बुधवार, 13 जनवरी 2010
चीनी से परेशान मनमोहन सरकार
आजकल केंद्र की मनमोहिनी-जनमोहिनी सरकार चीनी से परेशान है वो भी दोतरफा.एक तरफ चीनी के मूल्य में बेतहाशा वृद्धि ने उसकी हालत पतली कर दी है वहीँ चीन ईंच-ईंच कर भारतीय भूमि पर कब्ज़ा जमाये जा रहा है.थक हार कर चीनी के आयात का फैसला लिया गया.कितनी विचित्र स्थिति है सरकार चीनी के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रयास नहीं कर रही है बल्कि महंगे दामों पर चीनी आयात करना उसे सुविधाजनक लग रहा है.कुछ महीने पहले जब उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान दिल्ली जा पहुंचे थे तब केंद्र ने उनकी कई मांगें मान ली थी और कई वादे भी किये थे.लेकिन उनमें से न तो कोई मांग अब तक पूरी हुई है और न ही कोई वादा पूरा किया गया है.कृषि मंत्री तो यहाँ तक कह रहे हैं कि मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ जो बता दूं कि चीनी के दाम कब कम होंगे?क्या कृषि मंत्री इस तथ्य से भी अपरिचित हैं कि भारत में गन्ने की खेती में लगातार गिरावट आ रही है क्योंकि वर्तमान समर्थन मूल्य पर किसानों के लिए यह लाभकारी नहीं रह गई है.अब जब उत्पादन ही कम होता जा रहा है तो फ़िर चीनी के दाम बढ़ेंगे या घटेंगे जानने के लिए न तो किसी ऊंची डिग्री की ही जरूरत है और न ही ज्योतिष सीखने की.
जहाँ तक हमारे पड़ोसी देश चीन का प्रश्न है तो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि भारत और चीन दो समानांतर रेखाओं के समान हैं.चीन न तो भारत का मित्र हो सकता है और न है.बरसों पहले भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडिस ने कहा था और बिलकुल ठीक कहा था कि भारत का सबसे बड़ा दुश्मन चीन है न कि पाकिस्तान.बल्कि पाकिस्तान चीन के ही इशारों पर चलता रहा है.अब जब चीन ने विस्तृत भारतीय क्षेत्र पर कब्ज़ा जमा ही लिया है तो भारत के समक्ष विकल्प ही क्या है सिवाय चुप रह जाने के.वर्तमान केंद्र सरकार में वो नैतिक बल नहीं है कि वह चीन से आँखों में आँखें डालकर बात कर सके.यही कारण है कि वो चीनी अतिक्रमण से साफ तौर पर इनकार कर रही है.हाँ अगर दबाव जनता की तरफ से आये तो बात बन सकती है.लेकिन जनता भी तो सांस्कृतिक रीतिकाल का आनंद लेने में लगी है.उसे न तो बढती महंगाई से मतलब है और न ही देश की एकता और संप्रभुता से.
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