बुधवार, 5 मई 2010
आधुनिक मानव और आस्था का संकट
मध्ययुग तक एक आम भारतीय सामाजिक मूल्यों और ईश्वर पर इतना अधिक विश्वास रखता था कि लगभग रोजाना उसे इनके नाम पर ठगा जाता था.जब हमारे देश पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया तब लोगों को कथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने का पाठ पढाया जाने लगा.धीरे-धीरे लोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रभावित होने लगे और अन्धविश्वास के कुहासे से बाहर आने लगे लेकिन यह विकास-यात्रा यहीं पर रूक नहीं गई.लोगों के मन से अन्धविश्वास तो दूर हुआ ही विश्वास भी दूर होने लगा चाहे ईश्वर पर विश्वास की बात हो या सामाजिक मूल्यों पर विश्वास की.उपनिवेशवाद के अंत के बाद साम्राज्यवादियों ने उपभोक्तावाद के सिद्धांत को जन्म दिया.अब विज्ञापन के माध्यम से जरूरतें पैदा की जाने लगी.लोग जल्दी ही उपभोक्तावाद की हवा में ऐसे बहने लगे कि इन्सान के बदले पैसा कमाने की मशीन बनकर रह गए.अब न तो नैतिकता का ही कोई मूल्य रह गया और न ही ईमानदारी का.लोग दूसरे तो दूसरे अब अपनी अंतरात्मा को भी धोखा देने लगे.यह दुनिया उम्मीद पर कायम है और उम्मीद का ही दूसरा नाम आस्था है,विश्वास है.आस्था ईश्वर के प्रति जो संसार को चलाता है, आस्था उन मूल्यों के प्रति जो समाज के भली-भांति संचालन के लिए आवश्यक हैं.अगर लोग नास्तिक हो जायेंगे तो वे खुद को ही कर्ता मानने लगेंगे और जब भी असफल होंगे तो निराशा के महासागर में गोते लगाने लगेंगे.जिससे या तो अवसाद में चले जायेंगे या फ़िर आत्महत्या कर लेंगे.इसलिए ईश्वर पर विश्वास मानव के लिए एक जरूरत है.वैसे भी मानव संसार का एक बहुत ही तुच्छ जीव है.उसकी क्षमता की एक सीमा है.इसलिए उसे सबकुछ ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करने चाहिए.इस संसार को कम-से-कम मानव तो नहीं ही चला रहा है कोई-न-कोई ऐसी शक्ति तो है जो संसार का संचालन कर रहा है.अगर मानव संसार का नियामक होता तो न तो ग्लोबल वार्मिंग का खतरा होता और न ही कही कोई प्राकृतिक या अप्राकृतिक दुर्घटना ही होती.अभी कुछ साल पहले ही एक वैश्विक सर्वेक्षण में भारतीयों को दुनिया में सबसे खुश पाया गया था लेकिन अब आकड़े बदल गए हैं.कारण है मूल्यों के प्रति अनास्था में वृद्धि और परिवारों का बिखरना.पहले जहाँ सिर्फ चूल्हे ही साझे नहीं होते थे दिल भी साझे होते थे वहीँ आज का मानव पूरी तरह अकेला है सुख में भी और दुःख में भी.जबकि सुख बाँटने से बढ़ता है और दुःख बाँटने से घटना है.आखिर मानव एक सामाजिक प्राणी जो ठहरा.तब राम का दुःख सिर्फ राम का ही दुःख नहीं होता था बल्कि पूरे अयोध्या का दुःख होता था और इसका उल्टा भी उतना ही सत्य था.जबकि अब लोग सिर्फ अपनी ही चिंता में लगे रहते हैं.अनास्था सिर्फ दुःख में ही वृद्धि कर सकता है.चार दिन की चांदनी फ़िर अँधेरी रात.क्षणिक सुख और चिरकालिक दुःख.मानव शरीर और वस्तुओं के प्रति आस्था का भी यही परिणाम होता है क्योंकि ये स्थायी नहीं बल्कि क्षणभंगुर हैं.इसलिए मानव को ईश्वर और सामाजिक मूल्यों के प्रति अपनी आस्था को बनाये रखनी चाहिए.इसी में उसकी भलाई है.ईश्वर पर अगर वह आस्था रखता है तो इससे उसे ही लाभ होगा ईश्वर को नहीं क्योंकि वह तो नफा-नुकसान के गणित से काफी ऊपर है.
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