शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

अंतहीन प्रतीक्षा

ज़िन्दगी मेरे साथ क्रूर जमींदार की तरह व्यवहार करती रही है;
करवाती रही है मुझसे दिन-रात बेगार और जमा-हासिल कुछ भी नहीं.
मैं करता रहा हूँ कड़ी मेहनत,
मैंने कभी मौसमी परेशानियों
सर्दी,गर्मी और बरसात की नहीं की फ़िक्र.

ज़िन्दगी मुझे बार-बार पढाती
रही गीता का श्लोक,
कि कर्म करते रहो मत करो
फल की चिंता;
जो तुम्हारे हाथों में है वही
तुम देखो,
बांकी का हिसाब-किताब
छोड़ दो मुझ पर;
और करते रहो सही वक़्त का इंतजार.

इसी तरह ढलती रहीं शामें,
कटती रही रातें;
निकलता रहा सूरज रोज
गुलाबी चादर ओढे;
लेकिन नहीं हुआ मेरा हिसाब
खाली रहे हाथ भन्नाता रहा दिमाग,
कहते हैं कि प्रतीक्षा की घड़ी
लम्बी होती है;
पर मैंने तो उसे अंतहीन होते देखा है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें