मंगलवार, 27 जुलाई 2021
ब्राह्मण सम्मेलन का नाटक
मित्रों, जब हम आईएएस की तैयारी कर रहे थे तो एक दिन अपनी कोचिंग के इतिहास के शिक्षक और इतिहास के उद्भट विद्वान ओमेन्द्र सर से पूछा था कि देश की आजादी के लिए सबसे ज्यादा फांसी पर कौन चढ़े थे तो उन्होंने बताया था कि ब्राह्मण. साथ ही आन्दोलन का स्थानीय नेतृत्व पूरे भारत में उन्होंने ही किया था. फिर नंबर आता है क्षत्रिय, कायस्थों और अन्य जातियों का.
मित्रों, अगर हम आपसे पूछें कि देश की आजादी के बाद सबसे ज्यादा नुकसान किसको हुआ है तो निश्चित रूप से आप कहेंगे सवर्णों का. आज सवर्णों की स्थिति इतनी ख़राब है, वे इतने हाशिए पर जा चुके हैं कि न तो राजनीति में उनकी कोई पूछ है और न ही समाज में.
मित्रों, आपने इतिहास की किताबों में पढ़ा होगा कि १९१८ में अंग्रेज सरकार रौलेट एक्ट लेकर आई थी जिसमें पहले गिरफ़्तारी और बाद में जाँच का प्रावधान था. सन १९८९ में तत्कालीन राजीव गाँधी की सरकार ने एक कानून बनाया जो लगभग रौलेट एक्ट ही था. वह कानून था-अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989. इस कानून में ऐसे प्रावधान हैं कि जैसे ही एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज होता है ऑंख बंद कर सबसे पहले आरोपित को गिरफ्तार किया जाएगा फिर बाद में जाँच होगी. जैसे स्कूल में पहले बच्चे को दण्डित कर दिया जाए बाद में पता लगाया जाए कि उसकी गलती थी या नहीं. इतना ही नहीं इस एक्ट में पीड़ित को तत्काल सरकार की तरफ से मुआवजा देने का भी प्रावधान है जो इस एक्ट को और भी घातक बनाता है. कई बार कोर्ट में केस झूठा साबित होने पर भी पीड़ित मुआवजे की राशि नहीं लौटाते जबकि होना यह चाहिए कि वही मुआवजा उन जालसाजों से वापस लेकर आरोपित को देना चाहिए. साथ ही झूठा मुकदमा करनेवालों जेल भी भेजना चाहिए.
मित्रों, सन १९८९ को अब ३२ साल बीत चुके हैं. पंचायत चुनावों से लेकर शिक्षण संस्थानों व ठेके तक में तमाम क्षेत्रों में आरक्षण के चलते अब एससी-एसटी समेत पिछड़ी जातियों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति वैसी नहीं रही जैसी १९८९ में थी. बल्कि कई अवर्णों के पास तो अपार धन-संपत्ति है जबकि सवर्णों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति में कल्पनातीत गिरावट आई है और बहुत से लोग तो भूखों मर रहे हैं. फिर भी एससी-एसटी एक्ट ज्यों-का-त्यों है. आरक्षण और फीस में छूट भी वैसे ही है. यहाँ मैं आपको बता दूं कि १९८९ में भी बहुत-से सवर्ण पूरी तरह से भूमिहीन थे और उनकी आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक स्थिति भी एससी-एसटी से बेहतर नहीं थी. फिर भी राजीव गाँधी जो अपनी मूर्खता के लिए विश्व प्रसिद्ध थे यह कानून लेकर आए. जाहिर है वजह वोट बैंक था. आजादी के बाद भी राष्ट्र प्रथम की सोंच रखने के कारण सवर्णों ने सबसे ज्यादा परिवार नियोजन करवाया इसलिए उनकी जनसंख्या में हिस्सेदारी लगातार घटती रही इसलिए भी वोट बैंक के रूप में उनका महत्व क्रमशः घटता गया. साथ ही हर जगह आरक्षण होने से सामाजिक प्रभाव में तो गिरावट आई ही.
मित्रों, इस बारे में मुझे एक घटना याद आ रही है. जब २००५ में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो तब के उनके मुख्य सहायक श्री शिवानन्द तिवारी ने उनसे कहा था कि बांकियों की चिंता करिए सवर्णों की चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है. वे तो बिहार का विकास देखकर ही आपको वोट दे देंगे. और ऐसा हुआ भी. इसी से समझ सकते हैं कि सवर्ण आज भी अपने से ज्यादा देश-प्रदेश का भला चाहते हैं.
मित्रों, आज एक गरीब ब्राह्मण जिस नौकरी के आवेदन के लिए १००० रूपये की फ़ीस देता है करोड़पति एससी-एसटी को कभी-कभी तो एक पैसा भी नहीं देना पड़ता है. यह कैसा न्याय है और कैसी समानता है? क्या यह अत्याचार नहीं है? क्या समय के साथ आरक्षण और फीस सम्बन्धी प्रावधानों को बदलना नहीं चाहिए? रही बात एससी-एसटी एक्ट की तो चूंकि आज एससी-एसटी बड़ी संख्या में मुखिया-सरपंच-अधिवक्ता-अधिकारी बन चुके हैं इसलिए इस कानून का सदुपयोग तो हो नहीं रहा दुरुपयोग जरूर हो रहा है और जमकर हो रहा है. कई बार तो एससी-एसटी जाति के लोग सवर्णों को पीटते भी हैं और इस एक्ट की सहायता से उनको जेल भी भिजवा देते हैं.
मित्रों, कई साल पहले आरा, बिहार में एक महादलित बीडीओ ने एक पत्रकार पर चुपके से एससी-एसटी एक्ट के तहत मुकदमा इसलिए दर्ज करवा दिया क्योंकि उसने उनका घोटाला पकड़ लिया था. अचानक बेचारे की गिरफ़्तारी भी हो गई. बाद में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने मामला संज्ञान में आने के बाद उसे जेल से बाहर निकलवाया. अब आप ही बताईए कि जब पत्रकार की ऐसी हालत कर दी गई तो बीडीओ साहब का आम सवर्ण या पिछड़ों के प्रति क्या रवैया रहता होगा.
मित्रों, इस बीच 20 मार्च 2018 को माननीय सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने स्वत: संज्ञान लेकर एससी/एसटी एक्ट में आरोपियों की शिकायत के फौरन बाद गिरफ्तारी पर रोक लगा दी । शिकायत मिलने पर एफआईआर से पहले शुरुआती जांच को जरूरी किया गया था। साथ ही अंतरिम जमानत का अधिकार दिया था। तब कोर्ट ने माना था कि इस एक्ट में तुरंत गिरफ्तारी की व्यवस्था के चलते कई बार बेकसूर लोगों को जेल जाना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- गिरफ्तारी से पहले शिकायतों की जांच निर्दोष लोगों का मौलिक अधिकार है। लेकिन, 9 अगस्त 2018 को फैसले के खिलाफ अति हिंसक प्रदर्शनों के बाद केंद्र सरकार एससी/एसटी एक्ट में बदलावों को दोबारा लागू करने के लिए संसद में संशोधित बिल लेकर आई। इसके तहत एफआईआर से पहले जांच जरूरी नहीं रह गई। जांच अफसर को गिरफ्तारी का अधिकार मिल गया और अग्रिम जमानत का प्रावधान हट गया। आश्चर्यजनक तो यह रहा कि किसी भी सवर्ण सांसद ने न तो लोकसभा में और न ही राज्यसभा में इस अन्यायपूर्ण संशोधन का विरोध किया.
मित्रों, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने ६ नवम्बर, २०२० को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि उच्च जाति के किसी व्यक्ति को उसके कानूनी अधिकारों से सिर्फ इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि उस पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (SC/ST) के किसी व्यक्ति ने आरोप लगाया है। जस्टिस एल. नागेश्वर राव की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, 'एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कोई अपराध इसलिए नहीं स्वीकार कर लिया जाएगा कि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति का है, बशर्ते यह यह साबित नहीं हो जाए कि आरोपी ने सोच-समझकर शिकायतकर्ता का उत्पीड़न उसकी जाति के कारण ही किया है।' एसटी/एसटी समुदाय के उत्पीड़न और उच्च जाति के लोगों के अधिकारों के संरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी काफी क्रांतिकारी मानी जा रही है। तीन सदस्यीय पीठ की तरफ से लिखे फैसले में जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा कि उच्च जाति के व्यक्ति ने एससी/एसटी समुदाय के किसी व्यक्ति को गाली भी दे दी हो तो भी उस पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। हां, अगर उच्च जाति के व्यक्ति ने एससी/एसटी समुदाय के व्यक्ति को जान-बूझकर प्रताड़ित करने के लिए गाली दी हो तो उस पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई जरूर की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि जब तक उत्पीड़न का कोई कार्य किसी की जाति के कारण सोच-विचार कर नहीं किया गया हो तब तक आरोपी पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है. सर्वोच्च अदालत ने कहा कि उच्च जाति का कोई व्यक्ति अगर अपने अधिकारों की रक्षा में कोई कदम उठाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसके ऊपर स्वतः एससी/एसटी ऐक्ट के तहत आपराधिक कृत्य की तलवार लटक जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के फैसलों पर फिर से मुहर लगाते हुए कहा कि एससी/एसटी ऐक्ट के तहत उसे आपराधिक कृत्य ठहराया जा सकता है जिसे सार्वजनिक तौर पर अंजाम दिया जाए, न कि घर या चहारदिवारी के अंदर जैसे प्राइवेट प्लेस में।
मित्रों, फिर भी इसमें संदेह नहीं कि आज भी इस कानून का जमकर दुरुपयोग हो रहा है. झूठे गवाह जुटा लेना अपने देश में कोई बड़ी बात नहीं है. अभी यूपी में चुनाव होने हैं और यूपी में ब्राह्मणों की अच्छी-खासी संख्या है इसलिए सारे दल ब्राह्मण सम्मलेन आयोजित कर रहे हैं. इनमें वह दल भी शामिल है जिसने देशभर में तोड़-फोड़कर सुप्रीम कोर्ट के २० मार्च, २०१८ के फैसले को पलटवाया. आज सवर्ण और पिछड़े एससी-एसटी को मकान-दूकान किराए पर देने से डरने लगे हैं. साथ ही उनको नौकरी देने में लोग डरते हैं. एक तो भलाई करो फिर जेल भी जाओ.
मित्रों, किसी देश का कानून, व्यवस्था को बनाए रखने और समाज में शांति का माहौल बनाने में मदद कर करता है लेकिन जब किसी कानून का इस्तेमाल एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के विरुद्ध अपने फायदे के लिए होने लगता है तो फिर उस कानून में बदलाव की आवश्यकता होती है। पिछले दिनों एक खबर आयी कि एक व्यक्ति विष्णु तिवारी नामक ललितपुर का ब्राह्मण SC/ST एक्ट के तहत बलात्कार के आरोप में 20 वर्षों से सश्रम कारावास में आगरा केंद्रीय कारागार में कैद था अब जा कर निर्दोष साबित हुआ है। आखिर हमारे देश का कानून किस प्रकार से उस व्यक्ति के गुज़रे हुए 20 वर्ष वापस कर सकता है? यह तो सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसे ना जाने कितने उदाहरण देश में भरे पड़े है जो न केवल यह दिखाते हैं कि कैसे SC/ ST का दुरुपयोग होता है बल्कि उसका इस्तेमाल आपसी रंजिश के कारण भी किया जा रहा है। दरअसल, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में Scheduled Castes and the Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989 (Vishnu v. State of UP) के तहत बलात्कार, आपराधिक धमकी जैसे आरोपों के कारण 20 साल से जेल में बंद एक व्यक्ति को आरोप मुक्त किया है। डॉ. कौशल जयेंद्र ठाकर और गौतम चौधरी की पीठ ने एक ऐसे व्यक्ति को बरी कर दिया जो झूठे बलात्कार और दलित अत्याचार मामले में बीस साल से अधिक समय तक जेल में रहा। रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने पाया कि घटना की तारीख, यानी 16.9.2000 से आरोपी जेल में है यानी 20 साल से। उस व्यक्ति को आईपीसी की धारा 376, 506 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 (1) (xii) के साथ धारा 3 (2) (v) के तहत गिरफ्तार किया गया था. अब जाकर कोर्ट ने तथ्यों और चिकित्सा रिपोर्टों को सुनते हुए मामले को खारिज कर दिया और आरोपी को आपसी रंजिश का शिकार पाया. मेडिकल रिपोर्ट में चोटों और यौन हमले का कोई संकेत नहीं है। इसके अलावा, अदालत ने पाया कि शिकायतकर्ता ने शिकायत एक ही मकसद के कारण की थी। दोनों पक्षों के बीच पहले से भूमि विवाद था जिसके कारण अभियोजन पक्ष ने यौन उत्पीड़न के मामले को दायर किया ।
मित्रों, सुनवाई के दौरान, अदालत ने दोहराया कि अगर कोई भूमि विवाद में हैं तो उस व्यक्ति के खिलाफ SC/ST अधिनियम के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। कोर्ट के अनुसार, “हमारी जाँच पड़ताल में, चिकित्सा प्रमाण यह स्पष्ट करते है कि डॉक्टर को किसी भी प्रकार का शुक्राणु नहीं मिला था। डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से कहा कि जबरन संभोग का भी कोई संकेत नहीं मिला और ना ही किसी प्रकार की अंदरूनी चोट थी।” रिकॉर्ड पर तथ्यों और सबूतों के मद्देनज़र, अदालत ने आश्वस्त किया था कि आरोपी को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है, इसलिए आदेश को बदल कर आरोपी को बरी कर दिया गया. बता दें कि इकोनोमिक टाइम्स कि रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने बताया था कि 2016 में SC/ST एक्ट के अंदर 8900 केस गलत थे। राजस्थान पुलिस के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत 2020 में राजस्थान के अंदर 40 प्रतिशत से अधिक मामले फर्जी पाए गए। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2018 में यह कहा था कि ये निर्दोष नागरिकों और पब्लिक सर्वेंट को “ब्लैकमेल” करने का एक साधन बन गया है। 1989 अधिनियम न सिर्फ निर्दोष को दंडित करता है और यहां तक कि संदिग्ध अपराधियों को अग्रिम जमानत भी नहीं देता। फिर अदालत ने कहा कि कानून का इस्तेमाल केवल शिकायतकर्ता की शिकायत मात्र से आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लूटने के लिए किया जाता है। यानी देखा जाए तो इस कानून का जितना उपयोग होता है, उससे अधिक दुरुपयोग होता है। एक व्यक्ति के जीवन के 20 वर्ष जेल में ही गुजर गये वो भी केवल झूठे आरोपों के आधार पर, इससे बड़ी विडंबना शायद ही हो सकती है। इतना ही नहीं मुकदमे में सारी जमीन तक बिक गई और सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ा. इस दौरान परिजनों ने भी उसकी सुध नहीं ली.
मित्रों, उसकी जवानी के वो बीस साल, जब वो अपनी मेहनत और कोशिशों से अपने और अपने परिवार के लिए जमाने भर की खुशियां खरीद सकता था, वो बीस साल उसे कौन वापस करेगा? जो उसने बगैर किसी गुनाह के ही सलाखों के पीछे निकाल दिए. उसकी जवानी के वो बीस साल, जब वो अपनी मेहनत और कोशिशों से अपने और अपने परिवार के लिए जमाने भर की खुशियां खरीद सकता था, वो बीस साल उसे कौन वापस करेगा? उसे उसके मां-बाप कौन लौटाएगा, जो जवान बेटे के गम के तड़प-तड़प कर इस दुनिया से दूर चले गए. उसे उसके उन दो बड़े भाइयों से कौन मिलवाएगा, जिन्हें विष्णु का इंतज़ार भरी जवानी में लील गया. सबसे बडी़ विसंगति तो यह रही कि विष्णु चीख-चीख कर कहता रहा कि वो नाबालिग है, १७ साल का है लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई।
मित्रों, सच्चाई तो यह है किसी भी दल को ब्राह्मणों की समस्याओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है. कोई भी दल इस काले आधुनिक रौलेट एक्ट को बदलने का वादा नहीं कर रहा लेकिन सबको ब्राह्मणों का वोट चाहिए. बांकी सवर्ण तो किसी गिनती में ही नहीं हैं इसलिए उनके लिए कोई जातीय सम्मेलन नहीं हो रहा. सवाल उठता है कि क्या ब्राह्मण सहित सारी गैर एससी-एसटी जातियों को इस कानून को समाप्त करने की न सही सुप्रीम कोर्ट के २० मार्च, २०१८ के निर्णय के अनुकूल बनाने की मांग नहीं करनी चाहिए? आखिर कब तक सवर्ण बतौर शिवानन्द तिवारी देश-प्रदेश हित में अपने निजी हितों को कुर्बान करते रहेंगे? आखिर यह कैसा नाटक है कि जो कोई पार्टी कभी तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार का आह्वान करती है वो आज ब्राह्मणों का झूठा सम्मान करने का नाटक कर रही है? अगर सचमुच ये पार्टियाँ ब्राह्मणों का सम्मान करती हैं तो उनको सबसे पहले एससी-एसटी एक्ट में बदलाव के वादे को अपने अपने घोषणा-पत्र में शामिल करना चाहिए क्योंकि एससी-एसटी एक्ट का सर्वाधिक दुरुपयोग बसपा के शासन में ही होता है.
गुरुवार, 22 जुलाई 2021
अफगानिस्तान बनने को ओर अग्रसर भारत
मित्रों, हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं कि भारत में लोकतंत्र है जिसके तीन भाग हैं-कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका. परन्तु जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ी हमारी समझ में आया कि भारत में तंत्र तो है लेकिन भ्रष्ट, कामचोर व सडा-गला लोकतंत्र है. हमने नया संविधान तो बना लिया लेकिन कानून वही बरक़रार रखे जिनके माध्यम से अंग्रेज हमें लूटते थे. मेरा मतलब आईपीसी, न्यायिक प्रक्रिया और भारतीय प्रशासनिक सेवा से है. अब जब कानून ही गड़बड़ है तो व्यवस्था कैसे सही होगी?
मित्रों, हमारे देश की कार्यपालिका का तो कहना ही क्या! ये बिना तालाब के मछली पाल लेती है, बिना नदी के पुल बना देती है और बिना बांध बने उसमें छेद भी कर देती है. जहाँ देखिए वहां सिर्फ छेद ही छेद है. न्यायपालिका पहले तो तारीख-पे-तारीख देकर पीड़ितों अथवा दिवंगत पीड़ित-पीडिताओं के परिजनों को थका डालती है फिर कई दशकों के बाद कह देती है कि नो वन किल्ड जेसिका. न्यायमूर्ति से चंद कदम पर बैठा उनका पेशकार मुट्ठी गरम कर रहा होता है मगर न्याय की मूर्ति जी को कुछ नजर नहीं आता फिर ऐसा व्यक्ति कैसे न्याय दे सकता है. उस पर गजब यह कि न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति करता है जिससे जमकर भाई-भतीजावाद हो रहा है.
मित्रों, व्यवस्थापिका की तो खुद की पूरी व्यवस्था चरमराई हुई है. अब वहां छंटे हुए बदमाश बैठते हैं. सरकारों ने व्यवस्थापिका पर पूरी तरह से कब्ज़ा कर लिया है. विपक्ष भी नैतिक रूप से पतित हो चुका है. फिर कैसी व्यवस्था? अभी ऑक्सीजन की कमी से कोरोना मरीजों की अकालमृत्यु को ही लें तो भारत की समस्त राज्य सरकारें और संघ सरकार भी एक स्वर में कह रही है कि ऑक्सीजन की कमी से देश में कोई नहीं मरा. जबकि हमने अपनी और कैमरों की आँखों से देखा है कि ऑक्सीजन की कमी से देश में हजारों लोग मरे हैं. मतलब कि संसद में संघ सरकार झूठ बोल रही है और प्रमाण-सहित झूठ बोल रही है. विपक्षी दलों की भी जहाँ-जहाँ सरकारें हैं वे सरकारें भी झूठ बोल रही हैं फिर जनता के लिए लड़ेगा कौन?
मित्रों, मैं एक बार फिर से दोहरा रहा हूँ कि भारत में लोकतंत्र है. बस कागज़ी लोकतंत्र है जो सिर्फ कागजों पर ही नज़र आता है. तंत्र मस्त है लोक पस्त है. चाहे लोक बचें या न बचें तंत्र बचा रहेगा. वास्तव में ऑक्सीजन की जरुरत लोक से ज्यादा तंत्र को है. अंग्रेजी हुकूमत के सारे अवशेषों यथा कानून, शिक्षा-प्रणाली, न्याय प्रक्रिया, पुलिस और प्रशासनिक तंत्र को मिटाना होगा वर्ना एक दिन तंत्र भी नहीं बचेगा, बचेगी तो बस अराजकता और भारत भी अफगानिस्तान बनकर रह जाएगा.
शनिवार, 17 जुलाई 2021
दानिश सिद्दीकी को श्रद्धांजलि
मित्रों, चलिए पहले एक कहानी हो जाए. एक भेड़िया था और एक खरगोश था. भेड़िया बहुत दिनों से खरगोश को खाने के चक्कर में था और बराबर खरगोश को परेशान कर उससे झगड़ने का सुअवसर खोजता रहता था लेकिन खरगोश था कि सबकुछ बर्दाश्त कर जाता था. फिर एक दिन भेड़ियों ने खरगोश का चौतरफा रास्ता रोक लिया. अब खरगोश के सामने कोई विकल्प ही नहीं रहा सो उसने भेड़िये को चेतावनी दी कि वो उसका रास्ता नहीं रोके नहीं तो अंजाम अच्छा नहीं होगा. बस भेड़िये को बहाना मिल गया और उसने खरगोश पर हमला कर दिया. खरगोश ने भी बदले में कुछ भेड़ियों को मार गिराया. मित्रों, अब तो जैसे मीडिया में आग लग गई. पहले से तैयार बैठी खरगोशविरोधी मीडिया ने आनन-फानन में खरगोश को दंगा भड़काने का दोषी घोषित दिया. कुछ मीडिया समूह ने तो यहाँ तक कह दिया कि खरगोशों ने दंगों और भेड़ियों के सामूहिक संहार कि पूर्व योजना बना रखी थी. जंगल की विकीपीडिया की भी यही राय थी.
मित्रों, मेरा मतलब पूरी तरह भारत कि राजधानी दिल्ली के २०२० के दंगों से है. आश्चर्य की बात है कि उस समय दानिश सिद्दीकी नामक महान फोटोग्राफर को पुलिसकर्मी पर पिस्तौल ताने शाहरूख या जाबिर हुसैन के घर से चल रही गतिविधियों की कोई तस्वीर खींचने का मौका नहीं मिला लेकिन रामभक्त गोपाल की तस्वीर खींचने का महान अवसर जरूर मिल गया. जहाँ दानिश मंदिर और हिन्दुओं के स्कूल-घर और गाड़ियों के जलने की कोई तस्वीर नहीं खींच पाए वहीँ जली मस्जिदों पर उन्होंने खूब कैमरा चमकाया. आप ही बताईए ऊपरवाली कहानी में दानिश जैसे लोगों को किसका साथ देना चाहिए था खरगोशों का या भेड़ियों का.
मित्रों, यहाँ बात दूसरी है कि दानिश की हत्या हो चुकी है और हुई भी है भेड़ियों के हाथों. दानिश को भारत में कुछ भी अच्छा नहीं लगता था. मोदी सरकार तो बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स को अच्छी नहीं लगती है. जबकि सच्चाई तो यह है कि मोदी और योगी सरकार ने जितना मुसलमानों के लिए किया है उतना किसी ने नहीं किया. फिर भी जो लोग भारत में भी तालिबान जैसा शरियत का शासन चाहते हैं उनको मोदी कहाँ सुहानेवाले हैं?
मित्रों, पता नहीं ऐसा क्यों है लेकिन सच्चाई यही है कि कुछ महान अंतर्राष्ट्रीय ख्याति वाले पुरस्कार सिर्फ उनके लिए है जो भारत विरोधी हैं, हिंदूविरोधी हैं. दानिश को भी पुलित्ज़र मिल चुका था. मित्रों, क्या अब भी इस बात में कोई संदेह है कि इस्लाम हिंसक और मानवताविरोधी मजहब है? तालिबान ने जीते हुए ईलाकों के मौलवियों से १५ साल से बड़ी अविवाहित और विधवा स्त्रियों कि सूची मांगी है. क्यों? क्या वे उनको पुरस्कार देंगे? फिर वो स्त्रियाँ तो काफ़िर भी नहीं हैं. फिर क्यों किया जाएगा उनका जबरन निकाह जो उनको रोज-रोज बलात्कार जैसा दर्द देगा? क्यों? इस्लाम तो महिलाओं को बहुत सम्मान देता है न? क्या यही सम्मान है? तालिबानियों ने तो आत्मसमर्पण करनेवालों को भी नहीं बख्शा और तभी-का-तभी उड़ा दिया. इस बारे में कुरान की क्या राय है?
मित्रों, आज दानिश दुनिया में नहीं हैं. उन्होंने जब भी मौका मिला भारत और हिन्दुओं को बदनाम किया. उन हिन्दुओं को जिनसे अच्छा पड़ोसी हो ही नहीं सकता. दानिश को उसका खुदा जन्नत नसीब करे क्योंकि वो अपने खुदा के अत्यंत नेक बन्दों के हाथों अल्लाह हो अकबर के नारों के बीच मारा गया है. काश, दानिश की हत्या से भारत के अन्य महान पुरस्कार विजेता पत्रकार शिक्षा लेते और अपनी सोंच सचमुच निष्पक्ष कर लेते! हमें अमेरिकावाले न्यूयॉर्क टाइम्स से तो कोई उम्मीद नहीं है लेकिन भारतवाले न्यूयॉर्क टाइम्स वाले तो सुधर जाओ.
गुरुवार, 8 जुलाई 2021
मजबूरी का मंत्रीमंडल विस्तार
मित्रों, हवाबाजी खेल भी है और कला भी। जार्ज बुश जहां इस खेल में माहिर थे वहीं मोदी जी ने इसे कला का रूप दे दिया है। कोई भी वादा करके चुनाव जीतने के बाद अमित शाह जी से कहलवा देते हैं कि वो तो जुमला था। किबला इससे पहले हमने कभी यह शब्द सुना भी नहीं था।
मित्रों, फिर बहुत से अन्य नए शब्दों को सुना गया जैसे मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेन्स, सबका साथ सबका विकास, सबका विश्वास, आत्मनिर्भर भारत, मैं देश नहीं झुकने दूंगा, नेशन फर्स्ट, गरीबों की सरकार आदि।
मित्रों, बारी-बारी से ये सारे नारे खोखले निकले। कल मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नमेंस का भी जुलूस निकल गया। यह पहली ऐसी सरकार है जो किसी की सलाह माने बिना बडे ही आत्मविश्वास से गलतियां करती है। जब इसने पहली बार शपथ ली तभी लगा कि बेकार व चापलूस मंत्रियों के बल पर कैसे कोई सरकार गुड गवर्नेन्स दे सकती है? फिर मिनिमम गवर्नमेंट के नाम पर उन एक-एक फालतू लोगों को कई-कई विभाग थमा दिए गए।
मित्रों, इस बीच हमने भी आवाज उठाई खासकर सुरेश प्रभु जैसे योग्य व्यक्ति को मंत्रीमंडल से बाहर करना बहुत अखरा लेकिन अक्खड़ मोदी कहां सुननेवाले थे। फिर वे चुनाव-दर चुनाव जीत भी रहे थे। अब बंगाल चुनाव ने उनको सोंचने पर मजबूर कर दिया है।
मित्रों, फिर भी मैं नहीं समझता कि डिब्बों को बदलने से सरकार की कार्यशैली में कोई बदलाव आनेवाला है क्योंकि ईंजन तो वही पुराना है। लगता है जैसे बारी-बारी से सबको राज भोगने का अवसर दिया जा रहा है। फिर सबकी मेहनत का कबाड़ा करने में अकेली सक्षम निर्मला जी अभी भी वित्त मंत्री हैं।