मित्रों,राईट टू रिकॉल की मांग अब पुरानी हो चुकी है.जे.पी. के बाद बीच के समय में इस पर चर्चा लगभग बंद हो गयी थी लेकिन अन्ना के राष्ट्रीय परिदृश्य में आने और छाने के बाद एक बार फिर से यह चर्चा के केंद्र में है.ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि जो सरकार इस समय केंद्र में है वो ठीक तरीके से काम नहीं कर रही है या फिर और भी स्पष्टवादी होकर कहें तो कोई काम ही नहीं कर रही है.
मित्रों,भारत की जनता पिछले ६१ सालों में १५ लोकसभाओं और सैंकड़ों विधानसभाओं के चुनाव देख चुकी है.उसने चुनावों को पवित्र पर्व-त्योहार से निंदनीय क्रय-विक्रय के महाभोज में परिणत हुए अपनी खुली आँखों से देखा है.इस नैतिक-स्खलन के लिए किसी व्यक्ति-विशेष को जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा सकता.कहीं-न-कहीं चुनावों में धांधली करनेवाले और धांधली देखकर चुपचाप रह जानेवाले;दोषी दोनों तरह के लोग हैं.हमारे देश में चुनावों में गड़बड़ी की शुरुआत हुई मतदान-केन्द्रों पर कब्जे से यानि वोटरों के शरीर को वश में करने से;जिसके चलते राजनीति में अपराधियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी.बाद में चुनाव आयोग की सख्ती के कारण चुनावों में बाहुबल का प्रयोग प्रायः बंद हो गया.तब उम्मीदवारों ने धन,वस्तु और शराब का लालच देकर या फिर जनभावनाओं को गलत दिशा देकर मतदाताओं के दिलो-दिमाग पर कब्ज़ा करना शुरू किया.इसी बीच राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर आगमन हुआ राजनीति से संन्यास ले चुके और भारत छोड़ो आन्दोलन के हीरो रह चुके लोकनायक जयप्रकाश नारायण का.जे.पी. ने राईट टू रिकॉल पर चर्चा की शुरुआत इसकी मांग करके की.परन्तु खुद उनके ही आशीर्वाद से बनी जनता पार्टी की सरकार ने ही इसे अपने देश के लिए व्यावहारिक नहीं माना और बात आई-गई हो गयी.
मित्रों,मैं समझता हूँ कि राईट टू रिकॉल भारत जैसे विशाल और विकासशील देश के लिए १९७७-७८ में तो व्यावहारिक नहीं ही था यह आज भी व्यावहारिक नहीं है.चुनाव किसी भी लोकतंत्र की हृदय गति के समान होता है और हृदय का आवश्यकता से जल्दी-जल्दी धड़कना तो स्वास्थ्य पर बुरा असर डालनेवाला होता ही है उसका काफी धीमी गति से धड़कना भी स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छा नहीं माना जाता.देर से चुनाव जहाँ तानाशाही को जन्म देता है वहीं चुनावों के बहुत जल्दी-जल्दी होने से सम्बंधित प्रदेश या विधानसभा-लोकसभा क्षेत्र विकास की दौड़ में पिछड़ जाते हैं.आप सभी यह अच्छी तरह जानते हैं कि चुनाव की घोषणा होते ही क्षेत्र में आचार संहिता लागू हो जाती है.इस अवधि में सरकार उस क्षेत्र-विशेष के लिए न तो कोई नई योजना ही शुरू कर सकती है और न ही क्षेत्र में उद्घाटन-शिलान्यास ही किया जा सकता है जिससे कई तरह की विकास संबधी जटिलताएँ पैदा हो जाती हैं.ऐसा ही एक वाकया पिछले विधानसभा चुनावों में मुजफ्फरपुर में देखने को मिला.हुआ यूं कि मुजफ्फरपुर में एक फ्लाई ओवर उद्घाटन के लिए बनकर तैयार था तभी चुनावों की घोषणा कर दी गयी और आचार संहिता लागू हो गयी.जनता परेशान,कई सप्ताहों में जाकर चुनाव की प्रक्रिया पूरी होनी थी.कैसे इंतजार किया जाए जबकि पुल के चालू न होने से जनसामान्य को आने-जाने में काफी परेशानी हो रही थी?अंत में जनता ने बिना उद्घाटन के ही पुल को प्रयोग में लाना आरंभ कर दिया.
मित्रों,इतना ही नहीं चुनावों के कारण पूरी सरकारी मशीनरी ही ठप्प हो जाती है.जिला,अनुमंडल और प्रखंड-कार्यालयों में दिनानुदिन का कामकाज रूक जाता है;विद्यालयों में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई बंद हो जाती है जिसका गाँव-समाज की शिक्षिक और आर्थिक स्थिति पर पश्चगामी प्रभाव पड़ता है.चुनाव-दर-चुनाव धनबल के बढ़ते जोर और जनता के बढ़ते लालच के चलते चुनाव लगातार महंगे होते जा रहे हैं.राईट टू रिकॉल लागू होने पर विभिन्न विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों में बार-बार के उपचुनावों से भारत सरकार के खजाने पर बेवजह दबाव पड़ेगा जिससे निपटने के लिए हमारा नाकारा रिजर्व बैंक अतिरिक्त करेंसी की छपाई करेगा और अभूतपूर्व महंगाई के इस युग में महंगाई के बढ़ने की रफ़्तार और भी तेज हो जाएगी.साथ ही,बार-बार होनेवाले चुनाव उम्मीदवारों की जेब पर भी बार-बार डाका डालेंगे जिससे उनके भ्रष्ट होने का खतरा और भी बढ़ जाएगा.
मित्रों,राईट टू रिकॉल वर्तमान भारत में पंचायत स्तर पर लागू भी है.लेकिन पंचायत की जनसंख्या तो काफी कम होती है इसलिए वहां ग्राम-सभा की बैठक बुलाकर प्रत्यक्ष निर्णय सम्भव है.परन्तु विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र का परास अपेक्षाकृत काफी बड़ा होता है और उनकी जनसंख्या भी काफी ज्यादा होती है.ऐसे में इन स्तरों पर जनता के लिए प्रत्यक्ष निर्णय कर पाना कदाचित संभव नहीं हो सकेगा.तब एक मात्र विकल्प यह बचेगा कि समय-समय पर क्षेत्र में जनमत-संग्रह करवाया जाए जिससे यह मालूम हो सके कि जनता अपने जनप्रतिनिधियों की कारगुजारियों से संतुष्ट है या नहीं.फिर इन जनमत-संग्रहों में भी अगर बाहुबल और धनबल के जोर पर धांधली की गयी तो?सबसे बड़ी बात कि भारत जैसे विकासशील और सीमित साधनों वाले देश को ऐसा करना निश्चित रूप से काफी महंगा पड़ेगा क्योंकि इसमें काफी खर्च आएगा.साथ ही इसके लागू होने के बाद सरकारों और जनप्रतिनिधियों के भविष्य पर हमेशा तलवार लटकती रहेगी.वे लगातार इस चिंता में दुबले होते रहेंगे कि न जाने कब जनता उनकी कुर्सी के नीचे की जमीन ही छीन ले.परिणाम यह होगा कि वे कोई भी दीर्घकालीन योजना बनाने से कतरायेंगे.
मित्रों,इस प्रकार हमने देखा और गहराई से विश्लेषण करने पर पाया कि राईट टू रिकॉल भारत जैसे गरीब और विशालकाय देश के लिए किसी भी दृष्टिकोण से व्यावहारिक नहीं है.वास्तव में यह एक आदर्श है और इसे आदर्श ही रहने देने में हमारी भलाई भी है.वैसे भी प्रत्येक पाँच साल बाद जनता को उम्मीदवारों में से अपना जनप्रतिनिधि चुनने का सुअवसर मिलता ही है और पाँच साल का समय कोई ज्यादा नहीं होता.दरअसल समस्या पाँच साल के कथित लम्बे समय के अन्तराल पर चुनावों का होना नहीं है;समस्या है जनता द्वारा अपने मतों का नासमझी से प्रयोग करना.साथ ही,चुनाव प्रक्रिया में भी सुधार की आवश्यकता है जिससे धनबलियों और असामाजिक तत्वों का विधानसभाओं और लोकसभा-राज्यसभा में प्रवेश को पूरी सख्ती के साथ रोका जा सके.वास्तव में भारत में राईट टू रिकॉल लागू करने का मतलब होगा सही बीमारी का गलत ईलाज.
panch saal bahut lamba wakt hota hai.itna lamba ki neta tab tak pharsh se arsh tak pahunch jaate hain bhrashtachar karne me.kam se kam itne lambe wakt ko kam jaroor karega right to recall.
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