बुधवार, 10 जुलाई 2019

बजट जैसा बजट

मित्रों, काफी दिन पहले एक गजल मुझे काफी पसंद था, आज भी है-वो प्यार था या कुछ और था न मुझे पता न तुझे पता. कुछ ऐसा ही मुझे अभी कुछ दिन पहले आए बजट को देखकर लग रहा है कि यह बजट है या कुछ और है न मुझे पता न तुझे पता. कुछ लोगों ने इसे बही-खाता भी कहा है लेकिन मुझे लगता है कि बजट तो पिछले वित्त मंत्री पीयूष गोयल जी ने १ फरवरी को ही पेश कर दिया था यह बजट तो महज एक औपचारिकता था.
मित्रों, फिर भी अगर हम इस बजट पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि इसमें दो-तीन घोषणाएं काफी महत्वपूर्ण थीं-पहली सरकारी कंपनियों में विनिवेश, दूसरी रेलवे का निजीकरण और तीसरी भारत को ५ ट्रिलियन यानि ५० ख़राब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना.
मित्रों, जैसे वर्तमान सरकार शुरू से ही कहती आ रही है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है वैसे ही मैं भी शुरू से ही कहता आ रहा हूँ कि अगर सरकार चाहे तो सरकारी क्षेत्र की कंपनियों की हालत को सुधारा जा सकता है. लेकिन सवाल फिर वही है कि सरकार चाहती क्या है? क्या वो चाहती है कि सरकारी कंपनियों की हालत सुधरे या वो चाहती है कि उनकी हालत बिगड़े और जो चंद सरकारी कम्पनियाँ शेष रह गई हैं वो भी इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएँ? सबकुछ सरकार की मंशा पर निर्भर करता है. अगर आप सरकारी कंपनी बीएसएनएल के ऑफर्स को देखेंगे तो खुद ही समझ जाएँगे कि यह कंपनी क्यों बंद होने की तरफ अग्रसर है-१८७ रु. में २८ दिन तक १ जीबी प्रतिदिन डाटा और अनलिमिटेड बातें. कहाँ जियो १४९ रु. में १.५ जीबी प्रतिदिन डाटा दे रहा है और कहाँ बीएसएनएल १ जीबी और वो भी १८७ रु में. अब बताईए कि कैसे चलेगी यह कंपनी? इसी तरह बीएसएनएल ३१९ रु. में ८४ दिनों तक अनलिमिटेड बात करने की सुविधा दे रहा है लेकिन डाटा नहीं दे रहा. डाटा दे भी रहा है तो ३४९ रु. में मगर ५४ दिनों के लिए और वो भी १ जीबी प्रतिदिन. क्या अब भी आपको सन्देह है कि बीएसएनएल का कैसे सुनियोजित तरीके से राम नाम सत है किया जा रहा है?
मित्रों, ठीक इसी तरीके से बांकी सरकारी कंपनियों की भी बाट लगाई जा रही है क्योंकि सरकार उनको रखना ही नहीं चाहती है और चाहती है कि पूरी-की-पूरी अर्थव्यवस्था निजी हाथों में चली जाए. अन्यथा क्या कारण था कि सरकार रेलवे का निजीकरण करने जा रही है. यह सही है कि रेलवे में सुविधाओं की कमी है, रेलगाड़ियों की रफ़्तार धीमी है लेकिन क्या कभी आपने सोंचा है कि निजी हाथों में जाने के बाद रेलवे से सफ़र करना कितना महंगा हो जाएगा? क्या इसके बारे में सरकार ने कभी सोंचा है कि गरीबों की सवारी में गरीब किस प्रकार सफ़र कर पाएंगे?
मित्रों, अब बात करते हैं भारत के ५ ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने पर. ऐसा होने पर हमें भी ख़ुशी होगी और होनी भी चाहिए, होनी ही चाहिए मगर सवाल उठता है कि जिस तरह सरकार अर्थव्यवस्था का पूर्ण निजीकरण करने की तरफ कदम बढ़ा रही है उसमें आम आदमी ५ ट्रिलियन यानि ५० ख़राब डॉलर की अर्थव्यवस्था में कहाँ होगा? मान लिया कि अम्बानी के पड़ोस में कोई डॉक्टर साब हैं और डॉक्टर साब के घर में एक नौकर है. मान लिया कि एक महीने में तीनों की कुल आमदनी १०० करोड़ रु है और इसमें अम्बानी का हिस्सा ९९ करोड़, डॉक्टर साब का ९९ लाख ५० हजार है और बांकी का ५० हजार उनके नौकर का. अब अगर इन तीनों की कुल आमदनी दोगुनी हो जाती है तो अम्बानी तो १९८ करोड़ पर पहुँच जाएंगे जबकि डॉक्टर साब १ करोड़ ९९ लाख रु पर और नौकर तो १ लाख पर ही पहुँच पाएगा. ठीक यही हालत भारतीय अर्थव्यवस्था की होगी अगर वो २.७ ट्रिलियन से ५ ट्रिलियन पर पहुँचती है. कहने का तात्पर्य है कि तब भी गरीब न सिर्फ गरीब और अमीर न सिर्फ अमीर रहेंगे बल्कि अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और भी चौड़ी हो जाएगी. तब भी सबकुछ वैसा का वैसा रहेगा बल्कि गरीबों और किसानों का जीवन आज से कहीं ज्यादा कठिन हो जाएगा क्योंकि सबकुछ सरकार के हाथों से पूँजी के हाथों में जानेवाला है और पूँजी हृदयहीन होती है. सवाल उठता है कि क्या यही पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का अन्त्योदय दर्शन था?

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