बुधवार, 3 अगस्त 2011

उठो,जागो और युद्ध करो

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मित्रों,याद नहीं आ रहा कब भारत का संविधान पहली बार उल्टा था,शायद १९८५ में जब मेरी आयु यही कोई ८-९ साल की रही होगी.तब सबसे पहले नजर गयी थी प्रस्तावना पर जिसे वर्तमान कांग्रेस पार्टी के आदिपुरुष और मिजाज से ईसाई,संस्कृति से मुस्लमान और दुर्घटनावश जन्म से हिन्दू पं.जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षतावाली समिति ने तैयार किया था.मेरे द्वारा पढ़ी गयी प्रस्तावना के सबसे पहले शब्द थे हम भारत के लोग और अंतिम शब्द थे संविधान को आत्मार्पित करते हैं.आज भी प्रस्तावना जस की तस है.
         मित्रों,चाहे धार्मिक विधान हो,सामाजिक या राजनैतिक उसे बनाता व्यक्ति ही है;इन विधानों ने व्यक्ति को नहीं बनाया.इसलिए जब भी आवश्यकता हो जड़ता आने से पहले इन विधानों में परिवर्तन कर देना चाहिए.हमारे संविधान की प्रस्तावना भी कहती है कि यह संविधान जनता द्वारा निर्मित है और हमने इसे किसी और को नहीं बल्कि खुद को ही समर्पित किया है.इसका सीधा तात्पर्य है कि भारत में भारत की जनता सबसे ऊपर है न कि संविधान,संसद,कार्यपालिका या फिर न्यायपालिका.लेकिन इन दिनों हमारे देश के न भूतो न भविष्यति सबसे अकर्मण्य प्रधानमंत्री बार-बार संसद की सर्वोच्चता का बेसुरा राग आलाप रहे हैं.रिमोट संचालित मनमोहन सिंह का कहना है कि लोकपाल का जो भी करना होगा वह संसद करेगा न कि जनता.जाहिर है वे ऐसा इसलिए बक रहे हैं क्योंकि संसद में उन जैसे सफेदपोश बेईमान लोगों का बहुमत है.परन्तु अगर संसद को करना ही था तो उसने पिछले ६०-६१ सालों में क्यों नहीं किया?वह संसद जिसके एक तिहाई सदस्य हिस्ट्रीशीटर हों क्या कभी देश का भला सोंच सकता है?सुरेश कलमाड़ी और ए.राजा जैसे लोगों को अगर संसद की कार्यवाही में भाग लेने भी दिया जाए तो क्यों और कैसे उनसे इस देश की जनता यह उम्मीद रखे कि वे सदन में कदम रखते ही देश के अशुभचिन्तक से परमहितैषी बन जाएंगे?
      मित्रों,अभी-अभी कांग्रेस और उसकी सरकार ने लोक लेखा समिति की दुनिया के सबसे बड़े घोटाले से सम्बंधित रिपोर्ट को जिस तरह नकार दिया है और जिस तरह नोट के बदले वोट कांड पर लीपापोती की है;उससे तो यही सिद्ध होता है कि इन धूर्त लोगों का संसद में या उसकी गरिमा में किसी तरह का विश्वास नहीं है.ये तो बस किसी तरह देश में भ्रष्टाचार को बनाए रखने के लिए संसद और संविधान का रट्टा लगा रहे हैं.ये लोग अपने बहुमत के बल पर संसद का दुरुपयोग ही कर सकते हैं,सदुपयोग नहीं.इन लोगों ने पिछले ५३ सालों में सत्ता का सिर्फ दुरुपयोग किया है और अगर इन्हें सत्ता से हटाया नहीं गया तो आगे भी करते रहेंगे.आश्चर्य है कि ये धूर्त बार-बार उस संविधान की दुहाई देने में पिले हुए हैं जिसकी इन्होंने सैंकड़ों बार अपने क्षुद्र लाभ के लिए अवहेलना की है.अभी भी अन्ना हजारे को अनशन की अनुमति नहीं देकर ये कोई संविधानसम्मत काम नहीं कर रहे.कुछ भाई कह सकते हैं कि संसद का सत्र चलने के समय नई दिल्ली इलाके में प्रत्येक वर्ष निषेधाज्ञा लागू कर दी जाती है.अगर यह सच है तो भी यह व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का सरासर उल्लंघन है इसलिए यह परंपरा टूटनी चाहिए.
         मित्रों,उस महान संसद का मानसून-सत्र शुरू हो गया है जिसमें रूपए लेकर वोट देने की और बाद में जाँच के नाम पर लीपापोती कर देने की महान परंपरा रही है.मैं मानता हूँ कि संविधान ने संसद के कन्धों पर कानून बनाने की महती जिम्मेदारी डाली है और यह देखने का भार भी उसी पर छोड़ा है कि सरकार सही तरीके से काम कर रही है या नहीं परन्तु जब संसद अपने कर्तव्यों का सम्यक तरीके से निर्वहन नहीं कर पाए तब?तब क्या विकल्प बचता है देश और देश की जनता के सामने?क्या उसे उस प्रधानमंत्री के अनर्गल प्रलापों पर बिना किसी हिलहवाली के विश्वास कर लेना चाहिए जिसके मंत्री जेल में रहते हुए उस पर घोटालों में बराबर का भागीदार होने के आरोप लगा रहे हों या फिर जिस प्रधानमंत्री पर सी.ए.जी. जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था सी.डबल्यू.जी. घोटाले में शामिल होने और कान पर ढेला रखकर होने देने की रिपोर्ट दे रही हो?क्या उसे उस प्रधानमंत्री के कोरे आश्वासनों पर विश्वास कर लेना चाहिए जिसके नेतृत्व में विभिन्न विभागों में लाखों करोड़ों का घोटाला हो चुका हो?जब ये घोटाले हो रहे थे तब संसद कहाँ था और आज भी संसद इन मामलों में क्या कर रहा है?संविधान में पी.ए.सी. और नियंत्रक और महालेखाकार का प्रावधान क्यों किया गया है?क्या इसलिए कि कोई गन्दी और बहुमत में अंधी सरकार उनकी रिपोर्ट को बेहयायी से गंदे कूड़ेदान में फेंक दे?
         मित्रों,संसद और संविधान के ६१ साला इतिहास से स्पष्ट है कि ये संस्थाएं और व्यवस्थाएं भारत का कल्याण कर सकने में असफल रहीं है.अलबत्ता इनका दुरुपयोग करके बहुत-से टाई और खादीवाले जरूर अरब-खरब पति बन सकने में सफल रहे हैं.संसद में ऐसे गलत तत्व पहुँच रहे हैं जिनका देश और दिशहित से कुछ भी लेना-देना नहीं है.बल्कि अगर हम यह कहें कि संसद में इस तरह के लोगों का ही बहुमत हो गया है तो गलत नहीं होगा.जाहिर है अगर ऐसे लोग बहुमत में हैं तो सरकार भी वही गठित करेंगे और चलाएंगे भी वही.इसलिए अब समय आ गया है कि हम भारत के लोग जिन्होंने २६ नवम्बर,१९४९ को भारत के संविधान को आत्मार्पित किया था;पूरे संविधान को ही बदल दें.ऐसा कैसे होगा का उत्तर संविधान में नहीं गाँधी के दर्शन और जीवन में मिलेगा.हमें एकजुट होकर इसके लिए एक बार फिर करो या मरो आन्दोलन छेड़ना पड़ेगा और तब तक दम नहीं लेना होगा जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए.तो मित्रों,जागृत,उत्तिष्ठ,प्राप्यबरान्नीबोधत.

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