रविवार, 23 अक्टूबर 2011

लोकतंत्र,पूंजीवादी नैतिकता और हम

मित्रों,इन दिनों पूरी दुनिया में जनाक्रोश का तूफ़ान आया हुआ है.बारी-बारी से दुनिया के विभिन्न देशों में तानाशाही शासन का अंत हो रहा है.हर जगह जनता बेरोजगारी,महंगाई और सबसे बढ़कर आर्थिक गैरबराबरी से परेशान है.खैर तानाशाहों का अंत हमेशा से इसी तरह होता आया है.इतिहास बार-बार अपने को दोहराता रहता है परन्तु तानाशाह सबक नहीं लेते और फिर वही होता है जो इन परिस्थितियों में होना चाहिए.लेकिन इस बार जनाक्रोश के बबंडर की चपेट में सिर्फ तानाशाही शासन वाले देश ही नहीं हैं बल्कि वे देश भी इसकी जद में हैं जो दुनियाभर में मानवाधिकारों और लोकतंत्र के तथाकथित ठेकेदार बने फिरते हैं.दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े झंडाबरदार और दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका में भी इन दिनों बढ़ती बेरोजगारी,महंगाई और गैरबराबरी से क्षुब्ध जनता पूंजीवाद के सबसे बड़े प्रतीक वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने की मुहिम चला रही है.जनता नाराज है कि अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के चलते वे गरीब होते जा रहे हैं और उनकी खून-पसीने की कमाई हड़प जानेवाले बैंक धनवान.दुनिया की मात्र ४% जनसंख्या की बदौलत दुनिया की २४% आय पर कब्ज़ा रखनेवाले अमेरिका की आतंरिक स्थिति भी पूंजीवाद की बिडंबनाओं के चलते कमोबेश ऐसी ही है.जहाँ वहां की करीब आधी राष्ट्रीय आय पर सबसे ऊपर के २०% लोगों का कब्ज़ा है वहीँ सबसे गरीब १५% जनसंख्या की राष्ट्रीय आय में सिर्फ ३.४% की हिस्सेदारी है.इतना ही नहीं सबसे ऊपर के १% लोगों का देश की आमदनी के १८% पर गरीबों के दिलों को खटकने वाला अधिकार है.परिणाम आम जनता मुफलिसी की जिंदगी जीने को बाध्य है वहीँ वहाँ के अमीर अपना पैसा कहाँ खर्च करें;की समस्या से जूझ रहे हैं.यूरोप में भी कमोबेश सारी सरकारें कॉरपोरेट जगत के ईशारों पर नृत्य करने में मग्न हैं.ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ?1860 के दशक तक जब अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति थे;तो प्रजातंत्र जनता का,जनता द्वारा और जनता के लिए शासन हुआ करता था.फिर यह विकृत्ति कैसे आ गयी कि कॉरपोरेट जगत परदे के पीछे से कथित लोकतान्त्रिक सरकारों का सूत्रधार बन बैठा.
                     मित्रों,समस्या लोकतंत्र में नहीं है;समस्या है लोकतंत्र के बदलते स्वरुप में.पूंजीवाद तो हमेशा से मुनाफा आधारित व्यवस्था रही है.इस व्यवस्था में धन का केन्द्रीकरण होने की प्रवृत्ति पहले भी थी.हाँ,इतना जरुर था कि पहले पूँजीपतियों के सीने में दिल भी होता था और यह बात भारत सहित पूरी दुनिया के लिए सत्य थी.तब के पूंजीपति दोनों हाथ उलीचिए यही सयानो काम में यकीन करते थे.अपने देश में टाटा और बिरला ने अनगिनत मंदिरों,धर्मशालाओं और अस्पतालों का निर्माण कराया.इन्हें कभी इस बात की जरुरत महसूस नहीं हुई कि वे मुकेश अम्बानी की तरह हजारों करोड़ रूपये के मकान में रहें और वो भी उस देश में जहाँ की ८०% जनसँख्या दाने-दाने को मोहताज हो.आजाद भारत के प्रारंभिक दशकों में देश के तकनीकी विकास में टाटा परिवार के योगदान को हम कभी नहीं भूल सकते और अगर ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से कृतघ्न कहे जाएँगे.
           मित्रों,वक़्त बदला और साथ-साथ हमारे जीवन मूल्य भी बदलते गए.उपभोक्तावाद ने पूंजीपतियों को सामाजिक सरोकार से दूर कर दिया और तब कार्ल मार्क्स की प्रसिद्द उक्ति कि पूँजी हृदयहीन होती है सचमुच चरितार्थ होने लगी.पूंजीपति समाज से तो कट ही गए लालच में अंधे होकर धनबल के बल पर सरकारी नीतियों को भी प्रभावित करने लगे.अगर ऐसा नहीं होता तो आज २जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भारत की कई प्रमुख कंपनियों के उच्चाधिकारी तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ा रहे नहीं होते.
         मित्रों,लोकतान्त्रिक देशों के राजनीतिक दलों का स्वाभाव और चरित्र भी पिछले दशकों में तेजी से बदला है.पार्टी फंड में पहले भी पैसों की जरुरत होती थी लेकिन तब जमीर बेचकर पैसा जमा करने का रिवाज नहीं था.आज करप्शन पार्टी के उपनाम से कुख्यात हो चुकी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कभी पार्टी फंड में चवन्निया कार्यकर्ताओं से २५-२५ पैसे करके जमा करवाया था.तब उसके नेता रेलवे के थर्ड क्लास में सफ़र किया करते थे.वायुयान के कैटल क्लास में सफ़र के बारे में भी कल्पना तक तब उनके लिए दूर की कौड़ी थी.हालांकि,तब भी जमनालाल बजाज और धनश्याम दास बिरला ने कई बार पार्टी फंड में अपना अहम् योगदान दिया था लेकिन उनकी मंशा इसके बदले आर्थिक लाभ प्राप्त करने की कतई नहीं थी.आज की स्थिति इसके बिलकुल उलट है.आज का कॉरपोरेट जगत अगर किसी पार्टी के कोष में १ रूपया देता है तो उसकी मंशा बदले में १०० रूपया पाने की होती है.आज देश की चिंता तो न तो जनप्रतिनिधि नेताओं को ही है और न ही पूँजी पर कब्ज़ा जमाए पूंजीपतियों को ही.
               मित्रों,हम देखते हैं कि चुनाव जो किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद होते हैं दिन-ब-दिन महंगे होते जा रहे हैं.कहीं-न-कहीं इसके पीछे पार्टी फंडिंग का बढ़ता जोर तो है ही जनता भी कम दोषी नहीं है.जनता हमेशा प्रत्येक चुनाव में तात्कालिक लाभ के चक्कर में रहती है.वह सोंचती है कि अभी जो मिलता है ले लो बाद का क्या ठिकाना कि क्या हो और क्या नहीं हो.परिणाम यह निकलता है कि चुनावों में धड़ल्ले से पैसे,सामान और शराब बांटे जाते हैं.लालच में अंधी होकर जनता मतदान करती है और भ्रष्ट तत्व चुनाव जीत जाते हैं.हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी भारत के इसी वैशाली से जहाँ मैं इन दिनों रहता हूँ;१९३७ में दीपनारायण सिंह जैसे फक्कड़ ने चुनाव जीता था और वो भी बिहार के धनाढ्यों में अग्रणी श्यामनंदन सहाय को हराकर.तब भी पैसे बांटे गए थे,शराब की बोतलें बाँटीं गयी थीं लेकिन धनबल हार गया था और जनबल की जीत हुई थी.आज ऐसा क्यों नहीं होता?कारण है अविश्वास और समाज में धनबल का बढ़ता महत्व.जनता को अब किसी के भी ऊपर विश्वास ही नहीं रह गया है.धूर्त लोग बगुला भगत बनकर,खुद को गरीब का बेटा कहकर चुनाव जीत जाते हैं और फिर भूल जाते हैं अपने गरीब मतदाताओं को.ऐसे में जनता यह देखती है कि उसे कौन कितना पैसा देता है.वह अपने वोटों की नीलामी करती है और जो सबसे ऊंची बोली लगाता है;जीत जाता है.बाद में लूटते तो सभी हैं-कोऊ नृप होए हमें का हानि.आज जो लोग भी चुनाव जीतते हैं;लगता है जैसे सत्य निष्ठा की नहीं बेईमानी की शपथ लेते हैं.परन्तु इनके राजनीतिक पूर्वज ऐसे नहीं थे.तब के सामाजिक मूल्य और थे और अब और हो गए हैं.तब जनसेवा और ईमानदारी का समाज में महत्त्व था;आज महत्त्व है सिर्फ पैसों का.पैसों के लिए आज का आदमी कुछ भी कर गुजरता है.अब कुछ भी पाप नहीं है,सब पुण्य है और उन पुण्यों में सबसे बड़ा पुण्य है येन केन प्रकारेण पैसा बनाना.
          मित्रों.हम भी वही कर रहे हैं यानि किसी-न-किसी तरह पैसा बना रहे हैं,राजनेता भी वही कर रहे हैं और कॉरपोरेट जगत भी वही कर रहा है.अंतर सिर्फ इतना है कि नेताओं और पूंजीपतियों के हाथों में ज्यादा शक्ति है,संसाधन है इसलिए वे ज्यादा पैसा बना रहे हैं और हमारे हाथों में कम शक्ति और संसाधन है इसलिए हम कम पैसा बना पा रहे हैं.सरकारी तंत्र में ऊपर से नीचे तक जो भ्रष्टाचार का व्यापार चल रहा है उसे कौन चला रहा है?हमहीं न!दिन-रात घूस लेनेवाले अधिकारी-कर्मचारी,नेता और पूंजीपति कोई आसमान से अवतरित नहीं हुए हैं बल्कि वे हमारे बीच से ही हैं.जिस तरह शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिका होती है उसी तरह लोकतान्त्रिक शासन की सबसे छोटी इकाई हम हैं.जब कोशिका में विकृति आती है तो कैंसर हो जाता है और जब जनता में विकृत्ति आती है तब?तब लोकतंत्र जनता का,जनता द्वारा और जनता के लिए शासन नहीं रहकर पूंजीपतियों का,पूंजीपतियों द्वारा और पूंजीपतियों के लिए शासन बनकर रह जाता है.इसलिए अगर कहीं सुधार की आवश्यकता है तो हमारी सोंच,हमारे विचारों और हमारे मूल्यों में.यह काम दुनिया की कोई भी सरकार कोई भी सख्त-से-सख्त कानून बनाकर नहीं कर सकती.यह हमहीं कर सकते हैं केवल हम और हम शायद इसके लिए तैयार ही नहीं हैं.हमारी यह आदत बन गयी है कि हम दूसरों पर ऊंगली उठाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं,अपने अन्दर नहीं झांकते.बंधु;यह आत्मालोचना का समय है.अगर हम आत्मालोचन नहीं करेंगे,अपने-आप में सुधर नहीं करेंगे तो एक गद्दाफी के मारे जाने के बाद दूसरा गद्दाफी शासन में आ जाएगा;एक मनमोहन चुनाव हारेगा और उसकी जगह कोई और नहीं बल्कि दूसरा मनमोहन बदले हुए नाम और सूरत के साथ आ जाएगा.हम ठगे जाते रहेंगे और हमें कोई और ठग भी नहीं रहा होगा,हमारा अंतर्मन और हमारी अंतरात्मा खुद हमारे ही हाथों ठगे जाते रहेंगे;चाहे शासन साम्यवादी होगा या पूंजीवादी या फिर मिश्रित;वस्तुस्थिति में कोई अंतर नहीं होगा.
                    

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