंत्रण कानून नहीं बनाना चाहिए.
मित्रों, विचित्र स्थिति तो यह है कि जनसँख्या नियंत्रण कानून बनाने से बचने के लिए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ऐसा झूठ बोला है जिसको पांचवीं कक्षा का बच्चा भी पकड़ लेगा. दरअसल सरकार ने हमारे बड़े भाई अश्विनी उपाध्याय द्वारा जनसँख्या-नियंत्रण पर सुप्रीम कोर्ट दायर जनहित याचिका पर जबरदस्ती अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि चूंकि स्वास्थ्य संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य सूची का विषय है इसलिए केंद्र सरकार जनसँख्या-नियंत्रण कानून बना ही नहीं सकती. जबरदस्ती इसलिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उसे इस मुकदमे में पक्ष माना ही नहीं था. वास्तव में भारत के संविधान में जनसँख्या-नियंत्रण और परिवार नियोजन समवर्ती सूची में २० क में दर्ज है और समवर्ती सूची में दर्ज विषयों के ऊपर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं. साथ ही भारत के संविधान के अनुसार अगर संसद और विधानसभा दोनों एक ही विषय पर अलग-अलग कानून बनाती हैं तो संसद द्वारा निर्मित कानून ही मान्य होगा.
मित्रों, समझ में नहीं आता कि भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के जिन अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखने के लिए हलफनामा तैयार करवाया उन्होंने कभी भारत का संविधान पढ़ा भी है या नहीं. भारतीय प्रशासनिक सेवा भारत की सर्वोच्च सेवा है और काफी योग्य लोग ही उसमें चयनित हो पाते हैं फिर उस स्तर का कोई अधिकारी ऐसी गलती कैसे कर सकता है? क्या स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन भी संविधान का क अक्षर नहीं जानते? और अगर जानते हैं तो फिर स्वास्थ्य मंत्रालय ने झूठ क्यों बोला?
मित्रों, इतना ही नहीं स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा है कि चूंकि भारत की प्रति वर्ष जनसँख्या वृद्धि दर अब २ प्रतिशत के लगभग है इसलिए भी जनसँख्या-नियंत्रण कानून की जरुरत नहीं है. क्या स्वास्थ्य मंत्रालय ने कभी हिसाब लगाकर देखा है कि सवा अरब या डेढ़ अरब का २ प्रतिशत कितना होता है? लगभग ढाई या तीन करोड़. क्या यह छोटी संख्या है? क्या भारत जैसा गरीब देश जो दुनिया की १६ प्रतिशत जनसँख्या और मात्र २ प्रतिशत क्षेत्र धारण करता है इतनी बढ़ी जनसँख्या के लिए मूलभूत सुविधाएँ जुटा सकता है? कहाँ से आएँगे इतने स्कूल, घर और नौकरियां?
मित्रों, ५६ ईंची मोदी सरकार तो दावे करती है कि वो देशहित में नीतियाँ बनाती है और उसके लिए नेशन फर्स्ट है तो फिर वो जनसँख्या-नियत्रण की अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी से पीछे क्यों भाग रही है? भारत का कोई अनपढ़ भी बता देगा कि भारत की सबसे बड़ी समस्या जनसँख्या-विस्फोट है. क्या इतनी-सी बात भी मोदी सरकार को पता नहीं है? हालाँकि यह सच नहीं है फिर भी अगर जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन राज्य सरकार का विषय होता तो क्या मोदी सरकार ने कभी राज्य-सरकार के विषयों पर कानून बनाया ही नहीं है? फिर कृषि कानून जिनको लेकर दिल्ली की सडकों पर धींगामुश्ती चल रही है वो क्या है? कृषि भी तो राज्य-सूची का विषय है.
मित्रों, कुल मिलाकर केंद्र सरकार ने अपने सफ़ेद झूठ से भारत के लोगों को निराश किया है. एक उम्मीद जो मोदी जी और उनकी सरकार से थी कि वे भारत को विश्वगुरु बनाएँगे अब टूटती हुई लग रही है. मोदी सरकार को भी कदाचित सत्ता से मोह हो गया है और शायद वह भविष्य में ऐसा कोई ऐसा कदम नहीं उठाएगी जिससे वोट-बैंक पर बुरा असर पड़े भले ही उसकी कितनी भी आवश्यकता क्यों न हो?
बुधवार, 16 दिसंबर 2020
कुत्ते की पूँछ बिहार का प्रशासन
मित्रों,कुत्ता जितना वफादार जीव है उतना ही सीधा भी लेकिन उसकी पूँछ कहने की आवश्यकता नहीं बड़ी टेढ़ी होती है. टेढ़ी खीर कैसे टेढ़ी होती है हमने तो नहीं देखा लेकिन आज तक जहाँ भी कुत्ते को देखा है उसे टेढ़ी पूँछ वाला ही पाया है. यद्यपि मैंने कभी किसी को कुत्ते की पूँछ को नली में डालते हुए तो नहीं देखा लेकिन यह कहावत बिहार क्या पूरे भारत में मशहूर है कि चाहे कुत्ते की पूँछ को १२ बरस तक लोहे की नली में कैद कर दो वो सीधी नहीं होगी टेढ़ी ही रहेगी.
मित्रों, एक अरसा हुआ तब मैं फुलवरिया कटिहार में रहता था. फुलवरिया चौक पर जब भी पुलिस की गाड़ी आती तो लोग कहते कुत्ते आ रहे हैं. मुझे लगा चूंकि लोगों की रक्षा करना पुलिस का काम है इसलिए कुत्ता कह भी दिया तो क्या हुआ हालांकि लोग पुलिस को कुत्ता हिकारत की दृष्टि से कहते थे. तब बिहार में लालूजी का शासन था.
मित्रों, तब बिहार में आज के बंगाल की तरह ही कैडर राज था. राजद का कोई छुटभैया नेता भी थाना पर चला जाए तो पुलिस घबरा जाती थी. पुलिस के पास स्टेशनरी तक नहीं थी, पुलिस गाड़ी में तेल नहीं होता था. मतलब की तब नौकरशाही लोकशाही के सामने पूरी तरह से लाचार थी, विवश थी.
मित्रों, फिर बिहार के सिंहासन पर नीतीश कुमार जी विराजमान हुए और इन्होंने नौकरशाही को खुली छूट दे दी. सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता भी तब थाने पर जाने से डरने लगे. नौकरशाही और लोकशाही के बीच आवश्यक संतुलन न तो लालू जी के समय थी और न ही नीतीश जी ने इसका ख्याल रखा. एक ने नौकरशाही को शून्य बना दिया तो दूसरे ने सीधे सौ जबकि होना तो यह चाहिए था कि नौकरशाही और लोकशाही को ५०-५० पर रखा जाता.
मित्रों, हमने वर्ष २०१२ में अपने एक आलेख बेलगाम नौकरशाही के आगे लाचार नीतीश में कहा था कि नीतीश जी ने नौकरशाही को बेलगाम बनाकर जो गलती की थी उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं.
मित्रों, पद पा लेना आसान है लेकिन शासन चलाना काफी कठिन. जब तक शासक की नीतियाँ सही नहीं होंगी कोई अच्छा शासन दे ही नहीं सकता. नीतीश जी की नीतियाँ गलत थीं भले ही उससे उनको और बिहार को अल्पकालिक लाभ हुए हों लेकिन बबूल का पेड़ कब तब काँटा देने से बचेगा? आज बिहार के प्रशासनिक अधिकारी कर्तव्यनिर्वहन नहीं करते सिर्फ कागजी खानापूरी करते हैं. सरकार भी सिर्फ कागज खाती है इसलिए उसे कागज खिलाया जा रहा है. जब लिपि सिंह इतना जघन्य और अक्षम्य अपराध करने के बावजूद निर्भय और सुरक्षित है तो फिर कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों सरकार से डरे? नौकरशाही को उसी तरह लोकशाही के पाँव तले होने चाहिए जैसे सिंह माता दुर्गा के क़दमों के नीचे होता है. राज्य के राजस्व मंत्री राम सूरत राय स्वयं स्वीकार कर रहे हैं कि उनका विभाग सबसे ज्यादा भ्रष्ट है लेकिन क्या स्वीकारोक्ति समाधान है या बन सकती है?
मित्रों, रही बात बिहार पुलिस की तो बिहार में पुलिस है ही कहाँ? पुलिस का दो प्रकार का काम होता है-पहले अपराध को होने से पहले ही रोक देना और अपराध होने के बाद अपराधियों को पकड़कर दण्डित करवाना. बिहार पुलिस तो इन दोनों में से कोई भी काम कर ही नहीं रही है फिर काहे ही पुलिस? पुलिस तो बस थाने में बैठी रहकर कागजी काम करती है और रिश्वत खाती है. क्या मजाल कि किसी भी आम आदमी का कोई भी काम सीधे तरीके से हो जाए. ऐसे माहौल में मैं दावा करता हूँ कि आईजी तो क्या डीजीपी भी गश्ती करें तब भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
मित्रों, बिहार में इन दिनों एक और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई है. लोग निगरानी द्वारा रिश्वत लेते हुए पकडे जाते हैं और न्यायालय द्वारा फिर से बहाल कर दिए जाते हैं. इसी तरह से न्यायालय धड़ल्ले से अपराधियों को जमानत देती है. कुछ न्यायाधीश तो जमानत देने के लिए विख्यात हैं. जब तक न्यायालय प्रशासन का साथ नहीं देगा तब तक प्रशासन सबकुछ करके भी कुछ नहीं कर सकता. फिर बिहार में जनशिकायत का जो भी मंच है सही तरीके से काम नहीं कर रहा है ऐसे में जनता जाए तो कहाँ जाए? जब तक नौकरशाही नीतीश की सुनती थी जनता दरबार लगाया फिर फजीहत से बचने के लिए बंद कर दिया क्योंकि समाधान नहींं होता था। कुल मिलाकर जो चलता था वही चल रहा है और शायद चलता रहेगा चाहे नीतीश कुमार कितनी भी बैठकें कर लें. सरकार को चाहिए कि नई तकनीकी से लाभ उठाते हुए सबकुछ ऑटोमैटिक और ऑनलाइन कर दे और कोई उपाय नहीं है कुत्ते की दुम को सीधी करने का. हमने देखा है कि सिर्फ रजिस्ट्रीवाली जमीनों का ही ऑनलाइन नामांतरण हो रहा है कोर्ट के आदेश का नहीं हो पाता सरकार को इन विसंगतियों को भी दूर करना होगा.
गुरुवार, 10 दिसंबर 2020
डरपोक और पिलपिली मोदी सरकार
मित्रों, कहते हैं कि कथनी और करनी में भारी अंतर होता है. चमड़े की जीभ से इन्सान कुछ भी बोल जाता है, किसी भी तरह के दावे कर डालता है लेकिन उसकी हिम्मत की परीक्षा तब होती है जब उसका संकटों और परेशानियों से सामना होता है.
मित्रों, आपलोगों को भी याद होगा कि जब २०१४ में लोकसभा चुनावों का प्रचार चल रहा था तब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी लगभग हर जनसभा में दावा करते थे कि उनका सीना ५६ ईंच का है अर्थात उनमें अपार साहस, हिम्मत और निर्णय लेने की क्षमता है.
मित्रों, लेकिन भारत का प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही महीने बीते थे कि यह भ्रम टूटने लगा और अब पूरी तरह टूट चुका है. दरअसल हुआ यह था कि मोदी जी की सरकार ने भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी कानूनों में बदलाव करने के लिए अध्यादेश जारी किया था. मगर जब उसका विपक्षी दलों ने बड़े पैमाने पर विरोध किया तब ५६ ईंची सरकार के हाथ-पांव फूल गए और उसे यू-टर्न लेना पड़ा. नवम्बर २०१६ में भी जब मोदी सरकार ने नोटबंदी की तब भी सरकार को रोज-रोज अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करना पड़ा.
मित्रों, इसी तरह देसी और विदेशी कालेधन पर प्रहार करने में भी मोदी सरकार पूरी तरह से विफल रही है. उल्टे माल्या, चौकसे और नीरव मोदी भारत के बैंकों को हजारों करोड़ का चूना लगाकर इसी मोदी सरकार के समय विदेश भाग गए. रोबर्ट वाड्रा आज भी आजाद है, राहुल-सोनिया भी जेल नहीं गए और प्रियंका गाँधी का हिमाचल में बना अवैध बंगला शान से खड़ा है. यह कैसी ५६ ईंची सरकार है जो सुशांत सिंह और नवरुना के कातिलों को नहीं पकड़ पाती? यह कैसी ५६ ईंची सरकार है जिसकी आँखों के सामने बंगाल और केरल में थोक में भाजपा कार्यकर्ताओं को मारा जा रहा है लेकिन यह अनुच्छेद ३५६ नहीं लगाती न ही अनुच्छेद ३५५ का प्रयोग कर राज्य सरकार को निर्देश देती है?
मित्रों, अभी पिछले साल १५ दिसंबर को दिल्ली के शाहीन बाग़ में सीएए के बेवजह किए जा रहे विरोध में धरने की शुरुआत हुई. जल्दी ही विरोधियों ने पूरी सड़क को अपने कब्जे कर लिया. फिर क्या था पूरे भारत के बहुत-सारे मुस्लिम बहुल इलाकों में शाहीन बाग़ जैसे धरने की शुरुआत हो गई. यहाँ तक कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय राजधानी में चल रहे कई सारे शाहीन बागों को भी खाली नहीं करवा पाई. फिर विरोधियों ने दिल्ली में दंगा शुरू कर दिया और इसके दौरान भी सबसे ज्यादा लाचार नजर आ रही थी दिल्ली पुलिस जो केंद्र सरकार के मातहत काम करती थी और करती है. वो तो भला हो कोविड-१९ का जिसके चलते स्वतः धरने समाप्त हो गए वर्ना न जाते क्या होता.
मित्रों, इस समय भी दिल्ली में कथित किसान आन्दोलन चल रहा है और केंद्र की ५६ ईंची सरकार की हवा ख़राब हुई जा रही है. सूत्रों से पता चला है कि केंद्र सरकार एक बार फिर यू टर्न लेने के लिए तैयार हो गई है. केन्द्र सरकार की इन हरकतों को देखकर ऐसे लगता है कि यह सरकार भीड़ और सड़क जाम से बहुत डरती है और हर जायज-नाजायज मांग को मानने को तैयार हो जाती है. हमें ऐसे भी लग रहा है कि हमें भी जनसंख्या कानून, समान नागरिक संहिता, अल्पसंख्यक संशोधन कानून, अनुच्छेद ३० में संशोधन, पुलिस और न्यायिक सुधार कानून, नवीन भारतीय सिविल सेवा कानून, भ्रष्टाचार विरोधी सख्त कानून आदि के लिए दिल्ली की सडकों पर भीड़ जमा करके सड़क जाम करना होगा. जब यह सरकार दिल्ली की सडकों को भी खाली नहीं करवा सकती तो क्या खाकर पाकिस्तान और चीन से जमीन खाली करवाएगी? ज्यादा-से-ज्यादा यह नए सियाचिन पैदा कर सकती है. इससे ज्यादा कुछ नहीं.