सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

भारत माता के सच्चे लाल थे श्रीलाल

मित्रों,मैं स्व.श्रीलाल शुक्ल जी से कभी नहीं मिला,फिर भी उनसे मेरा परिचय काफी गहरा था.हमारे परिचय का आधार थी उनकी सिर्फ एक रचना.मेरे लिए यह रचना सिर्फ एक रचना मात्र नहीं है.वह बदलते भारत का इतिहास भी है,वर्तमान भी और भविष्य भी.हुआ यूं कि वर्ष १९९५ में मैंने विविध भारती पर नाट्य तरंग सुनना आरम्भ किया.तभी सप्ताह में एक दिन श्रीलाल जी के उस उपन्यास का धारावाहिक प्रसारण शुरू हुआ जिसका कि मैंने ऊपर जिक्र किया है.उपन्यास राग दरबारी मुझे सचमुच राग दरबारी में निबद्ध कोई संगीत रचना-जैसी लगी.सुनना शुरू किया तो बस सुनता ही चला गया.जब इसके प्रसारण का समय आता तब सारे कामकाज छोड़कर छत पर चला जाता बगल में रेडियो दबाए.तब विविध-भारती शोर्ट वेव पर पकड़ती थी और प्रसारण का अविच्छिन्न आनंद लेने के लिए बार-बार मीटर को खिसकाना पड़ता था.आवाज भी इतनी कम आती और इस तरह घर्घर नाद के साथ आती कि रेडियो से कानों को सटाकर रखना पड़ता था.
           मित्रों,बहुत जल्दी रुप्पन,रंगनाथ,वैद्यजी और छोटे पहलवान जैसे मेरे अपने गाँव के किरदार बन गए.शिवपालगंज का वर्णन जैसे मेरे गाँव जगन्नाथपुर का रोजनामचा था.कितना गहरा व्यंग्य है रागदरबारी में हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर?!अंततः पहले रेडियो पर यह उपन्यास समाप्त हुआ और बाद में लेखकों से परिचित करवानेवाले इस कार्यक्रम की आवृत्ति को घटाकर दैनिक से साप्ताहिक कर दिया गया.हालाँकि मुझे रेडियो पर राग दरबारी को पूरा-का-पूरा सुनाने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था लेकिन मन जैसे अतृप्त-सा रह गया था.फिर मैंने २००२ में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान यह उपन्यास ख़रीदा और खाना-पीना और पेशाब के वेग तक को रोककर एक ही बैठक में पढ़ गया.मन को लगा जैसे उसने वर्षों बाद अमृत का स्वाद चखा हो.फिर तो इस उपन्यास को कई-कई बार पढ़ा.हालाँकि मैंने इससे पहले प्रेमचंद और रेणु को भी पढ़ा था.प्रेमचंद में तो व्यवस्था पर यह व्यंग्य सिरे से गायब था;रेणु के मैला आँचल में व्यंग्य था पर सिर्फ यथार्थ की सतह को छूता हुआ-सा.अपनी तरह का पहला उपन्यास राग दरबारी सिर्फ उपन्यास नहीं था भ्रष्ट तंत्र में तब्दील हो चुके भारतीय लोकतंत्र को आईना दिखाता एक अश्लील यथार्थ था,सत्य था.भारतीय लोकतंत्र का जो वर्णन इस उपन्यास में है,जिस तरह का वर्णन श्रीलाल जी ने इस उपन्यास में एक गाँव के बारे में किया है कमोबेश वही सब तो बड़े फलक पर प्रादेशिक और राष्ट्रीय राजनीति में इन दिनों घटित हो रहा है.बहुत-से गांवों में तब भी ऐसा हो रहा था और बहुत-से गांवों में ऐसा होने वाला था.इस दृष्टि से श्रीलाल जी साहित्यकार के अतिरिक्त एक भविष्यद्रष्टा भी थे.
                   मित्रों,मैंने जहाँ तक हिंदी साहित्य को पढ़ा है उसके आधार पर बेहिचक यह कह सकता हूँ कि श्रीलाल जी के उपन्यास राग दरबारी ने उस समय एक शून्य को भरने का काम किया था जो शून्य प्रेमचंद के गोदान के बाद से ही बना हुआ था.प्रेमचंद गोदान में भविष्य के भारतीय लोकतंत्र की जिस तस्वीर को देख सकने में असमर्थ रहे थे और रेणु ने जिसे मैला आँचल में थोड़ा-थोड़ा देखा था चाहे इसका कारण कुछ भी रहा हो;को श्रीलाल जी ने खूब देखा और उसका उतनी ही बखूबी के साथ वर्णन भी किया.रागदरबारी की एक-एक पंक्ति जैसे किसी माला का एक-एक मोती है.इसकी एक भी पंक्ति को आप हटा नहीं सकते;बदल भी नहीं सकते.इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा कि जैसे श्रीलाल जी ने मेरे गाँव में चुपके से आकर नित्य-प्रतिदिन घटनेवाली घटनाओं की वीडियो रिकार्डिंग कर ली है.एक-एक दृश्य सच से भी ज्यादा सच्चा.सत्य को देखता हर कोई है,महसूस भी हर कोई करता है लेकिन लिख हर कोई नहीं पता.हर किसी के पास न तो लिखने लायक सघन अनुभूति होती है और न ही उन अनुभूतियों को कोरे कागज पर उकेर सकनेवाले शब्द.
                  मित्रों,यूं तो तंत्र के खिलाफ लिखना ही बड़ी बात है परन्तु उससे भी बड़ी बात है भ्रष्ट हो चुके उस तंत्र का अहम हिस्सा रहते हुए उसके विरुद्ध लिखना.आज भी बहुत-से आई.ए.एस.-आई.पी.एस. अधिकारी ऐसे हैं जो व्यवस्था से क्षुब्ध हैं और जिनकी लेखनी में कशिश भी है लेकिन वो जिगर नहीं है जो श्रीलाल जी के पास था.बतौर मुक्तिबोध अभिव्यक्ति के खतरों को उठा सकनेवाला जिगर.आज श्रीलाल जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन मेरा उनसे और भारतीय राजनीति की विद्रूपताओं से परिचय करवानेवाली पुस्तक राग दरबारी अब भी मौजूद है मेरी आलमारी में उनकी ही तरह एक अल्हड और मस्तमौला मुस्कराहट बिखेरती हुई.आश्चर्य होता है कि हिंदी साहित्याकाश में धवल नक्षत्र इस पुस्तक के लिए उन्हें पहले ज्ञानपीठ क्यों नहीं दिया गया?ज्ञानपीठ वालों को पुरस्कार देने की तब सूझी जब माता सरस्वती का यह मानस पुत्र विदाई की बेला में पहुँच चुका था?!आखिर हम भारतीयों को यूं ही लेटलतीफ तो नहीं कहा जाता!श्रीलाल जी आज हमारे बीच नहीं हैं.मेरे पास तो उनकी स्मृतियाँ भी शेष नहीं है.प्रत्यक्ष परिचय का अवसर ही जो नहीं मिला.लेकिन शेष हैं उनकी रचनाएँ,उनके शब्द जो चीख-चीखकर उनकी निडर रचनाधर्मिता से हमें परिचित करवा रही हैं.दुर्भाग्यवश राग दरबारी समय के गुजरने के साथ-साथ पहले से भी ज्यादा सामयिक बनता जा रहा है.भ्रष्टाचार और भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ इन दिनों जो जनाक्रोश उभर रहा है उसे देखते हुए मैं आप सभी भारतीयों के साथ आशा करता हूँ कि निकट-भविष्य में इसकी सामयिकता पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी और तब यह साहित्य की श्रेणी से हटकर इतिहास की पुस्तक बनकर रह जाएगी.आमीन!!!   

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