मित्रों,अर्थशास्त्र बताता है कि किसी भी तरह के उद्योग को स्थापित करने के लिए 4 आधारभूत तत्त्वों की आवश्यकता होती है-(1) भूमि,(2) पूँजी,(3) श्रम और (4) बाजार। बदलते समय के साथ इनका आनुपातिक महत्व भी घटता-बढ़ता रहता है। जब इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हुई तब वहाँ के श्रमिकों की दशा काफी ज्यादा ख़राब थी शायद जानवरों से भी ज्यादा ख़राब। धीरे-धीरे वहाँ के श्रमिक जागरूक हुए और अपना एक राजनीतिक दल लेबर पार्टी ही बना डाली जो आज भी वहाँ की मुख्य विपक्षी पार्टी है। इंग्लैंड की संसद ने समय-समय पर श्रमिकों के कल्याण के लिए कई कानून बनाए। धीरे-धीरे ऐसे कानूनों का निर्माण दुनिया के अन्य देशों में भी किया गया।
मित्रों,हम सब यह जानते हैं कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का साम्यवाद के प्रति खासा झुकाव था। फिर भी उन्होंने न तो विकास का साम्यवादी मॉडल अपनाया और न ही पूरी तरह से पूँजीवादी मॉडल को ही स्वीकार किया। फिर भी आरंभ में भारत सरकार का झुकाव साम्यवाद और समाजवाद की ओर ही ज्यादा रहा और पूँजी पर श्रम को वरीयता दी गई। फिर 1990 में सोवियत संघ के विघटन के साथ वक़्त ने करवट बदला और श्रम धीरे-धीरे पूरी दुनिया में हाशिए पर जाने लगा। पूरी दुनिया की सरकारें अधिक-से-अधिक विदेशी पूँजी देश में लाने की जद्दोजहद में श्रमिकों की अत्यावश्यक मांगों की भी अनदेखी करने लगी और आज हमारे देश भारत में स्थिति ऐसी हो गई है कि देश में वर्तमान श्रम-कानूनों का मतलब ही नहीं रह गया है। भारतीय श्रम-कानूनों से बचने के लिए कोई भी कम्पनी या राज्य/केंद्र सरकार (जिनमें बिहार सरकार अव्वल कही जा सकती है) पुरानी सेवा-शर्तों पर श्रमिकों की बहाली करती ही नहीं है बल्कि संविदा (कांट्रेक्ट) के आधार पर करती है और नियुक्ति के समय ही कर्मचारियों से लिखवा लेती है कि उसको सरकारी कानूनों से कुछ भी लेना-देना नहीं है और वह नियोक्ता की सारी सेवा-शर्तों को मानता है। मुझसे भी तब ऐसे कागजात पर हस्ताक्षर करवाया गया था जब मैंने 2007 में पटना,हिंदुस्तान ज्वाईन किया था। आज हम पत्रकारों को भी सरकार द्वारा समय-समय पर स्थापित वेतन आयोगों के लाभ नहीं दिए जा रहे हैं और सरकार जान-बूझकर अंधी-बहरी बनी हुई है।
मित्रों,आज से नहीं बल्कि दशकों से श्रमिक सरकार और संसद से ऐसी मांग करते आ रहे हैं कि ऐसा कानून बनाया जाए जिससे संविदा पर नियुक्त श्रमिकों/कर्मियों को भी श्रम-कानूनों का लाभ मिले परन्तु उनकी न तो सरकार ही सुन रही है और न तो संसद ही। उल्टे सरकार खुद भी बड़े पैमाने पर संविदा के आधार पर श्रमिकों और कर्मचारियों की भर्ती कर रही है और कथित रूप से पैसे बचा रही है। उदाहरण के लिए बिहार में संविदा पर बहाल प्राथमिक शिक्षकों को मात्र 6000 रू. मासिक और माध्यमिक शिक्षकों को मात्र 8000 रू. का मानदेय दे रही है। अब शिक्षक बेचारा खाएगा क्या और बचाएगा क्या? स्थिति कुल मिला कर इतनी भयावह है कि आज की तारीख में सार्वजानिक क्षेत्र में 55% श्रमिक संविदा पर नियुक्त हैं। अब मानेसर के मारुति प्लांट को लें तो वहाँ भी पुरानी सेवा शर्तों पर बहाल अथवा स्थायी श्रमिकों और संविदा पर बहाल श्रमिकों के वेतन में काफी अंतर है। जहाँ स्थायी श्रमिकों को 17000 रू. प्रति माह दिया जाता है वहीं संविदा पर बहाल श्रमिकों को मात्र 7000 रू./माह जबकि काम दोनों एक ही करते हैं और बराबर ही करते हैं। क्या कोई व्यक्ति 7000 रू./माह में घर से बाहर रहकर अपने परिवार को भरपेट रोटी-दाल भी दे सकता है,शिक्षा-दीक्षा तो दूर की कौड़ी रही। जब श्रमिकों ने वेतन बढ़ाने को कहा तो उनसे सिर्फ वार्ता की गई। मालूम हो कि यहाँ संविदा पर बहाल मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों की संख्या की लगभग एक तिहाई है। अक्टूबर 2011 से 25 बार वार्ताएँ की गई लेकिन कोई भी मांग नहीं मानी गई। हाँ,इस बीच काम के घंटे जरूर दो गुने-तक कर दिए गए। अब ऐसी स्थिति में अगर श्रमिकों को बोनस में वक़्त-बेवक्त गालियाँ भी दी जाए और विरोध करने पर निकाल बाहर कर दिया जाए तो उनके पास सिवाय मरने-मारने के और विकल्प भी क्या बचता है? अनशन-धरना पर बैठने पर हरियाणा पुलिस पीटती है और ऐसा वह हीरो-हौंडा के श्रमिकों के साथ बखूबी कर चुकी है। इसलिए गुस्से में श्रमिकों ने आगजनी शुरू कर दी और कदाचित दुर्घटनावश इसमें एक सुपरवाईजर सह मानव संसाधन विभाग पदाधिकारी मारा गया। वैसे आजकल सारी कंपनियों का मानव संसाधन अधिकारी बस इतनी ही कोशिश करता है कि श्रमिकों से किस तरह कम-से-कम वेतन में काम लिया जाए इसलिए उसके प्रति श्रमिकों का रोष भी सर्वाधिक होता है।
मित्रों,मेरा दावा है कि आप बिना संगणक के हिसाब नहीं लगा सकते हैं कि एक साधारण श्रमिक और मुकेश अंबानी के वेतनों में कितने गुना का अंतर है?उस पर तुर्रा यह कि अख़बार आजकल बड़े उत्साह से छापते हैं कि फलाँ उद्योगपति अब से अपनी कंपनी से मात्र 20 या 40 करोड़ सालाना का ही वेतन लेगा। कम होने पर भी क्या इतना वेतन लेना वो भी ऐसे देश में जहाँ की 80% आबादी की रोजाना की आमदनी 20 रू. भी नहीं हो,क्या उचित है?हम देखते हैं कि एक तरफ तो टाटा कंपनी का मुनाफा लगातार बढ़ता जा रहा है और वह भारत की सबसे बड़ा व्यापारिक समूह बन गई है वहीं दूसरी ओर वह न केवल अपनी खानों में श्रमिकों और कर्मियों का वेतन ही आधा से कम कर दे रही है बल्कि उन की छुट्टियों में भी भारी कटौती कर दे रही है;वहीं टाटा मोटर्स,जमशेदपुर के श्रमिकों के वेतन में भी जानलेवा महंगाई को देखते हुए समुचित वृद्धि करने के बदले भारी कमी कर दे रही है। फिर भी रतन टाटा भारत समेत दुनिया भर की सरकारों की आँखों के तारे बने हुए हैं,भारत के अनमोल रतन। क्या इसी को पूंजीवादी या कॉरपोरेटी नैतिकता या उदारता कहते हैं? कितनी बड़ी बिडम्बना है कि एक तरफ जहाँ कंपनियों के मुनाफे का ग्राफ 90 डिग्री का कोण बनाता रहता है कम्पनियाँ धनपशु बनकर निर्लज्जतापूर्वक श्रमिकों के वेतनों में कटौती करने पर तुली रहती है। क्या लाभ कमाने की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए?या लाभ में से मजदूरों को भी अनुपातिक लाभ नहीं देना चाहिए?क्या अपनी जिंदगी को ज्यादा खुशहाल बनाने के लिए दूसरों की ज़िंदगियाँ तबाहकर देना एक आपराधिक कृत्य नहीं है?उनको इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि श्रमिक कैसे जीएगा? नहीं तो क्या कारण है कि कुल मिलाकर भारी लाभ में चल रहे राज्यसभा सदस्य और उद्योगपति विजय माल्या की विमानन कंपनी के पायलटों को भी वेतन पाने के लिए भी बार-बार हड़ताल करनी पड़ रही है?क्या श्रमिक ईन्सान नहीं होते और उनको भी अपने धनवान मालिकों की तरह ईज्जतभरी गुणवत्तापूर्ण ज़िन्दगी जीने का अधिकार नहीं है?अगर है तो फिर हमारी आम आदमी की सरकार ने क्यों उन्हें पूँजी के हाथों पिटने और मर जाने के लिए बेसहारा छोड़ दिया है?क्यों भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में मत्स्य न्याय अस्तित्व में है?श्रमिकों के नाम पर राजनीति करनेवाले भारतीय कम्युनिस्टों की तो बात ही करना बेकार है। ये लोग अगर सरकार और पूँजी के दलाल नहीं हो जाते तो मजदूरों की स्थिति इतनी ख़राब भी नहीं होती।अभी-अभी कोयला घोटाले में ज्योति बसु के बेटे चन्दन बसु का नाम आ रहा है।वास्तव में भारत के सारे कम्युनिस्ट चिथड़ा ओढ़कर मलाई खाने में लगे हैं।
मित्रों,सोवियत संघ के पतन के बाद सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में श्रम का महत्व घटा है और पूँजी का महत्त्व बढ़ा है। अभी परसों ही श्रमिकों के साथ दुनिया में दो दर्दनाक घटनाएँ घटी हैं। पहली भारत में और दूसरी दक्षिण अफ्रिका में। भारत में जहाँ मारुति के मानेसर संयंत्र के 550 श्रमिकों को एकबारगी बर्खास्त करने की नोटिस दी गयी है जबकि इनमें में कई लोग घटना के दिन शहर में भी नहीं थे। वहीं दूसरी घटना में दक्षिण अफ्रिका में हड़ताल कर रहे हजारों निहत्थे मजदूरों पर वहाँ की पुलिस ने गोलियाँ चलाई है और इस तरह चलाई है जैसे कि निशानेबाजी की कोई प्रतियोगिता चल रही हो। परिणामस्वरुप क़म-से-कम 34 मजदूर मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हो गए हैं। अच्छा होता अगर भारत सरकार या हरियाणा सरकार भी इन बर्खास्त किए गए 550 मजदूरों को गोलियों से उड़ा ही देती वे कम-से-कम इस प्राणघातक महंगाई में बेरोजगार होकर और बलवाई होने का कलंक माथे पर लेकर तिल-तिल कर रोज-रोज मरने से तो बच जाते।
मित्रों,हम सब यह जानते हैं कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का साम्यवाद के प्रति खासा झुकाव था। फिर भी उन्होंने न तो विकास का साम्यवादी मॉडल अपनाया और न ही पूरी तरह से पूँजीवादी मॉडल को ही स्वीकार किया। फिर भी आरंभ में भारत सरकार का झुकाव साम्यवाद और समाजवाद की ओर ही ज्यादा रहा और पूँजी पर श्रम को वरीयता दी गई। फिर 1990 में सोवियत संघ के विघटन के साथ वक़्त ने करवट बदला और श्रम धीरे-धीरे पूरी दुनिया में हाशिए पर जाने लगा। पूरी दुनिया की सरकारें अधिक-से-अधिक विदेशी पूँजी देश में लाने की जद्दोजहद में श्रमिकों की अत्यावश्यक मांगों की भी अनदेखी करने लगी और आज हमारे देश भारत में स्थिति ऐसी हो गई है कि देश में वर्तमान श्रम-कानूनों का मतलब ही नहीं रह गया है। भारतीय श्रम-कानूनों से बचने के लिए कोई भी कम्पनी या राज्य/केंद्र सरकार (जिनमें बिहार सरकार अव्वल कही जा सकती है) पुरानी सेवा-शर्तों पर श्रमिकों की बहाली करती ही नहीं है बल्कि संविदा (कांट्रेक्ट) के आधार पर करती है और नियुक्ति के समय ही कर्मचारियों से लिखवा लेती है कि उसको सरकारी कानूनों से कुछ भी लेना-देना नहीं है और वह नियोक्ता की सारी सेवा-शर्तों को मानता है। मुझसे भी तब ऐसे कागजात पर हस्ताक्षर करवाया गया था जब मैंने 2007 में पटना,हिंदुस्तान ज्वाईन किया था। आज हम पत्रकारों को भी सरकार द्वारा समय-समय पर स्थापित वेतन आयोगों के लाभ नहीं दिए जा रहे हैं और सरकार जान-बूझकर अंधी-बहरी बनी हुई है।
मित्रों,आज से नहीं बल्कि दशकों से श्रमिक सरकार और संसद से ऐसी मांग करते आ रहे हैं कि ऐसा कानून बनाया जाए जिससे संविदा पर नियुक्त श्रमिकों/कर्मियों को भी श्रम-कानूनों का लाभ मिले परन्तु उनकी न तो सरकार ही सुन रही है और न तो संसद ही। उल्टे सरकार खुद भी बड़े पैमाने पर संविदा के आधार पर श्रमिकों और कर्मचारियों की भर्ती कर रही है और कथित रूप से पैसे बचा रही है। उदाहरण के लिए बिहार में संविदा पर बहाल प्राथमिक शिक्षकों को मात्र 6000 रू. मासिक और माध्यमिक शिक्षकों को मात्र 8000 रू. का मानदेय दे रही है। अब शिक्षक बेचारा खाएगा क्या और बचाएगा क्या? स्थिति कुल मिला कर इतनी भयावह है कि आज की तारीख में सार्वजानिक क्षेत्र में 55% श्रमिक संविदा पर नियुक्त हैं। अब मानेसर के मारुति प्लांट को लें तो वहाँ भी पुरानी सेवा शर्तों पर बहाल अथवा स्थायी श्रमिकों और संविदा पर बहाल श्रमिकों के वेतन में काफी अंतर है। जहाँ स्थायी श्रमिकों को 17000 रू. प्रति माह दिया जाता है वहीं संविदा पर बहाल श्रमिकों को मात्र 7000 रू./माह जबकि काम दोनों एक ही करते हैं और बराबर ही करते हैं। क्या कोई व्यक्ति 7000 रू./माह में घर से बाहर रहकर अपने परिवार को भरपेट रोटी-दाल भी दे सकता है,शिक्षा-दीक्षा तो दूर की कौड़ी रही। जब श्रमिकों ने वेतन बढ़ाने को कहा तो उनसे सिर्फ वार्ता की गई। मालूम हो कि यहाँ संविदा पर बहाल मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों की संख्या की लगभग एक तिहाई है। अक्टूबर 2011 से 25 बार वार्ताएँ की गई लेकिन कोई भी मांग नहीं मानी गई। हाँ,इस बीच काम के घंटे जरूर दो गुने-तक कर दिए गए। अब ऐसी स्थिति में अगर श्रमिकों को बोनस में वक़्त-बेवक्त गालियाँ भी दी जाए और विरोध करने पर निकाल बाहर कर दिया जाए तो उनके पास सिवाय मरने-मारने के और विकल्प भी क्या बचता है? अनशन-धरना पर बैठने पर हरियाणा पुलिस पीटती है और ऐसा वह हीरो-हौंडा के श्रमिकों के साथ बखूबी कर चुकी है। इसलिए गुस्से में श्रमिकों ने आगजनी शुरू कर दी और कदाचित दुर्घटनावश इसमें एक सुपरवाईजर सह मानव संसाधन विभाग पदाधिकारी मारा गया। वैसे आजकल सारी कंपनियों का मानव संसाधन अधिकारी बस इतनी ही कोशिश करता है कि श्रमिकों से किस तरह कम-से-कम वेतन में काम लिया जाए इसलिए उसके प्रति श्रमिकों का रोष भी सर्वाधिक होता है।
मित्रों,मेरा दावा है कि आप बिना संगणक के हिसाब नहीं लगा सकते हैं कि एक साधारण श्रमिक और मुकेश अंबानी के वेतनों में कितने गुना का अंतर है?उस पर तुर्रा यह कि अख़बार आजकल बड़े उत्साह से छापते हैं कि फलाँ उद्योगपति अब से अपनी कंपनी से मात्र 20 या 40 करोड़ सालाना का ही वेतन लेगा। कम होने पर भी क्या इतना वेतन लेना वो भी ऐसे देश में जहाँ की 80% आबादी की रोजाना की आमदनी 20 रू. भी नहीं हो,क्या उचित है?हम देखते हैं कि एक तरफ तो टाटा कंपनी का मुनाफा लगातार बढ़ता जा रहा है और वह भारत की सबसे बड़ा व्यापारिक समूह बन गई है वहीं दूसरी ओर वह न केवल अपनी खानों में श्रमिकों और कर्मियों का वेतन ही आधा से कम कर दे रही है बल्कि उन की छुट्टियों में भी भारी कटौती कर दे रही है;वहीं टाटा मोटर्स,जमशेदपुर के श्रमिकों के वेतन में भी जानलेवा महंगाई को देखते हुए समुचित वृद्धि करने के बदले भारी कमी कर दे रही है। फिर भी रतन टाटा भारत समेत दुनिया भर की सरकारों की आँखों के तारे बने हुए हैं,भारत के अनमोल रतन। क्या इसी को पूंजीवादी या कॉरपोरेटी नैतिकता या उदारता कहते हैं? कितनी बड़ी बिडम्बना है कि एक तरफ जहाँ कंपनियों के मुनाफे का ग्राफ 90 डिग्री का कोण बनाता रहता है कम्पनियाँ धनपशु बनकर निर्लज्जतापूर्वक श्रमिकों के वेतनों में कटौती करने पर तुली रहती है। क्या लाभ कमाने की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए?या लाभ में से मजदूरों को भी अनुपातिक लाभ नहीं देना चाहिए?क्या अपनी जिंदगी को ज्यादा खुशहाल बनाने के लिए दूसरों की ज़िंदगियाँ तबाहकर देना एक आपराधिक कृत्य नहीं है?उनको इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि श्रमिक कैसे जीएगा? नहीं तो क्या कारण है कि कुल मिलाकर भारी लाभ में चल रहे राज्यसभा सदस्य और उद्योगपति विजय माल्या की विमानन कंपनी के पायलटों को भी वेतन पाने के लिए भी बार-बार हड़ताल करनी पड़ रही है?क्या श्रमिक ईन्सान नहीं होते और उनको भी अपने धनवान मालिकों की तरह ईज्जतभरी गुणवत्तापूर्ण ज़िन्दगी जीने का अधिकार नहीं है?अगर है तो फिर हमारी आम आदमी की सरकार ने क्यों उन्हें पूँजी के हाथों पिटने और मर जाने के लिए बेसहारा छोड़ दिया है?क्यों भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में मत्स्य न्याय अस्तित्व में है?श्रमिकों के नाम पर राजनीति करनेवाले भारतीय कम्युनिस्टों की तो बात ही करना बेकार है। ये लोग अगर सरकार और पूँजी के दलाल नहीं हो जाते तो मजदूरों की स्थिति इतनी ख़राब भी नहीं होती।अभी-अभी कोयला घोटाले में ज्योति बसु के बेटे चन्दन बसु का नाम आ रहा है।वास्तव में भारत के सारे कम्युनिस्ट चिथड़ा ओढ़कर मलाई खाने में लगे हैं।
मित्रों,सोवियत संघ के पतन के बाद सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में श्रम का महत्व घटा है और पूँजी का महत्त्व बढ़ा है। अभी परसों ही श्रमिकों के साथ दुनिया में दो दर्दनाक घटनाएँ घटी हैं। पहली भारत में और दूसरी दक्षिण अफ्रिका में। भारत में जहाँ मारुति के मानेसर संयंत्र के 550 श्रमिकों को एकबारगी बर्खास्त करने की नोटिस दी गयी है जबकि इनमें में कई लोग घटना के दिन शहर में भी नहीं थे। वहीं दूसरी घटना में दक्षिण अफ्रिका में हड़ताल कर रहे हजारों निहत्थे मजदूरों पर वहाँ की पुलिस ने गोलियाँ चलाई है और इस तरह चलाई है जैसे कि निशानेबाजी की कोई प्रतियोगिता चल रही हो। परिणामस्वरुप क़म-से-कम 34 मजदूर मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हो गए हैं। अच्छा होता अगर भारत सरकार या हरियाणा सरकार भी इन बर्खास्त किए गए 550 मजदूरों को गोलियों से उड़ा ही देती वे कम-से-कम इस प्राणघातक महंगाई में बेरोजगार होकर और बलवाई होने का कलंक माथे पर लेकर तिल-तिल कर रोज-रोज मरने से तो बच जाते।
very good thoughts.....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग
जीवन विचार पर आपका हार्दिक स्वागत है।