शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

निराशा ने बनाया नन्हा ब्लॉगर

kapilमित्रों,आजादी के बाद से ही सरकार घोषणाएं करती हैं,कानून भी बनती है और फिर सबकुछ भूल जाती है.वह कानून कैसे लागू होगा अथवा उसका कहाँ तक पालन हो रहा है;की बिलकुल भी चिंता नहीं की जाती.ताजा उदाहरण खुद मेरे घर से है.मेरे भांजों को जबसे जीजाजी का दिल्ली स्थानांतरण हुआ है,केंद्रीय विद्यालय में नामांकन का इंतजार है.इस बीच जीजाजी ने लगभग हरेक राजनीतिक दल का दरवाजा खटखटा,अधिकारीयों के दरों पर मत्था टेका लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं निकला.हारकर मेरे भांजों ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को पत्र लिखकर अपनी व्यथा-कथा से परिचित कराया.श्री कपिल सिब्बल ने पत्रोत्तर में उसे पत्र लेकर समीपस्थ केंद्रीय विद्यालय के प्राचार्य से मिलने की सलाह दी.वे दोनों उक्त पत्र को लेकर प्राचार्य से मिले भी परन्तु उन्हें एक बार फिर से टका-सा जवाब मिला.प्राचार्य महोदय ने ऐंठते हुए साफ़ तौर पर कहा कि वो किसी भी कीमत पर नामांकन नहीं लेंगे.यह स्थिति भारत की राजधानी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की है और तब है जब पूरे भारत में १४ साल से कम उम्र के बच्चों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है.अंततः निराशा ने वेदना को जन्म दिया और वेदना ने शब्दों का रूप धर लिया.तब जन्म हुआ एक नए ब्लॉग का और एक नन्हे मासूम ब्लॉगर का.ब्लॉग का नाम है सच्चाई और पता है-http://www.sachchai.blogspot.com और मेरे १३ वर्षीय ब्लॉगर भांजे का नाम है कौशिक राज.यहाँ मैं उसके पहले ब्लॉगपोस्ट जिसमें उसने अपनी व्यथा का वर्णन किया है प्रस्तुत कर रहा हूँ-

शिक्षा का अधिकार है या शिक्षा छीनने का अधिकार है

कहने के लिए तो देश में शिक्षा का अधिकार लागू है पर असलियत में इसकी बहुत भयावह स्थिति है।इसका एक उदाहरण मैं खुद हूँ।मैं और मेरा छोटा भाई पिछले एक साल से केन्द्रीय विद्यालय में नामांकन के लिए प्रयासरत हैं लेकिन आज तक हमारे हाथ सिवाय असफलता के कुछ नहीं लगा है।मेरे पिताजी सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय, सरदार पटेल भवन, नई दिल्ली में कार्यरत हैं।मेरे पिताजी को पिछले एक साल से केन्द्रीय विद्यालय में नामांकन के नाम पर परेशान किया जा रहा है।के॰वि॰ का बस एक ही नियम है-कोई सीट खाली नहीं है।
इस बार नामांकन के लिए मेरे पिताजी के॰वि॰ संगठन के उच्चाधिकारी और साथ-साथ कपिल सिब्बल-मानव संसाधन विकास मंत्री की चिठ्ठी आर॰के॰ पुरम सेक्टर-2 के प्राचार्य के यहाँ ले गए।हद तो तब हो गई जब प्राचार्य ने उन दोनों चिठ्ठी को भी यह कह कर नकार दिया कि आप चाहे मंत्री की चिठ्ठी लाएँ या प्रधानमंत्री की लेकिन नामांकन नहीं होगा तो नहीं होगा।तो क्या अब यह हाल हो गया कि एक विद्यालय के प्राचार्य की हैसियत भारत सरकार से भी ऊपर हो गई?प्राचार्य महोदय की बातों को सुनकर तो ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी विद्यालय के प्राचार्य से नहीं बल्कि भारतीय संविधान के निर्माता अथवा सरकार के मुखिया से बात कर रहे हैं।
इस संदर्भ में हमने मंत्री जी के कार्यालय से भी बात की लेकिन वहाँ से हमें जवाब मिला कि हम आप की कोई मदद नहीं कर सकते।तो क्या आम आदमी की मदद करने का मंत्री जी का यही नजरिया है कि बस एक चिठ्ठी दे दी और हो गई सारी जिम्मेदारी पूरी।अगर के॰वि॰ संगठन के उच्चाधिकारी और मंत्री जी अपने ही घर यानी के॰वि॰ में नामांकन नहीं करा सकते तो फिर देश को कोई जरूरत नहीं है ऐसे कमजोर और गैरजिम्मेदार मंत्रिमंडल और संगठन की।सरकार को के॰वि॰ संगठन को विघटित कर देना चाहिए क्योंकि ऐसा कोई भी संगठन जो देश के काम नहीं आ सकता पर एक पैसा भी खर्च करना पाप है।वैसे भी केन्द्र में आज तक ऐसी कोई भी सरकार नहीं आई है जो आम जनता के बारे में सोचे।ये सरकार भी कुछ गलत नहीं कर रही है बस इसी रिवाज को आगे बढ़ा रही है।

13 टिप्‍पणियां:

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