शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

टूटते-बिखरते परिवार


भारत के दो महाकाव्य सबसे प्रसिद्द रहे हैं-रामायण और महाभारत.कहना न होगा भारतीय संस्कृति पर इन दो महान ग्रंथों का जितना प्रभाव पड़ा है अन्य किसी पुस्तक का नहीं. एक में चारों भाई अपने दूसरे भाइयों के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग करने को लालायित रहते हैं तो दूसरे में एक भाई के पुत्र किसी भी कीमत पर दूसरे भाई के पुत्रों को पैत्रिक संपत्ति पर अधिकार देने को तैयार नहीं है.कहने का अर्थ यह कि परिवार में टूटन की बीमारी महाभारत काल में भी मौजूद थी लेकिन आपवादिक रूप में. वर्तमान परिवेश को अगर देखें तो भारतीय समाज संयुक्त परिवार से एकल परिवार तक तो आ ही चुका है अब व्यक्तिवाद की ओर भी चल पड़ा है. अब प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजी जिंदगी है वो चाहे जैसे जिए. माँ-बाप उसमें हस्तक्षेप करने के अधिकारी नहीं हैं.स्थिति ऐसी हो गई है कि कई-कई पुत्र-पुत्रियों का लालन-पालन करनेवाले माता-पिता ज़िन्दगी की शाम में खुद को ठगा, तनहा और टूटा हुआ महसूस करते हैं.आये दिन दिल्ली में वृद्ध दम्पति की चोरों-डकैतों द्वारा हत्या कर लूट लेने के मामले सामने आ रहे हैं. माता-पिता दिल्ली में और बच्चे यूरोप-अमेरिका में. सर्वथा नई प्रवृत्ति, जो भारतीय वांग्मय के लिए हमेशा अजनबी थी.हम भारतीयों को तो अपनी परिवार संस्था पर बहुत नाज था. फ़िर अचानक ये कौन सी हवा चली कि शमां ही बदल गई.आज हर भारतीय के समक्ष दुविधा है कि परिवार के लिए त्याग किया जाये कि परिवार को ही त्याग दिया जाये.मैं मानता हूँ कि पैसा जरूरी है लेकिन जब अपनों का साथ ही नहीं होगा तो पैसा लेकर हम क्या करेंगे? पैसा भी तभी सुख देगा जब हमारे अपने हमारे साथ हों.

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