भारत में विवाह समझौता नहीं बल्कि संस्कार माना जाता रहा है। लेकिन वर्तमान के जटिल यथार्थ के सामने क्या इस रिश्ते में इतनी गर्माहट बच गयी है जिसके चलते पति-पत्नी स्वाभविक जीवन-साथी माने जाते थे? आजकल के युवाओं में वैसे भी सबकुछ ठेंगे पर रखने का फैशन है, चाहे रिश्ते हों या कानून। पहले जहाँ इस पवित्र बंधन के द्वारा दो लोगों का जीवन दो नहीं रहकर एक हो जाता था अब ऐसा नहीं हो पा रहा है।
पति हो या पत्नी दोनों जीवन की अपने हिसाब से व्याख्या करने लगे हैं, अब दोनों की अपनी ज़िन्दगी भी है, अलग-अलग। एकात्मता जहाँ समन्वय को बढ़ता है, अलगाव की अवस्था में सम्बन्ध समझौते में बदल जाता है। फ़िर चाहे वह भक्त या भगवान के बीच का सम्बन्ध हो या मानव और मानव के बीच का। हम अपने आराध्य से मनौती मानते हैं कि मुझे यह दे दो तो मैं पूजा-अनुष्ठान का आयोजन करूंगा या दर्शन के लिए आऊंगा यहाँ भी एक समझौता है।
तो फ़िर रिश्तों के कमजोर पड़ने के कारण क्या हैं? कारण जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है वो है प्रेम की कमी। प्रेम में त्याग छिपा होता है। राम प्रेम की प्रतिमूर्ति होने के साथ-साथ त्याग की भी प्रतिमूर्ति हैं।
आज के युवा अपने अधिकारों के प्रति को जागरूक हो गए हैं लेकिन कर्तव्यों के मामले में यही बात दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है। कर्तव्यों पर अधिकारों को हावी होते हुए आप महाभारत में भी देख सकते है. कर्तव्य और अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरा सिर्फ़ अराजकता को जन्म देता है। वर्तमान भारत में चारों ओर छाई अराजकता के पीछे भी शायद यही कारण है। नेताओं और अधिकारियों को असीमित अधिकार तो दे दिए गए लेकिन कर्तव्य ज्ञान कौन कराएगा? कदाचित रिश्तों के दरकने के पीछे भी यही कारण है। रामायण से महाभारत तक के समय में आए अन्तर में हम इसे स्पष्ट देख सकते हैं। जहाँ रामायण में हर कोई त्याग के लिए तत्पर है वहीं महाभारत में बिना कर्तव्य किए ही दुर्योधन अधिकार चाहता है और इस क्रम में पांडवों
के अधिकारों की अनदेखी करने लगता है।
sir ab rishte rah hi kahan gaye hain. hamara desh ab paise se to dhanwan hai lekin sambandhon ke morche par kangal hota ja raha hai.-subhramanium, noida
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