शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2021
निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार
ममित्रों, ऐसा देखा जा रहा है कि पिछले कुछ समय से जबसे संघ में मोदी जी की सरकार आई है लगातार सरकार और सरकार समर्थक यह बोलते आ रहे हैं कि सरकारी क्षेत्र की कंपनियों में गुणवत्ता में सुधार लाना संभव नहीं है इसलिए उनका निजीकरण कर देना चाहिए. मानो हर समस्या का एकमात्र हल निजीकरण है. तथापि प्रश्न उठता है कि क्या निजी क्षेत्र भ्रष्टाचार से सर्वथा मुक्त है?
मित्रों, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. वास्तविकता तो यह है कि निजी क्षेत्र में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना सरकारी क्षेत्र में है बल्कि किसी-किसी क्षेत्र में तो अपेक्षाकृत अधिक ही है.
मित्रों, सबसे पहले बात करते हैं बैंकिंग क्षेत्र की. यह वह क्षेत्र है जिसमें देश के गरीब लोग अपना पेट काटकर भविष्य के लिए पैसा जमा करते हैं. आपको याद होगा कि एक समय इस क्षेत्र में हेलियस और जेवीजी जैसी नन बैंकिंग कंपनियों की धूम थी. कोई दो साल में पैसे दोगुना कर रहा था तो कोई ३ साल में. तत्कालीन संघ सरकार को सब पता था कि किस तरह जनता को ठगा जा रहा है लेकिन वो ऑंखें मूंदे रही क्योंकि जेवीजी सहित कई कंपनियों में बड़े-बड़े नेताओं ने भी पैसे लगा रखे थे. फिर एक दिन वही हुआ जो होना था. इन बैंकों ने रातों-रात अपनी शाखाओं और दफ्तरों को बंद कर दिया. हजारों गरीबों की जीवनभर की कमाई लूट ली गई, हजारों ने आत्महत्या कर ली लेकिन किसी भी फरार कंपनी मालिकों और संचालकों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. आज भी सहारा इंडिया में लाखों गरीबों के पैसे फंसे हुए हैं और कदाचित डूब भी जाएंगे. फिर वही लाठी होगी, वही सांप और वही सांप का बिल. इसी तरह महाराष्ट्र में लगातार कोई-न-कोई सहकारी बैंक बंद हो रहा है और लगातार गरीबों के पैसों पर डाका पड़ रहा है. कोई ठिकाना नहीं कि आज जो एचडीएफसी, आईसीआईसीआई जैसे बैंक उदाहरण माने जाते हैं कल निवेश सम्बन्धी एक गलती के कारण या फिर जानबूझकर अपने ही परिवार या मित्र की कंपनी में निवेश कर कंपनी को दिवालिया घोषित कर देने के चलते कब डूब जाएं और कब गरीबों के लाखों करोड़ पर डाका पड़ जाए. फिर भी भारत सरकार सरकारी बैंकों का निजीकरण करने पर आमादा है. दरअसल इस समय देश में अंधा बांटे रेवड़ी वाली हालत है.
मित्रों, स्वास्थ्य एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें पूरी तरफ से निजी क्षेत्र का कब्ज़ा था और है. सरकारी अस्पताल इमरजेंसी सेवा के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं जिसका फायदा निजी क्षेत्र के अस्पताल जमकर उठाते आ रहे हैं और जनता को दोनों हाथों से लूट रहे हैं. बच्चों की नॉर्मल डेलिवरी बहुत पहले दूर की कौड़ी हो चुकी है. आए दिन हम समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि दिल्ली, पटना इत्यादि स्थानों के प्रतिष्ठित अस्पतालों ने साधारण बुखार के ईलाज के नाम पर १७ लाख-२० लाख का बिल मरीज के परिजन को थमाया या फिर गलत अंग का ऑपरेशन कर दिया या फिर मृत व्यक्ति का कई दिनों तक झूठा ईलाज करते रहे. पहले कहावत थी कि सरकारी अस्पतालों में लोग ईलाज करवाने नहीं जाते मरने जाते हैं दुर्भाग्यवश अब निजी अस्पतालों के बारे में यह कहा जाता है लोग वहां ईलाज करवाने नहीं खुद को कंगाल करवाने जाते हैं. लोग जाएँ तो जाएँ कहाँ? सरकारी में व्यवस्था नहीं है और निजी घर तक बिकवा दे रहा है.
मित्रों, अब बात करते हैं शिक्षा की. एक जमाना था जब सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में उच्च गुणवत्ता की पढाई होती थी. फिर सामाजिक न्याय वाली सरकारें आईं और सरकारी स्कूलों-कॉलेजों से पढाई गायब हो गई. अगरचे सरकारी स्कूलों के शिक्षक सिर्फ वेतन लेने स्कूल जाते हैं और अगर जाते भी हैं तो आरक्षण की कृपा से उनको खुद ही कुछ पता नहीं है तो बच्चों को बताएंगे क्या? दूसरी तरफ सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अधिकतर विभाग शिक्षक विहीन हैं क्योंकि राज्य सरकारें इनके ऊपर किए गए व्यय को वेवजह का खर्च मानती हैं. ऐसे में निजी स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय अगर कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं तथापि भ्रष्टाचार वहां भी कम नहीं है. शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारियों से हस्ताक्षर दोगुने-तिगुने वेतन पर करवाया जाता है लेकिन दिया नहीं जाता. कई बार तो पैसा उनके खाते में डाल दिया जाता है और वे बेचारे बैंक से पैसा निकालकर फिर कॉलेज-विश्वविद्यालय को वापस कर देते हैं. इतना ही नहीं निजी स्कूलों-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में भी पढाई न के बराबर होती है ज्यादातर शिक्षणेतर गतिविधियों का ही आयोजन होता है जिससे मीडिया में सुर्ख़ियों में बना रहा जा सके. कुल मिलाकर हमारी शिक्षा-व्यवस्था परीक्षा व्यवस्था बन चुकी है लेकिन न तो ढंग से परीक्षा ली जाती है और न की सम्यक तरीके से कापियों की जांच की जाती है. कई बार तो कापियों के बंडल खुलते भी नहीं हैं और परिणाम घोषित कर दिया जाता है और ऐसा न सिर्फ सरकारी बल्कि निजी शिक्षण-संस्थानों में भी होता है. निजी क्षेत्र की कृपा से शिक्षा अब ज्ञान दान नहीं व्यापार बन गयी है, विशुद्ध व्यापार.
मित्रों, अब बात करते हैं ठेके पर होनेवाले कामों की. चाहे वो सफाई हो या सड़क या पुल निर्माण या फिर टोल वसूली किसी भी क्षेत्र में ठेकेदार सही तरीके से काम नहीं करते और जमकर पैसा बनाते हैं फिर चाहे उद्घाटन से पहले ही पुल गिर क्यों न जाए.
मित्रों, आपके घर के आसपास भी आपने देखा होगा कि बैंकों और बैंकों के एटीएम के बाहर निजी सुरक्षा कंपनियों के गार्ड पहरा देते हैं. भ्रष्टाचार ने उन गरीबों को भी अछूता नहीं छोड़ा है. बेचारे हस्ताक्षर करते हैं २४ हजार पर लेकिन उनके हाथों में आता है १२-१३ हजार. मतलब यहाँ भी जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है.
मित्रों, अब बात करते हैं उस घटना की जिसने मुझे यह आलेख लिखने के लिए प्रेरित किया. अडानी पोर्ट से भारी मात्रा में हेरोईन की खेप का पकड़ा जाना. हाल में अडानी ग्रुप को सौपे गए गुजरात के मुंद्रा-अडानी बंदरगाह से एक साथ ३००० किलोग्राम हेरोईन पकड़ी गई है जिसकी कीमत १९००० करोड़ रूपये बताई जाती है. ये हेरोईन टेलकम पाउडर के नाम पर आयातित की गई थी. सोंच लीजिए निजी हाथों में पोर्ट सौंपकर हम देश की सुरक्षा को किस कदर खतरे में डाल रहे हैं. इस घटना के बाद सवाल यह भी उठता है कि क्या बड़े-बड़े धनपति पूरी तरह दूध के धुले हैं?
मित्रों, कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि निजीकरण समाधान नहीं है बल्कि इससे पहले से ज्यादा जटिल समस्याओं का जन्म होगा. रही बात भ्रष्टाचार की तो निजीकरण के बाद भी भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होनेवाला है. ऐसे में अच्छा यही रहेगा कि सरकार साफ़ मन से सरकारी क्षेत्र की कंपनियों और बैंकों की व्यवस्था को सुधारे और बार-बार यह कहना बंद करे कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है. साथ ही एनसीएलटी के माध्यम से सरकारी बैंकों को लगाए जा रहे चूना पर अविलम्ब रोक लगाए. वैसे मुझे लगता है कि इस समय देश एक बार फिर से सरकारविहीन हो गया है.
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