शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

क्या यही है श्री श्री के जीने की कला

मित्रों,जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था तब पड़ोसी गाँव बासुदेवपुर चंदेल में यज्ञ का आयोजन किया गया.बड़े-बड़े,भारी शरीर वाले साधु-संतों का जमावड़ा लगा.चूंकि हम विद्यार्थी स्वयंसेवक भी थे इसलिए हमारे पास उनकी दिनचर्या के बारे में काफी निकट से जानने का भरपूर मौका था.वे लोग मलाई तलवे में लगाते और खाते भी थे.सेब,अनार,संतरा और दूध तो वे लोग जितना एक सप्ताह में हजम कर गए आज महंगाई के इस युग में सोंचकर भी आश्चर्य होता है.आश्चर्य उस समय भी हुआ था उनका रहन-सहन देखकर क्योंकि तब तक मेरा पाला सिर्फ भुक्खड़ सन्यासियों से ही पड़ा था.उन कथित साधु-संतों का सिर्फ शरीर ही भीमाकार नहीं था उनका नाम तो शरीर से कहीं ज्यादा भारी-भरकम था.श्री श्री १००८ वेदांती जी महाराज,श्री श्री १०८ लक्ष्मण जी महाराज इत्यादि.नाम के पहले इतने श्री लगाने का क्या मतलब या उद्देश्य हो सकता है इसका दुरुपयोग करने वाले ही जानें.मेरी समझ में तो यह तब भी नहीं आया था और आज भी नहीं आ रहा है.हमने इनमें से कुछ के नामों को अपनी समझ से सुधार कर कुछ यूं कर दिया था-श्री श्री ४२० मलाईचाभक,सेबठूंसक,दूधपीवक भूकंपधारी जी महाराज आदि.
             मित्रों,इन्हीं एक से ज्यादा श्री धारण करनेवाले सन्यासियों में से एक हैं श्री श्री रविशंकर जी.इन्होने अपने नाम में बस एक ही फालतू श्री लगा रखा है.ये श्रीमान ज़िन्दगी जीने को एक कला मानते हैं और लोगों को उसी की शिक्षा देने का दावा भी करते हैं.ये श्रीमान खुद तो गृहस्थाश्रम से भाग खड़े हुए और ये बताते हैं कि गृहस्थों को कैसे जीना चाहिए.इनके द्वारा दीक्षित गृहस्थ भी कोई आम गृहस्थ नहीं होए.वे होते हैं बड़े-बड़े धनपति जो इनको मोटी दक्षिणा दे सकने में सक्षम होते हैं.पूछना चाहें तो आप भी मेरी तरह इनसे पूछ सकते हैं कि इन्होंने कलात्मकता से जी गयी पूरी जिंदगी में कितने गरीबों को जीना सिखाया?क्या गरीबों की ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती?क्या वे जीवन को जीते नहीं है?बस किसी तरह झेल लेते हैं जबरदस्ती लाद दी गयी जिम्मेदारी की तरह?मैं तो समझता हूँ कि अगर श्री श्री अपने कलात्मक ज्ञान द्वारा गरीबों को बताते कि इस महंगाई में दाल-सब्जी कैसे थाली में लाई जाए या फिर कैसे भूखे रहकर भी शरीर को स्वस्थ रखा जाए तो उनका हम गरीबों पर बड़ा उपकार होता.लेकिन वे साधारण संत तो हैं नहीं कि आम आदमी को जीना सिखाएंगे.वे तो हाई-फाई संत हैं जिनके शिष्यों में देश के बड़े-बड़े नेता और अमीर होते हैं जो अक्सर अपच के रोगी भी होते हैं.
                    मित्रों,आप भी मेरे साथ जरा सोंचिए कि कोई किसी को अगर जीना सिखाएगा तो क्या सिखाएगा?यही न कि गिलास के भरे हुए भाग को देखो खाली को नहीं.कठिनाइयों,विसंगतियों से युद्ध करो,मैदान छोड़कर भागो नहीं.लेकिन श्री श्री स्वयं क्या कर रहे हैं?वे भारतवासियों को बता रहे हैं कि लोकपाल आने से भ्रष्टाचार मिटनेवाला नहीं है इसलिए अपने तत्संबंधी प्रयासों को बीच मंझधार में ही छोड़ दो.खुद तो श्री श्री भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई आन्दोलन छेड़ते नहीं परन्तु पहुँच जरुर जाते हैं चंद मिनटों के लिए मंच साझा करने के लिए और अब श्रीमान गन्दी हवा छोड़कर बनी बनाई हवा को ख़राब करने में लग गए हैं.ऐसा करने से उनको क्या लाभ हो जाएगा या हुआ है या भ्रष्टाचार से आजिज जनता को जीने में क्या प्रेरणा मिलेगी;वही जानें?क्या किसी आन्दोलन से लकड़बग्घे की तरह लाभ उठाकर उसकी पीठ में छुरा घोंप देना उनके जीने की कला के अंतर्गत आता है?
              मित्रों,मुझे जहाँ तक लगता है कि संस्था या ट्रस्ट चलनेवाले श्री श्री सहित लगभग सारे सफेदपोश इस बात की आशंका से डर रहे हैं कि केंद्र सरकार के खिलाफ आवाज उठाने पर सरकार कहीं उनकी संस्था के खातों की जाँच न शुरू कर दे और जो नहीं डरे हैं;आप भी देख ही रहे हैं कि वे कैसे फजीहत झेल रहे हैं.गलती किससे नहीं होती?चाहे आर्ट ऑफ़ लिविंग सिखानेवाला श्वेतवस्त्रधारी हो या योग सिखानेवाला केसरिया कपड़ाधारी या और कोई;गलती सभी करते हैं.अच्छा होगा कि जिन्होंने आर्थिक अपराध या करवंचना की हो खुद जनता के समक्ष आकर अपनी गलती मान लें और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज बुलंद कर या न्यायालय द्वारा दी गयी सजा काटकर प्रायश्चित करें.धृष्टता के लिए कृपया क्षमा कर दीजिएगा श्री श्री जी यहाँ मैं आपको जीना नहीं सिखा रहा हूँ.वो तो शायद आप मुझसे बेहतर जानते हैं.मैं तो आपको केवल यह बता रहा हूँ कि जीना सिखाया कैसे जाता है.जो बात दूसरों को सिखाईए पहले खुद उस पर अमल करिए तभी बातों में तासीर पैदा होती है वरना बात पर उपदेश कुशल बहुतेरे तक ही जाकर अटक जाती है.

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