रविवार, 2 मई 2010
नेपाल पर नजर रखे भारत
नेपाल भारत से भौगोलिक रूप से तो सबसे निकट है ही सांस्कृतिक रूप से भी दोनों देशों के सम्बन्ध सदियों से जितने निकट के रहे हैं उतने निकट के और किसी भी देश से नहीं रहे.लेकिन एक बार फ़िर भारत-नेपाल सम्बन्ध पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं.फ़िर से वहां भारत विरोधी माओवादी शक्तियां सिर उठाने लगी हैं. नेपाल की हवाओं में फ़िर से बारूद की सांद्रता बढ़ने लगी है.समय रहते अगर स्थितियों को काबू में नहीं किया गया तो इसमें कोई संदेह नहीं यह देश एक बार फ़िर गृहयुद्ध की आग में झुलस उठेगा.माओवादियों ने उनकी मांगें नहीं माने जाने तक १ मई, २०१० यानी मजदूर दिवस के दिन से अनिश्चितकालीन देशव्यापी हड़ताल का आह्वान कर रखा है.जिसके चलते लगभग पूरे नेपाल में सभी प्रकार की शैक्षिक और आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प पड़ गई हैं.माओवादियों ने प्रधानमत्री से इस्तीफे की मांग तो की ही है साथ ही प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले २२ दलीय गठबंधन को भंग करने की भी उनकी मांग है.मई,२००८ में जब संसद ने ढाई सौ साल पुराने राजतन्त्र को समाप्त कर नेपाल में गणतंत्र की स्थापना की घोषणा की तब भारत में ऐसी उम्मीद जगी थी कि अब नेपाल में स्थाई रूप से शांति स्थापित हो जाएगी.माओवादी नेता प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाया गया और २९ मई, २०१० तक नए संविधान के मसौदे को अंतिम रूप दे देने की समय-सीमा निर्धारित की गई.इस बीच नेपाल में उपजे नए घटनाक्रम में प्रचंड को अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा और माधव कुमार नेपाल प्रधानमंत्री बने.जब से प्रचंड अपदस्थ हुए हैं तभी से वे परेशान चल रहे हैं.दरअसल प्रचंड पूरे नेपाल को लाल रंग में रंगना चाहते हैं और वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा शांतिपूर्ण तरीके से तो संभव नहीं है.इसीलिए उन्होंने फ़िर से नेपाल में विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया है.जिस तरह फ़िर से माओवादी शिविरों में युवाओं को शस्त्र-संचालन का प्रशिक्षण दिया जाने लगा है उससे उनकी आगे की योजनाओं को आसानी से समझा जा सकता है.हालांकि यह नेपाल का आतंरिक मामला है फ़िर भी इसका दूरगामी प्रभाव भारत पर पड़ना निश्चित है.अगर प्रचंड अपने उद्देश्यों में सफल हो जाते हैं तो नेपाल पूरी तरह से चीन के नियंत्रण में चला जायेगा और भारत की नेपाल से लगी हजारों किलोमीटर सीमा असुरक्षित हो जाएगी.जिस समय वहां राजा ज्ञानेद्र को अपदस्थ किया गया उस समय भारत में साम्यवादियों के सहयोग से सरकार चल रही थी.उस समय मनमोहन सरकार ने सत्ता में बने रहने के लिए नेपाल में माओवादियों के बढ़ते प्रभाव की अनदेखी की अन्यथा उसी समय इन्हें कुचला जा सकता था.लेकिन वर्तमान में सरकार पर साम्यवादियों का उस तरह का कोई दवाब नहीं है अतः उसे देश के दूरगामी हितों के लिए अगर जरूरी हो तो नेपाल में सैन्य हस्तक्षेप के विकल्प को भी खुला रखना चाहिए.नेपाल के मामले में बरती गई किसी भी तरह की कोताही दक्षिण एशिया में चीन की स्थिति को तो मजबूत करेगी ही भारतीय नक्सलवादियों के लिए भी यह संजीविनी का काम करेगी जो हमारे लिए सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या बन चुके हैं.
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