गुरुवार, 29 जुलाई 2010
अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने की विवशता
वे शरणार्थी हैं वो भी अपने ही देश में.ऐसा नहीं है कि वे शौक से शरणार्थी बने हुए हैं लेकिन वे कुछ कर भी नहीं सकते;वे निरुपाय हैं.१९९० में उन्हें कश्मीर घाटी के मुसलमान पड़ोसी ग्रामीणों ने बन्दूक के बल पर खदेड़ दिया.रातों-रात उनकी दुनिया उजाड़ गई.आँखों में आंसू भरे गोद में अबोध बच्चे-बच्चियों को उठाये वे अपने घरों से कदम-दर-कदम दूर होते गए.फासला बढ़ता गया और इतना बढ़ गया कि आज दो दशक बीत जाने के बाद भी वे इस दूरी को पाट नहीं पाए हैं.अचानक उनके सदियों से पड़ोसी रहे मुसलमान उनकी जान के दुश्मन हो गए,क्यों???जब यह सब हो रहा था तब भी वक़्त के कतरों ने उन मनहूस लम्हों से यह प्रश्न पूछा था लेकिन इसका जवाब न तो उन लम्हों के पास था और न ही २० साल के युग समान लम्बे कालखंड के पास.सरकार ने उनके रहने की अस्थाई व्यवस्था करके अपने कर्त्तव्य पूरे कर लिए.उन्ही छोटे कमरों में १०-१० लोगों का परिवार सोता है पिछले २० साल से.उन्हें सरकार से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं थी क्योंकि वे बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग से आते थे और उनका कोई बड़ा वोटबैंक भी नहीं था जो सियासतदानों का तख्ता पलट सकता.वोट बैंक तो उनका था जो कथित रूप से अल्पसंख्यक थे.इसलिए सरकार पीडकों के पीछे खड़ी रही,पीड़ित चीखते-चिल्लाते गला बैठाते रहे.सन २००२ तक मैं इन कश्मीरी पंडितों की कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में पढता रहा.मैं जब आई.ए.एस. की तैयारी के लिए दिल्ली गया तब मेरे लॉज में बगल के कमरे में एक कश्मीरी पंडित युवक रहता था.बला का खूबसूरत.नाम था अश्विनी कॉल.बड़ा ही हंसमुख और मस्त.कश्मीर उसके खून में था.जब हम जाड़े में कांपते रहते वो घंटों ठन्डे पानी से नहाता.दिल्ली में रहकर भी वो कश्मीर में रहता.१९९० में वह दस साल का था जब सपरिवार उसे घर छोड़कर स्याह अँधेरी रात में पुलिस संगीनों के साये में भागना पड़ा था.उनलोगों ने जम्मू में पड़ाव डाला जहाँ उसके पिता पहले से ही कॉलेज में काम करते थे.वह कभी उदास नहीं होता सिवाय तब के जब मैं उससे कश्मीर के उसके घर और गाँव के बारे में पूछ लेता.वह डबडबाई आँखों से उन हालातों को बयाँ करता जिन हालातों में उन्हें घर छोड़ना पड़ा था.उसे और उसके परिवार को घर छोड़ते समय उम्मीद थी कि साल-दो-साल में ही स्थितियां सुधार जाएंगी और वे लोग फ़िर से अपनी धरती-अपने गाँव में रहने लगेंगे.लेकिन ऐसा नहीं हुआ.नहीं हो सका या जानबूझकर नहीं होने दिया गया अश्विनी नहीं जानता था.लेकिन उन्हीं कश्मीरी पंडितों में से कुछ ऐसे परिवार भी थे जिनके पास अश्विनी की तरह कमाई का कोई जरिया नहीं था.दो कश्मीरी लड़कियां,दो छोटे-छोटे लड़कों को लेकर हर महीने मेरे घंटाघर वाले निवास पर दस्तक देतीं.तब तक अश्विनी दिल्ली छोड़ चुका था और मैं भी डेरा बदल चुका था.फूल जैसे चेहरे लेकिन मुरझाये हुए.कभी कहतीं दो दिनों से तो कभी कहतीं चार दिनों से घर में चूल्हा नहीं जला है.मैं तब विद्यार्थी था और अन्य विद्यार्थियों की तरह पूरी तरह से माता-पिता पर निर्भर था.फ़िर भी अपने खर्च में से १०० रूपये निकलकर दे देता.मन आक्रोशित हो उठाता और मन खुद से ही सवाल करने लगता क्या ये लोग अब कभी अपने घर नहीं लौट पाएंगे?क्या दोष है इनका??इन्होंने कौन-सी गलती की है जिसकी उन्हें सजा मिल रही है???क्या इनकी यही गलती नहीं है कि इन्होंने एक हिन्दूबहुल देश में हिन्दू धर्मं में जन्म लिया????
कभी नाव पे गाड़ी कभी गाड़ी पे नाव
हमारे बिहार में एक कहावत खूब प्रचलित है कभी नाव पे गाड़ी कभी गाड़ी पे नाव.दुनिया में सारे रिश्ते समय से बंधे हुए हैं और समय कब किस ओर करवट ले उसके सिवा कोई नहीं जानता.अभी ६३ साल ही तो बीते हैं जब भारत इंग्लैंड का गुलाम था.हमारे लाखों जवानों ने शहादत दी तब जाकर अंग्रेज भारत छोड़कर भागे.तब भारत अंग्रेजों के लिए असभ्यों का देश था और इसे सभ्य बनाने को वे व्हाइट मेंस बर्डेन मानते थे.जब अँगरेज़ भारत को छोड़कर गए तो हमारे यहाँ उद्योग के नाम पर चंद सूती कपडा,जूट और चीनी बनाने की फैक्ट्रियों के सिवा कुछ भी नहीं था.सूई से लेकर हवाई जहाज तक इंग्लैंड से आता था.हमने कठिन परिश्रम किया और आज हम दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था हैं.इंग्लैंड सहित सारे पूंजीवादी देश आज आर्थिक दिवालियेपन के कगार पर खड़े है और उनके लिए उम्मीद की बस दो ही किरणें दुनिया में बची हैं जो उन्हें इस अभूतपूर्व संकट से उबार सकती है और उनमें से एक तो चीन है और दूसरा है अपना प्यारा देश भारत.अभी भारत पर दो सौ सालों तक शासन करने वाले इंग्लैंड के कंजर्वेटिव प्रधानमंत्री डेविड कैमरून भारत की यात्रा पर हैं.उनकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य है भारत के साठ हॉक प्रशिक्षण विमान खरीद सहित ऐसे व्यापारिक समझौते करना जिससे इंग्लैंड की दम तोड़ती अर्थव्यवस्था को ताकत मिले.शायद इसलिए इस बार उनकी भाषा बदली हुई है.उन्होंने पाकिस्तान को स्पष्ट शब्दों में आतंकवाद के मोर्चे पर दोहरी नीति रखने से बाज़ आने को कहा है.बड़े ही आश्चर्य की बात है कि इंग्लैंड का प्रधानमंत्री वो भी कंजर्वेटिव भारत के पक्ष में बातें करें.वो भी इतने स्पष्ट रूप से जितनी स्पष्टता से शायद लेबर प्रधानमंत्री भी नहीं करता.गांधी जी अंग्रेजों की मानसिकता को तभी समझ गए थे.तभी तो उन्होंने कहा था कि इंग्लैंड बनियों का देश है कमोबेश आज भी उसका वही हाल है.अभी भारत से फायदा लेना है तो भारत के पक्ष में बोल रहा है.कल किसी और के पक्ष में बोलेगा.लोकतंत्र का प्रसार वगैरह सिर्फ किताबी बातें हैं असली चीज तो है आर्थिक लाभ.इसलिए भारत को इन पश्चिमी देशों को लेकर किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए.वैसे भी चाहे वो घरेलू राजनीति हो या वैश्विक राजनीति,राजनीति में न तो कोई किसी का स्थाई मित्र होता है और न ही स्थाई शत्रु.अतः भारत को अपनी मजबूत स्थिति का लाभ उठाने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए और दुनिया के किसी भी देश के साथ किसी भी तरह का समझौता अपनी शर्तों पर करना चाहिए.दुनिया में जिस तरह के हालात हैं उससे अब इस मामले में कोई संदेह नहीं रह गया है कि दुनिया की अगली महाशक्ति चीन बनाने वाला है और चीन पहले से ही हमसे शत्रुता पाले हुए है इसलिए भी हमें प्रत्येक कदम सोंच-समझकर उठाना चाहिए.
सोमवार, 26 जुलाई 2010
गांधी तेरे देश में
गांधी तेरे देश में,
घूम रहे आज हर जगह
डाकू संत के वेश में;
गांधी तेरे देश में.
खुल रही नई दुकानें
शराब की हर रोज यहाँ,
बढती है आमदनी इससे
बनी सरकारी सोंच यहाँ;
दौड़ रहा मानव
बेतहाशा पैसे की रेस में;
गांधी तेरे देश में.
हो रहा है रोज घोटाला,
भूमिचोरी,फर्जीवाड़े से केवाला;
मुश्किल हुआ निकलना घर से,
छोड़ रही पढाई ललनाएं
बलात्कारियों के डर से;
रो रही हैं भारतमाता
टूटे गृह अवशेष में;
गांधी तेरे देश में.
थाना बना बथाना
मंदिर बना दुकान,
दफ्तर दक्जनी का अड्डा
अस्पताल श्मशान;
लूट रहे लुटेरे जनता को
अफसर-डाक्टर के वेश में;
गांधी तेरे देश में.
लड़ रही जनता आपस में
हुआ विखंडित आज समाज,
रो रही अहिंसा उपेक्षित
कहाँ है तुम्हारा रामराज;
घूम रहे आज हर जगह
डाकू संत के वेश में;
गांधी तेरे देश में.
खुल रही नई दुकानें
शराब की हर रोज यहाँ,
बढती है आमदनी इससे
बनी सरकारी सोंच यहाँ;
दौड़ रहा मानव
बेतहाशा पैसे की रेस में;
गांधी तेरे देश में.
हो रहा है रोज घोटाला,
भूमिचोरी,फर्जीवाड़े से केवाला;
मुश्किल हुआ निकलना घर से,
छोड़ रही पढाई ललनाएं
बलात्कारियों के डर से;
रो रही हैं भारतमाता
टूटे गृह अवशेष में;
गांधी तेरे देश में.
थाना बना बथाना
मंदिर बना दुकान,
दफ्तर दक्जनी का अड्डा
अस्पताल श्मशान;
लूट रहे लुटेरे जनता को
अफसर-डाक्टर के वेश में;
गांधी तेरे देश में.
लड़ रही जनता आपस में
हुआ विखंडित आज समाज,
रो रही अहिंसा उपेक्षित
कहाँ है तुम्हारा रामराज;
धनलोलुप बैठे हैं कुंडली मारे
पत्रिकाओं और प्रेस में;
गांधी तेरे देश में.
न्याय का मंदिर
दुकान बन गया,
भ्रष्टाचार इसकी पहचान बन गया;
खून करना शान बन गया
अपशब्द पुलिसिया जबान बन गया;
जाने क्या ईन्सान बन गया;
ले-देकर हो रहा है निर्णय
हर मुकदमा हर केस में;
गांधी तेरे देश में.
रविवार, 25 जुलाई 2010
पतन की ओर अग्रसर भारतीय कृषि
कृषि खेती और वानिकी के माध्यम से खाद्य पदार्थों के उत्पादन से सम्बंधित है.मानव सभ्यता के इतिहास में कृषि की खोज को इतना महत्वपूर्ण माना जाता है कि इसे नवपाषाणकालीन क्रांति भी कहा जाता है.यह कृषि ही थी जो पूरी दुनिया में विभिन्न सभ्यताओं के जन्म लेने का कारण बनी.यह शुरू से ही पशुपालन से कुछ इस तरह जुड़ी रही है कि दोनों को एक-दूसरे का पूरक भी कहा जा सकता है.कृषि ने ही घनी आबादी वाली बस्तियों और स्तरीकृत समाज को संभव बनाया.कृषि योग्य भूमि पर फसलों को उगाना और चरागाहों में पशुओं को चराना कृषि के प्रमुख क्षेत्र रहे हैं.कृषि के विभिन्न रूपों की पहचान करना और उत्पादन में मात्रात्मक वृद्धि शुरुआत से ही किसानों के बीच विचार के प्रमुख मुद्दे रहे हैं.२००७ में दुनिया के लगभग एक-तिहाई श्रमिक कृषि क्षेत्र में कार्यरत थे.हालांकि औद्योगिकीकरण के प्रारंभ के बाद से ही कृषि का अर्थव्यवस्था में कम होता गया है और २००३ में दुनिया के इतिहास में पहली बार रोजगार उपलब्धता की दृष्टि से सेवा क्षेत्र ने कृषि को पीछे छोड़ दिया.इसके बावजूद यह दुनिया के एक-तिहाई श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराता है हालांकि सकल विश्व उत्पाद में इसकी हिस्सेदारी घटकर ५ प्रतिशत से भी कम रह गई है.भारत पर कब्ज़ा करने के बाद से ही अंग्रेजों ने भारतीय कृषि का उपयोग अपने लाभ के लिए करना शुरू कर दिया.अब भारतीय किसान अपनी मर्जी से खेतों में फसलें नहीं लगा सकते थे और उन्हें उसी चीज की खेती करनी पड़ती थी जिसका व्यापार कर अंग्रेज अच्छा मुनाफा कमा सकें.इतना ही नहीं अंग्रेजों की गलत आर्थिक नीति के चलते भारी पैमाने पर शहरों से गांवों की तरफ लोगों का पलायन होने से कृषि पर बोझ भी बढ़ गया.ऊपर से अंग्रेजों ने किसानों पर इतना लगान लाद दिया कि किसान कर्ज के दुष्चक्र में फंसकर रह गए थे.आजादी से पहले तक खेती पशु और मानव श्रम की सहायता से की जाती थी.तब कृषि कार्य सालोंभर चलते रहते थे.खेती के साथ पशुपालन अनिवार्य शर्त थी.पशुओं के लिए चारा खेती से ही निकल आता था.पशु सिर्फ खेतों को तैयार करने और समान ढोने में ही मदद नहीं करते थे बल्कि दूध भी देते थे जो काफी पौष्टिक होता था.इतना ही नहीं उनके द्वारा त्यागे गए मल-मूत्र उच्च कोटि के प्राकृतिक खाद का काम करते थे और मिट्टी की सेहत बनाये रखते थे.भारत की आज़ादी अपने साथ विभाजन का दर्द भी लेकर आई.बंटवारे में मुख्य खाद्य क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में चले गए जिससे भारत में खाद्य संकट उत्पन्न हो गया.इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद निर्वाचित सरकार ने कृषि के विकास के लिए प्रयास शुरू कर दिए.सरकार की नीयत अच्छी थी लेकिन नीतियाँ गलत थीं.पूरे देश में जैसे-तैसे नहरें बनाई गई जिनमें से अधिकतर कुछ ही सालों बाद बेकार हो गईं.ठेकेदार जरूर मालामाल हो गए.पश्चिमी उत्तर प्रदेश,पंजाब-हरियाणा और राजस्थान के कुछ किसानों को विशेष सुविधाएँ और सहायता देकर हरित क्रांति की योजना बनाई गई.जिससे इस क्षेत्र के किसान अमीर हो गए जबकि देश के बांकी भागों में किसानों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती गई.देश के बांकी भागों में भी हालांकि कृषि का यंत्रीकरण हुआ लेकिन ठीक वैसे ही जबरन जैसे अंग्रेजों के समय व्यवसायीकरण हुआ था.पशुपालन और कृषि की पारस्परिकता समाप्त हो गई और खेतों में रासायनिक खाद डाले जाने लगे.साथ ही कीटनाशकों के प्रयोग को भी वैज्ञानिक कृषि के नाम पर बढ़ावा दिया गया.सरकार ने सिंचाई के परंपरागत साधनों की उपेक्षा की और जगह-जगह नलकूप गाड़े जाने लगे.इसका परिणाम यह हुआ कि पिछले पचास-साठ सालों में सारे तालाब और कुँए रख-रखाव के अभाव में भर गए.ज्यादातर नहरें गाद भर जाने के कारण बहुत जल्दी बेकार हो गईं.खाद के अनियंत्रित उपयोग ने मिट्टी की सेहत बिगाड़ कर रख दी.कीटनाशकों ने भूमिगत जल को जहरीला किया ही नलकूपों द्वारा इनके एकतरफा दोहन ने भूमिगल जल के स्तर को खतरनाक बिंदु तक पहुंचा दिया.दूसरी ओर सरकार ने भी ९० के दशक से सब्सिडी में कटौती करनी शुरू कर दी.कुल मिलाकर आज भारतीय कृषि संकट में है.कृषि अब घाटे का सौदा है.किसान खेती करना नहीं चाहते लेकिन खेती करना उनकी मजबूरी है.सरकार की गलत नीतियों के कारण देश के स.घ.उ. में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी मात्र १५.७ फीसदी रह गई है जबकि आज भी देश की आधी से ज्यादा जनसंख्या खेती पर निर्भर है.किसानों की माली हालात इतनी ख़राब हो चुकी है कि हर दिन कई किसान आत्महत्या कर रहे हैं.पिछले कई सालों से कृषि उत्पादन लगभग स्थिर है जबकि हर साल देश की जनसंख्या में लगभग २ करोड़ नए लोग जुड़ जाते हैं.प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक इन्द्र देवता के आह्वान में लगे हैं.पिछले ६३ सालों में चलाई गई खरबों की लागत से चलाई गईं लगभग सारी सिचाई योजनायें बेकार साबित हो रही हैं.दूसरी ओर भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में टनों अनाज सड़ गए हैं और किसी की जिम्मेदारी तय करने में सरकार विफल साबित हो रही है.सरकार द्वारा बिना सोंचे-समझे नरेगा योजना चलाने के कारण कृषि के लिए मजदूरों की कृत्रिम कमी पैदा हो रही है जिसका दुष्प्रभाव अब भारतीय कृषि पर दिखने भी लगा है.फिलहाल कृषि उत्पादन में कमी आने से महंगाई आठवें आसमान पर है और सरकार किंकर्त्तव्यविमूढ़ बनी हुई है.यहाँ तक कि उसके पास कृषि उत्पादन बढ़ाने की कोई योजना तक नहीं है.ऐसे में किसानों की हालत निश्चित रूप से और भी बिगड़ने वाली है और उनका जीवन और भी कठिन होने जा रहा है.
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
बिहार में एक बार फ़िर घोटालों की राजनीति
बिहार में इन दिनों चार साल के अवकाश के बाद फ़िर से घोटालों की राजनीति चल पड़ी है.समय ने पलटी खाई है और कभी चारा घोटाला में उच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता रहे लोग खुद को ही कटघरे में पा रहे हैं.ठीक इसी तरह बहुचर्चित पशुपालन घोटाले के समय भी तब की राज्य सरकार पशुपालन विभाग में हुए खर्च का उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दे पाई थी और बाद में सनसनीखेज घोटाले का पर्दाफाश हुआ था.विकास की बात करनेवाले नीतीश कुमार को पहली बार सुरक्षात्मक रवैय्या अपनाना पड़ा है और इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं.विकास के नाम पर पैसों की व्यापक पैमाने पर बर्बादी हुई है.मनरेगा के तहत होनेवाले कामों के लिए उप विकास आयुक्त खुलेआम ग्राम प्रधानों से ५ से १० प्रतिशत तक का कमीशन खा रहे हैं.सरकार को अगर इससे इनकार है तो सभी उप विकास आयुक्तों की संपत्ति की जाँच करा कर देख ले.मैंने अपने जिले के जिला परिषद् कार्यालय में पाया कि मनरेगा मजदूरों की भुगतान पंजी पर कदाचित ९९.९९ प्रतिशत से भी ज्यादा मजदूरों के अंगूठों के निशान लगे हुए थे.ठीक वैसे ही जैसे मतदान के समय बूथ कब्ज़ा होने पर सारे वोटर अचानक अनपढ़ हो जाते हैं.गांवों में १० प्रतिशत राशि भी वास्तव में खर्च नहीं की जा रही,कहीं कोई काम नहीं हो रहा और ९० प्रतिशत से भी ज्यादा राशि स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की जेबों में चली जाती है.ऐसा संभव नहीं है कि पंचायती राज में क्या हो रहा है से सरकार पूरी तरह नावाकिफ हो लेकिन शायद उसका सोंचना है कि ग्राम प्रधान और अधिकारी ही उनकी चुनावी नैया पार लगाने में काफी साबित होंगे.लालू प्रसाद जो एक लम्बे समय से चारा घोटाले में लगे गंभीर आरोपों को झेलने के लिए अभिशप्त हैं, को अचानक बहुत बड़ा मुद्दा हाथ लग गया है और वे मेरा घोटाला-तेरा घोटाला का खेल खेलने लगे हैं.लेकिन दोनों मामलों में भारी अंतर है जहाँ चारा घोटाले में कुछ लोग ही सारी राशि चट कर गए थे वहीँ इस घोटाले में मामला धन देकर खर्च की निगरानी नहीं कर पाने का है.वास्तव में जिस तरह से भ्रष्टाचार हमारी संस्कृति में शामिल हो चुका है.इस तरह के माहौल में जब तक सरकार दृढ ईच्छाशक्ति नहीं दिखाती इस तरह के गबन होते रहेंगे.सरकार ने नौकरशाही को अनियंत्रित छूट दे रखी है.यहाँ तक कि मंत्री भी खुद को लाल फीताशाही के आगे लाचार महसूस कर रहे हैं.नौकरशाही की जनता के प्रति कोई सीधी जिम्मेदारी नहीं होती.जनता के बीच जाकर हाथ पसारना पड़ता है नेताओं को.इस सरकार में नौकरशाही और लोकशाही के बीच का संतुलन कायम नहीं रह पाया इसलिए भी सरकार वित्तीय अनियमितता को समय रहते नहीं रोक पाई.वास्तव में मुख्यमंत्री नीतीश को खादी पर बिलकुल भी भरोसा नहीं था.मुख्यमंत्री की देखा-देखी जिलाधिकारी भी जनता दरबार लगाने लगे,लेकिन वे जनता की समस्याओं का समाधान नहीं कर पाए और मुख्यमंत्री के जनता दरबार की तरह उनका दरबार भी महज दिखावा बनकर रह गया.भ्रष्टाचार के खिलाफ निगरानी विभाग ने सक्रियता जरूर दिखाई लेकिन बाद के समय में निगरानी के अधिकारी भी घूस खाने लगे.अब इन पर कौन निगरानी रखे.पिछले दो दिनों से विधान सभा में विपक्ष जिस तरह का व्यवहार कर रहा है उसे संसदीय तो नहीं ही कहा जा सकता है,गुंडागर्दी की श्रेणी में भी शामिल किया जा सकता है.विधायिका शांतिपूर्वक बहस करने और कानून बनाने का मंच है न कि गुंडागर्दी और पशुबल के प्रदर्शन का.बिहार में चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं बचा है ऐसे में पूरा विपक्ष अगर विधायिका से इस्तीफा दे भी देता है तो वो त्याग की श्रेणी में नहीं आएगा बल्कि उसे राजनीतिक बढ़त प्राप्त करने का हथकंडा ही माना जायेगा.
बुधवार, 21 जुलाई 2010
बिना सुविधा-शुल्क के काम न होई
जवाहरलाल नेहरु ने १९५२ में २ अक्तूबर के दिन देश में सामुदायिक विकास केंद्र खोलने की योजना का शुभारम्भ किया.इसके तहत पूरे देश में कुछेक गांवों को मिलाकर प्रखंड बनाये गए और निकटवर्ती शहरों में प्रखंड कार्यालय खोले गए.उद्देश्य था विकास की रौशनी को गांवों तक आसानी से पहुँचाना.लेकिन योजना के ६ठे साल में ही नेहरु समझ गए थे कि उनसे इस मामले में गलती हो गई है और ये कार्यालय विकास की जगह भ्रष्टाचार के केंद्र बन गए हैं.इन्हीं प्रखंड कार्यालयों के हाथों में होता है जमीन का ब्यौरा.कोई भी व्यक्ति जब जमीन खरीदता है तो उसके लिए जरूरी होता है कि रसीद उसके नाम पर कटे.यह रसीद कई स्थानों पर काम आती हैं.बिना रसीद के आप न तो आय प्रमाण पत्र बनवा सकते हैं और न ही आवासीय प्रमाण पत्र.लेकिन रसीद तभी आपके नाम पर कट सकती है जब आपके नाम दाखिल ख़ारिज हो जाए और दाखिल ख़ारिज तभी हो सकता है जब आप सुविधा-शुल्क दें.अगर सुविधा-शुल्क नहीं देंगे तो अंचलाधिकारी किसी-न-किसी बहाने आपकी अर्जी को अटका देगा.वह बहाना रजिस्ट्री में उचित कर नहीं देने से लेकर जमीन पर आपका कब्ज़ा नहीं होना कुछ भी हो सकता है.और अगर एक बार अर्जी अटक गई तो न जाने फ़िर कब मंजूरी मिले.कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि कर्मचारी उधार पर काम करवा देते हैं,ज्यादातर मामलों में पैसा मिल भी जाता है.लेकिन अगर पार्टी ने किसी कारण से पैसा नहीं दिया तो उनको अपनी जेब से अधिकारी को पैसा देना पड़ता है.उनकों अधिकारी की नज़र में अपनी साख ख़राब होने का खतरा जो होता है.अभी मेरे ही जिले वैशाली के पातेपुर प्रखंड में एक दिलचस्प वाकया सामने आया.अंचलाधिकारी पहले किरानी थे हाल ही में नीतीश सरकार के तुगलकी फरमान द्वारा किरानियों को मिली सामूहिक प्रोन्नति ने उन्हें अचानक अधिकारी बना दिया.सो उनकी आदत बिगड़ी हुई है.पहले बिना पैसा लिए वे कोई काम करते ही नहीं थे.अब हर किसी को जल्दीबाजी तो होती नहीं और कुछ लोग हमारी तरह लड़ाकू प्रवृत्ति के भी होते हैं मन में ठान लिया कि चाहे काम में जितना समय लग जाए घूस तो नहीं ही देंगे.अधिकारी ने आवेदनों की गिनती की तो पाया कि पैसे कम हैं.बिना पैसे वाले सारे आवेदनों को आलमारी में बंद कर ताला लगा दिया.लड़ाकू पहुँच गए डी.एम. के दरबार में.डी.एम. ने अंचलाधिकारी को आवश्यक निर्देश भी दिए लेकिन अधिकारी नहीं माना.आज भी लोग अंचल कार्यालय के चक्कर काट रहे हैं.दाखिल ख़ारिज में घूस की दर भी अलग-अलग होती है जैसा मुवक्किल वैसा पैसा लेकिन देना सबको पड़ता है नहीं तो फ़िर आवेदन के आलमारी में बंद हो जाने का खतरा तो सर पर मंडराता ही रहता है.मुसीबत दाखिल ख़ारिज तक आकर ही समाप्त हो जाए ऐसा भी नहीं है इसके बाद रसीद कटवाने के लिए भी आपको महीनों कर्मचारी की परिक्रमा करनी पड़ सकती है.कभी फ़ुरसत नहीं होने का बहाना तो कभी रसीद समाप्त रहने का.५-१० रूपये के लिए कर्मचारी क्यों अपना समय जाया करे उतनी देर में तो वो कई दाखिल ख़ारिज आवेदनों को तैयार कर सकता है.अब तक तो आप समझ गए होंगे कि दो मिनट में सिर्फ मैगी ही नहीं पकती बल्कि १०००-५०० रूपये भी कमाए जा सकते है बशर्ते आप बिहार में अंचल में कर्मचारी हों और दाखिल ख़ारिज का फॉर्म भर रहे हों..
सोमवार, 19 जुलाई 2010
मानवाधिकारों की कब्रगाह पाकिस्तान
१४ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान बनते समय उम्मीद की गई थी कि वो मुसलमानों के लिए एक आदर्श देश साबित होगा और मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा भी था कि पाकिस्तान एक मुस्लिम देश ज़रूर होगा मगर सभी आस्थाओं वाले लोगों को पूरी धार्मिक आज़ादी होगी।पाकिस्तान के संविधान में ग़ैर मुसलमानों की धार्मिक आज़ादी के बारे में कहा भी गया है, “देश के हर नागरिक को यह आज़ादी होगी कि वह अपने धर्म की आस्थाओं में विश्वास करते हुए उसका पालन और प्रचार कर सके और इसके साथ ही हर धार्मिक आस्था वाले समुदाय को अपनी धार्मिक संस्थाएँ बनाने और उनका रखरखाव और प्रबंधन करने की इजाज़त होगी।” मगर आज के हालात पर ग़ौर करें तो पाकिस्तान में परिस्थितियाँ ख़ासी चिंताजनक हैं।सिर्फ अल्पसंख्यकों को ही नहीं बल्कि बहुसंख्यकों को भी शरियत के आधार पर जीवन जीने को बाध्य किया जा रहा है. पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम प्रान्त के लाखों निवासियों के मानवाधिकारों के प्रति अंतर्राष्ट्रीय संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने गंभीर चिंता व्यक्त की है.उसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पाकिस्तान के इस प्रान्त के लोगों को किसी भी तरह का कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है और वे तालिबान के जुल्म को सहने को विवश हैं.स्कूलों पर तालिबान कब्ज़ा कर रहे हैं और बच्चों को सिखाया जा रहा है कि अफगानिस्तान में कैसे लड़ाई लड़ी जाए.लड़कियों को स्कूलों से निकाला जा रहा है और पुरुषों को दाढ़ी रखने पर मजबूर किया जा रहा है और प्रत्येक उस आदमी को धमकी दी जा रही है जिन्हें तालिबान पसंद नहीं करते.वास्तव में इस क्षेत्र की जनता तालिबानियों और सरकारी सुरक्षा बलों के बीच पिस रही है और निरुपाय है.ऊपर से अमेरिकी विमान आसमान से आँख मूँद कर बम गिरा रहे हैं जिससे भारी संख्या में महिलाओं और बच्चों सहित निर्दोष लोग मारे जा रहे है. संस्था की वर्ष २०१० की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सरकार विरोधी संगठन देशभर में लोगों को अपना निशाना बना रहे हैं.दूसरी ओर,सुरक्षा बल भी लोगों को फर्जी मुठभेड़ों में मार रहे हैं.देश भर में अल्पसंख्यकों की हत्या और उत्पीडन के मामले बढ़ रहे है और सरकार इन्हें सुरक्षा प्रदान करने में पूरी तरह विफल साबित हो रही है.तालिबान हिन्दू,सिख और ईसाइयों से जजिया कर वसूल रहे हैं या फ़िर उन्हें संपत्ति से बेदखल कर रहे हैं.उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध है.भारत के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के पूर्व मौजूदा पाकिस्तान में रहनेवाले हिन्दुओं में से ज्यादातर पढ़े-लिखे और खाते-पीते परिवारों से थे.लेकिन बंटवारे के बाद सबकुछ बदल गया.विभाजन के दौरान मानव इतिहास के सबसे हिंसक सांप्रदायिक दंगे हुए और संपन्न हिन्दू भागकर भारत चले गए.पाकिस्तान में बच गए गरीब और लाचार हिन्दू.उनके पूर्वज सदियों से पाकिस्तान में रह रहे थे और उनका वहां की जमीन से गहरा लगाव था.इन हिन्दुओं में ज्यादातर सिंध प्रान्त में रहते थे और अब भी वहीँ रहते हैं.१९४१ की जनगणना के अनुसार सिंध में १६ लाख हिन्दू थे.बंटवारे के बाद जब हिंसा का ज्वार उतरा तब वहां ८ लाख हिन्दू बच गए थे.वर्तमान में सरकारी आंकड़ों के अनुसार उनकी संख्या करीब ४० लाख है लेकिन गैरसरकारी सूत्रों के अनुसार उनकी संख्या कम-से-कम ८० लाख है.समय-समय पर हिन्दुओं पर अत्याचार की घटनाएँ सामने आती रही हैं.१९९२ बाबरी-ढांचा के विध्वंस के जवाब में पाकिस्तान में कई हिन्दू मंदिरों को तोड़ डाला गया.इसी तरह का वाकया बलूचिस्तान के दिलबदीन में तब सामने आया जब एक हिन्दू औरत पर इल्जाम लगाया गया कि वह कुरआन के पन्नों पर मिठाइयां बँट रही है.इसी बात पर दंगे शुरू हो गए और एक मंदिर और चार घर जलाकर राख कर दिए गए.इन दंगों ने कम-से-कम तीन हिन्दुओं की जान ले ली.मानवाधिकार संगठनों के अनुसार पकिस्तान में अल्पसंख्यकों की सबसे बड़ी समस्या धर्मपरिवर्तन की है.खास तौर पर लड़कियों को इस्लाम कबूल करने के लिए जबरदस्ती मजबूर किया जा रहा है.कई बार जब परिवारवाले विरोध करते हैं तब ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर दी जाती हैं जिसके चलते उन्हें गाँव ही छोड़ना पड़ जाता है.इतना ही नहीं पाकिस्तान के स्कूलों में हिन्दू अध्यापक नहीं रखे जाते और हिन्दू छात्र-छात्राओं को न चाहते हुए भी इस्लामिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है अन्यथा उनके अंक कम कर दिए जाते हैं.पाकिस्तान में सिर्फ अल्पसंख्यक ही बढती धार्मिक कट्टरता से परेशान नहीं हैं अपितु उदारवादी मुसलमान भी अपने को प्रताड़ित महसूस करते हैं क्योंकि ऐसे माहौल में कट्टरवाद के विरुद्ध आवाज उठाने का मतलब है जान-माल के लिए जोखिम मोल लेना.पाकिस्तान को उदारवादी इस्लामिक गणतंत्र बनाने का मोहम्मद अली जिन्ना सपना तो उनके जीते-जी ही चकनाचूर हो गया था, उनकी मौत के बाद पाकिस्तान में समय का चक्र उल्टा चलने लगा और पाकिस्तान २१वीं सदी में १६वीं-१७वीं का देश बन चुका है.आगे जो भी होने की आशंका है वह और भी भयावह होगा.अगर पूरे देश पर तालिबान का कब्ज़ा हो जाता है तब १९४७ से पहले भारत का हिस्सा रह चुका यह देश कबायली-युग में ही पहुँच जायेगा और मानवाधिकार जैसी बातें पूरी तरह से बेमानी हो जाएगी.
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
प्रभाष जोशी : कलम वाला योद्धा
कल दिवंगत पत्रकार प्रभाष जी की जयंती थी लेकिन मेरा फोन डेड होने के कारण मैं उन्हें अपनी शब्दांजलि अर्पित नहीं कर पाया.सामाजिक से लेकर खेल तक हर क्षेत्र पर,हरेक मुद्दे पर प्रभाष जी की गहरी पकड़ थी.लेकिन ऐसी पकड़ रखनेवाले पत्रकारों की तो हिंदी जगत में कोई कमी है नहीं.वास्तव में जो चीज उन्हें भीड़ से अलग करती थी वह थी अपने मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति उनकी पक्की प्रतिबद्धता.उन्होंने सरकारी विभागों द्वारा दी गई सूचनाओं पर विश्वास नहीं कर पत्रकारों को वास्तविकता का पता लगाकर खबर निकालने की प्रेरणा दी और हिंदी में खोजी पत्रकारिता की शुरुआत की.बाजारवाद और उपभोक्तावाद से वे पूरी तरह अप्रभावित रहे.पेड न्यूज़ (पैसे लेकर ख़बरें छापना) के बढ़ते प्रचलन से वे क्षुब्ध थे और इसके खिलाफ उन्होंने प्राणांत तक संघर्ष किया.पत्रकारिता के क्षेत्र में बढ़ते नैतिक स्खलन से भी वे चिंतित थे और इसके खिलाफ आवाज भी उठाई.लेकिन जगाया तो उन्हें जाता है जो सोये हों जो जानबूझकर नहीं जागना चाहते हों उन पर तो न तो प्रेरक शब्दों का ही प्रभाव होता है और न ही उत्तम कर्मों का.इसलिए प्रभाष जी द्वारा पत्रकारिता रूपी महासागर में उत्पन्न किया गया विक्षोभ भी जल्दी ही शांत हो गया और सबकुछ पहले की तरह सामान्य हो गया.धरती अभी भी घूम रही है और पत्रकारिता-क्षेत्र के नैतिक पतन की गति और भी तेज हो गई है.
बी.एस.एन.एल. कनेक्शन बना गले का फंदा
इससे पहले मैंने दो सालों तक नोएडा में एयरटेल की ब्रॉडबैंड सेवा का उपयोग किया था.क्या मजाल कि कभी एक मिनट के लिए भी कोई खराबी आई हो.यहाँ हाजीपुर में मेरे पास जुलाई २००९ से बीएसएनएल का ब्रॉडबैंड का कनेक्शन है.लगभग आधे समय तक सर्वर ख़राब रहता है.खैर किसी तरह मैनेज कर लेता हूँ.लेकिन जब फोन ही डेड हो जाए तब मैं निरुपाय हो जाता हूँ.अभी १२ जुलाई से मेरा फोन ख़राब है.मैं रोज-रोज ऑफिस में फोन करता हूँ और रोज-रोज मुझसे मेरा नंबर पूछा जाता है लेकिन फोन ठीक नहीं होता.मैंने परेशान होकर सीधे टी.डी.एम. से बात की लेकिन सब बेकार.१४ तारीख को जब मिस्त्री से उसके मोबाईल पर बात की तो उसने बताया की ऑफिस से उसे मेरा फोन ख़राब होने के बारे में बताया ही नहीं गया है.१५ को जब शिकायत दर्ज करनेवाले से फोन पर इस सम्बन्ध में बातचीत की तो उसने बताया कि उसने तो कल ही मिस्त्री को मेरा नंबर दे दिया था.संयोग से मिस्त्री भी वहां मौजूद था लेकिन लाईन पर नहीं आया.मैं ७५० रूपया ब्रॉडबैंड का फिक्स सहित कम-से-कम १००० रूपया मासिक का बिल भरता हूँ लेकिन फ़िर भी प्रताड़ित हूँ.मेरी समझ में नहीं आ रहा कि क्या करुँ?मैं बी.एस.एन.एल. कनेक्शन कटवा कर दूसरी कम्पनी की सेवा ले लूं या फ़िर बी.एस.एन.एल. कनेक्शन रखकर इस भ्रष्ट विभाग से संघर्ष करुँ.आज मेरा फोन ठीक कर दिया गया है. वैसे मैं दृढप्रतिज्ञ था कि चाहे मुझे फोन कटवाना ही क्यों न पड़े सुविधा शुल्क तो हरगिज नहीं दूंगा.
सोमवार, 12 जुलाई 2010
कुर्सी के लिए नीतीश कुछ भी करेंगा
जो लोग बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को विकास की राजनीति करनेवाला मानते हैं वे अपनी ग़लतफ़हमी दूर कर लें.नीतीश विकास की राजनीति नहीं करते सिर्फ जाहिर तौर पर जनता को बरगलाने के लिए विकास की बातें करते रहते हैं.करते तो वे भी कुर्सी और वोट बैंक की राजनीति ही हैं.जब से बिहार में विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हुई है तभी से नीतीश कुमार बेचैन हैं वोटबैंक वाले अच्छे-बुरे नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने के लिए चाहे वे नामी-गिरामी अपराधी ही क्यों न हों.अभी ५ जुलाई को उनके दल में शामिल हुए हैं सीमांचल का आतंक कहे जानेवाले तस्लीमुद्दीन.हद तो यह है कि स्वयं नीतीश ने माला पहना कर उनका पार्टी में स्वागत किया.उसके बाद से ही जदयू के सभी नेता इस कुख्यात अपराधी का गुणगान करने में लगे हैं.हालांकि उनकी याददाश्त बहुत तेज़ हैं लेकिन फ़िर भी न जाने कैसे नीतीश भूल गए कि ८० के दशक में वे विधान सभा की उस समिति के सदस्य थे जिसने अपनी रिपोर्ट में तस्लीमुद्दीन के कई जघन्य आपराधिक घटनाओं में संलिप्त रहने की पुष्टि की थी.इस समिति के अध्यक्ष थे राम लखन सिंह यादव.इस रिपोर्ट के अनुसार अपहरण की एक घटना के बाद जब पुलिस जाँच के लिए कुत्ता लेकर आई तो कुत्ता सीधे तस्लीमुद्दीन के घर जाकर रुका.इसी रिपोर्ट में कहा गया है तस्लीमुद्दीन और उनके गुर्गों के आतंक के चलते किशनगंज में लड़कियों का सड़कों पर निकलना भी दूभर था.चुनाव निकर देखकर विकास की राजनीति छोड़ वोट बैंक की राजनीति में जुट जानेवाले नीतीश उस रिपोर्ट को कैसे भूल गए जिसे तैयार करने में कभी उनका भी महत्वपूर्ण योगदान था.तस्लीमुद्दीन अल्पसंख्यक नेता बाद में है उससे पहले वह कुख्यात अपराधी है.अभी ८ जुलाई को भी किशनगंज की एक अदालत ने उसके नाम गैरजमानती वारंट जारी किया है.यह एक खुला रहस्य है कि किसी भी अपराधी का कारोबार उसके आतंक के बल पर चलता है और जब तक शासन-प्रशासन उसका साथ न दे वह आतंक कायम रखने में कामयाब नहीं हो सकता.इसलिए ज्यादातर अपराधी नेता सत्ता बदलते ही सत्ताधारी दल में शामिल होने की फ़िराक में लगे रहते हैं.तस्लीमुद्दीन भी अपवाद नहीं है और इसलिए अगस्त में ही उन्होंने राजद से इस्तीफा दे दिया और जदयू से हरी झंडी मिलने का इंतज़ार करते रहे.करीब एक साल तक लम्बा इंतज़ार किया.राजद में रहकर अब कोई फायदा नहीं था.तस्लीमुद्दीन जदयू में शामिल होते ही संत नहीं हो गए और न ही होनेवाले हैं,वे अपराधी हैं और अपराधी ही रहेंगे.यह कुछ ही दिन पहले उनपर दर्ज कराये गए रंगदारी के मामले से साबित भी हो जाता है.लेकिन नीतीश जी को इससे क्या लेना-देना उन्हें तो हर कीमत पर चुनाव जीतना है चाहे इसके लिए उन्हें कितने भी और कैसे भी पतित लोगों से मदद का लेन-देन क्यों न करना पड़े.
शनिवार, 10 जुलाई 2010
एक गाँव ऐसा भी
मैं जैसा कि आप जानते हैं कि एक शहर में रहता हूँ जिसका नाम है हाजीपुर.१८ साल पहले बड़े ही भारी मन से हमने गाँव को टाटा-बाई-बाई कर दिया था लेकिन मैं आज भी मन से ग्रामीण ही हूँ,शहर की आवोहवा मुझे रास नहीं आती,घुटन-सी महसूस होती है,हर जगह कृत्रिमता का आभास होता है.इसलिए जब मेरे मित्र ने मुझे अपने तिलक के अवसर पर गाँव चलने के लिए कहा तो मैं सहर्ष तैयार हो गया हालांकि २ सप्ताह बाद ही मेरी यू.जी.सी. की परीक्षा थी.मेरे मित्र का गाँव सारण जिले में मढ़ौरा के पास स्थित है.पूरे तीन घन्टे की यात्रा के बाद हमें अपनी कार को उसके घर से कुछ फर्लांग पहले ही रोक देनी पड़ी क्योंकि वहां पुल बनाने के दौरान सड़क काट दी गई थी.दूर से ही उसका घर टेंट-शामियाना लगा होने के कारण पहचाना जा सकता था.बारी-बारी से मैं उसके पिताजी और चाचाजी से मिला.पहली नज़र में गाँव पिछड़ा लगा मुझे.उसके दरवाजे पर कई मुसलमानों को जब काम करते देखा तब मुझे आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी हुई,सांप्रदायिक सहयोग का साकार प्रतिरूप.मन को इत्मिनान भी हुआ कि हमारे देश को सांप्रदायिक आधार पर तोड़ पाना कभी संभव नहीं हो पायेगा क्योंकि इस देश में इस तरह के अनगिनत गाँव जो हैं. मैंने हाथ-मुंह धोने के बाद बाद भोजन किया.बड़े ही अनुराग के साथ मुझे भोजन कराया गया.सादा भोजन जो प्रेम के रस में पकाया गया था.शायद कृष्ण को विदुर के घर की साग में इतना स्वाद नहीं मिला होगा. जब भोजनोपरांत विश्राम करने के लिए गया तब मंझले चाचा से लम्बी बातचीत हुई.वे भूतपूर्व सैनिक थे इसलिए जाहिर था कि बातचीत उनके सैनिक जीवन पर केन्द्रित रही.मित्र के घर के पूरे इतिहास-भूगोल से मैं अब परिचित था. रिटायरमेंट के वर्षों बाद भी वे सेना के अन्य रिटायर्ड जवानों की तरह काफी परिश्रमी थे.पूरी घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी उन्होंने अपने बूढ़े मगर मजबूत कन्धों पर उठा रखी थी.बातचीत में व्यवधान तब आया जब मुझे नींद आ गई.शाम को नींद खुलने के बाद हम गाँव देखने को निकले.खुद मेरा मित्र मेरा गाईड बना.बड़े लम्बे अंतराल के बाद गाँव की हवा तन-मन को स्पर्श कर रही थी,मन रोमांचित हो रहा था.ठंडक पैदा करने के कृत्रिम साधनों में यह बात कहाँ?.करीब दो घन्टे लगे उन स्थानों का दर्शन करने में जहाँ मेरे मित्र ने बाल-लीला की थी.मेरा मन लगातार अपने गाँव से इस गाँव की तुलना कर रहा था.लौटते समय मित्र के एक चाचा के यहाँ पहले तो शुद्ध दूध से बनी चाय पी फ़िर ताज़ा भुट्टों का आनंद लिया.याद आया मेरा बचपन जब मैं १०-१५ तक भुट्टे एक ही बार में खा जाया करता था बिना इस बात की चिंता किये कि बेचारे पेट पर क्या गुजरेगी.खैर यहाँ मैंने ज्यादा नहीं बस तीन भुट्टे खाए.न जाने क्यों शहर में ठेलों पर बिकनेवाले भुट्टों में यह रसानंद क्यों नहीं आता.शायद उनमें ग्रामीण सहृदयता की जगह बाजारवाद का रस होता है.घर के सामने बहुत लम्बा-चौड़ा खाली मैदान था.इसलिए दरवाजे पर हरसमय ठंडी-ठंडी हवा आती रहती पंखा-कूलर या ए.सी. कोई जरुरत ही नहीं.सबसे कमाल की बात थी चापाकल के पानी में.उसका पानी काफी ठंडा था.जहाँ अपने घर के बाथरूम में मैं दो मिनट में ही नहा लेता था वहां १०-१५ बाल्टी पानी से नहाता.न तो ठंडा तेल लगाने का झंझट और सिरदर्द की दवा निगलने की जरुरत,नहाते ही सारी थकान उड़नछू.गाँव में सिर्फ एक ही कमी थी कि बिजली नहीं थी.हुआ यह था कि गाँव के लोग जब बिजली के खम्भे गाड़े जा रहे थे तब आपस में ही लड़ पड़े.हर कोई अपने-अपने दरवाजे पर खम्भे गड़वाना चाहता था.नतीजा यह हुआ कि गाँव में बिजली आते-आते रह गई.बिजली नहीं होने के चलते मेरा मोबाईल चार्ज नहीं हो पाया और दो दिनों के संघर्ष के बाद वह मूर्छावस्था में चला गया.तिलक की शाम भोज में कई सौ लोग शामिल हुए.मुझे आश्चर्य हुआ कि भोजन परोसने में मित्र के जो ग्रामीण रिश्तेदार बिलकुल पीछे थे खाने में काफी आगे निकले.देखकर दुःख हुआ कि गांवों में भी अब वो बात नहीं रह गई जिसके बल पर पहले एक छप्पर उठाने के लिए पूरा गाँव मदद के लिए जमा हो जाता था.ईर्ष्या और जलन ने यहाँ के लोगों के मन में भी पैठ बना ली है.पहले गाँव सूधो मन,सूधो वचन,सुधों सब व्यवहार के लिए जाने जाते थे.आज का यह गाँव कई जातीय समूहों में बँटा हुआ था लेकिन जातीय तनाव नहीं था.अन्य जातियों के लोग और मुसलमान भी पंचायत को हरिजनों के लिए आरक्षित कर देने से दुखी लगे. यहाँ मैं पूरी तरह भोजपुरी बोल रहा था हालांकि मेरी मातृभाषा वज्जिका है.मेरा मानना है कि ग्रामीण जीवन का वास्तविक मजा आप तभी ले सकते हैं जब आप वहां के लोगों से उनकी ही भाषा में बात करें.दो दिनों में ही कई लोग मेरे अच्छे मित्र बन गए थे जैसे बरसों की पहचान हो.मित्र की माँ में मुझे अपने माँ का अक्स दिखता था और बहनों में अपनी बहन का.सीधेपन और ईमानदारी में मित्र के पिता मेरे पिता के काफी निकट थे.दो दिनों के लिए मुझे लगा कि मैं फ़िर से अपने गाँव में रहने लगा हूँ जहाँ तब स्नेह की गंगा बहती थी.मेरी दिली ईच्छा थी कि मैं शादी तक रुकूं लेकिन इसमें दो बाधाएं थीं एक तो यह कि मैं अपने साथ कपडे नहीं ले गया था और दूसरी यह कि कुछ ही दिनों बाद मेरी यू.जी.सी. की परीक्षा थी.मैंने तिलक की सुबह ही घर का रास्ता पकड़ लिया.लेकिन उस गाँव की यादें अपने साथ लेता आया.उस गाँव की यादें जहाँ मैला आँचल के मेरीगंज की तरह धूल भी है और फूल भी,कांटें भी हैं और चन्दन भी, राम का भी निवास है और रावण का भी और इन दोनों विपरीत ध्रुवों के बीच पेंडुलम की तरह झूलते रहनेवाले लोगों का भी.
सोमवार, 5 जुलाई 2010
विरोध प्रकट करने के अहिंसक तरीके
आज केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य-वृद्धि के खिलाफ विपक्ष ने भारत बंद का आयोजन किया.एकबारगी पूरे देश का जनजीवन ठप्प पड़ गया.महाराष्ट्र से सरकारी बसों के साथ तोड़-फोड़ की खबरें भी आईं.कुछ लोगों ने बंद से देश को हुए आर्थिक नुकसान का अनुमान भी लगाया कि देश को इससे लगभग १३ हजार करोड़ का नुकसान हुआ.कई जगहों पर बंद में एम्बुलेंस के फंसे होने की भी ख़बरें भी टेलीविजन पर देखी गईं.बंद से सबसे ज्यादा नुकसान होता है दिहाड़ी मजदूरों को और एक दिन के लिए उनका चूल्हा ठंडा पड़ जाने का खतरा पैदा हो जाता है.गांधी ने भी स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कई बार भारत बंद का आह्वान किया था.लेकिन तब बंद स्वतःस्फूर्त होता था,जनता के साथ कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती थी.लेकिन आज स्थितियां अलग हैं.बंद के दौरान हिंसा साधारण बात है. ऐसे में प्रश्न उठता है कि विपक्ष के पास सरकारी नीतियों के प्रति विरोध प्रकट करने के बंद के अलावा और क्या-क्या विकल्प हैं?धरना-प्रदर्शन में लोगों की भागीदारी प्राप्त करना आज की भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में कठिन है.साथ-ही हमारे नेता इतने आरामतलब हो गए हैं कि गर्मी-सर्दी को सहन करना उनके वश की बात ही नहीं है.यही बात गांधीजी के सबसे मारक सत्याग्रही हथियार अनशन के साथ भी लागू होती है.कौन जान का जोखिम ले?हो सकता है सरकार झुके ही नहीं.घेराव में पुलिस के डंडे खाने पड़ सकते हैं.गांधी जब भी यात्रा पर निकले पैदल निकले और जनता के बीच रुकते हुए यात्रा पूरी करते थे.लेकिन हमारे वर्तमान नेता जब भी यात्रा पर निकलते हैं तो वातानुकूलित वाहन में और जनता के बीच नहीं ठहर कर वातानुकूलित कमरे में ठहरते हैं,फ़िर कैसे उनकी यात्रा का असर हो? सबसे बड़ी बात तो यह है कि नेताओं के साथ-साथ जनता की वरीयता-सूची में भी देश और देशहित का स्थान नीचे से पहले नंबर पर आता है.किसी भी मुद्दे पर नेतृत्व प्रदान करना नेताओं का काम है और नेताजी ठहरे आरामतलब.विरोध प्रकट करने के बांकी शांतिपूर्ण तरीकों में नेताजी के कोमल शरीर को कष्ट होगा जबकि उनका काम खुद कष्ट सहना नहीं बल्कि दूसरों को कष्ट देना है.और बंद के दौरान भी कष्ट सिर्फ दूसरों को होता है नेताओं को नहीं.वे या तो घर में बंद रहते हैं यह फ़िर थाने में कूलर और पंखे की हवा खा रहे होते हैं.