शुक्रवार, 6 मई 2011

काहे को भेजे विदेश

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आज सुबह जब मैं जगा तो पड़ोसी की लड़की की विदाई हो रही थी.मैं पाषाण-ह्रदय हूँ.मेरी आँखें रोना नहीं जानतीं.फिर भी आँखें गीली हो गईं और याद आने लगी दीदी और उसकी विदाई.दीदी की शादी को २४ साल हो चुके हैं.अब उसके बच्चे शादी-योग्य हो चुके हैं लेकिन वो पिछले २४ सालों से हमारे घर में नहीं होते हुए भी हर पल हमारे साथ है.कोई कुछ भी करता है तो जुबान हठात कह उठती है कि दीदी यहाँ होती तो यह करती,वह करती,ऐसा कहती;वैसा कहती.
      जब मैं चलने लगा और कुछ-कुछ समझ विकसित होने लगी तब मैंने खुद को दीदी की गोद में पाया.दीदी मुझसे उम्र में १२ साल बड़ी है.वह दूध-रोटी कटोरे में ले लेती और घर के पिछवाड़े में स्थित कटहल के विशाल पेड़ के नीचे ले जाती.चाँद आसमान में पूरी तरुणाई में चमकता रहता.मैं दूध-रोटी खाने में बहुत नानुकुर करता;तब वह मुझे डराती;खा लो नहीं तो चाँद खा जाएगा.एक कौर मैं खाता और एक कौर वह खाती.
             फिर जब मैं स्कूल जाने लगा तब वह मेरे लम्बे-लम्बे बालों को संवारती और रिबन व रूमाल लगाकर सिख बच्चों की तरह बांध देती.उस समय मैं कपड़ों को लेकर बिलकुल ही बेपरवाह था.बरसात में जब घर लौटता तब मेरे कपड़े कीचड़ और काई से सने होते लेकिन दीदी ने कभी मुझे इसके लिए मीठी झिड़की तक नहीं सुनाई.हमेशा उसके ह्रदय में मेरे लिए स्नेह का अजस्र स्रोत बहता रहता.मुझे उसकी गोद और साथ हमेशा अच्छा लगता सिर्फ नहाने के समय को छोड़कर.दीदी घर के पिछवाड़े वाले कुएँ पर मुझे स्नान कराती,रगड़-रगड़ कर.इस प्रक्रिया में कम-से-कम १ घंटा लगता था.एक तो मैं ज्यादा समय लगने के कारण उब जाता तो वहीं दूसरी तरफ मुझे उस समय न जाने क्यूं ठण्ड भी बहुत लगती थी.मैं कई-कई दिनों तक बिना स्नान किये रह जाता;यहाँ तक कि गर्मियों में भी.बाद में जब मैं सरपट दौड़ने लगा तो कभी-कभी अवसर देखकर नंग-धड़ंग खेतों में भाग जाता.पहले कुछ देर तो सोंचता कि घर छोड़कर ही भाग लिया जाए.उस समय गाँव में बच्चों के भागने की घटनाएँ बहुत घट रही थीं.फिर कहीं बीच खेत में बैठ जाता और इन्तजार करता रहता कि कब कानों में दीदी के पुकारने की आवाज सुनाई दे.तब तक भूख भी लग चुकी होती थी.
              दीदी मेरे टिफिन में कुछ ज्यादा ही रोटियाँ रख देती और जब मैं स्कूल से लौटकर आता तो देखती कि कुछ बचा भी है क्या.वह टिफिन में बचे मेरे जूठन को इतना मगन होकर खाती कि मैं बस देखता ही रह जाता.उसके हाथों में मानों जादू था.उसके हाथों का बना पराठा-भुजिया इतना स्वादिष्ट होता कि उसकी शादी के २४ साल बाद आज तक मैं उस स्वाद की तलाश में हूँ.जब मैं बच्चा था तो बड़ा सीधा था.कई बार मेरे हमउम्र बच्चों ने मेरी बेवजह पिटाई की.मैं रोता हुआ जब घर आता तब दीदी उस बच्चे को कुछ कहने के बजाए उल्टे मुझे ही पीटती.फिर तो डर के मारे मैंने उसे बताना ही छोड़ दिया और जिससे भी निबटना होता;घटनास्थल पर ही निबट लेता.मैं हमेशा उससे छुट्टियों के दिनों में कहाँ-कहाँ भटका छिपाने की कोशिश करता लेकिन न जाने उसे कैसे पहले से ही सबकुछ पता होता.जब भी मैं बीमार हो जाता दीदी परेशान हो जाती.दिन-रात मेरे पास ही बैठी रहती और बैठे-बैठे ही सो जाती.
      मैंने कभी सोंचा भी नहीं था कि मेरी दीदी एक दिन हमें छोड़कर ससुराल चली जाएगी.उसकी शादी के समय मेरा किशोर मन चमक-दमक में खोया रहा.तब मैं सातवीं में पढ़ता था.लेकिन जब वह डोली में बैठने लगी तब जैसे मुझ पर वज्रपात ही हो गया.मैं दीदी की डोली के साथ-साथ दौड़ रहा था,दहाड़ें मारता.उधर दीदी भी रो रही थी और बार-बार मेरा नाम पुकार रही थी.लेकिन इसका कोई लाभ नहीं.गाँव के सिमाने तक जाकर मेरे पांव थम गए और डोली धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो गयी.उसके बाद कई दिनों तक घर मानो काटने को दौड़ता.मैं कई दिनों तक रोता रहा,बस रोता रहा.फिर मैं इंतजार करने लगा कि कब दीदी वापस आएगी.आज भी मेरे लिए सर्वाधिक ख़ुशी के दिन वही होते हैं जब दीदी ससुराल से हमारे घर आती है.आज भी वापसी के समय उसकी आँखें गीली हो जाती हैं लेकिन मेरी नहीं होती.अब मैं बड़ा जो हो गया हूँ,बहुत बड़ा.

1 टिप्पणी:

  1. हां कुछ तो बड़े हो ही गए हैं... तभी तो उन भावनाओं को शब्‍द दे पा रहे हैं.. कुछ लोग तो कभी इन्‍हें अभिव्‍यक्‍त भी नहीं कर पाते हैं...


    अच्‍छा लिखा... आभार...

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