शनिवार, 1 जनवरी 2011
नए साल में तीसरे प्रेस आयोग का गठन करे सरकार
भारत की आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता क्षेत्र का अहम योगदान रहा है.२०वीं शताब्दी की शुरुआत से ही जब स्वतंत्रता आन्दोलन जोर पकड़ने लगा था स्वतंत्रता प्राप्ति तक आन्दोलन का सक्रिय समर्थन करने के लिए पत्रकारों को पग-पग पर प्रताड़ित किया गया.कई पत्रकारों को आजादी के प्रति दीवानगी रखने की गंभीर सजा भी भुगतनी पड़ी और जिंदगी के कई अमूल्य वर्ष जेल की चहारदीवारी में काटने पड़े.इसलिए जब देश आजाद हुआ तो पहली स्वतंत्र सरकार ने पत्रकारों की स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास कर उनके त्याग के प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन किया.नेहरु युग में पहले प्रेस आयोग का गठन किया गया जिसकी सिफारिश पर श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम,१९५५ संसद द्वारा पारित किया गया.अधिनियम में पत्रकारों को बांकी श्रमिकों से अलग विशेष वर्ग के रूप में मान्यता दी गई और उनकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा की विशेष कानूनी व्यवस्था भी की गई.बाद में जनता सरकार ने १९७८ में दूसरे प्रेस आयोग का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट १९८२ में दी.इसके गठन का मुख्य उद्देश्य आपातकाल (१९७५-77) के परिप्रेक्ष्य में प्रेस की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना था.कुल मिलाकर पत्रकारों के कल्याण के लिए जो भी सरकारी प्रयास किए गए वे नेहरु युग में ही किए गए.देश और सरकार धीरे-धीरे पत्रकारों के सामाजिक योगदान को भूलते चले गए और उनकी सुरक्षा के लिए बने कानूनों का उल्लंघन बढ़ता गया.कितनी बड़ी बिडम्बना है कि आज जब मीडिया महाशक्ति है और उसमें समाज के एक बहुत बड़े तबके को शासन-प्रशासन को अपनी नजर से देखने के लिए बाध्य कर देने की शक्ति समाहित है तब मीडियाकर्मियों की हालत कुत्ते से भी बदतर है.जब चाहा रख लिया जब चाहा निकाल दिया.श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम आज सिर्फ कागजों पर लागू है व्यवहार में कोई भी मीडिया संस्थान इसका पालन नहीं कर रहा.सरकार समय-समय पर प्रेसकर्मियों के लिए औपचारिकतावश नए वेतनमान की घोषणा करती है लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि पत्रकारों को कृतज्ञ भाव से वही लेना पड़ता है जो उन्हें दिया जाता है.अभी कल ही यानी ३१ दिसंबर,२०१० को न्यायमूर्ति मजीठिया की अध्यक्षतावाले वेतन आयोग ने पत्रकारों और गैरपत्रकार प्रेसकर्मियों के वेतन में तीन गुना की भारी बढ़ोतरी की सिफारिश की है लेकिन वास्तविकता तो यह है कि मात्र १०% पत्रकारों को ही इसका लाभ मिल पाएगा.ये भी वे लोग हैं जो अब रिटायरमेंट तक पहुँच चुके हैं.अधिकतर पत्रकार वेतन आयोग की आकर्षक सिफारिशों के बावजूद फांकामस्ती की जिंदगी बिताते रहेंगे.कई बार तो उनका वेतन इतना कम होता है कि एक अकेली जान का खर्च भी नहीं निकल सके.इसके लिए मीडिया समूह कई तरह की चालबाजियां करते हैं.वे नियमित पत्रकारों से यह लिखवा लेते हैं कि वह नियमित पत्रकार है ही नहीं बल्कि अंशकालिक पत्रकार है.इन परिस्थितियों में यह जरूरी हो गया है कि नए प्रेस कानून बनाए जाएँ जिससे अंशकालिक और संविदा पर नियुक्त पत्रकार भी श्रमजीवी पत्रकार माने जाएँ.पेड न्यूज आज की मीडिया की सबसे कड़वी सच्चाई है.बड़े-बड़े मीडिया समूहों के संचालक ही जब पैसे लेकर चुनाव जिताने-हराने का ठेका ले लेते हैं तब फ़िर कस्बाई पत्रकार पैसे लेकर समाचार क्यों नहीं छापे?वैसे भी उनको नियमित वेतन के बदले प्रकाशित समाचार के अनुसार पैसा दिया जाता है.उसकी स्थिति वस्त्रविहीन नंगे आदमीवाली है,नंगा नहाए क्या और निचोड़े क्या?ईधर जबसे नीरा राडिया टेलीफोन टेप प्रकरण में कई वरिष्ठ पत्रकारों की संलिप्तता उजागर हुई है एक नई बहस ने जन्म ले लिया है.कुछ पत्रकार अब सिर्फ लेख या समाचार प्रकाशित-प्रसारित नहीं कर रहे हैं बल्कि वे किसी भी ऐरे-गैरे को मंत्री बनवा सकते हैं और किसी को मंत्री पद से हटवा भी सकते हैं.उनकी सीधी पहुँच आज सत्ता तक है.नीरा राडिया जैसे हाईप्रोफाईल दलालों के निर्देश पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे और छापे जा रहे हैं.टीवी चैनल से लेकर अख़बार तक में हर जगह विज्ञापनों की भरमार रहती हैं.यूं तो भारतीय प्रेस परिषद् ने इस सम्बन्ध में नियम बना रखा है लेकिन पालन कोई नहीं कर रहा.ऊपर से पैसे लेकर विज्ञापननुमा समाचार भी छापे जा रहे हैं.इन दिनों कई टीवी चैनलों पर अन्धविश्वास बढ़ानेवाले व कामुक कार्यक्रमों की भरमार हैं.भूत-प्रेत,जंतर-मंतर और अंगप्रदर्शन के सहारे उच्चतर टीआरपी हासिल की जा रही है.कुल मिलाकर लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहलानेवाली मीडिया में चौतरफा अराजकता का माहौल है.आश्चर्य है कि जिस संस्था का जन्म ही शासन-प्रशासन पर पहरा देने के लिए हुआ वह खुद ही बिना नियामक का है.अनाथ की स्थिति में है.सरकार ने खानापूर्ति करते हुए भारतीय प्रेस परिषद् का गठन कर दिया है जिसके पास सिर्फ परामर्शदात्री अधिकार हैं.सरकार को चाहिए कि वह भारतीय प्रेस परिषद् को दंडात्मक अधिकारों से युक्त करे.अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो फ़िर प्रेस की आजादी का कोई मतलब ही नहीं है.मीडिया क्षेत्र में पिछले ३०-४० सालों में एक सर्वथा नई प्रवृत्ति ने जन्म लिया है.जिस तरह इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में केन्द्रीयकरण बढ़ रहा है उससे तो यही लगता है कि कुछेक सालों में मीडिया का मतलब दो-चार परिवार मात्र रह जाएगा.इस दिशा में पहल करते हुए एकाधिकार-विरोधी कानून बनाने की सख्त जरूरत है.साथ ही छोटे पत्र-पत्रिकाओं को सरकारी सहायता दी जानी चाहिए.कुल मिलाकर तृतीय प्रेस कमीशन वक़्त की जरुरत है.प्रेस कमीशन को उपरोक्त सभी मुद्दों पर प्रभावकारी सुझाव देने के लिए निर्देशित किया जाए जिससे लोकतंत्र के इस चौथे खम्भे को भरभराने से समय रहते बचाया जा सके और वर्तमान और भविष्य के पत्रकारों के लिए एक सम्मानित और गुणवत्तापूर्ण जीवन सुनिश्चित किया जा सके.
छा गए ब्रज जी ऐसा कोई कोना नहीं जिसको आपने छोड़ा हो....धन्य हैं आप...बहुत बढ़िया भगवान् आपको बहुत तरक्की दे
जवाब देंहटाएंछा गए ब्रज जी ऐसा कोई कोना नहीं जिसको आपने छोड़ा हो....धन्य हैं आप...बहुत बढ़िया भगवान् आपको बहुत तरक्की दे
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