मित्रों,बचपन में प्रेमचंद की एक कहानी पढ़ी थी पञ्च परमेश्वर जिसमें जुम्मन शेख अपने पूर्व मित्र अलगू चौधरी के साथ अपनी सारी दुश्मनी को भूलकर न्याय का साथ देता है.लेकिन बड़ा होकर पाया कि पञ्च तो सिर्फ बेईमान और दुष्ट होते हैं और जब ईन्सान भी नहीं होते तो भगवान क्या ख़ाक होंगे?अब झारखण्ड के जामताड़ा के नारायणपुर थाने के एक पंचायत के तुगलकी फैसले को ही लें.वहां हुआ यह है कि एक लड़का गाँव की ही एक लड़की के साथ शादी का झांसा देकर एक साल तक यौन-सम्बन्ध बनाता है और जब लड़की के पेट में बच्चा ठहर जाता है तो गाँव छोड़कर फरार हो जाता है.लड़की गोद में बच्चा लेकर मामले को पंचायत प्रतिनिधियों के समक्ष उठाती है और मांग करती है कि लड़के से उसकी शादी करवाई जाए जैसा कि उसने वादा भी किया हुआ है.लड़का गाँव के एक प्रभावशाली परिवार से आता है इसलिए पंचायत सबही सहायक सबल को की नीति का पालन करती हुई कुछ अजीब फैसला देती है कि लड़की को उसकी अस्मत के बदले ८०००० रूपये की रकम दे दी जाए और मामले को समाप्त समझा जाए.
मित्रों,जाहिर है कि एक ऐसी गरीब लड़की जिसके पास सिवाय अस्मत के और कुछ भी गिनने-गिनाने लायक नहीं है भला ऐसे तालिबानी और अन्यायपूर्ण फैसले से कैसे संतुष्ट हो सकती थी सो पहुँच गयी थाने.लेकिन यहाँ भी तो अधिकारी बनकर कोई सत्य के अवतार तो बैठे हुए हैं नहीं बल्कि बैठे हुए हैं लक्ष्मी के अंधे पुजारी (उल्लू).सो लड़की को इन्साफ नहीं मिला.उलटे थानाध्यक्ष लड़की पर ही उपरोक्त ८०००० रूपये लेकर मामले को वापस लेने के लिए लगे दबाव डालने.अब लड़की कह रही है कि अगर उसे न्याय नहीं मिला जिसकी पूरी सम्भावना भी दिख रही है तो वो परिवारसहित आत्महत्या कर लेगी.आखिर ऐसी नौबत आती ही क्यों है?क्या लड़की को पता नहीं था कि वो शादी से पहले सिर्फ वादे पर यकीन करके जो कुछ भी एक साल तक करती रही वो गलत था.खैर इस गरीब-अबला से तो जो गलती होनी थी हो गयी लेकिन उसे न्याय तो मिलना चाहिए.परन्तु न्याय देगा कौन क्योंकि इस भ्रष्ट-युग में भगवान तो शायद ढूँढने पर मिल भी जाएँ लेकिन न्याय नहीं मिलता.
मित्रों,कहते हैं कि जाके पांव न फटे बिवाई सो क्या जाने पीड पराई.काश जिस तरह की घटना इस नादाँ लड़की के साथ हुई हैं वैसी ही उन पंचायत प्रतिनिधियों की बहन-बेटियों के साथ भी घट जाती तब शायद उन्हें पता चलता कि किसी गरीब की अस्मत की कीमत कितनी होती है और वह कितनी अनमोल होती है.साथ ही कुछ इसी तरह की परिस्थितियों का सामना उन पुलिस अधिकारियों को भी करना पड़े तब शायद उनका गरीबों के प्रति रवैया बदले.लेकिन प्रश्न है कि लड़की और उसके परिवारवालों को अब क्या करना चाहिए?क्या उन्हें सचमुच आत्महत्या कर लेनी चाहिए?मेरी हिसाब से कदापि नहीं,उन्हें जीना चाहिए और समाज से लड़ना चाहिए.जीवन अनमोल है.माना कि उससे गलती हुई है लेकिन इसका निदान कम-से-कम आत्महत्या तो नहीं है.उसे जीना चाहिए और कुछ इस तरह से जीना चाहिए जो समाज के लिए और आगे आनेवाली पीढ़ियों के लिए एक नजीर बन जाए.माना कि बच्चे का बाप कायर था और डरकर भाग निकला लेकिन वह तो माँ है और माँ अपने बच्चे को मारकर खुद भी कैसे मर सकती है.आज समाज में बहुत-से ऐसे उदार प्रवृत्ति के कुंवारे युवा हैं जो उसे बिना शर्त जीवनसाथी बनाने को भी तैयार हो जाएँगे.गलती तो उससे हुई ही है परन्तु अब उसका पश्चाताप करने का कोई मतलब नहीं है.उसे तो बस प्रायश्चित करना चाहिए जीकर और अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर;अच्छा ईन्सान बनाकर;एक ऐसा ईन्सान बनाकर जिस पर मानवता नाज करे.
मित्रों,जाहिर है कि एक ऐसी गरीब लड़की जिसके पास सिवाय अस्मत के और कुछ भी गिनने-गिनाने लायक नहीं है भला ऐसे तालिबानी और अन्यायपूर्ण फैसले से कैसे संतुष्ट हो सकती थी सो पहुँच गयी थाने.लेकिन यहाँ भी तो अधिकारी बनकर कोई सत्य के अवतार तो बैठे हुए हैं नहीं बल्कि बैठे हुए हैं लक्ष्मी के अंधे पुजारी (उल्लू).सो लड़की को इन्साफ नहीं मिला.उलटे थानाध्यक्ष लड़की पर ही उपरोक्त ८०००० रूपये लेकर मामले को वापस लेने के लिए लगे दबाव डालने.अब लड़की कह रही है कि अगर उसे न्याय नहीं मिला जिसकी पूरी सम्भावना भी दिख रही है तो वो परिवारसहित आत्महत्या कर लेगी.आखिर ऐसी नौबत आती ही क्यों है?क्या लड़की को पता नहीं था कि वो शादी से पहले सिर्फ वादे पर यकीन करके जो कुछ भी एक साल तक करती रही वो गलत था.खैर इस गरीब-अबला से तो जो गलती होनी थी हो गयी लेकिन उसे न्याय तो मिलना चाहिए.परन्तु न्याय देगा कौन क्योंकि इस भ्रष्ट-युग में भगवान तो शायद ढूँढने पर मिल भी जाएँ लेकिन न्याय नहीं मिलता.
मित्रों,कहते हैं कि जाके पांव न फटे बिवाई सो क्या जाने पीड पराई.काश जिस तरह की घटना इस नादाँ लड़की के साथ हुई हैं वैसी ही उन पंचायत प्रतिनिधियों की बहन-बेटियों के साथ भी घट जाती तब शायद उन्हें पता चलता कि किसी गरीब की अस्मत की कीमत कितनी होती है और वह कितनी अनमोल होती है.साथ ही कुछ इसी तरह की परिस्थितियों का सामना उन पुलिस अधिकारियों को भी करना पड़े तब शायद उनका गरीबों के प्रति रवैया बदले.लेकिन प्रश्न है कि लड़की और उसके परिवारवालों को अब क्या करना चाहिए?क्या उन्हें सचमुच आत्महत्या कर लेनी चाहिए?मेरी हिसाब से कदापि नहीं,उन्हें जीना चाहिए और समाज से लड़ना चाहिए.जीवन अनमोल है.माना कि उससे गलती हुई है लेकिन इसका निदान कम-से-कम आत्महत्या तो नहीं है.उसे जीना चाहिए और कुछ इस तरह से जीना चाहिए जो समाज के लिए और आगे आनेवाली पीढ़ियों के लिए एक नजीर बन जाए.माना कि बच्चे का बाप कायर था और डरकर भाग निकला लेकिन वह तो माँ है और माँ अपने बच्चे को मारकर खुद भी कैसे मर सकती है.आज समाज में बहुत-से ऐसे उदार प्रवृत्ति के कुंवारे युवा हैं जो उसे बिना शर्त जीवनसाथी बनाने को भी तैयार हो जाएँगे.गलती तो उससे हुई ही है परन्तु अब उसका पश्चाताप करने का कोई मतलब नहीं है.उसे तो बस प्रायश्चित करना चाहिए जीकर और अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर;अच्छा ईन्सान बनाकर;एक ऐसा ईन्सान बनाकर जिस पर मानवता नाज करे.
ये खबर हमने भी पढ़ी थी..बहुत बुरा लगा था. ऐसे लोगों का कुछ होना चाहिए ताकि आगे कोई जुर्रत न करे.....
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