रविवार, 11 अप्रैल 2021

ये कहाँ आ गए हम?

मित्रों, भारत अगले साल अपनी स्वतंत्रता के ७५ साल पूरे करने जा रहा है. इन ७५ सालों में देश ने बहुत सारे संकटों का सामना किया है, बहुत सारे उतार-चढाव देखे हैं. यद्यपि अपनी इस उपलब्धि पर हम गर्व कर सकते हैं कि हमने देश की एकता और अखंडता को बनाए रखा तथापि वर्तमान काल में जो देश की स्थिति है उसे कहीं से भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता. मित्रों, हमारे संविधान निर्माताओं ने यह सपने में भी नहीं सोंचा होगा कि आनेवाले दशकों में हमारे राजनेताओं के लिए सिर्फ कुर्सी और कमाई का महत्व रह जाएगा, देशहित की कोई कीमत नहीं रहेगी. दुर्भाग्यवश राज्य के लिए नीति निर्देशक तत्वों के माध्यम से सम्विधाननिर्माताओं ने जो काम आनेवाली पीढ़ी को सौंपा था उसको पूरा कर पाने में हम पूरी तरह से असफल रहे हैं और आज भी संविधान का २० प्रतिशत भाग लागू होने की प्रतीक्षा कर रहा है. मित्रों, वर्तमान भाजपा सरकार ने भी अपने तीन प्रमुख वादों में से राम मन्दिर बनाने और धारा ३७० हटाने के वादे को तो पूरा कर दिया है लेकिन नीति निर्देशक तत्वों में से एक अनुच्छेद ४४ जिसमें सरकार को समान सिविल संहिता बनाने का निर्देश दिया गया है को लागू करने में अभी भी आना-कानी कर रही है जबकि देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए इस अनुच्छेद को लागू करना सबसे ज्यादा आवश्यक था और है. मित्रों, हमारे महान नेताओं की दूसरी सबसे बड़ी विफलता रही है प्रशासनिक सुधार नहीं कर पाना. न जाने क्या सोंचकर हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भारतीय सिविल सेवकों को स्टील फ्रेम ऑफ़ इंडिया कहा था. दरअसल यह ब्लड ड्रिंकर ऑफ़ इंडिया हैं. जब प्रशासनिक ढांचा अंग्रेजों वाला है तो तंत्र काम कैसे राम राज्य वाला करे? आज भी प्रशासनिक अधिकारी अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करके पैसा बना रहे हैं. और सिर्फ अधिकारी ही क्यों कर्मचारी भी जनता को लूटने में इस कदर तत्पर हैं कि उन्होंने देश को गुलाम बनानेवाले अंग्रेजों को भी कोसों पीछे छोड़ दिया है. मित्रों, पिछले दिनों घटी दो घटनाओं ने भारतीय लोकतंत्र में लोक के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. पहली घटना सचिन वाजे वसूली कांड है जिसमें महाराष्ट्र कैडर के आईपीएस अधिकारी सचिन वाजे के बारे में मुंबई के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर परमवीर सिंह ने आरोप लगाया है कि कई दशकों से निलंबित चल रहे उस अधिकारी को महाराष्ट्र के तत्कालीन गृह मंत्री अनिल देशमुख ने २ करोड़ रूपये लेकर फिर से बहाल किया था. इतना ही नहीं सचिन वाजे प्रत्येक महीने १०० करोड़ रूपये जनता से वसूली करके गृह मंत्री को पहुंचाने की ड्यूटी कर रहा था. कितनी शर्मनाक घटना है यह! देश में न जाने कितने अनिल देशमुख और कितने सचिन वाजे पदारूढ हैं? ऐसे तंत्र से जनता क्यों कर उम्मीद करे और कैसे उम्मीद करे. दूसरी घटना बिहार के मधुबनी में घटी है जहाँ कमजोर और ईमानदार पक्ष के संजय सिंह को पुलिस ने झूठे हरिजन एक्ट में फंसाकार जेल भेज दिया ताकि गुंडे उसके पूरे परिवार की हत्या कर दें. आखिर कानून का हाथ किसके साथ है? पीड़ितों के साथ या पीडकों के साथ? सर्वहारा वर्ग के साथ या रिश्वत देने में सक्षम धनिकों के साथ? आखिर लोग पुलिस थानों में जाने से डरते क्यों हैं? मैं खुद कई ऐसे मामलों का चश्मदीद गवाह हूँ जिनमें पीड़ित वर्ग जब थाने में शिकायत दर्ज करवाने पहुंचा तो उलटे उसे ही जेल भेज दिया गया. मित्रों, तंत्र का मुख़्तार अंसारी जैसे दुर्दान्तों के आगे बिछ जाना भी काफी चिंताजनक है. मुख़्तार जब पंजाब की जेल में था तब चिकित्सकों ने उसको नौ बीमारियों से ग्रस्त बता दिया था ताकि वो अस्पताल में रहकर दरबार लगा सके. लेकिन जब मुख़्तार उत्तर प्रदेश पहुंचा तो न सिर्फ व्हील चेयर छोड़ अपने पैरों पर चलने लगा बल्कि सारी बीमारियाँ भी गायब हो गईं. मित्रों, जिस तरह पंजाब की सरकार ने मुख़्तार के बचाव में जी-जान लगा दी, जिस तरह सचिन वाजे कांड हुआ, जिस तरह मधुबनी में संजय सिंह को झूठे मुकदमे में जेल में डाल दिया गया उससे तो यही लगता है कि आजादी के ७५ सालों के बाद हमारा लोकतंत्र अपराधियों का, अपराधियों के लिए और अपराधियों द्वारा संचालित है. मित्रों, इन दिनों बंगाल में चुनाव चल रहा है. अजी चुनाव क्या खून की होली खेली जा रही है. जो सत्ता के खिलाफ जाएगा जान से जाएगा. यह लोकतंत्र है या बन्दूकतंत्र. कल तृणमूल समर्थक कुछ कथित अल्पसंख्यक महिलाओं ने एक हिन्दू महिला से हथियार के बल पर बंधक के तौर पर उसका बच्चा छीन लिया जिससे वो भाजपा को वोट न देकर तृणमूल को वोट दे. यह कैसा चुनाव, कैसी सरकार और कैसा लोकतंत्र है भाई? उधर नक्सलियों ने भी बन्दूक के बल पर अपनी समानांतर सरकार चला रखी है जिसमें हमारे नेता भी सहयोग दे रहे हैं. मित्रों, तथापि एक और स्थान पर हमारा लोकतंत्र अपने मूल मार्ग से भटक रहा है. जैसा कि हमने अपने आलेख की शुरुआत में ही कहा कि भारतीय संविधान आज तक भी पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है. भारतीय संविधान के भाग ४ में नीति निर्देशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद ३८ कहता है कि राज्य लोक कल्याण में अभिवृद्धि को सुनिश्चित करेगा. लेकिन वर्तमान सरकार निजीकरण की रट लगाए हुए है. स्वास्थ्य और शिक्षा का निजीकरण पहले ही हो चुका है. न तो सरकारी स्कूल और न ही सरकारी अस्पताल किसी काम के रह गए हैं. रेलवे का भी निजीकरण अब कुछ दिनों की बात रह गई है. फिर गरीब कैसे पढ़ेगा, कैसे ईलाज करवाएगा, कैसे यात्रा करेगा और कैसे जीएगा? उस पर बेरोजगारी पहले से ही आसमान छू रही है. अब कोरोना की दूसरी लहर को देश की गरीब और मध्यमवर्गीय जनता कैसे झेलेगी? केंद्र सरकार का पिछले साल कोरोना की पहली लहर के समय रवैया कमोबेश वही था जो सवा सौ साल पहले पुणे के प्लेग के समय अंग्रेज सरकार का था. मित्रों, कुल मिलाकर आजादी के ७५ साल बाद भी हमारा लोकतंत्र वैसा नहीं है जैसा होने का सपना शहीदों ने देखा था. बल्कि भ्रष्टाचार और न्याय की उपलब्धता के मामले में स्थिति १९४७ के मुकाबले कहीं ज्यादा ख़राब है. देश भले ही कितनी भी तेज जीडीपी दर प्राप्त कर ले देश देश मत्स्य न्याय की दिशा में बढ़ रहा है. किसी शायर ने शायद हमारे लोकतंत्र के बारे में ही ये पंक्तियाँ कही होंगी- ले आई जिंदगी हमें कहाँ पर कहाँ से, ये तो वही जगह है गुजरे थे हम जहाँ से. आखिर कब तक हमारा लोकतंत्र सिर्फ गोल चक्कर लगाता रहेगा?

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा राजनीतिक विष्लेषण ।
    प्रत्येक नागरिक को भी आत्म विष्लेषण करना चाहिए ।ज़िम्मेदारी सबकी है । नेता हो या जनता ।

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