सोमवार, 16 अगस्त 2021
फिर से तालिबान
मित्रों, अफगानिस्तान में फिर से तालिबान का पदार्पण हो चुका है. अर्थात अमेरिका ने पिछले दो दशकों में तालिबान को उखाड़ फेंकने के जो भी प्रयास किए थे सब पर पानी फिर चुका है. इस बार भले भी अफगानिस्तान में लादेन या उमर नहीं हैं लेकिन फिर भी यह यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता है कि भविष्य में अफगानिस्तान फिर से इस्लामिक आतंकवाद का एक और केंद्र बनकर नहीं उभरेगा.
मित्रों, मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद व्यक्ति आधारित न थी न है बल्कि विचारधारा आधारित है. जब कुरान और हदीस ही मुसलमानों को पूरी दुनिया से काफिरों को मिटाकर इस्लाम का शासन कायम करने की आज्ञा और प्रेरणा देते हैं तो इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि जब तक इस्लाम है दुनिया में हिंसा रहेगी, आतंकवाद रहेगा.
मित्रों, अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने बाद तालिबान ने कहा है कि वे शरिया कानून के तहत महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करेंगे. लेकिन समस्या यह है कि शरिया कानून में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ही नहीं। सच्चाई तो यह है कि अफगानिस्तान में किशोर लड़कियों को घरों से जबरन उठाया जा रहा है और अपने लड़ाकों के बीच जीत की ट्रॉफी के रूप में उनको वितरित कर दिया जा रहा है.
मित्रों, अभी दो-तीन दिन पहले भारत के राजौरी में एक तीन वर्षीय बच्चे वीर सिंह की बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी गई. इस हत्या के पीछे भी वही इस्लामिक विचारधारा है जिसकी क्रूरता का कोई अंत नहीं. यह विचारधारा न तो काफिरों के प्रति नरम है और न ही मुसलमानों के प्रति. इराक और सीरिया में हम शरिया शासन देख चुके हैं जिसमें हजारों निर्दोष लोगों को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि वे मुसलमान नहीं थे. फिर भी न जाने कुछ लोग क्यों और किस आधार पर इस्लाम को शांति का धर्म बता रहे हैं.
मित्रों, तालिबान के फिर से उभरने के पीछे जहाँ अमेरिका की मूर्खता है वहीँ चीन, रूस और पाकिस्तान की धूर्तता भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है. हम नहीं जानते कि भविष्य में वैश्विक राजनीति कौन-सी दिशा पकडनेवाली है और उसमें तालिबान का क्या योगदान होगा लेकिन अफगानिस्तान में जो कुछ भी हो रहा है वो न तो भारत और न ही मानवता के हित में है. रूस न तो कभी भारत का मित्र था, न है और न होगा. वो तो बस नेहरु-गाँधी परिवार का मित्र था. इसी तरह हमें अपनी विदेश नीति अमेरिका से अलग हटकर बनानी होगी. वर्ना जिस तरह अफगानिस्तान में हमारे २२५०० करोड़ रूपये के निवेश बेकार हो गए हैं दूसरे देशों में भी होते रहेंगे.
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