रविवार, 31 मार्च 2019

यह आचार संहिता है या लाचार संहिता


मित्रों, जब संविधान निर्माण का महान कार्य संपन्न हो रहा था तब हमारे संविधान-निर्माताओं ने सपने में भी सोंचा नहीं होगा कि एक दिन ऐसा आएगा जब गरीबों के लिए चुनाव लड़ना चाँद को छूने के समान नामुमकिन हो जाएगा.
मित्रों, जब हम बच्चे थे तो सुनते थे कि यह नेता पहले बकरी चराता था और पैदल ही बिना एक पैसा खर्च किये न सिर्फ चुनाव लड़ा थे बल्कि जीत भी हासिल की थी. बड़े ही खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि वर्तमान समय में कोई गरीब व्यक्ति लोकसभा तो दूर की बात रही ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत वार्ड सदस्य का चुनाव लड़ना भी पहुँच से बाहर हो चुकी है. आज पंचायत चुनावों में भी एक-एक ग्राम प्रधान उम्मीदवार एक-एक करोड़ रूपये खर्च कर रहे हैं. अब आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं कि जब पंचायत चुनावों में ऐसी हालत है तो विधानसभा और लोकसभा चुनावों में क्या हालत रहती होगी और किस स्तर पर धनबल का प्रयोग होता होगा आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं.
मित्रों, ऐसा भी नहीं है कि चुनाव आयोग इस समस्या से अनभिज्ञ है. उसने प्रत्येक स्तर के चुनाव के लिए खर्च की सीमा तय कर रखी है. उम्मीदवारों से खर्च का लिखित हिसाब भी लिया जाता है लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सबकुछ दिखावा होता है, औपचारिकता होती है. चुनावों के दौरान पैसे जब्त भी होते हैं लेकिन वो बहुत कम होते हैं.
मित्रों, कहने को तो चुनावों की घोषणा के साथ ही आचार-संहिता लागू हो जाती है लेकिन उनका पालन नहीं होता. कई बार उद्दण्ड उम्मीदवारों के खिलाफ आचार-संहिता उल्लंघन के मुकदमे भी दर्ज होते हैं लेकिन आज तक किसी नेता को इन मामलों में सजा मिली हो देखा नहीं गया. मैं पूछता हूँ कि आखिर क्या आवश्यकता है ऐसी आचार-संहिता की जो वास्तव में लाचार-संहिता हो? कहना न होगा कि जैसे हमारे देश में कानून बनते ही टूटने के लिए हैं.
मित्रों, भारतीय लोकतंत्र में विकसित हो चुकी एक और प्रवृत्ति भी काफी चिंता का विषय है. पिछले कुछ सालों में पार्टियाँ पैसे लेकर टिकट बेचने लगी हैं. बोली लगती है और जो जितना ज्यादा पैसा देता है उसे टिकट दे दिया जाता है. फिर जीतनेवाला एक तो टिकट खरीदने का दाम और दूसरा चुनाव लड़ने का खर्च भ्रष्टाचार द्वारा जनता से वसूलता है. टूटी सड़कें,सुख-सुविधाओं का अभाव,सांसद-निधि की लूट सबके पीछे यही कारण है. 
मित्रों, ऐसा नहीं है कि इस तरह की स्थिति के लिए हमलोग यानि आम जनता बिलकुल ही जिम्मेदार नहीं हैं. हम भी तो चुनावों के आते ही इन्तजार में होते हैं कि उम्मीदवार आएँ और हमें पैसे या कोई अन्य सामान दें. चूंकि हमारे पूर्वज हमारी तरह लालची नहीं थे इसलिए उनके ज़माने में बकरी चरानेवाले लोग भी चुनाव जीत जाते थे. हमने अपने लालच द्वारा खुद ही खुद के लिए ऐसी स्थिति पैदा कर ली है कि अब खुद हम ही चाहकर भी चुनाव लड़ नहीं सकते क्योंकि बिना पैसा खर्च किए जो चुनाव लडेगा वो आज के हालात में निश्चित रूप से हारेगा क्योंकि उसे निर्दलीय लड़ना पड़ेगा क्योंकि उसके पास टिकट खरीदने के लिए पैसे नहीं होंगे. 

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