शनिवार, 14 नवंबर 2009

बच्चों का बचपन खो गया है कहीं


हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है?
अब वे नहीं गाते राष्ट्रीय गीत,
नहीं पढ़ते महान लेखकों की रचनाओं को;
यहाँ तक कि नहीं बात करते अपनी भाषा में;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!

नहीं करते जगते-जगते वे माता-पिता को सिर नवाकर प्रणाम,
इसके बदले वे गुड मोर्निंग करते हैं;
यहाँ तक कि उन्हें नहीं पता कि गीता क्या है,
एक पुस्तक या फ़िर एक लड़की का नाम;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!

अब वे बैठे रहते हैं कंप्यूटर पर दिन-रात,
या फ़िर मांजते हैं किसी ढाबे में बर्तन;
नहीं खेलते मैदानों में जाकर,
यहाँ तक कि अब वे पक्षियों को पहचान भी नहीं पाते
और कबूतर को बाज़ बताते हैं;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!

आज बच्चे भूल गए हैं तितलियों के पीछे भागना,
खेतों से तोड़कर नहीं चूसते गन्ना
नहीं खाते चना-मटर की फलियाँ;
यहाँ तक कि नहीं तोड़ते ढेला चलाकर आम,
कहाँ गया इन बच्चों का बचपन
शायद खो गया है कहीं;
और पूछने पर मुझे कोई नहीं बता रहा है उसका पता.

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