बुधवार, 4 अगस्त 2010
अधिकार चाहिए तो कर्त्तव्य पालन करना सीखिए
पश्चिमी देशों और भारत में सबसे बड़ा अंतर क्या है?रहन-सहन के स्तर में या आधरभूत संरचना के क्षेत्र में तो अंतर है ही लेकिन यह सबसे बड़ा अंतर हरगिज़ नहीं है.इन दोनों सभ्यताओं में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पश्चिम के लोग समाज या राष्ट्र से अपना अधिकार मांगने से पहले कर्त्तव्यपालन सुनिश्चित करते हैं और हम भारतीयों के शब्दकोष में कर्तव्यपालन शब्द है ही नहीं.जबकि बिना कर्त्तव्य पालन के अधिकारों की बातें करना ही अनैतिक है.जीवन के किसी भी क्षेत्र में आप रोजाना देखते होंगे कि लोग बात-बेबात पर अपने अधिकारों की बात करते हैं लेकिन जब त्याग करने या कष्ट सहने की बात आती है तब दुम दबा लेते हैं.अभी चार दिन पहले की बात है मैं अपनी माँ के साथ पटना जा रहा था.बस में चढ़ने गया तो पाया कि महिलाओं के लिए आरक्षित सभी सीटों पर पुरुष काबिज हैं.कई तो युवा भी थे.मैनें जब देखा कि उनमें से कोई खुद से सीट छोड़ने की जहमत नहीं उठा रहा है तो मैंने उनसे ऐसा करने का अनुरोध किया.उन सभी ने एक ही जवाब दिया कि चूंकि वे पहले से सीट पर बैठे हुए हैं इसलिए बैठकर यात्रा करने का पहला अधिकार उनका बनता है.मैंने कन्डक्टर से बात की तो उसने भी यही जवाब दिया.मैंने उससे कहा भी कि सरकारी कानून के अनुसार आरक्षित सीटों पर बैठने और महिलाओं के लिए नहीं छोड़ने पर सजा भी हो सकती है लेकिन उनलोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी.अंत में हम बस से उतर गए और ऑटो से पटना गए.कई बार मैंने पाया है कि लोग रेलगाड़ी में बेटिकट यात्रा करते हैं और सीट के लिए मार-पीट तक पर उतारू हो जाते हैं.लोग सड़कों पर कूड़ा फेंक देते हैं और सफाई नहीं होने के लिए सरकार को दोषी ठहराते हैं.संविधान के भाग ४ क में बजाप्ता नागरिकों के मूल कर्तव्यों का वर्णन किया गया है.इसमें संविधान और स्वतंत्रता आन्दोलन के उच्चादर्शों के पालन की बात की गई है.साथ ही भारत की एकता और अखंडता की रक्षा, भ्रातृत्व की भावना का प्रसार करने,पर्यावरण की रक्षा,वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने,सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करने को भी मूल कर्तव्यों में शामिल किया गया है.हमें क्या करना है सब शीशे की साफ़ कर दिया गया है.लेकिन हम करते क्या हैं?दिल्ली में रहनेवाले नेताओं से लेकर दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले किसानों तक कोई इन कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता.सड़कों को गन्दा करना,बिना टिकट रेलयात्रा करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.सरकार से जब भी हमें विरोध जाताना होता है तब हमारा पहला निशाना बनाती है सार्वजनिक संपत्ति.वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जो हालत है वो खाप पंचायतों के फैसलों और मुस्लिम धर्माधिकारियों के फतवों से खुद ही जाहिर है.संविधान अब एक पवित्र संहिता नहीं बेकार की कानूनी किताब मात्र रह गई है.पैसा हमारा भगवान है और हम सब भ्रष्टाचार में लीन हैं इसलिए स्वतंत्रता आन्दोलन के आदर्शों की तो चर्चा करना ही बेकार है.जाहिर है कि संविधान का भाग ४क जनता के लिए सबसे बेकार भाग है वहीँ भाग ३ जिसमें मूल अधिकारों की बात की गई है सबसे महत्वपूर्ण.यहाँ तक कि संविधान विशेषज्ञों ने भी संविधान के इस अध्याय को उपेक्षा के लायक ही समझा है.विश्वास नहीं तो इनकी लिखी किताबें देखिये.अब आप ही बताईये कि हम खुद तो कर्तव्यों का पालन नहीं करें और साथ ही यह उम्मीद रखें कि देश की हालत भी अच्छी हो जाए कहाँ तक नैतिक है.ट्रेन में बोगियां कम क्यों हैं और भीड़ क्यों हैं को लेकर हम भले ही चिंतित हों लेकिन टैक्स चोरी तो करेंगे ही.हम सभी भारतीयों की यह आदत है कि हम अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी दूसरों पर डाल देते हैं.सरकारी कार्यालयों में सर्वत्र काहिली का वातावरण है.जब हर कोई ऐसा ही करेगा तो देश में व्यवस्था आएगी कहाँ से?वह आयात करने की वस्तु तो है नहीं. कहना न होगा अगर हम सिर्फ संविधान में वर्णित मूल कर्तव्यों का पालन करना शुरू कर दें तो भारत का तत्क्षण कायाकल्प हो जाए और तब हमें विश्व के सबसे विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने से कोई नहीं रोक सकेगा.
बहुत अच्छी सोच पर लोग जिन्दगी को जी रहे है उन्हे इससे कोई फर्क नही पडता की वह कर्तव्यों के बारे मे सोचे अगर सभी एक जैसे हो तभी यह दूनिया अच्छी हो सकती है जैसा आप सोचते है पर सभी की में बदलाव आवश्यक है जो बहुत मुश्किल है।
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