सोमवार, 18 नवंबर 2019

आंकड़ों से भयभीत क्यों है मोदी सरकार?

मित्रों, जबसे केंद्र में मोदी सरकार का पदार्पण हुआ है तभी से ऐसा देखा जा रहा है कि जब भी कोई आर्थिक आंकड़ा सामने आता है सरकार के हाथ-पांव कांपने लगते हैं, सांसें फूलने लगती है और सरकार इस प्रयास में लग जाती है कि उन आकड़ों को कैसे जनता के सामने लाने से बचा जाए. कई बार तो सरकार ने आंकड़े तैयार करने का तरीका तक बदल डाला है.
मित्रों, जैसे ही २०१४ में मोदी सरकार सत्ता में आई इसने सबसे पहले जीडीपी का आधार वर्ष बदल दिया. सरकार समय-समय पर आधार वर्ष में बदलाव इसलिए करती है ताकि देश की अर्थव्यवस्था के बारे में आंकड़ों का दुनिया के हिसाब से तालमेल रखा जा सके. ऐसा माना जाता है अर्थव्यवस्था के सही आकलन के लिए हर पांच साल पर आधार वर्ष बदल देना चाहिए. साल 2015 में सरकार ने जीडीपी का आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 कर दिया था. लेकिन सरकार इतने पर ही नहीं रुकी उसने कहा कि आधार वर्ष के बदलने के बाद उसके पिछले वर्षों में जारी जीडीपी आंकड़ों में भी बदलाव किए जाने चाहिए. इसकी वजह से वित्त वर्ष 2006 से 2012 के बीच के जीडीपी आंकड़ों में कटौती कर दी गई, जबकि वे मनमोहन सिंह के दौर के ऊंचे जीडीपी वाले साल थे. यूपीए सरकार के छह साल (वित्त वर्ष 2006 से 2012) के दौरान औसत जीडीपी बढ़त को 7.75 फीसदी से घटाकर 6.82 फीसदी कर दिया गया.
मित्रों, साल 2015 में सरकार ने जीडीपी की गणना के तरीके में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव भी किए थे जिसकी तुलना आप नाच न जाने आँगन टेढ़ा कहावत से कर सकते हैं. इसके पहले तक जीडीपी को नापने के लिए कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र को जगह दी जाती थी. इसके तहत कृषि क्षेत्र में पशुपालन, मछली पालन, बागवानी और अन्य कई सेक्टरों को जोड़ दिया गया, जिससे कृषि क्षेत्र में उत्पादन का आंकड़ा बढ़ गया. ठीक इसी तरह से उत्पादन क्षेत्र में पहले टीवी और स्मार्टफोन से आने वाले पैसे को जगह नहीं दी जाती थी. 2015 में हुए बदलाव में इन सेक्टरों को भी शामिल किया गया है.  इसको लेकर भी आलोचकों ने कहा कि सरकार किसी भी तरह से जीडीपी के आंकड़े बढ़ा- चढ़ाकर दिखाने की कोशि‍श कर रही है.
मित्रों, दूसरी बार आंकड़ों को लेकर सरकार की घबराहट तब देखी गई जब केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने सरकार से हरी झंडी मिलने के बाद मोदी सरकार की ताजपोशी के अगले ही दिन २७ मई २०१९ को बेरोजगारी के आंकड़े जारी कर दिए. चुनाव प्रचार के दौरान विपक्ष के दावों को खारिज करती रही सरकार ने आखिरकार यह मान लिया कि बेरोजगारी की दर 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर है.जारी आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान देश में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रही. सवाल उठता है कि ये आंकड़े चुनाव-प्रचार के दौरान क्यों जारी नहीं किए गए या फिर सरकार इस दौरान क्यों झूठ बोलती रही कि रिपोर्ट में ऐसा नहीं कहा गया है? इस बीच नेशनल स्टेटिस्टिकल कमीशन यानी एनएससी के चेयरमैन समेत दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था। इन लोगों का आरोप था कि सरकार ने इस रिपोर्ट को छिपाकर रखा है और सार्वजनिक करने में आनाकानी कर रही है। यहाँ हम यह बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनी तो हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार दिया जाएगा।
 
मित्रों, अब केंद्र सरकार ने एक बार फिर नेशनल स्टैस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ के 2017-18 के उपभोक्ता खर्च सर्वे डेटा को जारी नहीं करने का फ़ैसला किया है. सरकार ने कहा है कि डेटा की 'गुणवत्ता' में कमी के कारण इसे जारी नहीं किया जाएगा. सांख्यिकी और योजना कार्यान्वयन मंत्रालय ने बताया कि 'गुणवत्ता' को देखते हुए मंत्रालय ने 2017-18 के कंज्यूमर एक्सपेंडेचर सर्वे का डेटा नहीं जारी करने का फ़ैसला किया है. मंत्रालय ने कहा है, ''मंत्रालय 2020-21 और 2021-22 में उपभोक्ता खर्च सर्वे कराने की संभावनाओं पर विचार कर रही है.'' विशेषज्ञों का मानना है कि अगर ये डेटा जारी नहीं होता है तो भारत में दस सालों की ग़रीबी का अनुमान मुश्किल होगा. इससे पहले यह सर्वे 2011-12 में हुआ था. इस डेटा के ज़रिए सरकार देश में ग़रीबी और विषमता का आकलन करती है. इससे पहले बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार ने उपभोक्ता खर्च सर्वे की अहम बातें १४ नवम्बर, २०१९ को प्रकाशित करने का दावा किया था. इसमें बताया गया है कि पिछले 40 सालों में लोगों के खर्च करने क्षमता पहली बार कम हुई है. नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) के लीक हुए सर्वे के अनुसार एक महीने में एक भारतीय द्वारा खर्च की गई औसत राशि 2011-12 में 1,501 रुपये से गिरकर 2017-18 में 1,446 रुपये रह गई।
 
मित्रों, जब भी हम कोई परीक्षा देते हैं तो हम परिणाम का बेसब्री से इंतजार करते हैं. तब हम शिक्षक को यह नहीं कह सकते कि चूँकि मेरा प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है इसलिए परिणाम को जारी मत करो. ठीक उसी तरह ये आंकड़े सरकार के परीक्षा-परिणाम हैं फिर सरकार इनको जारी करने से कैसे बच सकती है? प्रश्न यह भी उठता है कि अगर दोबारा सर्वेक्षण कराने के बाद भी आंकड़ें सरकार के मन-मुताबिक नहीं आए तो सरकार क्या करेगी? ये तो वही बात हुई कि ६० के दशक से लेकर १९८९ तक जब रोमानिया में निकोलस चाचेस्कू नामक तानाशाह का शासन था तब उसकी पत्नी एलीना फ़ुटबाल मैच से पहले यह निर्धारित करती थी कि मैच में कौन जीतेगा और कितने गोल से जीतेगा.मित्रों, अब थोडा-सा परिचय चाचा चाचेस्कू का भी प्राप्त कर लिया जाए क्योंकि हमें लगता है कि भारत भी धीरे-धीरे उसी रास्ते पर अग्रसर है. बहुत से लोग अब शायद यकीन न करें लेकिन 60 के दशक से लेकर १९८९ तक रोमानिया में निकोलस चाचेस्कू ने न सिर्फ़ अपने देश के मीडिया की आवाज़ नहीं निकलने दी बल्कि खाने, पानी, तेल और यहाँ तक कि दवाओं तक पर राशन लगा दिया. नतीजा ये हुआ कि हज़ारों लोग बीमारी और भुखमरी के शिकार हो गए और उस पर तुर्रा ये कि उनकी ख़ुफ़िया पुलिस 'सेक्योरिटेट' ने लगातार इस बात की निगरानी रखी कि आम लोग अपनी निजी ज़िंदगी में क्या कर रहे हैं.  लोग सोते समय घर की खिड़कियाँ बंद नहीं कर सकते थे. नाटे क़द के चाचेस्कू का क़द था मात्र 5 फ़ीट 4 इंच, इसलिए पूरे रोमानिया के फ़ोटोग्राफ़रों को हिदायत थी कि वो उनकी इस तरह तस्वीरें खीचें कि वो सबको बड़े क़द के दिखाई दे. 70 की उम्र पार हो जाने के बाद भी उनकी वही तस्वीरें छपती थीं जो उनकी 40 साल की उम्र में खीचीं गई थीं. एलीना को तो ये तक पसंद नहीं था कि कोई सुंदर महिला उनके बग़ल में खड़े हो कर तस्वीर खिंचवाए. एलीना ने कई विषयों में फ़ेल होने के बाद 14 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ दी थी लेकिन रोमानिया की फ़र्स्ट लेडी बनने के बाद उन्होंने ऐलान करवा दिया था कि उनके पास रसायन शास्त्र में 'पीएचडी' की डिग्री है. ज़ाहिर है ये डिग्री जाली थी. चाचेस्कू की व्यक्ति पूजा का आलम ये था कि ये क़ानून बना दिया गया था कि हर पाठ्य पुस्तक के पहले पन्ने पर उनका चित्र होना ज़रूरी था. टेलीविजन पर सिर्फ़ एक चैनल से प्रसारण होता था. आधे कार्यक्रमों में सिर्फ़ चासेस्कू की गतिविधियाँ और उपलब्धियाँ दिखाई जाती थीं. किताबों की दुकानों और म्यूज़िक स्टोर्स के लिए उनके भाषणों का संग्रह रखना ज़रूरी था. देश में छोटे-से-छोटा फ़ैसला भी बिना चाचेस्कू की अनुमति के नहीं लिया जा सकता था. अंत में सबसे खास बात यह कि चाचेस्कू साम्यवाद और सोवियत संघ का घनघोर शत्रु था.

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