रविवार, 10 जनवरी 2010

ये तो होना ही था


कहते हैं कि जो जैसा करता है वैसा पाता है. साथ ही हर किसी की जिंदगी में अच्छे और बुरे दिन आते हैं.लगता है इन दिनों प्रबंध शिरोमणि अमर सिंह के ग्रह-नक्षत्र ठीक-ठाक नहीं चल रहे हैं.वैसे भी वे जिस रास्ते पर चल रहे थे उसकी कोई मंजिल तो थी नहीं.अमर सिंह जिस पीढ़ी के नेता हैं उस पीढ़ी ने राजनीति से नैतिकता को समाप्त होते अपनी आँखों से देखा है और कहीं-न-कहीं इसके लिए वह जिम्मेवार भी है.अब राजनीतिक मूल्यों में ह्रास में अमर सिंह की हिस्सेदारी कितनी है यह तो वृहद् विश्लेषण का विषय है लेकिन बोये पेड़ बबूल का आम कहाँ से होए  कहावत तो शाश्वत है और रहेगी भी.अमर सबसे पहले उत्तर प्रदेश के स्वर्गीय मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह से जुड़े और अपनी प्रबंधन कला से उन्हें खासा प्रभावित कर लिया.श्री सिंह की कृपा से देखते-ही-देखते काल तक फूटपाथ पर सोनेवाला यह आदमी कई फैक्टरियों का मालिक बन बैठा.इसी दौरान उनका परिचय समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव से हुआ और जल्दी ही उन्होंने उन्हें भी मैनेज कर लिया और उनके चहेते बन गए.एक बार तो उन्होंने मुलायम को जोड़-तोड़ के माध्यम से सत्ता में लाने में भी सफलता पा ली.लेकिन अमर के समाजवादी पार्टी में आने और छा जाने का साइड इफेक्ट भी कम नहीं हुआ.बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र और राजबब्बर जैसे दिग्गज और समर्पित साथी बारी-बारी से मुलायम से किनारा करते गए.तब अमर के सितारे बुलंद थे वे मिट्टी भी छूते तो वह सोना हो जाती.लेकिन सब दिन कहाँ एकसमान होते हैं.जनता का मोहभंग होने लगा.परिदृश्य बदला और मुलायम का राजनीतिक भविष्य ही खतरे में नजर आने लगा.मुलायम को लगने लगा कि अमर का साथ लाभ की जगह नुकसान पहुँचाने लगा है और शुरुआत हुई पार्टी में उन्हें किनारे लगाने की जिसकी परिणति उनके इस्तीफे से हुई.अमर ने समय-समय पर अपनी राजनीतिक पहुँच से अमिताभ बच्चन, अनिल अम्बानी और सुब्रत राय सहारा को लाभ पहुँचाया और राजनीति में धनबल के प्रयोग को बढ़ावा दिया.आगे उनके भाग्य में क्या बदा है यह तो विधाता ही जाने फिलहाल तो यही कहा जा सकता है की जो भी हो रहा है वो तो होना ही था.

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