रविवार, 30 मई 2010
भारत को चाहिए इस्पाती इरादोंवाला प्रधानमंत्री
भारत महान विडंबनाओंवाला देश है.हमारे लिए यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि जब देश को उसी तरह के नेतृत्व की जरूरत है जिस तरह का नेतृत्व चर्चिल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इंग्लैंड का किया था, लालबहादुर शास्त्री ने १९६५ के और इंदिरा ने १९७१ के भारत-पाक युद्ध के समय और अटल बिहारी वाजपेयी ने कारगिल युद्ध और परमाणु परीक्षण के समय भारत का किया था तब देश नेतृत्वविहीनता की स्थिति में है.प्रत्येक दो दिन में नक्सलवादी औसतन तीन भारतीयों की हत्या कर रहे हैं,महंगाई चरम पर है और भ्रष्टाचारी केंद्रीय मंत्रिमंडल तक में घुसपैठ कर चुके हैं और प्रधानमंत्री बस इतना कर रहे हैं कि वे कुछ नहीं कर रहे हैं.१५० से ज्यादा लोग जानबूझकर कराई गई रेल दुर्घटना में मारे जाते हैं.एक अख़बार (नई दुनिया) दुर्घटनाग्रस्त मालगाड़ी के ड्राईवर से बातचीत छापता है जिसमें वह बता रहा है कि किस तरह सिग्नल ग्रीन नहीं होने पर भी नक्सलवादियों ने उन्हें ट्रेन चलाते रहने पर बाध्य किया और रेलमंत्री कह रही हैं कि हमला नक्सलवादियों ने ही किया था या नहीं इसको लेकर उन्हें संदेह है.खैर रेलमंत्री के लिए तो बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी ही सबकुछ है लेकिन प्रधानमंत्री तो पूरे देश के प्रधानमंत्री है.इस संक्रमण काल में अगर उनसे शासन नहीं संभल सकता तो यह ईमानदारी का तकाजा है कि वे अविलम्ब इस्तीफा दे दें.उनकी कांग्रेस के प्रति ईमानदारी पर किसी को शक नहीं है.लेकिन उन्हें उस जनसमर्थन के प्रति भी ईमानदारी दिखानी चाहिए जिसने उनपर भरोसा करके उन्हें नेहरु और इंदिरा के बाद सबसे ज्यादा दिनों तक भारत का प्रधानमंत्री रहने का सौभाग्य प्रदान किया है.लगता है कि मनमोहन जी अपनी उस शपथ के प्रति भी ईमानदार नहीं रह गए हैं जो उन्होंने प्रधानमंत्री बनते समय ली थी और वो भी एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार.उन्होंने शपथ ली थी कि वे भारत की एकता और अखंडता को अक्षुण रखेंगे और अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करेंगे.साथ ही उन्होंने इस बात की भी शपथ ली थी कि वे भय या पक्षपात,अनुराग या द्वेष के बिना सभी प्रकार के लोगों के प्रति न्याय करेंगे.क्या इस तरह की जाती है एकता और अखंडता की रक्षा?क्या यही है उनका न्याय.उनकी सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से रात में ट्रेनों का परिचालन रोक दिया है अगर माओवादी दिन में ही ट्रेन पर हमला कर देते हैं तब तो दिन में भी परिचालन रोकना पड़ेगा.क्या भारत की १२० करोड़ जनता भी आपकी सरकार की तरह नपुंसक हो गई है?आप आह्वान करके तो देखिए जनता खुद ही माओवादियों से निपट लेगी.क्या ट्रेनों का परिचालन रोक देना भारत की एकता और अखंडता और संप्रभुता को मजबूत करेगा?हमारे गृह मंत्री बुद्धिजीवियों पर माओवाद को बौद्धिक समर्थन देने का आरोप लगा रहे हैं जबकि वे खुद ममता बनर्जी,दिग्विजय सिंह जैसे लोगों से घिरे हुए हैं.जो उनके अपने हैं और खुलेआम माओवादियों का बचाव कर रहे हैं.शायद वोटबैंक की मजबूरी होगी.कदाचित प्रधानमंत्री की भी यही मजबूरी हो.जब देश का शासन वोटबैंक को ध्यान में रखकर ही चलाया जाना है तो फ़िर क्या जरूरत है इस तरह की शपथ लेने की.स्वर्गीय इंदिरा गांधी के समय भी आतंकवाद था और शायद स्थितियां वर्तमानकाल से भी ज्यादा बुरी थीं.लेकिन उन्होंने जिस प्रकार आपरेशन ब्लू स्टार का निर्णय लिया और जिस दृढ़ता से आतंकवाद को कुचला वह आज भी एक मिशाल है.भले ही इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी लेकिन उन्होंने देश की एकता और अखंडता को टूटने नहीं दिया.जब उस समय स्वर्णमंदिर पर सेना कार्रवाई कर सकती थी तो आज नक्सलवादियों के खिलाफ स्थल और वायुसेना को क्यों नहीं लगाया जा सकता?आखिर सेना होती क्यों है क्या प्रधानमंत्री बताएँगे?एक महिला जब इस तरह की हिम्मत दिखा सकती है तो मनमोहन तो फ़िर भी मर्द हैं.अंत में मैं भारत की सवा अरब जनता की ओर से उन्हें और अन्य राजनेताओं को आगाह कर देता हूँ कि भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी कायरों और डरपोकों के लिए नहीं बनी है उस पर बैठने का तो वही हक़दार है जिसका सीना फौलाद का बना हो और जिसके इरादे इस्पात से भी ज्यादा मजबूत हों.
शनिवार, 29 मई 2010
पत्रकारिता के सम्बन्ध में ओशो के विचार
जीवन का ऐसा कोई भी पहलू नहीं है जिस पर प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक ओशो रजनीश ने अपने विचार व्यक्त नहीं किये हों.पत्रकारिता भी इनमें से एक रही है.ओशो के अनुसार पत्रकारिता सिर्फ एक व्यवसाय न हो.इसे मनुष्यता के प्रति एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व समझा जाना चाहिए.यह साधारण व्यवसाय नहीं है,यह सिर्फ मुनाफे के लिए नहीं है.मुनाफे के लिए बहुत-से व्यवसाय पड़े हैं,कम-से-कम पत्रकारिता को अपने मुनाफे के लिए भ्रष्ट मत करो.पत्रकारिता को अपने मुनाफे का बलिदान देने के लिए तैयार होना पड़ेगा,तभी वह लोगों की रूग्ण जरूरतों को ही पूरा नहीं करेगी,बल्कि उनके मौलिक और बुनियादी कारणों को प्रकट कर सकेगी,जो दूर किये जा सकते हैं.
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं,एक क्रांति होनी चाहिए.बुनियादी रूप से पत्रकार एक क्रांतिकारी व्यक्ति होता है,जो चाहता है कि यह दुनिया बेहतर हो.वह एक युयुत्स है और उसे सम्यक कारणों के लिए लड़ना है.मैं पत्रकारिता को अन्य व्यवसायों में से एक नहीं मानता.मुनाफा ही कमाना हो तो ढेर सारे व्यवसाय उपलब्ध हैं;कम-से-कम कुछ तो हो जो मुनाफे के उद्देश्य से अछूता रहे.तभी यह संभव होगा कि तुम लोगों को शिक्षित कर सको,जो गलत हैं उनके खिलाफ विद्रोह करने की शिक्षा उन्हें दे सको;जो भी बात विकृति पैदा करती है,उसके खिलाफ उन्हें शिक्षित कर सको.
पत्रकारिता और अन्य समाचार माध्यम इस संसार में एक नई घटना है.इस तरह की कोई प्रणाली गौतम बुद्ध और जीसस के समय नहीं थी.उस वक्त जो दुर्घटनाएं होती थीं,उनका हमें कुछ पता नहीं है,क्योंकि उस समय कोई समाचार माध्यम नहीं था.समाचार माध्यमों के आगमन से बिलकुल ही नई बात पैदा हुई है,जो भी अशुभ है,जो भी बुरा है,जो भी नकारात्मक है-फ़िर वह सच हो अथवा झूठ,वह सनसनीखेज बन जाता है,वह बिकता है.लोगों की उत्सुकता होती है बलात्कार में,हत्या में,रिश्वत में,सब तरह के अपराधी कृत्यों में,दंगे-फसादों में.चूंकि लोग इस तरह के समाचारों की मांग करते हैं इसलिए तुम संसार में जो भी अशुभ घाटा है उसे इकठ्ठा करते हो.फूलों का विस्मरण हो जाता है, केवल कांटें ही कांटें याद रह जाते हैं-और उनको बड़ा करके दिखाया जाता है.अगर तुम उन्हें खोज नहीं पाते हो तो तुम उन्हें पैदा करते हो क्योंकि अब तुम्हारी एक मात्र समस्या है-बिक्री कैसे हो?अतीत में हमें उन्हीं समाचारों का पता चलता था,जिन्हें शुभ समाचार कहें.शस्त्रों में चोरों या हत्यारों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा जाता था.वही एक मात्र साहित्य था.पत्रकारिता ने अपराधियों के महान बनने की सम्भावना का द्वार खोल दिया.
स्वीडन में पिछले दिनों एक घटना घटी.एक आदमी ने एक अजनबी की हत्या कर दी और अदालत में उस हत्यारे ने कहा कि मैं अपना नाम समाचार पत्रों में प्रथम पृष्ठ पर देखना चाहता था.मेरी एकमात्र इच्छा यह थी कि अख़बारों में मैं अपना नाम छपा हुआ देख लूं.मेरी इच्छा पूरी हुई.यह सब गलत बातों पर ध्यान देने के कारण हैं.इसी वजह से एक बड़ा ही विचित्र व्यक्तित्व पैदा हो रहा है.
समाचार माध्यमों को कुछ चीजों का बहिष्कार करना चाहिए.जिनसे परध पैसा होते हैं,लोगों के प्रति अमानवीयता पैदा होती है.लेकिन उनका निषेध करने की बजाय तुम उनसे मुनाफा कमाते तो,उनके बल पर समृद्ध होते हो,बिक्री बढ़ाते हो परन्तु इस बात की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते कि इसके अंतिम परिणाम क्या होंगे?
पुराने अर्थशास्त्र की धारणा थी कि मांग होने पर पूर्ति होती है.लेकिन नवीन अन्वेषण बताते हैं कि जहाँ पूर्ति होती है वहां धीरे-धीरे मांग पैदा हो जाती है.पत्रकारिता को न मात्र लोगों की जरूरतों को पूरा करने की ओर ध्यान देना चाहिए बल्कि उसे स्वस्थ पूर्ति भी पैदा करनी चाहिए,जो लोगों में स्वस्थ मांग पैदा करे.लोग विज्ञापन क्यों देते हैं?खासकर अमेरिका में,वह उत्पादन तो दो साल बाद बाजार में आता है और उसका विज्ञापन दो साल पहले शुरू हो जाता है.इस प्रकार पहले पूर्ति होती है,वह पूर्ति मांग पैदा करती है.इसलिए बड़े-बड़े विज्ञापनों की जरूरत होती है.
मैंने पूरे विश्व की यात्रा की है और मैं हैरान हुआ हूँ क़ि यह तथाकथित समाचार माध्यम,अगर उसे कुछ नकारात्मक नहीं मिलता तो वह उसे पैदा करता है.हर प्रकार के झूठ निर्मित किये जाते हैं.वह लोगों के दिमाग में यह ख्याल पैदा नहीं करता क़ि हमारी प्रगति हो रही है;हम विकसित हो रहे हैं;क़ि हमारे भविष्य में इससे बेहतर मनुष्यता होगी.वह सिर्फ यही ख्याल पैदा करती है क़ि रात घनी से घनी होती चली जाएगी.समाचार पत्र,आकाशवाणी के प्रसारणों,दूरदर्शन,फिल्मों पर एक नजर डालें तो ऐसा लगता है क़ि अब नरक की ओर जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा है.
हमारे पाठक भी कुछ कम नहीं हैं.अख़बार में अगर कुछ हिंसा नहीं हुई हो,कहीं कोई आगजनी न हुई हो,कहीं लूटपाट न हुई हो,कोई डाका न पड़ा हो,कोई युद्ध न हुआ हो,कहीं बम न फटा हो तो तुम अख़बार पढ़कर कहते हो कि आज तो कोई खबर ही नहीं है.क्या तुम इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे?क्या तुम सुबह-सुबह उठ कर यही अपेक्षा कर रहे थे कि कहों ऐसी घटना हो?कोई समाचार ही नहीं है.तुम्हें लगता है कि अख़बार में जो खर्च किये,वे व्यर्थ गए.अख़बार तुम्हारे लिए ही छपते हैं.इसलिए अख़बार वाले भी अच्छी खबर नहीं छापते.उसे पढने वाला कोई नहीं है,उसमें कोई उत्तेजना नहीं है,उसमें कोई सेंसेशन नहीं है.पत्रकारिता पश्चिम की दें है.पत्रकारिता को स्वयं को पश्चिम से मुक्त करना है और फ़िर अपने को एक प्रमाणिक , मौलिक आकर देना है.यदि तुमने पत्रकारिता को आध्यात्मिक आयाम दिया तो आज नहीं कल पश्चिम तुम्हारा अनुसरण करेगा.क्योंकि वहीँ तीव्र भूख है,गहन प्यास है.
स्वस्थ पत्रकारिता को विकसित करो.ऐसी पत्रकारिता विकसित करो जो मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व का पोषण करे-उसका शरीर,उसका मन,उसकी आत्मा को पुष्ट करे;ऐसी पत्रकारिता जो बेहतर मनुष्यता को निर्मित करने में संलग्न हो,सिर्फ घटनाओं के वृतांत इकट्ठे न करे.माना कि नकारात्मकता जीवन का हिस्सा है,मृत्यु जीवन का हिस्सा है,लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हें अपनी श्मशान भूमि बीच बाजार में बनानी चाहिए.तुम अपनी श्मशान भूमि शहर के बाहर बनाते हो,जहाँ सिर्फ एक बार जाते हो और फ़िर वापस नहीं लौटते.इसी कारण नकारात्मकता को मानसिक कुंठा मत बनाओ.नकारात्मकता पर जोर न दो वरन उसकी निंदा करो.यही स्वस्थ पत्रकारिता का लक्ष्य होना चाहिए.
समय आ गया है.पत्रकारिता एक नए युग का प्रारंभ बन सकती है.राजनीति को जितना पीछे धकेल सकते हो धकेलो.पत्रकारिता में बड़ी-से-बड़ी क्रांति करने की क्षमता है बशर्ते भारत में अलग किस्म की पत्रकारिता पैदा हो,जो राजनीति से नियंत्रित नहीं हो लेकिन देश के प्रज्ञावान लोगों द्वारा प्रेरित हो.पत्रकारिता का मूल कार्य होना चाहिए प्रज्ञावान लोगों को और उसकी प्रज्ञा को प्रकट करना.
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं,एक क्रांति होनी चाहिए.बुनियादी रूप से पत्रकार एक क्रांतिकारी व्यक्ति होता है,जो चाहता है कि यह दुनिया बेहतर हो.वह एक युयुत्स है और उसे सम्यक कारणों के लिए लड़ना है.मैं पत्रकारिता को अन्य व्यवसायों में से एक नहीं मानता.मुनाफा ही कमाना हो तो ढेर सारे व्यवसाय उपलब्ध हैं;कम-से-कम कुछ तो हो जो मुनाफे के उद्देश्य से अछूता रहे.तभी यह संभव होगा कि तुम लोगों को शिक्षित कर सको,जो गलत हैं उनके खिलाफ विद्रोह करने की शिक्षा उन्हें दे सको;जो भी बात विकृति पैदा करती है,उसके खिलाफ उन्हें शिक्षित कर सको.
पत्रकारिता और अन्य समाचार माध्यम इस संसार में एक नई घटना है.इस तरह की कोई प्रणाली गौतम बुद्ध और जीसस के समय नहीं थी.उस वक्त जो दुर्घटनाएं होती थीं,उनका हमें कुछ पता नहीं है,क्योंकि उस समय कोई समाचार माध्यम नहीं था.समाचार माध्यमों के आगमन से बिलकुल ही नई बात पैदा हुई है,जो भी अशुभ है,जो भी बुरा है,जो भी नकारात्मक है-फ़िर वह सच हो अथवा झूठ,वह सनसनीखेज बन जाता है,वह बिकता है.लोगों की उत्सुकता होती है बलात्कार में,हत्या में,रिश्वत में,सब तरह के अपराधी कृत्यों में,दंगे-फसादों में.चूंकि लोग इस तरह के समाचारों की मांग करते हैं इसलिए तुम संसार में जो भी अशुभ घाटा है उसे इकठ्ठा करते हो.फूलों का विस्मरण हो जाता है, केवल कांटें ही कांटें याद रह जाते हैं-और उनको बड़ा करके दिखाया जाता है.अगर तुम उन्हें खोज नहीं पाते हो तो तुम उन्हें पैदा करते हो क्योंकि अब तुम्हारी एक मात्र समस्या है-बिक्री कैसे हो?अतीत में हमें उन्हीं समाचारों का पता चलता था,जिन्हें शुभ समाचार कहें.शस्त्रों में चोरों या हत्यारों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा जाता था.वही एक मात्र साहित्य था.पत्रकारिता ने अपराधियों के महान बनने की सम्भावना का द्वार खोल दिया.
स्वीडन में पिछले दिनों एक घटना घटी.एक आदमी ने एक अजनबी की हत्या कर दी और अदालत में उस हत्यारे ने कहा कि मैं अपना नाम समाचार पत्रों में प्रथम पृष्ठ पर देखना चाहता था.मेरी एकमात्र इच्छा यह थी कि अख़बारों में मैं अपना नाम छपा हुआ देख लूं.मेरी इच्छा पूरी हुई.यह सब गलत बातों पर ध्यान देने के कारण हैं.इसी वजह से एक बड़ा ही विचित्र व्यक्तित्व पैदा हो रहा है.
समाचार माध्यमों को कुछ चीजों का बहिष्कार करना चाहिए.जिनसे परध पैसा होते हैं,लोगों के प्रति अमानवीयता पैदा होती है.लेकिन उनका निषेध करने की बजाय तुम उनसे मुनाफा कमाते तो,उनके बल पर समृद्ध होते हो,बिक्री बढ़ाते हो परन्तु इस बात की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते कि इसके अंतिम परिणाम क्या होंगे?
पुराने अर्थशास्त्र की धारणा थी कि मांग होने पर पूर्ति होती है.लेकिन नवीन अन्वेषण बताते हैं कि जहाँ पूर्ति होती है वहां धीरे-धीरे मांग पैदा हो जाती है.पत्रकारिता को न मात्र लोगों की जरूरतों को पूरा करने की ओर ध्यान देना चाहिए बल्कि उसे स्वस्थ पूर्ति भी पैदा करनी चाहिए,जो लोगों में स्वस्थ मांग पैदा करे.लोग विज्ञापन क्यों देते हैं?खासकर अमेरिका में,वह उत्पादन तो दो साल बाद बाजार में आता है और उसका विज्ञापन दो साल पहले शुरू हो जाता है.इस प्रकार पहले पूर्ति होती है,वह पूर्ति मांग पैदा करती है.इसलिए बड़े-बड़े विज्ञापनों की जरूरत होती है.
मैंने पूरे विश्व की यात्रा की है और मैं हैरान हुआ हूँ क़ि यह तथाकथित समाचार माध्यम,अगर उसे कुछ नकारात्मक नहीं मिलता तो वह उसे पैदा करता है.हर प्रकार के झूठ निर्मित किये जाते हैं.वह लोगों के दिमाग में यह ख्याल पैदा नहीं करता क़ि हमारी प्रगति हो रही है;हम विकसित हो रहे हैं;क़ि हमारे भविष्य में इससे बेहतर मनुष्यता होगी.वह सिर्फ यही ख्याल पैदा करती है क़ि रात घनी से घनी होती चली जाएगी.समाचार पत्र,आकाशवाणी के प्रसारणों,दूरदर्शन,फिल्मों पर एक नजर डालें तो ऐसा लगता है क़ि अब नरक की ओर जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा है.
हमारे पाठक भी कुछ कम नहीं हैं.अख़बार में अगर कुछ हिंसा नहीं हुई हो,कहीं कोई आगजनी न हुई हो,कहीं लूटपाट न हुई हो,कोई डाका न पड़ा हो,कोई युद्ध न हुआ हो,कहीं बम न फटा हो तो तुम अख़बार पढ़कर कहते हो कि आज तो कोई खबर ही नहीं है.क्या तुम इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे?क्या तुम सुबह-सुबह उठ कर यही अपेक्षा कर रहे थे कि कहों ऐसी घटना हो?कोई समाचार ही नहीं है.तुम्हें लगता है कि अख़बार में जो खर्च किये,वे व्यर्थ गए.अख़बार तुम्हारे लिए ही छपते हैं.इसलिए अख़बार वाले भी अच्छी खबर नहीं छापते.उसे पढने वाला कोई नहीं है,उसमें कोई उत्तेजना नहीं है,उसमें कोई सेंसेशन नहीं है.पत्रकारिता पश्चिम की दें है.पत्रकारिता को स्वयं को पश्चिम से मुक्त करना है और फ़िर अपने को एक प्रमाणिक , मौलिक आकर देना है.यदि तुमने पत्रकारिता को आध्यात्मिक आयाम दिया तो आज नहीं कल पश्चिम तुम्हारा अनुसरण करेगा.क्योंकि वहीँ तीव्र भूख है,गहन प्यास है.
स्वस्थ पत्रकारिता को विकसित करो.ऐसी पत्रकारिता विकसित करो जो मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व का पोषण करे-उसका शरीर,उसका मन,उसकी आत्मा को पुष्ट करे;ऐसी पत्रकारिता जो बेहतर मनुष्यता को निर्मित करने में संलग्न हो,सिर्फ घटनाओं के वृतांत इकट्ठे न करे.माना कि नकारात्मकता जीवन का हिस्सा है,मृत्यु जीवन का हिस्सा है,लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हें अपनी श्मशान भूमि बीच बाजार में बनानी चाहिए.तुम अपनी श्मशान भूमि शहर के बाहर बनाते हो,जहाँ सिर्फ एक बार जाते हो और फ़िर वापस नहीं लौटते.इसी कारण नकारात्मकता को मानसिक कुंठा मत बनाओ.नकारात्मकता पर जोर न दो वरन उसकी निंदा करो.यही स्वस्थ पत्रकारिता का लक्ष्य होना चाहिए.
समय आ गया है.पत्रकारिता एक नए युग का प्रारंभ बन सकती है.राजनीति को जितना पीछे धकेल सकते हो धकेलो.पत्रकारिता में बड़ी-से-बड़ी क्रांति करने की क्षमता है बशर्ते भारत में अलग किस्म की पत्रकारिता पैदा हो,जो राजनीति से नियंत्रित नहीं हो लेकिन देश के प्रज्ञावान लोगों द्वारा प्रेरित हो.पत्रकारिता का मूल कार्य होना चाहिए प्रज्ञावान लोगों को और उसकी प्रज्ञा को प्रकट करना.
रविवार, 23 मई 2010
कहाँ गए हीरा और मोती
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी मुझे बचपन में बहुत-ही प्रिय थी और आज भी है.कहानी का नाम है-दो बैलों की कथा.यह कहानी थी हीरा और मोती नाम के दो बैलों की.इन बैलों में ही इनके मालिक झूरी की जान बसती थी.ये बैल भी अपने स्वामी को उतना ही अधिक प्यार करते थे.खैर यह कहानी बहुत पुरानी है.प्रेमचंद अगर आज के समय में पैदा हुए होते तो हम इस कहानी के रसपान से वंचित रह जाते.जब गांवों में बैल ही नहीं रहे तो उनको लेकर वे इतनी मार्मिक कहानी लिखते भी कैसे?कृषि और पशुपालन हजारों सालों से एक-दूसरे के पूरक बने हुए थे लेकिन सरकार की गलत नीतियों ने इसे तोड़ने की गलती की है.भारत और पश्चिम की सोंच में हमेश से काफी अंतर रहा है.हम प्रकृति को अपना दुश्मन नहीं बल्कि सहयोगी मानते हैं.गांवों में बैलों को सिर्फ खेती में मदद करनेवाला जानवर नहीं माना जाता था बल्कि उन्हें आदर से महादेव यानी शिव कहकर संबोधित किया जाता था.नए बैल की खरीद के बाद उसे सीधे खूंटे पर ले जाकर बाँध नहीं देते थे बल्कि पहले गृहिणियां तिलक करके उनकी पदपूजा करती थी.हल जोतना तो इनका काम होता ही था फसल की दौनी का काम भी यही करते थे.इतना ही नहीं कुएं से रहट की सहायता से ये पानी भी खींचते थे और इन्हें गाड़ी में जोतकर समान ढोने का काम भी लिया जाता था.यह जीव अपने मालिक के प्रति जितना समर्पित होता था शायद उसके परिवार का सदस्य भी उतना समर्पित नहीं होता था.संतान तो होना नहीं था क्योंकि इनकी बचपन में ही नसबंदी कर दी जाती थी.कोई ख्वाहिश नहीं इन्हें खुश रखने के लिए सिर्फ चारा-पानी और प्यार ही काफी था.खूटे पर बंधे बैलों की संख्या से ही पता चल जाता था कि कौन कितना बड़ा किसान है, किसी से पूछने की कोई दरकार नहीं.इनका गोबर सर्वोत्तम स्तर का खाद होता था और खेतों की उर्वरता बनाये रखने में सहायक होता था.किसान को एक और लाभ था बैलों से खेती होने से.बैलों के साथ गायें भी पाली जातीं जिससे दूध-दही की घर में कभी कमी नहीं रहती.बैलों को हल या गाड़ी में जोतते समय उन्हें निर्देश देने के लिए हमारे यहाँ कई शब्द प्रचलन में थे जैसे अगर उन्हें रोकना हो तो कहिये हौरा, चलने के लिए कहना हो तो कहिये आटठाम और अगर मोड़ना हो तो कहिये गोर तर.क्या मजाल ये बैल कभी कोई गलती कर दें.खेतों से इनके साथ आना भी जरूरी नहीं था बस खोलकर छोड़ दीजिये ये खुद-ब-खुद आपके दरवाजे पर पहुँच जाते.इसी तरह बैलगाड़ी चलाते समय गाड़ीवान के लिए जगा रहना भी जरूरी नहीं था.गाड़ीवान सो गया और बैल अपने रास्ते पर चले जा रहे हैं और दूर से ही सुनाई दे रही हैं उनके गले में बजती घंटियाँ.लेकिन अब तो बैल गांवों के लिए इतिहास का विषय बनकर रह गए हैं.हमारी सरकार ने पश्चिम की अंधी नक़ल करने के चक्कर में खेती का यंत्रीकरण कर दिया.गोबर की जगह खेतों में जहरीले रासायनिक उर्वरक डाले जा रहे हैं और खेतों को जोत रहे हैं ट्रैक्टर.अब ट्रैक्टर ठहरी महंगी चीज सो हर किसी के लिए इसे रख पाना संभव है नहीं सो किसान खेत जोतने के लिए भी दूसरों का मुंहतका बनकर रह गया है.बैल पालने की अनिवार्यता समाप्त हो जाने से दरवाजों से गायें भी गायब हो गईं जिससे गांवों में भी शुद्ध दूध मिलना दुर्लभ हो गया है,शहरों से तो आये दिन मिलावट वाले दूध की ख़बरें आती ही रहती हैं.अमृत विष बन गया है.खेत रासायनिक खादों के हमलों से ऊसर होने लगे हैं और भूमिगत जल जहरीले रसायनों के लगातार घुलने के चलते जहर बनते जा रहे हैं.जल अब जीवन नहीं मृत्यु बनने की ओर अग्रसर है.किसान भी बैलों से अलग होकर खुश नहीं है उसकी स्वाबलम्बनता जो छिन गई है.खेत जोतने से लेकर, सामान ढोने और जलावन का प्रबंध करने के लिए उसे पहले किसी की मक्खनबाजी नहीं करनी पड़ती थी.पश्चिमी देशों ने भी एक बार फ़िर जैविक खेती की ओर रूख किया है लेकिन हमारी सरकार अभी तक कम-से-कम इस मामले में उनकी नक़ल करने को तत्पर नहीं दिखती.अगर ऐसा होता है तो फ़िर से हमें सड़कों पर बैलों की घंटियाँ सुनाई देने लगेगी.और हीरा-मोती के वियोग में दुखी झूरी के चेहरे पर फ़िर से चवन्निया मुस्कान विराजमान हो जाएगी.और सबसे बड़ी बात कि हमारी खेती को नवजीवन मिल जायेगा.
शनिवार, 22 मई 2010
चिड़िया की जान जाए बच्चों का खिलौना
बिहार को अगर हम मुहावरों और कहावतों की भूमि कहें तो गलत नहीं होगा.भारत की हृदयस्थली बिहार में यह कहावत न जाने कितने सालों से प्रचलित है.हालांकि यह अलग सन्दर्भ में कही गई है लेकिन यह हमारे देश में लगातार बढती महंगाई से पीड़ित जनता की हालत पर एकदम सटीक बैठती है.अमीर वर्ग को तो महंगाई से कोई फर्क पड़ता नहीं क्योंकि अमीर तो और भी अमीर होते जा रहे हैं लेकिन महंगाई ने निश्चित रूप से मध्यम और गरीब वर्ग का जीना मुहाल कर रखा है.गरीब तो जैसे दाल और सब्जी का स्वाद ही भूलते जा रहे हैं.मध्यम वर्ग की हालत भी कोई कम पतली नहीं है.बच्चों की फ़ीस से लेकर ट्रांसपोर्टेशन तक हर चीज का खर्च बढ़ता जा रहा है और वेतन है कि जस-का-तस है.बच्चों पर व्यय में कटौती तो की नहीं जा सकती इसलिए समझौता बड़े लोगों को ही करना पड़ रहा है.जी.डी.पी. में अप्रत्याशित वृद्धि के प्रयास में लगी पिछले २० सालों में देश पर शासन करनेवाली सभी सरकारें यह भूल गईं कि खाद्य-सुरक्षा को बनाये रखने के लिए कृषि-उत्पादन में वृद्धि को जनसंख्या-वृद्धि के अनुपात में बनाई रखनी जरूरी है.मैं सेवा-क्षेत्र का विरोधी नहीं हूँ लेकिन सेवा क्षेत्र रूपया दे सकता है डालर दे सकता है जी.डी.पी. में तेज बढ़ोतरी दे सकता है अनाज नहीं दे सकता; उसके लिए तो खेती की ही जरूरत होगी.एक तरफ तो सरकार इस बात पर गर्व का अनुभव कर रही है कि वैश्विक मंदी के बुरे दौर में भी उसने विकास दर में कमी नहीं आने दी वहीँ दूसरी तरफ वित्त मंत्री अच्छी उपज के लिए इन्द्र भगवान का मुंह ताक रहे हैं.जिस तरह आज नदियों और नहरों में पानी नहीं है और जिस तरह नलकूपों के द्वारा बेतहाशा दोहन के चलते भूमिगत जल में खतरनाक स्तर तक कमी आ गई है उससे साफ तौर पर कहा जा सकता है कि पिछले ६०-७० सालों में हमने जो सिंचाई नीति अपनाई थी और खेतों को सिंचित करने में जो बेशुमार धन खर्च किया था सब बेकार था.अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है सरकार को चाहिए कि मनरेगा के तहत दी जानेवाली राशि में से कुछ को वह नए तालाबों, आहरों और कुओं को खोदने और पुराने का पुनरुद्धार करने पर खर्च करे.इस साल भी अभी तक मानसून की हालत अच्छी नहीं है और तापमान रोज नए-नए रिकार्ड बनाने में लगा हुआ है.ऐसे में बहुत से इलाकों में तो पीने के पानी का भी संकट पैदा हो गया है.सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि बजट और राजस्व घाटा को कम करने के लिए यह वक़्त मुफीद नहीं है.ऐसे प्रयासों से महंगाई और भी बढ़ेगी और जनता कम व्यय करने को बाध्य होगी जिससे पूरी अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ेगा.पिछले साल के मुकाबले इस साल गेहूं की सरकारी खरीद में २ प्रतिशत की कमी आई है यानी गेंहूँ की खरीद में निजी हिस्सेदारी बढ़ गई है.ऐसे में जबकि देश की खाद्य सुरक्षा को खतरा बढ़ता जा रहा है सरकारी खरीद में कमी आना कोई अच्छा संकेत नहीं है.क्या सरकार देश में अकाल की कृत्रिम स्थिति को बढ़ावा देना चाहती है जैसा कि पिछली सदी में चालीस के दशक में बंगाल में देखने को मिला था?दुर्भाग्यवश हमारे नेता भी अमीर वर्ग में शामिल हो चुके हैं भले ही पहले वे गरीब रहे हों इसलिए तो सरकार धड़ल्ले से पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ा रही और कृषि सब्सिडी में कमी ला रही है.लेकिन जनता जब तक शांत है तभी तक उसके पेट के साथ सरकार खिलवाड़ कर सकती है जैसे ही उसके सब्र का पैमाना छलकने लगेगा सरकार का कहीं अता-पता तक नहीं होगा.सिर्फ चुनाव आने की देरी है.
बुधवार, 19 मई 2010
वो सुबह कभी तो आयेगी
मैंने देखा है, पाया है, अनुभव किया है कि,
मेरे चाहने, प्रयास करने, चीखने-चिल्लाने से;
नहीं बदल रहे हालात, नहीं खत्म हो रही बदईन्तजामी ;
तो क्या मैं चाहना ही बंद कर दूं, दिल और दिमाग को
चुप्पी साध लेने को कह दूं,
छोड़ दूं देखना सपना, स्वीकार कर लूं नियति को;
मेरे सपने, बहुत छोटे से सपने हैं,
किसी भी ईमानदार आदमी की आँखों में
पलनेवाले सपने;
जिन्हें भ्रष्टाचार के ढोर चरने में लगे हैं;
मैंने देखा है सपना कि रसोई गैस की कालाबाजारी
बंद हो गई है,
और एजेंसीवाला ग्राहक को समय पर गैस दे रहा है;
मैंने देखा है सपना कि प्रखंड, जिला और राज्य
कार्यालयों के कर्मी और अधिकारी,
बिना किसी सुविधा-शुल्क लिए ही कर रहे हैं
निर्गत सभी तरह के प्रमाण-पत्र;
मैंने देखा है सपना कि संसद और विधानसभाओं
के किसी भी सदस्य पर कोई आपराधिक मामला
दर्ज नहीं है;
मैंने देखा है अपने स्वप्न में कि,
मुकदमा लड़ने के लिए नहीं बेचनी पड़ती
भैंस चेथरू पासवान को;
और सारे-के-सारे जजों ने घूस लेना
छोड़ दिया है और दूध को दूध
और पानी को पानी करने में लग गए हैं;
मैं देखता हूँ सपने में कि
हिंदी अब सरकारी रखैल नहीं है
और बन गई हैं भारत की राजभाषा,
साथ ही हिंदी के रचनाकार नहीं रह गए हैं
पिछलग्गू समीक्षकों-संपादकों के;
मैं देखता हूँ कि वर पक्ष
वधू पक्षवालों के आगे खड़ा है
हाथ जोड़े अकिंचन भाव से,
और नहीं मांग रहे दहेज़
मैं देखता हूँ कि प्रेस निष्पक्ष
हो गया है और
बिना पैसे लिए छापी जा रही
हैं गरीबों से सरोकार रखनेवाली ख़बरें;
सपने अनगिनत हैं और अधूरे सपनों में उग आये
हैं कांटे हकीकत के,
चुभने लगे हैं सपने मेरी आखों को;
फ़िर भी भले ही करना पड़ रहा है एक
लम्बा इंतजार मुझे,
पर पूरी तरह नाउम्मीद भी नहीं हूँ मैं;
मुझे अब भी उम्मीद है कि मेरी ज़िन्दगी
में कभी-न-कभी आएगी उस दिन की सुबह
जब मेरे सारे-के-सारे सपने सच हो चुके होंगे.
सोमवार, 17 मई 2010
देश में विधि का शासन सुनिश्चित करे केंद्र
अगर मुझसे कोई पूछे कि अंग्रेजो की भारत को सबसे बड़ी देन क्या है तो मैं एक क्षण का विलम्ब किये बिना कहूँगा विधि का शासन.अंगरेजी शासन ने घोषित किया कि ब्रिटिश भारत में अब विधि का शासन होगा यानी कानून की नज़र में सब बराबर होंगे.अंग्रेजों ने काफी हद तक इसे सुनिश्चित भी किया.आजादी के बाद के कुछ सालों तक विधि का शासन कायम रहा.लेकिन आज देश में किसी भी तरह से विधि का शासन नहीं है.जो अपराधी जितने बड़े रसूखवाला है कानून के शिकंजे से वह उतना ही सुरक्षित है.न्याय मिलने में इतनी देर लग रही है कि न्यायपालिका का कोई मतलब ही नहीं रह गया है.वह पूरी तरह निरर्थक हो चुकी है.सी.बी.आई. और राज्य पुलिस सहित सभी जाँच और अभियोजन एजेंसियां राजनीतिज्ञों के ईशारों पर काम कर रही हैं ऊपर से इनमें भ्रष्टाचार का व्यापक पैमाने पर बोलबाला है.किसी मामले में जब अभियोजन एजेंसी ही अपराधी का बचाव करने लगती है तब न्यायपालिका के पास उसे बरी कर देने के अलावा और विकल्प भी क्या बचता है?सिख-विरोधी दंगे के आरोपियों को घटना के २६ साल बाद भी सजा नहीं मिल पाई है और न्यायपालिका और अभियोजन पक्ष के बीच आँख-मिचौनी का खेल बदस्तूर जारी है.भोपाल गैस दुर्घटना सहित सैकड़ों दशकों पुराने मामलों में पीड़ितों को न्याय मिलने का इंतजार है.क्या उनका इंतजार अंतहीन साबित होगा?
अब भारतीय राजनीति में एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है.दलित राजनीतिज्ञों को जैसे भ्रष्टाचार का विशेषाधिकार मिल गया है.राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष बूटा सिंह के परिवार पर रिश्वत खाने का आरोप लगता है और वह पदच्युत करने पर आत्महत्या कर लेने की धमकी देते हैं.मामले को दलित राजनेता से सम्बद्ध होने के चलते दबा दिया जाता है.इसी प्रकार संचार मंत्री राजा को प्रमाण होने के बावजूद भ्रष्टाचार के आरोपों से अभयदान मिल जाता है क्योंकि वे जन्मना दलित हैं.मायावती तो दलितों को मिले भ्रष्टाचार के विशेषाधिकार की प्रतीक ही बन गई हैं.सरकार को चाहिए कि वह इन राजनेताओं को इनके अपराधों के लिए सजा सुनिश्चित करे या फ़िर संविधान और आई.पी.सी. में परिवर्तन कर उसमें इस तरह के प्रावधान डाल दे जिससे कि सभी दलितों को भ्रष्टाचार का विशेषाधिकार मिल जाए.आखिर इस अघोषित अधिकार का लाभ सिर्फ राजनेता ही क्यों उठायें?साथ ही केंद्र को संविधान में संशोधन कर इस बात की स्पष्ट घोषणा कर देनी चाहिए कि भारत में विधि का शासन नहीं है बल्कि यहाँ जिसकी लाठी उसकी भैंस चरितार्थ हो रही है अथवा वह देश में वास्तविक रूप से विधि का शासन सुनिश्चित करे.यदि ऐसा हो जाता है और भारतीय लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ भली-भांति अपना कार्य करने लगते हैं तो यह कहना किसी भी तरह से अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत में रामराज्य आ जायेगा और अगर ऐसा नहीं होता है तो देश धीरे-धीरे अराजकता की धुंध में खो जायेगा.
शनिवार, 15 मई 2010
फ्लैट रेट समाप्त किया जाए
अपना देश विरोधाभासों का देश है और सबसे अधिक विरोधाभास अगर कहीं है तो वह है हमारे नेताओं और सरकारों की कथनी और करनी में.एक तरफ हमारे संविधान की प्रस्तावना में भारत को समाजवादी राज्य घोषित कर दिया गया है वहीँ दूसरी ओर हमारी सरकार की नीतियाँ पूरी तरह पूंजीवाद को बढ़ावा देनेवाली हैं.देश जब आजाद हुआ तो उम्मीद थी कि खनिज सम्पदा से भरपूर पिछड़े राज्यों का अब तीव्र गति से विकास होगा.परन्तु हमारे देश के पूंजीपति पिछड़े ईलाकों में जाने और पूँजी लगाने को तैयार नहीं थे वहां महानगरीय सुविधाओं का अभाव जो था.उन्होंने कथित समाजवादी भारत की केंद्र सरकार पर दबाव बनाया.सरकार तो पूंजीपतियों के दबाव में आने के लिए हमेशा व्यग्र तो रहती ही है.सो देश में फ्लैट रेट प्रणाली लागू कर दी गई.इसमें प्रावधान था कि उद्योगपतियों को देश में कहीं से कहीं भी खनिज की ढुलाई क्यों न करनी हो रेल भाड़ा एकसमान ही लगेगा.अब पूंजीपतियों के लिए खनिज उत्पादक क्षेत्रों में उद्योग लगाने की अनिवार्यता समाप्त हो गई.जो उद्योग झारखण्ड (तब के बिहार),बंगाल और छत्तीसगढ़ (तब के मध्य प्रदेश) में लगना था अब दिल्ली और मुंबई के आसपास लगने लगे.विस्थापित हुए वनवासी और आदिवासी और लाभ हुआ पंजाब,हरियाणा और महाराष्ट्र-गुजरात के लोगों को.जो रोजगार इन राज्य के लोगों को मिलना था मिला समृद्ध राज्य के निवासियों को.समृद्ध ईलाके और भी समृद्ध होते चले गए और पिछड़े ईलाके पिछड़ते गए.इसे ही तो कहते हैं माल महाराज के मिर्जा खेले होली.ऐसा भी नहीं था कि इन जगहों पर रहनेवाले लोग वस्तुस्थिति को समझ नहीं रहे थे उनमें नाराजगी का उत्पन्न होना भी स्वाभाविक था.नाराजगी को हवा दे दी नक्सलियों ने और आदिवासियों के हाथों में बन्दूक थमा दी.यह कोई संयोग नहीं है जिन क्षेत्रों में खनिज प्रचुरता से मिलते हैं नक्सलवाद भी उन्ही ईलाकों में ज्यादा है.अगर केंद्र सरकार एकसमान भाड़ा प्रणाली को जितनी जल्दी हो सके समाप्त कर देती है तो निश्चित रूप से यहाँ के निवासियों की एक चिरप्रतीक्षित मांग पूरी हो जाएगी जिससे उनकी आहत भावनाओं को मरहम लगेगा और उनका नक्सली गनतंत्र के बदले भारतीय गणतंत्र में विश्वास बढेगा.इन क्षेत्रों में आधारभूत संरचना का विकास होगा और यहाँ के युवकों को रोजगार मिलेगा.सरकार अगर वास्तव में नक्सली उग्रवाद को जड़ से समाप्त करना चाहती है तो उसे यह शुभ काम जल्दी-से-जल्दी कर लेना चाहिए.अन्यथा भारत तो विरोधाभासों का देश है ही.
गुरुवार, 13 मई 2010
कुत्तों की आमसभा
भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा यादव-बंधुओं को कुत्ता कह देने से नाराज पूरे भारत के कुत्तों ने पटना के बांसघाट पर रात के १२ बजे आमसभा का आयोजन किया.वे नेताओं द्वारा एक-दूसरे के लिए कुत्ता शब्द के प्रयोग से आहत थे और उनका मानना था कि ऐसा होने से इस पूरी सम्मानित जाति का अपमान होता है क्योंकि वे नेताओं की तरह बेवफा नहीं होते.उन्हें तो वफ़ादारी का पर्याय ही माना जाता है.अपने स्वागत भाषण में हाजीपुर के कोनहारा घाट से आये और पुलिस द्वारा फेंकी गई अधजली लावारिस लाशों को खाकर हृष्ट-पुष्ट अपने नामानुसार गुणों को धारण करनेवाले वृद्ध टाईगर ने अपनी गंभीर आवाज में सभा की शुरुआत करते हुए कहा कि यह आमसभा संख्या की दृष्टि से अभूतपूर्व है.पिछली बार जब १९७५ में शोले फिल्म में धर्मेन्द्र द्वारा कुत्तों के अपमान पर बैठक बुलाई गई थी तब यातायात और संचार के साधनों के अविकसित अवस्था में होने के चलते काफी कम कुत्ते आ पाए थे.उस समय डाकुओं से हमारी तुलना का हमने उतना बुरा भी नहीं माना था क्योंकि डाकू तो फ़िर भी वफादार होते थे.लेकिन इस बार तो गडकरी ने अपमान की हद ही कर दी है.इसने हमारी तुलना नेताओं से की है जो धोखेबाजी के दम पर ही धंधा चलाते हैं और जब तक जीवित रहते हैं जनता को सिर्फ धोखा देते रहते हैं.
सभा की अध्यक्षता करते हुए चेन्नई से दल-बल के साथ पधारे मुत्तुकुमरण ने अपने उदबोधन में कुत्तों में बढती विषमता पर अपनी चिंता जाहिर की.उन्होंने कहा कि जहाँ कुछ कुत्ते दिन-रात एसी में रहते हैं वहीँ अधिकतर कुत्तों के सिर पर छत तक नहीं है और ईधर-उधर आशियाने के लिए लगातार भटकते रहने के कारण उन्हें आवारा कहा जाने लगा है.उन्होंने नक्सलियों द्वारा कुत्ता जाति के सामूहिक संहार पर गहरा दुःख प्रकट किया और शाप दिया कि सदियों की वफ़ादारी का गोलियों से जवाब देनेवाले नक्सलियों का समूल विनाश हो जाए.
मुख्य अतिथि जम्मू कश्मीर से पधारे शराफत ने केद्र सरकार से मांग की कि चूंकि नेताओं को कुत्ता कहने से पूरी कुत्ता जाति का अपमान होता है अतः ऐसा करनेवालों पर भारतीय दंड संहिता की धारा ४९९ के तहत मानहानि का मुकदमा चलाया जाना चाहिए.लेकिन उन्होंने अभिनेता धर्मेन्द्र की वृद्धावस्था को देखते हुए उन्हें इससे छूट देने की प्रार्थना भी की.
इसी बीच बरसात ने खुले आसमान के नीचे चल रही आमसभा में व्यवधान डाल दिया और आमसभा शराफतजी की मांगों का समर्थन करती हुई अगली सूचना तक स्थगित कर दी गई.
शनिवार, 8 मई 2010
ब्रूटस तुम भी!
कबीर ने कहा था-कबीरा आप ठगाइए और न ठगिये कोई, आप ठगे सुख उपजे और ठगे दुःख होई.उस काल में शायद भारत में इतने ठग और इतनी ठगी नहीं रही होगी जितनी कि आज है.आज कई लोग सिर्फ धोखे के बल पर जीविकोपार्जन कर रहे हैं और उसे बिजनेस का नाम दे रहे हैं.नेता आजादी के बाद से ही जनता को ठग रहे हैं और निश्चित रूप से ठगी के पेशेवरों के बीच उनका नाम आदर से लिया जाना चाहिए.मेरे पिताजी ने कबीर के इस दोहे हो आत्मसात कर लिया है और बार-बार दोहराते रहते हैं.खासकर तब आवृत्ति ज्यादा हो जाती है जब कोई उन्हें ठग लेता है और उन्हें इसका पता चल जाता है.कहते हैं कि आग जबतक लकड़ी में सटती नहीं है तब तक उसे नहीं जला पाती इसलिए यहाँ भी ठगने वाले नजदीकी लोग ही रहे हैं.९० के दशक के आरम्भ में उन्होंने मेरे एक ममेरे भाई को १७ हजार रूपये दिए.भैया ने हाजीपुर में एक जमीन खरीदी थी और उनके अनुसार उस प्लाट में और भी जमीन बिक्री के लिए बची हुई थी.पिताजी आकर प्लाट देख गए और भैया पर विश्वास करके उन्होंने जमीन मालिक से बात तक नहीं की.कई वर्षों तक जब भैया जमीन लिखवाने से नाकर-नुकुर करते रहे तब हमने कथित भूमि विक्रेता से बात की तो पता चला कि भैया ने उससे कभी हमारे बारे में कोई बात ही नहीं की अडवांस पैसा देने की तो बात ही दूर रही.आज तलक हमारा पैसा वापस नहीं हुआ है और भैया आज भी कोई न कोई बहाना बनाते रहते हैं.बाद में जब हम हाजीपुर में रहने लगे तो मेरे एक गाँव के चाचाजी जो शिक्षक हैं ने उनके बताये जमीन लेने की सलाह दी.जब हम प्लाट पर गए तो वहां बगीचा था.संशय प्रकट करने पर उन्होंने कहा कि दो-दो बगल से रास्ता निकाला जा रहा है.खैर हमने अडवांस के नाम पर ५० हजार का चेक काट दिया जो सीधे उनके खाते में गया.रजिस्ट्री के बाद न कहीं रास्ते का पता था और न ही चाचाजी का.वे हमसे दलाली में ५० हजार खा चुके थे.हम जमीन के चक्कर में दोबारा फंस गए थे और फंस गया था हमारा ढाई लाख रूपया.आज तक न तो हम जमीन ही बेच पाए हैं और न ही हमारा अपना आशियाना ही बन पाया है.तीसरी बार भी हम ठगे गए जमीन के चक्कर में ही लेकिन इस बार जमीन पूर्वजों द्वारा खरीदी गई थी.मेरे कोई मामा नहीं है और चचेरे मामा नानी को बहुत प्रताड़ित करते थे इसलिए हमें जब तक नानी जीवित रही ननिहाल में ही रहना पड़ा.सरकार ने बेटियों को संपत्ति में बराबर का हिस्सा दे तो दिया है लेकिन समाज माने तब न.सो हमें मुकदमा लड़ना पड़ा और हम एक दशक पहले ही मुकदमा जीत भी चुके हैं.अब सिर्फ दखल कब्ज़ा का काम बांकी है.हमारा वकील पिताजी का विद्यार्थी रह चुका है.बार-बार हम पिछले दो सालों से इसके लिए तारीख ले रहे थे और वकील कहता रहा कि अमुक कारण से काम नहीं हो पायेगा.हमने न तो कभी उससे कोई रसीद मांगी और न ही पैसों का हिसाब ही माँगा.अभी कल पता चला कि हमारा वकील जानबूझकर मामले को लटकाए रखना चाहता है और बार-बार पैसे लेकर खा जा रहा है.कभी उसने नापी करवाने की कोशिश ही नहीं की.इस बार पिताजी के मुंह से कबीर का दोहा नहीं जुलियस सीजर के अंतिम वाक्य निकले-ब्रूटस तुम भी!शायद इस बार दिल पर लगे घाव ज्यादा गहरे थे.
पादुकोपाख्यानम
आप अपने जूते-चप्पलों से क्या-क्या काम लेते है?जाहिर है कि पैरों में तो पहनते ही होंगे.आज नहीं अपने अविष्कार के समय से ही खुद पर काँटों से लेकर कीलों तक का प्रहार झेलकर हमारे पैरों की पूरे मनोयोग से रक्षा करनेवाले इन बेचारों की हमेशा उपेक्षा की गई है और इनसे सिर्फ पैरों में पहनने का काम लिया जाता रहा है.लेकिन कहते हैं कि कुत्तों के भी दिन आते हैं.तो इनकी उपेक्षा से द्रवित होकर कुछ लोगों ने इनसे एक ऐसा नेक काम लेना शुरू किया है जिसने इनकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगा दिए हैं.वह काम हैं इनसे नेताओं पर निशाना लगाना.हालांकि ज्यादातर निशानेबाज चूंकि अप्रशिक्षित होते हैं इसलिए निशाना चूकने की सम्भावना ही ज्यादा होती है.लेकिन इतना निश्चित है कि यह निशाना नहीं लगा पाने के बावजूद अपने अभ्यासियों को पूरी दुनिया में प्रसिद्ध जरूर कर देता है.अभी तक इस खेल में बिहार पिछड़ रहा था.कोई भी खिलाड़ी आगे नहीं आ रहा था.यह हमारे लिए बड़े ही गर्व की बात है कि कल मुख्यमंत्री नीतीश पर दरभंगा में निशाना लगाकर एक युवक ने बिहार को दुनिया के सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया है हालांकि उसका निशाना भी चूक गया.अब देश ने बांकी खेलों में कौन-सा तीर मार लिया है जो उस अनाड़ी युवक पर दोष लगाया जाए.लेकिन अगर सरकार इस खेल पर थोड़ा-सा ध्यान दे तो हम निश्चित रूप से इस खेल में दुनिया में नंबर एक हो सकते हैं.मेरी सरकार से सभी जूता-चप्पल निशानेबाजों की तरफ से मांग है कि-१.जब भी नेताओं का भाषण हो तो भाषणस्थल पर सबसे आगे का स्थान निशानेबाजों के लिए आरक्षित रखा जाए.२.इस विशेष प्रकार की निशानेबाजी को कानूनी रूप से दंडनीय की श्रेणी से बाहर कर दिया जाए.३.इस खेल में अच्छा प्रदर्शन करनेवाले खिलाड़ियों को ईनाम-पुरस्कार देकर प्रोत्साहित किया जाए.
शुक्रवार, 7 मई 2010
जाति ही पूछो साधू की
दृश्य एक-देश में इंदिरा गाँधी का राज है.जनसँख्या विस्फोट उनकी नजर में देश के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार सबसे बड़ा तत्त्व है.पूरी सरकार जनसँख्या नियंत्रण के लिए कुछ ज्यादा ही प्रयास करती दिख रही है.लोगों की जबरन नसबंदी जोरों पर है.नसबंदी और बंध्याकरण करवानेवाले पुरुषों और स्त्रियों को विशेष प्रोत्साहन राशि दी जा रही है.
दृश्य दो-२०११ की जनगणना शुरू हो चुकी है.पिछड़ों और दलितों की राजनीति करनेवाले नेता केंद्र सरकार से जोरशोर से जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं.अंततः प्रधानमंत्री भी उनकी मांग को मान जाते हैं.पिछड़े और दलित नेताओं को लगता है कि पिछली जाति आधारित जनगणना के समय यानी १९३१ में इन जाति समूहों का देश की जनसँख्या में जितनी हिस्सेदारी थी अब कहीं उससे ज्यादा है.अगर जनगणना का परिणाम इनके अनुकूल आता है जिसकी पूरी सम्भावना भी है तो ये जनसंख्या के हिसाब से अपनी जातियों के लिए आरक्षण करने की मांग करेंगे.यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इंदिरा गांधी के समय और बाद में भी सरकारी प्रचार से और देशभक्ति से प्रभावित होकर सबसे ज्यादा जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को ऊंची जातियों के हिन्दुओं ने अपनाया था.लेकिन ज्यादा अच्छा होना भी कभी-कभी नुकसानदेह हो जाता है.संस्कृत में एक श्लोक है-आपदा आपतंतीनाम हेतुप्यापीतुताम, मातृजंघा हि वत्सस्य स्तम्भि भवति बंधने.यानी समय जब विपरीत हो जाए तो अच्छे कर्म करने पर भी फल बुरे आते हैं.आजादी के बाद से जनसंख्या बढ़ाने में सबसे ज्यादा योगदान दिया है मुसलमानों ने और तत्पश्चात नंबर आता है पिछड़े और दलित हिन्दुओं का.लेकिन लोकतंत्र देशभक्ति और भावनाओं के बल पर नहीं चलता बल्कि सरकारें बनती और गिरती हैं संख्याबल से. इसलिए वे लोग आज की जातिवादी और अल्पसंख्यकवादी राजनीति के युग में फायदे में हैं जिन्होंने जनसंख्या में अंधाधुंध वृद्धि कर देश को नुकसान पहुँचाया है.कुछ लोग कहते हैं कि तेजी से बढती जनसंख्या देश के लिए एक संपत्ति है.निश्चित रूप से जब भी किसी देश की जनसंख्या तेज गति से बढ़ेगी तो युवाओं की आबादी उस देश में ज्यादा होगी.लेकिन क्या भारत के सभी युवाओं को संसाधन या संपत्ति कहा जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं.जब तक युवाओं में उत्पादक कार्यों के लिए गुण विकसित नहीं कर दिए जाते तब तक वे संपत्ति नहीं बल्कि बोझ ही बने रहेंगे.देश में बेरोजगारों की लगातार बढती संख्या से स्पष्ट है कि जनसंख्या में तेज वृद्धि के लिए जिम्मेदार लोगों ने देश का हित नहीं बल्कि अहित ही किया है.
फणीश्वर नाथ रेणु ने आजादी के तत्काल बाद प्रकाशित अपने उपन्यास मैला आँचल में जाति आधारित राजनीति पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि अब तो लोग अपने ललाट पर जाति का नाम लिखवाकर घूमेंगे.कितने दूरदर्शी थे रेणु.६० साल पहले ही देश की भावी राजनीति की दशा और दिशा को परख लिया था.कम-से-कम बिहार और यू.पी. में जातीय पक्षपात की स्थिति इतनी बुरी है कि जिस जाति का आदमी मुख्यमंत्री बनता है अचानक वहां नौकरियों में उन जातियों का प्रतिशत काफी बढ़ जाता है और शराब से लेकर सड़क तक का ठेका उसी जाति के लोगों को मिलने लगता है.इतना ही नहीं बढ़ते जातीय तनाव से बीच-बीच में गृहयुद्ध जैसी स्थिति भी पैदा हो जाती है.कभी-कभी तो जातीय तनाव इतना बढ़ जाता है कि राह चलते अपनी जाति जाहिर करना जानलेवा भी हो जाता है.खैर ये तो हुई तनाव के दिनों की बात. आम दिनों में भी कोई अगर किसी से उसकी जाति पूछे तो हमें अच्छा नहीं लगता लेकिन लगता है इस बार की जनगणना में सरकारी नुमाइंदे आपसे और हमसे अधिकारपूर्वक हमारी जाति का नाम पूछेंगे.मध्य युग में कबीर ने कहा था जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान.लेकिन हमारे नेताओं ने सत्ता हथियाने की होड़ में इस दोहे में भारी उलट-पलट करके इसे कर दिया है जाति ही पूछो साधू की, पड़ा रहने दो ज्ञान.
दृश्य दो-२०११ की जनगणना शुरू हो चुकी है.पिछड़ों और दलितों की राजनीति करनेवाले नेता केंद्र सरकार से जोरशोर से जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं.अंततः प्रधानमंत्री भी उनकी मांग को मान जाते हैं.पिछड़े और दलित नेताओं को लगता है कि पिछली जाति आधारित जनगणना के समय यानी १९३१ में इन जाति समूहों का देश की जनसँख्या में जितनी हिस्सेदारी थी अब कहीं उससे ज्यादा है.अगर जनगणना का परिणाम इनके अनुकूल आता है जिसकी पूरी सम्भावना भी है तो ये जनसंख्या के हिसाब से अपनी जातियों के लिए आरक्षण करने की मांग करेंगे.यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इंदिरा गांधी के समय और बाद में भी सरकारी प्रचार से और देशभक्ति से प्रभावित होकर सबसे ज्यादा जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को ऊंची जातियों के हिन्दुओं ने अपनाया था.लेकिन ज्यादा अच्छा होना भी कभी-कभी नुकसानदेह हो जाता है.संस्कृत में एक श्लोक है-आपदा आपतंतीनाम हेतुप्यापीतुताम, मातृजंघा हि वत्सस्य स्तम्भि भवति बंधने.यानी समय जब विपरीत हो जाए तो अच्छे कर्म करने पर भी फल बुरे आते हैं.आजादी के बाद से जनसंख्या बढ़ाने में सबसे ज्यादा योगदान दिया है मुसलमानों ने और तत्पश्चात नंबर आता है पिछड़े और दलित हिन्दुओं का.लेकिन लोकतंत्र देशभक्ति और भावनाओं के बल पर नहीं चलता बल्कि सरकारें बनती और गिरती हैं संख्याबल से. इसलिए वे लोग आज की जातिवादी और अल्पसंख्यकवादी राजनीति के युग में फायदे में हैं जिन्होंने जनसंख्या में अंधाधुंध वृद्धि कर देश को नुकसान पहुँचाया है.कुछ लोग कहते हैं कि तेजी से बढती जनसंख्या देश के लिए एक संपत्ति है.निश्चित रूप से जब भी किसी देश की जनसंख्या तेज गति से बढ़ेगी तो युवाओं की आबादी उस देश में ज्यादा होगी.लेकिन क्या भारत के सभी युवाओं को संसाधन या संपत्ति कहा जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं.जब तक युवाओं में उत्पादक कार्यों के लिए गुण विकसित नहीं कर दिए जाते तब तक वे संपत्ति नहीं बल्कि बोझ ही बने रहेंगे.देश में बेरोजगारों की लगातार बढती संख्या से स्पष्ट है कि जनसंख्या में तेज वृद्धि के लिए जिम्मेदार लोगों ने देश का हित नहीं बल्कि अहित ही किया है.
फणीश्वर नाथ रेणु ने आजादी के तत्काल बाद प्रकाशित अपने उपन्यास मैला आँचल में जाति आधारित राजनीति पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि अब तो लोग अपने ललाट पर जाति का नाम लिखवाकर घूमेंगे.कितने दूरदर्शी थे रेणु.६० साल पहले ही देश की भावी राजनीति की दशा और दिशा को परख लिया था.कम-से-कम बिहार और यू.पी. में जातीय पक्षपात की स्थिति इतनी बुरी है कि जिस जाति का आदमी मुख्यमंत्री बनता है अचानक वहां नौकरियों में उन जातियों का प्रतिशत काफी बढ़ जाता है और शराब से लेकर सड़क तक का ठेका उसी जाति के लोगों को मिलने लगता है.इतना ही नहीं बढ़ते जातीय तनाव से बीच-बीच में गृहयुद्ध जैसी स्थिति भी पैदा हो जाती है.कभी-कभी तो जातीय तनाव इतना बढ़ जाता है कि राह चलते अपनी जाति जाहिर करना जानलेवा भी हो जाता है.खैर ये तो हुई तनाव के दिनों की बात. आम दिनों में भी कोई अगर किसी से उसकी जाति पूछे तो हमें अच्छा नहीं लगता लेकिन लगता है इस बार की जनगणना में सरकारी नुमाइंदे आपसे और हमसे अधिकारपूर्वक हमारी जाति का नाम पूछेंगे.मध्य युग में कबीर ने कहा था जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान.लेकिन हमारे नेताओं ने सत्ता हथियाने की होड़ में इस दोहे में भारी उलट-पलट करके इसे कर दिया है जाति ही पूछो साधू की, पड़ा रहने दो ज्ञान.
बुधवार, 5 मई 2010
आधुनिक मानव और आस्था का संकट
मध्ययुग तक एक आम भारतीय सामाजिक मूल्यों और ईश्वर पर इतना अधिक विश्वास रखता था कि लगभग रोजाना उसे इनके नाम पर ठगा जाता था.जब हमारे देश पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया तब लोगों को कथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने का पाठ पढाया जाने लगा.धीरे-धीरे लोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रभावित होने लगे और अन्धविश्वास के कुहासे से बाहर आने लगे लेकिन यह विकास-यात्रा यहीं पर रूक नहीं गई.लोगों के मन से अन्धविश्वास तो दूर हुआ ही विश्वास भी दूर होने लगा चाहे ईश्वर पर विश्वास की बात हो या सामाजिक मूल्यों पर विश्वास की.उपनिवेशवाद के अंत के बाद साम्राज्यवादियों ने उपभोक्तावाद के सिद्धांत को जन्म दिया.अब विज्ञापन के माध्यम से जरूरतें पैदा की जाने लगी.लोग जल्दी ही उपभोक्तावाद की हवा में ऐसे बहने लगे कि इन्सान के बदले पैसा कमाने की मशीन बनकर रह गए.अब न तो नैतिकता का ही कोई मूल्य रह गया और न ही ईमानदारी का.लोग दूसरे तो दूसरे अब अपनी अंतरात्मा को भी धोखा देने लगे.यह दुनिया उम्मीद पर कायम है और उम्मीद का ही दूसरा नाम आस्था है,विश्वास है.आस्था ईश्वर के प्रति जो संसार को चलाता है, आस्था उन मूल्यों के प्रति जो समाज के भली-भांति संचालन के लिए आवश्यक हैं.अगर लोग नास्तिक हो जायेंगे तो वे खुद को ही कर्ता मानने लगेंगे और जब भी असफल होंगे तो निराशा के महासागर में गोते लगाने लगेंगे.जिससे या तो अवसाद में चले जायेंगे या फ़िर आत्महत्या कर लेंगे.इसलिए ईश्वर पर विश्वास मानव के लिए एक जरूरत है.वैसे भी मानव संसार का एक बहुत ही तुच्छ जीव है.उसकी क्षमता की एक सीमा है.इसलिए उसे सबकुछ ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करने चाहिए.इस संसार को कम-से-कम मानव तो नहीं ही चला रहा है कोई-न-कोई ऐसी शक्ति तो है जो संसार का संचालन कर रहा है.अगर मानव संसार का नियामक होता तो न तो ग्लोबल वार्मिंग का खतरा होता और न ही कही कोई प्राकृतिक या अप्राकृतिक दुर्घटना ही होती.अभी कुछ साल पहले ही एक वैश्विक सर्वेक्षण में भारतीयों को दुनिया में सबसे खुश पाया गया था लेकिन अब आकड़े बदल गए हैं.कारण है मूल्यों के प्रति अनास्था में वृद्धि और परिवारों का बिखरना.पहले जहाँ सिर्फ चूल्हे ही साझे नहीं होते थे दिल भी साझे होते थे वहीँ आज का मानव पूरी तरह अकेला है सुख में भी और दुःख में भी.जबकि सुख बाँटने से बढ़ता है और दुःख बाँटने से घटना है.आखिर मानव एक सामाजिक प्राणी जो ठहरा.तब राम का दुःख सिर्फ राम का ही दुःख नहीं होता था बल्कि पूरे अयोध्या का दुःख होता था और इसका उल्टा भी उतना ही सत्य था.जबकि अब लोग सिर्फ अपनी ही चिंता में लगे रहते हैं.अनास्था सिर्फ दुःख में ही वृद्धि कर सकता है.चार दिन की चांदनी फ़िर अँधेरी रात.क्षणिक सुख और चिरकालिक दुःख.मानव शरीर और वस्तुओं के प्रति आस्था का भी यही परिणाम होता है क्योंकि ये स्थायी नहीं बल्कि क्षणभंगुर हैं.इसलिए मानव को ईश्वर और सामाजिक मूल्यों के प्रति अपनी आस्था को बनाये रखनी चाहिए.इसी में उसकी भलाई है.ईश्वर पर अगर वह आस्था रखता है तो इससे उसे ही लाभ होगा ईश्वर को नहीं क्योंकि वह तो नफा-नुकसान के गणित से काफी ऊपर है.
रविवार, 2 मई 2010
नेपाल पर नजर रखे भारत
नेपाल भारत से भौगोलिक रूप से तो सबसे निकट है ही सांस्कृतिक रूप से भी दोनों देशों के सम्बन्ध सदियों से जितने निकट के रहे हैं उतने निकट के और किसी भी देश से नहीं रहे.लेकिन एक बार फ़िर भारत-नेपाल सम्बन्ध पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं.फ़िर से वहां भारत विरोधी माओवादी शक्तियां सिर उठाने लगी हैं. नेपाल की हवाओं में फ़िर से बारूद की सांद्रता बढ़ने लगी है.समय रहते अगर स्थितियों को काबू में नहीं किया गया तो इसमें कोई संदेह नहीं यह देश एक बार फ़िर गृहयुद्ध की आग में झुलस उठेगा.माओवादियों ने उनकी मांगें नहीं माने जाने तक १ मई, २०१० यानी मजदूर दिवस के दिन से अनिश्चितकालीन देशव्यापी हड़ताल का आह्वान कर रखा है.जिसके चलते लगभग पूरे नेपाल में सभी प्रकार की शैक्षिक और आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प पड़ गई हैं.माओवादियों ने प्रधानमत्री से इस्तीफे की मांग तो की ही है साथ ही प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले २२ दलीय गठबंधन को भंग करने की भी उनकी मांग है.मई,२००८ में जब संसद ने ढाई सौ साल पुराने राजतन्त्र को समाप्त कर नेपाल में गणतंत्र की स्थापना की घोषणा की तब भारत में ऐसी उम्मीद जगी थी कि अब नेपाल में स्थाई रूप से शांति स्थापित हो जाएगी.माओवादी नेता प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाया गया और २९ मई, २०१० तक नए संविधान के मसौदे को अंतिम रूप दे देने की समय-सीमा निर्धारित की गई.इस बीच नेपाल में उपजे नए घटनाक्रम में प्रचंड को अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा और माधव कुमार नेपाल प्रधानमंत्री बने.जब से प्रचंड अपदस्थ हुए हैं तभी से वे परेशान चल रहे हैं.दरअसल प्रचंड पूरे नेपाल को लाल रंग में रंगना चाहते हैं और वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा शांतिपूर्ण तरीके से तो संभव नहीं है.इसीलिए उन्होंने फ़िर से नेपाल में विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया है.जिस तरह फ़िर से माओवादी शिविरों में युवाओं को शस्त्र-संचालन का प्रशिक्षण दिया जाने लगा है उससे उनकी आगे की योजनाओं को आसानी से समझा जा सकता है.हालांकि यह नेपाल का आतंरिक मामला है फ़िर भी इसका दूरगामी प्रभाव भारत पर पड़ना निश्चित है.अगर प्रचंड अपने उद्देश्यों में सफल हो जाते हैं तो नेपाल पूरी तरह से चीन के नियंत्रण में चला जायेगा और भारत की नेपाल से लगी हजारों किलोमीटर सीमा असुरक्षित हो जाएगी.जिस समय वहां राजा ज्ञानेद्र को अपदस्थ किया गया उस समय भारत में साम्यवादियों के सहयोग से सरकार चल रही थी.उस समय मनमोहन सरकार ने सत्ता में बने रहने के लिए नेपाल में माओवादियों के बढ़ते प्रभाव की अनदेखी की अन्यथा उसी समय इन्हें कुचला जा सकता था.लेकिन वर्तमान में सरकार पर साम्यवादियों का उस तरह का कोई दवाब नहीं है अतः उसे देश के दूरगामी हितों के लिए अगर जरूरी हो तो नेपाल में सैन्य हस्तक्षेप के विकल्प को भी खुला रखना चाहिए.नेपाल के मामले में बरती गई किसी भी तरह की कोताही दक्षिण एशिया में चीन की स्थिति को तो मजबूत करेगी ही भारतीय नक्सलवादियों के लिए भी यह संजीविनी का काम करेगी जो हमारे लिए सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या बन चुके हैं.
शनिवार, 1 मई 2010
दलालों से सावधान
आपने शहरों में ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों के बाहर एक बोर्ड लगा हुआ अक्सर देखा होगा-कुत्तों से सावधान.लेकिन आपने कहीं भी इस तरह का बोर्ड नहीं देखा होगा कि दलालों से सावधान.जबकि इस प्रजाति के सदस्य तो खतरनाक विशालकाय कुत्तों से भी ज्यादा खतरनाक हैं.इनमें एक साथ कई जानवरों के गुण जो हैं.ये बिल्ली की तरह चतुर हैं और शातिर भी.इनकी बोली कोयल से भी ज्यादा मीठी है और नजर बाज से भी तेज.इतना ही नहीं ये आदमी की तरह धोखेबाज और झूठे भी हैं. मैं अपने एक लेख में पहले ही भारत में पनप रही दलाल संस्कृति के प्रति पाठकों को आगाह कर चुका हूँ लेकिन इन दिनों सबकुछ जानते-समझते हुए भी मैं दलालों से बच नहीं पा रहा हूँ.इन दिनों मेरे शहर हाजीपुर में जमीन की दलाली का व्यवसाय पूरे जोर पर है.मैं ठहरा बेघर सो अगर घर चाहिए तो जमीन तो लेनी ही पड़ेगी.मैंने कई पूर्व परिचितों से संपर्क किया.उन्होंने मेरे लिए प्रयास भी किये लेकिन सबने ५० हजार से लेकर २ लाख तक की दलाली खाने की कोशिश की.इससे पहले मैं अपने गाँव के ही एक शिक्षक से धोखा खा चुका हूँ इसलिए इन मृदुभाषियों पर मेरा विश्वास नहीं जम पाता.वैसे भी लोग हमेशा अपनों से ही धोखा खाते हैं.इसलिए जांचना-परखना मेरी आदतों में शामिल हो चुका है और जैसे ही मुझे संदेह होता है कि मेरे साथ धोखा हो सकता है मैं जमीन लेने से मना कर देता हूँ.अब एक प्लाट को लीजिये दलाल के अनुसार वह प्लाट पूरी तरह से झंझटरहित है लेकिन मुझे पता चला कि प्लाट तो मुक़दमे में फँसा हुआ है.मैंने दलाल से जब पूछा तो उसने मुकदमा होने की बात तो स्वीकार की लेकिन यह भी कहा कि मुक़दमे में जमीन मालिक जीत चुका है.जब हमने उससे डिग्री के कागजात मांगे तो नानुकुर करने लगा.अंत में मैंने उससे मुकदमे का नंबर माँगा.वह कल होकर एक कातिब के साथ प्रकट हुआ.कातिब ने हमें जो डिग्री के कागज़ दिखाए उसके अनुसार दूसरा पक्ष सचमुच मुकदमा हार चुका था.हमने कातिब के द्वारा आश्वस्त करने और मना करने के बावजूद केस नंबर नोट कर लिया.अदालत से पता लगाने पर पता चला कि मुक़दमा अब भी चल रहा है और दोनों पक्षों की ओर से गवाही चल रही है.हमने दलाल को बताया और मिलने को कहा लेकिन दलाल गायब है और अब हमारे पास आने का नाम ही नहीं ले रहा है.यानी इस शहर में आपको बसना है तो आँख-कान के साथ ही दिमाग को भी खुला रखना पड़ेगा अन्यथा आप कभी भी ठगे जा सकते हैं और आपकी जीवनभर की कमाई पानी में जा सकती है.बाद में हमने एक और जमीन के लिए बात की.जमीन की देखभाल एक यादवजी करते हैं और उनका पूरा कुनबा जमीन दलाली के पेशे में लगा हुआ है.उन्होंने जमीन का बाजार मूल्य ८ लाख प्रति कट्ठा बताया और कम कराने के लिए प्रयास करने का वादा किया.लेकिन यह तो शुरुआत भर थी.दो दिन बाद उसने बताया कि भूमिपति जमीन का दाम १० लाख से काम करने के लिए तैयार ही नहीं है.जब हमसे अडवांस में एक लाख रूपये की मांग की गई तो हमारे मन में संदेह उत्पन्न हो गया. हमने जब आस-पास के लोगों से पूछा तो पता चला वह जमीन किसी भी तरह ७ लाख रूपये से ज्यादा की नहीं है और इसमें यादवजी और एक मेरे रिश्तेदार कम-से-कम २ लाख रूपया दलाली खाने के चक्कर में हैं.बहुत पहले मैंने संस्कृत में एक कहानी पढ़ी थी जिसमें चार ठग मिलकर एक बकरा ले जा रहे किसान को यकीन दिला देते हैं कि उसका बकरा बकरा नहीं है बल्कि कुत्ता है और इस प्रकार वह सीधा-सादा किसान ठगा जाता है.मेरे शहर में पांव के नीचे जमीन तलाशनेवालों की स्थितियां भी इससे अलग नहीं है.चार दलाल लोग मिलकर किसी भी जमीन का मूल्य फर्श से अर्श तक पहुंचा सकते हैं और बिडम्बना तो यह है कि ठगा जाने वाला सबकुछ जानते हुए भी सिवाए ठगाने के और कुछ भी नहीं कर पाता है. जिस तरह हरि की लीला अपरम्पार है उनकी कथाएं अनंत हैं उसी तरह दलालों की महिमा भी अपरम्पार है और उनकी कथाएं भी. इसलिए इन लीलाधारियों की कुछ लीलाओं को मैं भविष्य के लिए भी छोड़ रहा हूँ इमरजेंसी के लिए, क्या पता कब मेरे पास बातों की कमी पड़ जाए.