बुधवार, 11 नवंबर 2009
लोकतान्त्रिक सोंच नहीं रखते भारतीय
भारत को आजादी मिले ६२ साल हो गए. एक देश के विकास की हिसाब से यह कालखंड भले ही ज्यादा लगता हो, लोकतंत्र के विकास की लिहाज से यह बहुत कम है.भारत के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतंत्र अमेरिका को अगर हम लें तो उसका लोकतान्त्रिक इतिहास सवा दो सौ साल से भी ज्यादा का है और इंग्लैंड का तो इससे भी कहीं ज्यादा का.भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ सत्ता बल-प्रयोग के द्वारा नहीं मतदान द्वारा बदलती रही है.६२ सालों की इस यात्रा में भारतीय लोकतंत्र की कई कमजोरियां समय-समय पर उजागर होती रहीं हैं और स्वतः जनता द्वारा मत-प्रयोग के माध्यम से दूर भी होती रही हैं.इस दौरान एक कमजोरी बार-बार लोकतंत्र पर हावी होती दिखाई देती है.वह सबसे बड़ी कमजोरी है-हमारे भीतर लोकतान्त्रिक सोंच या मानसिकता का अभाव.हम आज भी राजतान्त्रिक सोंच रखते हैं. राजतन्त्र का सबसे बड़ा गुण है उत्तराधिकार का नियम. हमारे अधिकतर जनप्रतिनिधि ऐसे हैं जिनके माता-पिता कभी-न-कभी राजनीति में थे. एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश की राजनीति को मात्र साढ़े पॉँच हजार परिवार संचालित कर रहे है.भारतीय जनता क्यों एक ही परिवार के उत्तराधिकारी को मत देकर जिता रही है? क्या बार-बार ऐसा करना भारतीय जनता की प्रजातान्त्रिक सोंच या मानसिकता को दर्शाता है?एक तरफ उत्तराधिकार की लम्बी परंपरा को धारण करनेवाली कांग्रेस पार्टी सत्ता में है और दिन-ब-दिन मजबूत होती जा रही है तो दूसरी ओर लोकतान्त्रिक गुणों को ज्यादा प्रखरता से धारण करनेवाली भाजपा पतन की ओर अग्रसर है. पूरा भारत राहुल गाँधी को सत्ता सौंपने के लिए क्यों व्याकुल हो रहा है? क्या भारत में योग्य राजनेताओं का अकाल पड़ गया है? राहुल ने अब तक ऐसा कोई भी काम नहीं किया है जिससे उन्हें सबसे योग्य कहा या माना जा सके. लगता है कि भारतीय जनता संभावनाओं के पीछे उसी तरह पागल है जैसे नोबेल पुरस्कार समिति ओबामा के पीछे पागल थी.दलितों के घर एक-दो बार ठहर लेने या भोजन कर लेने मात्र से वे प्रधानमंत्री पद अधिकारी हो गए ऐसा कैसे माना जा सकता है. फ़िर तो ऐसे हजारों सवर्ण नेताओं को खोजा जा सकता है जो बराबर दलितों के यहाँ ठहरते और भोजन करते हैं तो क्या ऐसा करनेवाले वे सभी जनप्रतिनिधि ऐसा करने मात्र से प्रधानमंत्री पद के योग्य हो गए! या फ़िर राहुल जी उस नेहरू-गाँधी परिवार में जन्म लेने के कारण इस पद के अधिकारी हो गए जिनकी गलतियों के कारण भारत को हजारों वर्गकिलोमीटर भूमि से हाथ धोना पड़ा और निकट भविष्य में उसकी वापसी की भी उम्मीद नहीं है.रामचरितमानस में तुलसी ने कहा है-सब सुभ काज भारत के हाथा. लोकतंत्र में जनता ही राम है और जनता ही भरत. करना बस इतना है कि मत डालते समय यह ख्याल रखें कि किसको जिताना देशहित में है. हो सकता है कि हमारे जातीय या सांप्रदायिक स्वार्थ अलग-अलग हों लेकिन देश तो हमारा एक ही है, सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान. इसलिए हमारा देशहित अलग नहीं हो सकता. बस यही हम नहीं कर पाते हैं और तात्कालिक लाभ के चक्कर में पड़ जाते हैं.लेकिन बाद में उससे कई गुना भ्रष्टाचार के माध्यम से हमारी जेबों से खींच लिए जाते हैं. भ्रष्ट लोगों को जिताने का भला और क्या परिणाम हो सकता है?
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