गुरुवार, 29 जुलाई 2010
अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने की विवशता
वे शरणार्थी हैं वो भी अपने ही देश में.ऐसा नहीं है कि वे शौक से शरणार्थी बने हुए हैं लेकिन वे कुछ कर भी नहीं सकते;वे निरुपाय हैं.१९९० में उन्हें कश्मीर घाटी के मुसलमान पड़ोसी ग्रामीणों ने बन्दूक के बल पर खदेड़ दिया.रातों-रात उनकी दुनिया उजाड़ गई.आँखों में आंसू भरे गोद में अबोध बच्चे-बच्चियों को उठाये वे अपने घरों से कदम-दर-कदम दूर होते गए.फासला बढ़ता गया और इतना बढ़ गया कि आज दो दशक बीत जाने के बाद भी वे इस दूरी को पाट नहीं पाए हैं.अचानक उनके सदियों से पड़ोसी रहे मुसलमान उनकी जान के दुश्मन हो गए,क्यों???जब यह सब हो रहा था तब भी वक़्त के कतरों ने उन मनहूस लम्हों से यह प्रश्न पूछा था लेकिन इसका जवाब न तो उन लम्हों के पास था और न ही २० साल के युग समान लम्बे कालखंड के पास.सरकार ने उनके रहने की अस्थाई व्यवस्था करके अपने कर्त्तव्य पूरे कर लिए.उन्ही छोटे कमरों में १०-१० लोगों का परिवार सोता है पिछले २० साल से.उन्हें सरकार से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं थी क्योंकि वे बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग से आते थे और उनका कोई बड़ा वोटबैंक भी नहीं था जो सियासतदानों का तख्ता पलट सकता.वोट बैंक तो उनका था जो कथित रूप से अल्पसंख्यक थे.इसलिए सरकार पीडकों के पीछे खड़ी रही,पीड़ित चीखते-चिल्लाते गला बैठाते रहे.सन २००२ तक मैं इन कश्मीरी पंडितों की कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में पढता रहा.मैं जब आई.ए.एस. की तैयारी के लिए दिल्ली गया तब मेरे लॉज में बगल के कमरे में एक कश्मीरी पंडित युवक रहता था.बला का खूबसूरत.नाम था अश्विनी कॉल.बड़ा ही हंसमुख और मस्त.कश्मीर उसके खून में था.जब हम जाड़े में कांपते रहते वो घंटों ठन्डे पानी से नहाता.दिल्ली में रहकर भी वो कश्मीर में रहता.१९९० में वह दस साल का था जब सपरिवार उसे घर छोड़कर स्याह अँधेरी रात में पुलिस संगीनों के साये में भागना पड़ा था.उनलोगों ने जम्मू में पड़ाव डाला जहाँ उसके पिता पहले से ही कॉलेज में काम करते थे.वह कभी उदास नहीं होता सिवाय तब के जब मैं उससे कश्मीर के उसके घर और गाँव के बारे में पूछ लेता.वह डबडबाई आँखों से उन हालातों को बयाँ करता जिन हालातों में उन्हें घर छोड़ना पड़ा था.उसे और उसके परिवार को घर छोड़ते समय उम्मीद थी कि साल-दो-साल में ही स्थितियां सुधार जाएंगी और वे लोग फ़िर से अपनी धरती-अपने गाँव में रहने लगेंगे.लेकिन ऐसा नहीं हुआ.नहीं हो सका या जानबूझकर नहीं होने दिया गया अश्विनी नहीं जानता था.लेकिन उन्हीं कश्मीरी पंडितों में से कुछ ऐसे परिवार भी थे जिनके पास अश्विनी की तरह कमाई का कोई जरिया नहीं था.दो कश्मीरी लड़कियां,दो छोटे-छोटे लड़कों को लेकर हर महीने मेरे घंटाघर वाले निवास पर दस्तक देतीं.तब तक अश्विनी दिल्ली छोड़ चुका था और मैं भी डेरा बदल चुका था.फूल जैसे चेहरे लेकिन मुरझाये हुए.कभी कहतीं दो दिनों से तो कभी कहतीं चार दिनों से घर में चूल्हा नहीं जला है.मैं तब विद्यार्थी था और अन्य विद्यार्थियों की तरह पूरी तरह से माता-पिता पर निर्भर था.फ़िर भी अपने खर्च में से १०० रूपये निकलकर दे देता.मन आक्रोशित हो उठाता और मन खुद से ही सवाल करने लगता क्या ये लोग अब कभी अपने घर नहीं लौट पाएंगे?क्या दोष है इनका??इन्होंने कौन-सी गलती की है जिसकी उन्हें सजा मिल रही है???क्या इनकी यही गलती नहीं है कि इन्होंने एक हिन्दूबहुल देश में हिन्दू धर्मं में जन्म लिया????
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