बुधवार, 1 दिसंबर 2010
कठोर दंड के भागी हैं स्वामी नित्यानंद जैसे भ्रष्ट संन्यासी
हमारा सनातन धर्म जीवों के संसार में आवागमन में विश्वास करता है और हम सभी सनातनी इस आवागमन के चक्कर से मुक्ति चाहते हैं.इस मुक्ति को ही शास्त्रों में मोक्ष कहा गया है.विदेशों में चर्चों ने पैसे लेकर स्वर्ग के टिकट बेचे.लेकिन वहां तो यह मध्यकाल में हुआ.हमारे देश में प्राचीन काल में ही सबसे पहले बोधिसत्वों ने धन लेकर निर्वाण प्राप्त कराने का धंधा शुरू किया जबकि मोक्ष के लिए प्रयास करना नितांत वैयक्तिक कर्म है.कालांतर में यह धंधा इतना गन्दा हो गया कि लोगों का बौद्ध धर्म से विश्वास ही उठ गया और भारत की धरती यानी बौद्ध धर्म की जन्मभूमि पर ही इसका कोई नामलेवा नहीं रहा.बाद में अद्वैत और फ़िर भक्ति आन्दोलन दोनों में ही ज्ञानी और ज्ञेय तथा भक्त और भगवान के बीच मध्यस्थ की भूमिका समाप्त हो गई.फ़िर इस २१वीं सदी में लोग कैसे स्वामी नित्यानंद जैसे मक्कारों की बातों में आ जा रहे है,आश्चर्य है.इसका सीधा मतलब है कि इस आधुनिक युग में भी मूर्खों की कोई कमी नहीं है.जहाँ तक नैतिकता का प्रश्न है तो इस दिशा में यह युग तुलसीदास द्वारा वर्णित कलिकाल से भी दो कदम आगे निकल चुका है और गोपी फिल्म के प्रसिद्ध भजन 'रामचंद्र कह गए सिया से' को चरितार्थ करने लगा है.संन्यास तो सब कुछ को सब कुछ के चरणों में अर्पित कर देने का नाम है,निरा त्याग का मार्ग है.किसी भी भगवा वस्त्रधारी को धन,संपत्ति या स्त्री यानी किसी भी प्रकार की माया की ईच्छा रखने या प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है.वैसे संन्यासियों का वर्जित कर्मों में लिप्त होना कोई नई बात नहीं है.हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार अमृत लाल नागर ने अपने उपन्यास मानस का हंस जो संत तुलसीदास की जीवनी है,में मध्यकाल में मठों-मंदिरों में व्याप्त अवैध यौनाचार का विस्तार से वर्णन किया है.कबीर ने भी माया को महाठगनी बताते हुए संन्यासियों को भी इससे मुक्त नहीं बताया है-माया महाठगनी हम जानी,तिरगुन कास लिए कर तोले बोले मधुरी बानी.इससे और पहले के काल में जाएँ तो बौद्ध संघों में भी स्त्रियों को प्रवेश बुद्ध ने यह कहते हुए दिया था कि अब संघ ज्यादा समय तक नहीं चल पाएगा.मैं यह नहीं कह रहा कि स्त्रियम नरकस्य द्वारं.उन्हें तो किसी भी तरह से दोषी ठहराया ही नहीं जा सकता क्योंकि समाज का निर्णयन,नियमन और संचालन हमेशा पुरुषों ने ही किया है.बल्कि मेरी नजर में दोषी कामेच्छा रखने वाले स्वामी नित्यानंद जैसे संन्यासी हैं.मोक्ष और काम का ३६ का सम्बन्ध है और यह व्यभिचारी काम द्वारा मोक्ष प्राप्ति की बातें करता है.मिट्टी तेल डालकर आग को बुझाने की बात कर रहा है यह,हद हो गई.उस पर हद यह है कई महिलाऐं उसके बहकावे में आ गईं और अपना सर्वस्व गँवा बैठीं.दक्षिण भारत में पहले से भी मंदिरों में देवदासी प्रथा के नाम पर यौनाचार की परोक्ष रूप से स्वीकृति रही है.शायद इसलिए नित्यानंद ने दक्षिण भारत को अपना कुकर्म क्षेत्र बनाया.धर्म समाज का अहम् हिस्सा है,नियामक है.इसलिए धार्मिक क्रियाकलापों में लगे लोगों का स्वच्छ चरित्र का होना अतिआवश्यक है.विवेकानंद का तो सीधा फार्मूला था कि जो कर्म हमें ईश्वर के निकट ले जाए वे कर्त्तव्य कर्म हैं और जो दूर ले जाए वे अकर्तव्य.अगर सम्भोगेच्छा इतनी ही प्रबल है तो गृहस्थाश्रम अपना लो और खूब भोग करो.दो नावों की सवारी का परिणाम सर्वविदित है.पहले भी ऐसे उदाहरण रहे हैं जब लोगों ने संन्यास लेने के बाद फ़िर से गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया है.महान संत ज्ञानेश्वर के पिता ने भी ऐसा किया था.संन्यासी जाति के लोगों के पूर्वज भी कभी संन्यासी थे.इसलिए ऐसा करना पाप कर्म नहीं होगा बल्कि पाप तो पवित्र गेरुआ वस्त्र को कलंकित करना है.मेरा मानना है कि जो भी संन्यासी इस प्रकार के वर्जित क्रियाकलापों में लिप्त पाए जाते हैं उन्हें निश्चित रूप से कठोर से कठोर दंड दिया जाना चाहिए और यही उनका प्रायश्चित भी होगा.यह आधुनिक युग विज्ञान और तर्क का युग है और इस युग में किसी को भी अंधविश्वासों द्वारा जनता को बरगलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.इसलिए मैं पूरे भारत के मंदिरों से देवदासी या उस तरह की किसी भी प्रचलित प्रथा की समाप्ति का आह्वान करता हूँ क्योंकि यह कुछ और नहीं निरी मूर्खता है.ईश्वर या देवताओं के साथ कन्याओं के विवाह की कल्पना करना भी इस युग में पागलपन है.क्या इसके समर्थक जनसमुदाय को देवता या ईश्वर का साक्षात्कार करा सकते हैं?नहीं!!!तब फ़िर इस अमानवीय प्रथा का अंत क्यों न कर दिया जाए जिससे सैंकड़ों ललनाओं का जीवन सुगम और पवित्र बन सके और वे अपनी अन्य हमउम्र लड़कियों की तरह सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें?
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