शनिवार, 30 जनवरी 2010
क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ?
बिहार के कई जिलों में इन दिनों आम जनता को एक दिन का दारोगा बनाने की बिहार पुलिस ने मुहिम चला रखी है.उद्देश्य है पुलिस को पीपुल फ्रेंडली बनाना.क्या वास्तव में बिहार पुलिस पीपुल फ्रेंडली बनाने की दिशा में अग्रसर है?कल मैं जब हाजीपुर शहर में था मैंने पुलिस का जो रूप देखा उससे तो ऐसा नहीं लगता.पहली घटना तब की है जब मैं गांधी चौक पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के ए.टी.एम. में पैसा निकालने के लिए पंक्ति में खड़ा था.चूंकि मशीन में बिहार बंद के चलते पैसा डालना संभव नहीं हो सका था इसलिए मशीन १०० रूपये का नोट दे रही थी और पैसा निकालने में काफी समय लग रहा था.सामने आधी सड़क निर्माणाधीन होने के चलते जाम लग रहा था.तभी एक पुलिस के जवान आया और जाम समाप्त करने की कोशिश करने लगा लेकिन अपने तरीके से.साईकिल और रिक्शावालों पर डंडा चलाकर और कार-मोटरसाइकिल वालों से अनुनय-विनय करते हुए.उसका व्यवहार इतना भद्दा था कि मैं खुद भी उसे डांटे बिना रह न सका.वह बूढ़े रिक्शावालों को भी धड़ल्ले से गालियाँ दे रहा था और पहिये से हवा निकाल दे रहा था.खैर मैंने पैसा निकाला और आगे बढ़ गया.करीब दो घन्टे बाद जब मैं गुदरी बाजार से एम. चौक की ओर जा रहा था.अब आप कहेंगे कि किसी चौक का नाम शॉर्ट फॉर्म में क्यों.तो आपको बता दूं कि मस्जिद के ठीक सामने हनुमानजी का मंदिर है.इसलिए मुसलमान इसे मस्जिद चौक और हिन्दू महावीर चौक कहते हैं और इस तरह एक अघोषित समझौते के तहत इसका नाम एम. चौक हो गया है.तो मैं जब एम. चौक के पास था तो वहां जलापूर्ति विभाग की कृपा से सड़क पर पानी लगा हुआ था.जब मैं जलजमाव क्षेत्र के मध्य में था तभी नगर थाने की एक गाड़ी विपरीत दिशा से आती दिखाई पड़ी.इससे पहले भी कई बोलेरो आदि निजी वाहन गुजर चुके थे लेकिन इस ख्याल से कि हम जैसे निरीह पैदलयात्रियों को कीचड़ के छीटे नहीं पड़े ड्राइवरों ने गति धीमी कर दी थी.लेकिन जब पुलिस की गाड़ी गुजरी तो गति घटने के बजाये तेज हो गई.परिणामस्वरूप मेरे कपड़े कीचड़ से सन गए.मैं चिल्लाया भी कि पागल हो गए हो क्या? लेकिन गति कम नहीं हुई.फलस्वरूप अन्य कई पैदलयात्रियों को भी बिन मौसम की होली को अपने कपड़ों पर झेलना पड़ा.भारत के हर पुलिस थाने और चौकी में लिखा रहता है कि क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ?क्या यह तरीका होता है सहायता करने का?बिहार में जनता दरबारों में जितने मामले पुलिस के खिलाफ आते हैं सिर्फ उन सब पर सख्ती से कार्रवाई कर दी जाए तो पुलिस काफी हद तक पीपुल फ्रेंडली हो जाएगी.इस तरह जनता को एक दिन का दरोगा बनाने से कुछ नहीं होनेवाला.भय बिनु होहिं न प्रीति.
बुधवार, 27 जनवरी 2010
गीदड़ का शासन बेहतर!
लोकतंत्र निस्संदेह वर्तमान काल की सबसे अच्छी शासन प्रणाली है.लेकिन यह पूरी तरह निर्दोष हो ऐसा भी नहीं है.कम-से-कम भारतीय लोकतंत्र में समय-समय पर कई बुराइयाँ देखने में आई हैं और समय बीतने के साथ मुखर होती चली गई हैं.सबसे बड़ी समस्या जो पिछले दिनों ज्यादा परेशान करने लगी है वो है शासन का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार और अयोग्य लोगों का मंत्रिमंडल में आ जाना.हमारे यहाँ सबसे ज्यादा मत पानेवाले को विजयी घोषित कर दिया जाता है.कभी-कभी तो १० प्रतिशत या इससे भी कम मत पाकर भी लोग चुनाव जीत जाते हैं.सबसे ज्यादा परेशानी तो तब आती है जब विधान सभा या लोकसभा में किसी भी एक दल को बहुमत प्राप्त नहीं हो.तब शुरू होता है मोलभाव का सिलसिला.सत्ता-प्राप्ति के लिए अयोग्य और भ्रष्ट लोगों से भी हाथ मिला लिया जाता है.इस तरह मोलभाव के बाद जो लोग मंत्री बनते हैं उनमें जिम्मेदारी का भाव बिलकुल भी नहीं होता.वर्तमान केंद्रीय मंत्रिमंडल को ही लें जिसके कई मंत्री अपनी जिम्मेदारी से भागते देखे जा सकते हैं.महंगाई मंत्री शरद पवार कह रहे हैं कि महंगाई के लिए सिर्फ वही जिम्मेदार नहीं हैं वहीं एक और मंत्री कृष्णा तीरथ एक गंभीर गलती होने के बाद कह रही हैं कि ऐसा तो आडवाणी के समय भी हुआ था.अरे बहनजी आडवाणीजी के समय जो हुआ वह अब इतिहास का विषय है और आपने उससे कोई सीख नहीं ली यह शर्म का विषय है.उस काल खंड से आप क्यों तुलना कर रही हैं!जब मंत्रियों में जिम्मेदारी का भाव ही नहीं रहेगा तब फ़िर अच्छा शासन कैसे देखने को मिलेगा.यहीं कारण है कि विदेश नीति से लेकर अर्थ नीति तक प्रत्येक मोर्चे पर सरकार विफल है और देश में अराजकता का माहौल उत्पन्न हो रहा है.हमने सामान्य ज्ञान की किताबों में पढ़ा था कि मध्यकाल में १२ साल तक भारत के ही किसी राज्य में एक गीदड़ ने शासन किया था.शायद उसका शासन भी वर्तमान शासन से बेहतर रहा होगा.
आधे मन से उठाया गया अधूरा कदम
महंगाई ने भले ही आम भारतीयों का जीना मुहाल कर दिया हो केंद्र सरकार के लिए यह सियासत से ज्यादा कुछ भी नहीं है.तभी तो वो इससे निपटने के लिए मूर्खतापूर्ण कदम उठा रही है जिसका निष्फल होना पहले से ही तय है.केंद्र सरकार ने अजीबोगरीब कदम उठाते हुए जनवरी और फरवरी महीने में भारत के प्रत्येक कार्डधारी को जन वितरण प्रणाली के माध्यम से १० किलोग्राम अनाज देने का निर्णय लिया है.इस योजना के द्वारा गेहूं १०.८० रूपये प्रति किलो और चावल १५.३७ रूपये प्रति किलो की दर से उपलब्ध कराया जायेगा.अन्त्योदय और बीपीएल परिवारों को भी इसी दर पर अनाज उन्हें प्रत्येक महीने मिलनेवाले अनाज के अतिरिक्त दिया जायेगा.मनमोहन सिंहजी जिन गरीबों को पहले से २-३ रूपये किलो गेहूं-चावल मिल रहा हो वे क्यों इतने ऊंचे दामों पर अनाज उठाएंगे?दूसरी बात जो भी गेहूं उत्पादक क्षेत्र हैं वहां यह इससे भी कम मूल्य पर मंडी में यूं ही मिल रहा है, फ़िर क्यों उन इलाकों में रहनेवाले लोग यह अनाज लेने को तैयार होंगे?ठीक यही बात चावल उत्पादक इलाकों के लोगों के साथ भी लागू होती है.प्रधानमंत्रीजी यह योजना तो पहले से ही असफल है और इस योजना का ज्यादातर अनाज कालाबाजार में पहुँच जानेवाला है.प्रधानमंत्रीजी आप और आपके सहयोगी या तो मूर्ख हैं या फ़िर अपने को बहुत चालाक और जनता को महामूर्ख समझते हैं.
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
नीरो की बंशी और मनमोहन सरकार
किताबों में लिखा है कि जब रोम जल रहा था तब नीरो चैन की बंशी बजा रहा था.नीरो बंशी बजाना जानता था इसलिए बंशी बजाता था अब हमारे प्रधानमंत्री तो बंशी बजाना जानते नहीं इसलिए जब भारत के गरीब महंगाई की आग में जल रहे हैं तब वे ऊँघने और सोने में लगे हैं.कुछ मिनट की फ़ुरसत मिली नहीं कि लगे ऊँघने और सोने.कहा तो यह भी जाता है कि घोड़ा बेचने के बाद गहरी नींद आती है .लेकिन मनमोहन जी का तो दूर-दूर तक घोड़ों से कुछ भी लेना देना नहीं है .कल जब विपक्षी दल भाजपा के नेताओं ने उन्हें जगाया तो वे बोले यार हमें भी मालूम है कि देश में महंगाई बढ़ रही है और शाम होते-होते एक सरकारी कमेटी बनाने की घोषणा भी कर दी गई जो महंगाई से निपटने में सरकार की सहायता करेगी. इस सरकार की सबसे बड़ी विशेषता भी तो यही है कि ये कमेटी बहुत जल्दी बनाती है और फ़िर सारी जिम्मेदारी उसके हवाले करके प्रधानमंत्रीजी निद्रालीन हो जाते हैं.इसी सरकार में एक मंत्री हैं शरद पवार.उनकी ही जिम्मेदारी है महंगाई पर नियंत्रण रखने की.लेकिन वे अपनी इस जिम्मेदारी को भूलकर भविष्यवाणियाँ करने में लगे हैं.और उनकी भविष्यवाणी हमेशा किसी खाद्य वस्तु के दाम बढ़ने के बारे में होती है.लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि दाम घटेंगे कब तब वे कहते हैं मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ जो बता दूं.सरकार चाहे तो मौद्रिक उपाय भी कर सकती है.लेकिन उसे ऐसा करने से उद्योगपति-पूंजीपति रोक रहे हैं.इससे ऋणों पर ब्याज दर जो बढ़ जाएगी और उनके लिए व्यापार करना ज्यादा महंगा हो जायेगा.सरकार जब कुछ कर ही नहीं सकती सिवाय कमेटी बनाने के तो कह दे कि हे जनता-जनार्दन यह रोग मेरे बस का नहीं है आपही इससे निपटिये.प्रधानमंत्री जी का यह भी दावा है कि किसानों को ज्यादा अच्छा मूल्य मिलने के कारण दाम बढ़ रहे हैं.कितना बड़ा झूठ है ये!असली लाभ तो बिचौलिए ले जाते है.हरी मिर्च जो हमारे हाजीपुर में २० रूपये किलो बिकती है किसानों को आढ़ती इसके बदले सिर्फ सात रूपये किलो का दाम देते हैं.हरी मिर्च का दाम किसने बढाया किसानों ने या इन बिचौलियों ने?कल फ़िर महंगाई विभाग के मंत्री ने अपना छोटा मुंह खोला और बड़ी बात कही कि चूंकि उत्तर भारत में दूध का उत्पादन कम हो गया है इसलिए उसका दाम बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव पड़ रहा है. ठण्ड में मवेशी दूध देना कम कर देते हैं, यह जानी हुई बात है.माना कि सरकार पर दबाव है दाम बढ़ाने का. क्या उस पर दाम घटाने का दबाव नहीं है?क्यों वह मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हित में ब्याज दर बढा नहीं रही है?ऐसा नहीं कि गरीबों के बारे में यह मनमोहिनी-जनमोहिनी सरकार नहीं सोंचती है.उसने नरेगा योजना चलाई है लेकिन इसके अन्तर्गत काम हो रहा है कि नहीं देखना किसकी जिम्मेदारी है.गरीबी हटाने की योजनायें पैसे के अभाव में फेल नहीं होती, वो फेल होती है निगरानी के अभाव में.अगर ऐसा नहीं होता तो आज आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत में इतनी गरीबी नहीं होती.तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की ७७ % आबादी २० रूपये प्रतिदिन से भी कम में गुजारा कर रही है.पिछले डेढ़ साल में जिस रफ़्तार में महंगाई बढ़ी है उसने इस ७७ % जनसंख्या की थाली में जीने लायक भोजन भी नहीं छोड़ी है.उदाहरण के लिए दिल्ली में पिछले साल जनवरी में जो टमाटर १० रूपये किलो था इस साल २० से भी ऊपर है.एक साल में दोगुना.चीनी सहित अन्य सभी खाद्य पदार्थों के दाम भी इसी रफ़्तार से बढे हैं.जब मानसून सामान्य नहीं रहा तभी चीनी सहित सभी खाद्य पदार्थों का आयात कर लेना चाहिए था.लापरवाही की हद तक देरी क्यों की गई?पिछले दो सालों में ४८ लाख टन चीनी के सस्ते दामों पर निर्यात की अनुमति सरकार ने क्यों दी जबकि गन्ने और खाद्यान्नों-दलहनों-तिलहनों की उपज में कमी आने की पूरी आशंका थी? मैं जानता हूँ कि पवार और मनमोहन के पास इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं है.लेकिन कथित रूप से आम आदमी की इस सरकार को पॉँच साल बाद आम आदमी के पास जाना भी पड़ेगा और तब इन सवालों के जवाब देने ही होंगे. तब वह इन प्रश्नों से भाग नहीं पायेगी.
बुधवार, 20 जनवरी 2010
महाराष्ट्र सरकार का देशविरोधी कदम
देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि कांग्रेस ने देश को आजाद कराया.इसके पीछे कांग्रेस पार्टी का क्या उद्देश्य था?आजादी या सत्ता प्राप्ति.वर्तमान काल में उसकी सरकारें जो करती हुई दिखाई देती हैं उससे तो लगता है कि तब के कांग्रेस नेताओं का चाहे जो भी उद्देश्य रहा हो अब के कांग्रेसियों का एकमात्र उद्देश्य कुर्सी प्राप्त करना और उसे बरक़रार रखना है चाहे देश टूट ही क्यों न जाए.उस महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने जहाँ की मिट्टी ने देश को तिलक जैसा राष्ट्रवादी दिया आज देश को तोड़ने वाला घातक कदम उठाया है.उसने फैसला लिया है कि महाराष्ट्र की राजनीतिक और देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में अब उसी टैक्सी ड्राईवर को गाड़ी चलाने का परमिट दिया जायेगा जो १५ साल से महाराष्ट्र में रह रहा हो.इतना ही नहीं अब उसे ही परमिट दिया जायेगा जो मराठी लिखना और पढना जानता हो.मुंबई में हर साल लगभग ४००० नए परमिट जारी किये जाते हैं.महाराष्ट्र सरकार चाहे जो भी दलील दे उसने हिंदीभाषियों के प्रति दुर्भावना के कारण ही ऐसा कदम उठाया है.यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मुंबई के अधिकांश टैक्सी ड्राईवर गैर मराठी यानी हिंदीभाषी हैं.ये वे लोग हैं जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता और मजबूरी में जीवन रक्षा के लिए अपने घर को छोड़कर दूसरे राज्यों का रूख करते हैं.वे कोई शौक से मुंबई नहीं जाते हैं और न ही इतना पैसा कमाते हैं जिससे मराठियों के जीवन और जीवन स्तर पर खतरा उत्पन्न हो जाए.वैसे भी उसके द्वारा उठाया गया यह कदम भारतीय संविधान के अनुच्छेद १६ (२), १९ (d), (e) और (f) का खुला उल्लंघन तो है ही उच्चतम न्यायालय द्वारा गोलकनाथ-केशवानंद भारती एवं दूसरे मामलों में दिया गए संविधान के मौलिक ढांचें में बदलाव पर लगाये रोक सम्बन्धी निर्णय का भी उल्लंघन है.भारतीय संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को उपरलिखित अनुच्छेदों के द्वारा भारत में कहीं भी जाने, रहने-बसने और नौकरी-व्यवसाय करने का मौलिक अधिकार देता है. अब अगर केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार में थोड़ी सी भी नैतिकता बची है तो महाराष्ट्र की अपनी ही पार्टी की सरकार को यह आदेश वापस लेने को बाध्य करे.अगर राज्य सरकार न माने तो धारा ३५५ और ३५६ का प्रयोग कर राष्ट्रपति शासन लगाये.वैसे भी प्रधानमंत्री सहित पूरे मंत्रिमंडल राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुरक्षित रखने की शपथ भी पदभार ग्रहण करते समय दिलाई जाती है.देश बचेगा तभी हम बचेंगे और देश तभी बचेगा जब एक रहेगा.पहले भी जब भारत बँटा हुआ था तब हमलावरों के लिए सबसे आसान और असहाय लक्ष्य था और सैंकड़ों साल तक गुलाम भी रहा.वर्तमान घटनाक्रम को देखते हुए सबसे अच्छा होता कि मुंबई को केंद्रशासित प्रदेश बना दिया जाता और महाराष्ट्र की राजधानी किसी और शहर में स्थानांतरित कर दी जाती.
विकास यात्रा या पर्यटन
लोकतंत्र की जन्मभूमि वैशाली में चार दिन बिताकर बिहार के मुख्यमंत्री वापस पाटलिपुत्र चले गए और फ़िर से सबकुछ पहले जैसा हो गया.ठीक उसी तरह जैसे पानी में ढेला फेंकने पर उत्पन्न विक्षोभ थोड़ी देर में ही शांत हो जाया करते हैं.इस बीच उन्होंने वाल्मीकि रामायण में श्वेतपुर नाम से उल्लेखित चेचर के ऐतिहासिक मंदिर में पूजा-अर्चना की, बरेला चौर में (जिसे वे लोग झील भी कह लेते हैं जिन्हें यह मालूम नहीं है कि कमोबेश पूरा उत्तर बिहार ही कुछ महीने के लिए झील बन जाता है.) नौका विहार किया और जाने से पहले अनुशासित होकर पंक्तिबद्ध होकर विकास की राह में उपेक्षित, ठगी-सी खड़ी जनता-जनार्दन की समस्याओं को सुना वो भी अपने तरीके से यानि जनता दरबार लगाकर.अब वैशाली की जनता की कितनी समस्याओं को नीतीश दूर कर पाते हैं यह तो उनकी गंभीरता पर निर्भर करता है.अगर नेताओं के सिर्फ दौरा-यात्रा करने से विकास हो जाता तो बिहार की सड़कें कोलतार और सीमेंट की नहीं बल्कि चांदी की होती.पिछले साल बिहार की जिन-जिन जगहों पर नीतीशजी का विकास दौरा हुआ था और एक साथ दर्जनों शिलान्यास किये गए थे कहीं भी काम शुरू तक नहीं हुआ है न ही जनता दरबार में उठी किसी समस्या को ही दूर किया जा सका है.अगर वैशाली के साथ भी ऐसा ही हुआ है जिसकी पूरी सम्भावना भी है तब जनता की गाढ़ी कमाई में से करोड़ों रूपये विकास यात्रा के नाम पर बर्बाद करने के लिए जनता उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगी और जनता अगर उनके झांसे में आ भी जाए तो इतिहास तो उन्हें माफ़ नहीं ही करेगा.वैसे भी राजनीति की दुनिया में कथनी और करनी के बीच का सम्बन्ध कभी का टूट चुका है.
रविवार, 17 जनवरी 2010
नीतीश सरकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
बिहार में इन दिनों रामराज्य है.यह कहना है बिहार की मीडिया का.भले ही नीतीश कुमार पर हत्या के मामले में सम्मन जारी हो या फ़िर दवा घोटाले में मुकदमा दर्ज कराया जाए क्या मजाल कि बिहार से प्रकाशित किसी भी प्रमुख समाचार पत्र में इस बारे में एक भी पंक्ति छप जाए.ऐसा नहीं है कि यहाँ के सभी पत्रकारों को सरकार ने खरीद लिया हो.कुव्यवस्था सम्बन्धी समाचार वे बराबर भेजते हैं.हाँ यह अलग बात है कि उन्हें छापा नहीं जाता.संविधान के अनुच्छेद १९ क के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है.प्रेस की स्वतंत्रता भी इसी में निहित है.संविधान के अनुसार भले ही प्रेस स्वतंत्र हो बिहार में वह हरगिज स्वतंत्र नहीं है.इसके लिए नीतीश सरकार की नीतियां तो जिम्मेदार है ही कहीं-न-कहीं प्रेस संस्था भी जिम्मेदार हैं.बिहार सरकार ने अपने पास अनियंत्रित अधिकार रखें हैं कि वह जब चाहे तब किसी भी मीडिया संस्थान का विज्ञापन बिना कारण बताये रोक सकती है.इस तथ्य से सभी वाकिफ हैं कि अखबारों की आमदनी में मुख्य हिस्सा सरकारी विज्ञापन का ही होता है.ऐसे में कोई भी अख़बार तब तक सरकार के खिलाफ समाचार छापने का दुस्साहस नहीं कर सकता जब तक उसमें आर्थिक हानि उठाने का साहस न हो.वैसे भी अख़बार अब मिशन की जगह प्रोफेशन बन चुके हैं यानी धंधा मात्र.ऊपर से नीतीश सरकार उन्हें फांसने के लिए दोनों हाथों से जनता का धन विज्ञापन में लुटा रही है.उदाहरण के लिए सरकार के चार साल पूरा होने के अवसर पर बिहार के सबसे बड़े अख़बार हिंदुस्तान में १० पृष्ठों का सरकारी विज्ञापन प्रकाशित किया गया.दैनिक जागरण के पटना संस्करण को 9 पृष्ठों और दिल्ली संस्करण को ८ पृष्ठों का विज्ञापन प्राप्त हुआ.राष्ट्रीय सहारा भी इस मौके पर खासे लाभ में रहा और उसे पांच फुल और तीन हाफ पृष्ठों का विज्ञापन मिला.इतना ही नहीं बिहार से प्रकाशित होने वाले प्रमुख अंग्रेजी अख़बारों को भी डेढ़-डेढ़ पेज का विज्ञापन दिया गया.और इस प्रकार बिहार सरकार ने जनता का करोड़ों रूपया अपना चेहरा चमकाने में बर्बाद कर दिया.यह दास्ताँ है उस कालखंड की जब मीडिया सरकारी बीन पर नाच रही होती है.लेकिन जब-जब मीडिया ने सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखने की जुर्रत की है तब-तब उसका विज्ञापन रोक दिया गया है.उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के बटाईदारों को केसीसी देने सम्बन्धी बयान को छापने पर हिंदुस्तान का सरकारी विज्ञापन एक-डेढ़ महीने तक रोक दिया गया जिससे उसे करोड़ों रूपये का नुकसान हुआ.इसी तरह ममता बनर्जी के श्वेत पत्र प्रकाशन के समय लालू का बचाव करने को लेकर दैनिक जागरण को सुशासनी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा और उसे भी एक महीने से ज्यादा समय के लिए सरकारी विज्ञापन से वंचित होना पड़ा.कहने का मतलब यह कि बिहार में कलम फिसलने का सीधा अर्थ है सरकारी विज्ञापन पर रोक.पहले जहाँ रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव, रसायन मंत्री रामविलास पासवान द्वारा भी समाचार पत्रों को सरकारी विज्ञापन प्राप्त होता था अब सिर्फ नीतीश जी ही बचे हैं जो सरकारी विज्ञापन दे सकते हैं.दूसरी ओर अख़बारों के मालिकों में वह नैतिक बल भी नहीं है कि वे सरकार को नाराज कर आर्थिक क्षति उठा सकें.उनको तो बैलेंस शीट में बढ़ते लाभ को देखकर ही ख़ुशी होती है. चाहे इसके लिए सरकारी बीन पर नाचना ही क्यों न पड़े और नौकरशाही की लालफीताशाही का निर्मम शिकार बन रहे इस गरीब राज्य के बारे में सबकुछ हरा-हरा क्यों न छापना पड़े.
गुरुवार, 14 जनवरी 2010
चार दिन की चांदनी फ़िर.....................
कल से बिहार के मुख्यमंत्री वैशाली पधार रहे हैं.यहाँ वे तीन दिन रुकेंगे.इससे राज्य को क्या और कितना लाभ मिलेगा यह तो भगवान जाने.हाँ वैशाली जिले का मुख्यालय होने के कारण हाजीपुर के निवासियों को एक लाभ जरूर मिल रहा है.वो भी कल यानि १३ जनवरी से.आप अगर बिहारी होंगे तो समझ भी गए होंगे.फ़िर भी आपको बता देना सही रहेगा.हो सकता है कि आपका अनुमान गलत भी हो.कल से हाजीपुर में बिजली रहने लगी है.ऐसा भी नहीं है कि हमारे शहर में पहले बिजली नहीं आती थी.पर रहती नहीं थी आते ही चली भी जाती थी.अब जब तक मुख्यमंत्री वैशाली में हैं बिजली रहेगी और निश्चित रूप से रहेगी.साथ-साथ इस बात की भी गारंटी मैं दे सकता हूँ कि १८ तारीख से बिजली आएगी रहेगी नहीं.जो लोग इस मामले में गलतफहमी पाल रहे हैं हरगिज ग़लतफ़हमी न पालें.पालने के लिए पालतू और फालतू जानवरों की न तो कल ही कमी थी न तो आज ही कमी है.मैंने लालूजी के समय भी देखा है कि जब भी उनका महनार दौरा होता था बिजली आ जाया करती थी.उधर लालूजी ने पीठ की और इधर बिजली भी उनके अगले दौरे तक के लिए गायब.वहां बिजली आज भी रहने की बात तो दूर आती भी नहीं है सो जाती भी नहीं है.तब मैं महनार में ही रहता था.अब नीतीशजी भी तो लालूजी के ही छोटे भाई ठहरे.सो इस मामले में उनका फ़ॉर्मूला भी लालूजी वाला ही हो तो आश्चर्य कैसा?
जलवायु परिवर्तन और भारतीय कृषि
मेरे इस आलेख का उद्देश्य आप पाठकों को डराना नहीं बल्कि हमारी खेती के सिर पर उमड़ रहे खतरे के बादलों के प्रति आपको आगाह करना है, सचेत करना है.कृषि मानव का सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक कार्य है क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध मानव के अस्तित्व है.भारत जैसे देश के लिए जहाँ की आबादी कृषि कार्यों में लगी है इसका महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है.लेकिन मानव निर्मित प्राकृतिक परिवर्तनों की वजह से कृषि खतरे में है और सबसे ज्यादा खतरा है भारत जैसे विकासशील देशों को क्योंकि इनकी अधिकांश खेती आज भी बरसात पर निर्भर है.भारतीय कृषि वैश्विक ताप वृद्धि से बुरी तरह प्रभावित भी होने लगी है.वर्ष २००८-०९ में भारत में कृषि विकास दर घटकर १.६ प्रतिशत रह गई जबकि वर्ष २००७-०८ में यह ४.९ प्रतिशत थी.वर्तमान वित्तीय वर्ष में भी स्थितियां अनुकूल नहीं हैं और लगभग आधा भारतवर्ष सूखे की चपेट में है.जबकि एक ओर जहाँ भारत को आबादी प्रतिवर्ष २ प्रतिशत की दर से बढ़ रही है वहीँ दूसरी ओर कृषि वृद्धि दर में लगातार कमी आ रही है.१९५५ से २००० के बीच २-३ लाख हेक्टेयर कृषि भूमि आवासीय उपयोग में आ चुकी है.
भारतीय कृषि पर जलवायु परिवर्तन का तात्कालिक प्रभाव-जुलाई-अगस्त तक चलने वाले दक्षिण-पश्चिमी या बारिश का मौसम दरअसल भारतीय कृषि के लिए जीवन रेखा है.व्यापक सन्दर्भ में कहें तो यह बारिश देश की अर्थव्यवस्था की भी जीवन रेखा है क्योंकि भारतीय कृषि पर करीब ६० फीसदी आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है.भारत में कुल १४ करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से ६५ फीसदी मानव सिंचित (जैसे ट्यूब वेळ या नहरी सिंचाई की सुविधा) नहीं है.यह भूक्षेत्र वास्तव में ड्राई लैंड है जो विशुद्ध रूप से वर्षा पर निर्भर है.अगर बारिश नहीं होती है या देरी होती है तो भारत में आधे से ज्यादा खेतिहर जमीन ऊसर रह जाती है.ऐसी स्थिति में सरकार को सूखा घोषित करना पड़ता है जो अकाल से पहले की स्थिति है.भारत हर वक़्त अकाल के कगार पर रहता है.इतिहास में ऐसे कई अकाल दर्ज हैं.विश्लेषकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भारत को बराबर मानसून की अनियमितता को झेलना पड़ सकता है.इस साल भी देश के कुछ इलाकों में बाढ़ आई और कुछ इलाके सूखे रह गए.आईसीएआर के अनुसार मात्र १ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि से भारत में ४० प्रतिशत से ५० लाख टन गेहूं की उपज कम हो जाएगी.जिस तरह धरती के गर्माने का सिलसिला जारी है विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष २०१० से २०३९ के बीच आज के मुकाबले कृषि उत्पादन ४.५ प्रतिशत तक कम हो जाएगी.वहीँ २०७० और २०९९ ई. के बीच तो यह वर्तमान उपज से २५ प्रतिशत तक कम तो जाएगी.इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवेलपमेंट रिसर्च के वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर जलवायु परिवर्तन पर बने अंतरसरकारी पैनल द्वारा जारी कि गई चेतावनी सही साबित होती है तो भारतीय अर्थव्यवस्थ को जीडीपी पर ९ प्रतिशत की गिरावट झेलनी पड़ेगी.क्योंकि इससे चावल और गेहूं की उपज में ४० प्रतिशत तक की गंभीर गिरावट आने की आशंका है.इससे प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता कम होगी जिससे खाद्य असुरक्षा और कुपोषण बढेगा.
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के उपाय-भारत में मौसम में बदलाव के एक प्रमुख प्रभाव के रूप में बाढ़ व सूखे को देखा जा सकता है.तापमान वृद्धि एवं वाष्पीकरण की दर तेज होने के परिणामस्वरुप सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं.मौसमी बदलाव के चलते वर्षा समय पर नहीं हो रही है और उसकी मात्रा में भी कमी आई है.आनेवाले १५ वर्षों में भारत के खाद्यान्न का कटोरा यानि पंजाब और हरियाणा सूखाग्रस्त हो जायेंगे.वहां की धरती में सिंचाई के लिए पानी ही नहीं रह जायेगा.केद्रीय भूमिगत जल बोर्ड की २००७ में जरिएक रिपोर्ट के अनुसार २०२५ में सिंचाई के लिए भूमिगत जल उपलब्धता ऋणात्मक हो जाएगी.उदाहरण के पंजाब में जितना जल जमीन में समता है उससे ४५ प्रतिशत अधिक खींच लिया जाता है.वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार २० से २५ प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए वनों का कटाव उत्तरदायी है.इसलिए वनों के संरक्षण पर विशेष बल दिया जाना चाहिए.जलवायु परिवर्तन के चलते सूखे एवं बढ़ में वृद्धि से पानी की उपलब्धता प्रभावित होगी.भारत वातावरणीय परिवर्तनों से होनेवाली स्थितियों पर नियंत्रण से सम्बंधित योजनाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का करीब ढाई प्रतिशत खर्च करता है जो कि एक विकासशील देश के लिए काफी बड़ी राशि है.भारत में गैर परंपरागत स्रोतों जैसे सूर्य, जल एवं पवन ऊर्जा कि काफी बड़ी सम्भावना है.पवन ऊर्जा पैदा करने की क्षमता में भारत विश्व में चौथे स्थान पर है. इन साधनों के प्रयोग हेतु प्रोत्साहन से भी वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड को सोखने एवं जलवायु-परिवर्तन को कम करने में काफी सहायता मिलेगी.चूंकि पुराने वृक्षों में सीओटू को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए जलवायु-परिवर्तनों के नियंत्रण के लिए प्रत्येक स्तर पर अधिकाधिक वृक्षारोपण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.जलवायु परिवर्तन के कृषि पर तात्कालिक और दूरगामी प्रभावों के अध्ययन की जरूरत है.एक यह कि जलवायु-परिवर्तन से कृषि चक्र पर क्या फर्क पड़ रहा है.दूसरा क्या इस परिवर्तन की भरपाई कुछ वैकल्पिक फसलें लगाकर पूरी की जा सकती है.साथ ही हमें ऐसी फसलें विकसित करनी चाहिए जो जलवायु-परिवर्तन के खतरों से निपटने में सक्षम हों-मसलन ऐसी फसलें जो ज्यादा गर्मी, कम या ज्यादा बारिश सहन करने में सक्षम हों.
भारतीय कृषि पर जलवायु परिवर्तन का तात्कालिक प्रभाव-जुलाई-अगस्त तक चलने वाले दक्षिण-पश्चिमी या बारिश का मौसम दरअसल भारतीय कृषि के लिए जीवन रेखा है.व्यापक सन्दर्भ में कहें तो यह बारिश देश की अर्थव्यवस्था की भी जीवन रेखा है क्योंकि भारतीय कृषि पर करीब ६० फीसदी आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है.भारत में कुल १४ करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से ६५ फीसदी मानव सिंचित (जैसे ट्यूब वेळ या नहरी सिंचाई की सुविधा) नहीं है.यह भूक्षेत्र वास्तव में ड्राई लैंड है जो विशुद्ध रूप से वर्षा पर निर्भर है.अगर बारिश नहीं होती है या देरी होती है तो भारत में आधे से ज्यादा खेतिहर जमीन ऊसर रह जाती है.ऐसी स्थिति में सरकार को सूखा घोषित करना पड़ता है जो अकाल से पहले की स्थिति है.भारत हर वक़्त अकाल के कगार पर रहता है.इतिहास में ऐसे कई अकाल दर्ज हैं.विश्लेषकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भारत को बराबर मानसून की अनियमितता को झेलना पड़ सकता है.इस साल भी देश के कुछ इलाकों में बाढ़ आई और कुछ इलाके सूखे रह गए.आईसीएआर के अनुसार मात्र १ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि से भारत में ४० प्रतिशत से ५० लाख टन गेहूं की उपज कम हो जाएगी.जिस तरह धरती के गर्माने का सिलसिला जारी है विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष २०१० से २०३९ के बीच आज के मुकाबले कृषि उत्पादन ४.५ प्रतिशत तक कम हो जाएगी.वहीँ २०७० और २०९९ ई. के बीच तो यह वर्तमान उपज से २५ प्रतिशत तक कम तो जाएगी.इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवेलपमेंट रिसर्च के वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर जलवायु परिवर्तन पर बने अंतरसरकारी पैनल द्वारा जारी कि गई चेतावनी सही साबित होती है तो भारतीय अर्थव्यवस्थ को जीडीपी पर ९ प्रतिशत की गिरावट झेलनी पड़ेगी.क्योंकि इससे चावल और गेहूं की उपज में ४० प्रतिशत तक की गंभीर गिरावट आने की आशंका है.इससे प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता कम होगी जिससे खाद्य असुरक्षा और कुपोषण बढेगा.
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के उपाय-भारत में मौसम में बदलाव के एक प्रमुख प्रभाव के रूप में बाढ़ व सूखे को देखा जा सकता है.तापमान वृद्धि एवं वाष्पीकरण की दर तेज होने के परिणामस्वरुप सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं.मौसमी बदलाव के चलते वर्षा समय पर नहीं हो रही है और उसकी मात्रा में भी कमी आई है.आनेवाले १५ वर्षों में भारत के खाद्यान्न का कटोरा यानि पंजाब और हरियाणा सूखाग्रस्त हो जायेंगे.वहां की धरती में सिंचाई के लिए पानी ही नहीं रह जायेगा.केद्रीय भूमिगत जल बोर्ड की २००७ में जरिएक रिपोर्ट के अनुसार २०२५ में सिंचाई के लिए भूमिगत जल उपलब्धता ऋणात्मक हो जाएगी.उदाहरण के पंजाब में जितना जल जमीन में समता है उससे ४५ प्रतिशत अधिक खींच लिया जाता है.वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार २० से २५ प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए वनों का कटाव उत्तरदायी है.इसलिए वनों के संरक्षण पर विशेष बल दिया जाना चाहिए.जलवायु परिवर्तन के चलते सूखे एवं बढ़ में वृद्धि से पानी की उपलब्धता प्रभावित होगी.भारत वातावरणीय परिवर्तनों से होनेवाली स्थितियों पर नियंत्रण से सम्बंधित योजनाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का करीब ढाई प्रतिशत खर्च करता है जो कि एक विकासशील देश के लिए काफी बड़ी राशि है.भारत में गैर परंपरागत स्रोतों जैसे सूर्य, जल एवं पवन ऊर्जा कि काफी बड़ी सम्भावना है.पवन ऊर्जा पैदा करने की क्षमता में भारत विश्व में चौथे स्थान पर है. इन साधनों के प्रयोग हेतु प्रोत्साहन से भी वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड को सोखने एवं जलवायु-परिवर्तन को कम करने में काफी सहायता मिलेगी.चूंकि पुराने वृक्षों में सीओटू को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए जलवायु-परिवर्तनों के नियंत्रण के लिए प्रत्येक स्तर पर अधिकाधिक वृक्षारोपण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.जलवायु परिवर्तन के कृषि पर तात्कालिक और दूरगामी प्रभावों के अध्ययन की जरूरत है.एक यह कि जलवायु-परिवर्तन से कृषि चक्र पर क्या फर्क पड़ रहा है.दूसरा क्या इस परिवर्तन की भरपाई कुछ वैकल्पिक फसलें लगाकर पूरी की जा सकती है.साथ ही हमें ऐसी फसलें विकसित करनी चाहिए जो जलवायु-परिवर्तन के खतरों से निपटने में सक्षम हों-मसलन ऐसी फसलें जो ज्यादा गर्मी, कम या ज्यादा बारिश सहन करने में सक्षम हों.
बुधवार, 13 जनवरी 2010
चीनी से परेशान मनमोहन सरकार
आजकल केंद्र की मनमोहिनी-जनमोहिनी सरकार चीनी से परेशान है वो भी दोतरफा.एक तरफ चीनी के मूल्य में बेतहाशा वृद्धि ने उसकी हालत पतली कर दी है वहीँ चीन ईंच-ईंच कर भारतीय भूमि पर कब्ज़ा जमाये जा रहा है.थक हार कर चीनी के आयात का फैसला लिया गया.कितनी विचित्र स्थिति है सरकार चीनी के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रयास नहीं कर रही है बल्कि महंगे दामों पर चीनी आयात करना उसे सुविधाजनक लग रहा है.कुछ महीने पहले जब उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान दिल्ली जा पहुंचे थे तब केंद्र ने उनकी कई मांगें मान ली थी और कई वादे भी किये थे.लेकिन उनमें से न तो कोई मांग अब तक पूरी हुई है और न ही कोई वादा पूरा किया गया है.कृषि मंत्री तो यहाँ तक कह रहे हैं कि मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ जो बता दूं कि चीनी के दाम कब कम होंगे?क्या कृषि मंत्री इस तथ्य से भी अपरिचित हैं कि भारत में गन्ने की खेती में लगातार गिरावट आ रही है क्योंकि वर्तमान समर्थन मूल्य पर किसानों के लिए यह लाभकारी नहीं रह गई है.अब जब उत्पादन ही कम होता जा रहा है तो फ़िर चीनी के दाम बढ़ेंगे या घटेंगे जानने के लिए न तो किसी ऊंची डिग्री की ही जरूरत है और न ही ज्योतिष सीखने की.
जहाँ तक हमारे पड़ोसी देश चीन का प्रश्न है तो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि भारत और चीन दो समानांतर रेखाओं के समान हैं.चीन न तो भारत का मित्र हो सकता है और न है.बरसों पहले भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडिस ने कहा था और बिलकुल ठीक कहा था कि भारत का सबसे बड़ा दुश्मन चीन है न कि पाकिस्तान.बल्कि पाकिस्तान चीन के ही इशारों पर चलता रहा है.अब जब चीन ने विस्तृत भारतीय क्षेत्र पर कब्ज़ा जमा ही लिया है तो भारत के समक्ष विकल्प ही क्या है सिवाय चुप रह जाने के.वर्तमान केंद्र सरकार में वो नैतिक बल नहीं है कि वह चीन से आँखों में आँखें डालकर बात कर सके.यही कारण है कि वो चीनी अतिक्रमण से साफ तौर पर इनकार कर रही है.हाँ अगर दबाव जनता की तरफ से आये तो बात बन सकती है.लेकिन जनता भी तो सांस्कृतिक रीतिकाल का आनंद लेने में लगी है.उसे न तो बढती महंगाई से मतलब है और न ही देश की एकता और संप्रभुता से.
रविवार, 10 जनवरी 2010
ये तो होना ही था
कहते हैं कि जो जैसा करता है वैसा पाता है. साथ ही हर किसी की जिंदगी में अच्छे और बुरे दिन आते हैं.लगता है इन दिनों प्रबंध शिरोमणि अमर सिंह के ग्रह-नक्षत्र ठीक-ठाक नहीं चल रहे हैं.वैसे भी वे जिस रास्ते पर चल रहे थे उसकी कोई मंजिल तो थी नहीं.अमर सिंह जिस पीढ़ी के नेता हैं उस पीढ़ी ने राजनीति से नैतिकता को समाप्त होते अपनी आँखों से देखा है और कहीं-न-कहीं इसके लिए वह जिम्मेवार भी है.अब राजनीतिक मूल्यों में ह्रास में अमर सिंह की हिस्सेदारी कितनी है यह तो वृहद् विश्लेषण का विषय है लेकिन बोये पेड़ बबूल का आम कहाँ से होए कहावत तो शाश्वत है और रहेगी भी.अमर सबसे पहले उत्तर प्रदेश के स्वर्गीय मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह से जुड़े और अपनी प्रबंधन कला से उन्हें खासा प्रभावित कर लिया.श्री सिंह की कृपा से देखते-ही-देखते काल तक फूटपाथ पर सोनेवाला यह आदमी कई फैक्टरियों का मालिक बन बैठा.इसी दौरान उनका परिचय समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव से हुआ और जल्दी ही उन्होंने उन्हें भी मैनेज कर लिया और उनके चहेते बन गए.एक बार तो उन्होंने मुलायम को जोड़-तोड़ के माध्यम से सत्ता में लाने में भी सफलता पा ली.लेकिन अमर के समाजवादी पार्टी में आने और छा जाने का साइड इफेक्ट भी कम नहीं हुआ.बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र और राजबब्बर जैसे दिग्गज और समर्पित साथी बारी-बारी से मुलायम से किनारा करते गए.तब अमर के सितारे बुलंद थे वे मिट्टी भी छूते तो वह सोना हो जाती.लेकिन सब दिन कहाँ एकसमान होते हैं.जनता का मोहभंग होने लगा.परिदृश्य बदला और मुलायम का राजनीतिक भविष्य ही खतरे में नजर आने लगा.मुलायम को लगने लगा कि अमर का साथ लाभ की जगह नुकसान पहुँचाने लगा है और शुरुआत हुई पार्टी में उन्हें किनारे लगाने की जिसकी परिणति उनके इस्तीफे से हुई.अमर ने समय-समय पर अपनी राजनीतिक पहुँच से अमिताभ बच्चन, अनिल अम्बानी और सुब्रत राय सहारा को लाभ पहुँचाया और राजनीति में धनबल के प्रयोग को बढ़ावा दिया.आगे उनके भाग्य में क्या बदा है यह तो विधाता ही जाने फिलहाल तो यही कहा जा सकता है की जो भी हो रहा है वो तो होना ही था.
साधुवाद के पात्र हैं शशि थरूर
शशि थरूर ने कल जवाहरलाल नेहरु की विदेश नीति को लेकर जो कुछ भी कहा है उसके लिए वे निश्चित रूप से शाबासी के पात्र हैं.व्यक्ति महान नहीं होता उसकी करनी के आधार पर ही उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए.नेहरू कल्पनाजीवी व्यक्तित्व थे और उनकी विदेशनीति भी यथार्थवादी कम आदर्शवादी ज्यादा थी जिसका कुपरिणाम आज भी देश भोग रहा है.यहाँ हमें यह नहीं देखना चाहिए कि बयान किसने दिया है बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि उसने क्या कहा है?कांग्रेस सरकार में मंत्री रहते हुए थरूर द्वारा दिया गया बयान निश्चित रूप से साहसिक कहा जायेगा.नेहरु भी इंसान थे और गलतियाँ इंसान ही करता है.जरूरत किसी व्यक्ति की गलतियों पर पर्दा डालने की नहीं बल्कि सच्चे मन से उनका विश्लेषण कर सीख लेने की है.
सोमवार, 4 जनवरी 2010
दलाल संस्कृति
आपने कई संस्कृतियों के नाम सुने होंगे.हड़प्पा संस्कृति,चीनी संस्कृति,मिस्री संस्कृति आदि.अब मैं कितने समाप्त हो चूँकि संस्कृतियों के नाम गिनाऊँ, सर्वकालिक और सार्वभौमिक तो बस एक ही संस्कृति है और वह है दलाल संस्कृति.
कुछ साल पहले तक अपने देश में किसी को दलाल या दल्लाल कह देने पर मार का नहीं तो कम-से-कम गालियाँ सुनने का तो इंतजाम हो ही जाता था.पर वर्तमान भारत में यह शब्द गौरव और अभिमान का परिचायक ही नहीं अपितु पर्याय भी बन चुका है.गाँव में आप बिना दलाल के जमीन-जायदाद, मवेशी यहाँ तक कि फसल भी नहीं बेच सकते.यह पुरानों में ही अच्छा लगता है कि विश्व के संचालक भगवान विष्णु हैं और सर्वकष्टनिवारक श्रीगणेश हैं.आज तो एक ही कष्टनिवारक है और वह है दलाल.पहले जब यह व्यवसाय-मात्र था तब दलाल कहने से बुरा मानने का खतरा हो भी सकता था, आज बुरा मानने का प्रश्न ही नहीं! इस शब्द का अर्थ पूरी तरह से बदल चुका है.अब यह निंदा का नहीं प्रशस्ति का गुण धारण करता है.
'हरि के हजार नाम' की तरह दलालों के भी हजारों नाम हैं.किराये पर मकान चाहिए या जमीन खरीदनी है तो प्रोपर्टी डीलर, कम्पनियों के शेयर खरीदने हैं तो शेयर ब्रोकर.यहाँ तक की मंदिर जाएँ तो वहां भी ईश्वर और अपने बीच एक मध्यस्थ को पाएंगे यानि पुजारी.अब अगर आप पूछे की मंदिर में मध्यस्थ की क्या जरुरत?अरे भी भगवान आपकी भाषा थोड़े ही समझते हैं.वे भी उनकी भाषा समझते हैं.
अब इन छुटभैये नेताओं की नादानी देखिये बोफोर्स-बोफोर्स चिल्लाते-चिल्लाते इनका गला बैठ रहा है.अरे नादानों, जब बिना दलाल के कोई अपनी भैंस तक नहीं बेच सकता तो फ़िर रक्षा-उपकरण निर्माता कम्पनियों की कोई ईज्जत है भी कि नहीं, आखिर दलाल नहीं रखने से उनकी ईज्जत नहीं चाटेगी क्या?वो तो भला तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का जिन्होंने सिंह गर्जना करते हुए संसद में कहा कि स्वतंत्रता के बाद कोई भी रक्षा बिना दलालों की कृपा के संपन्न हुआ ही नहीं है.
अब हरेक राजनेता दलालों की महिमा थोड़े ही समझता है.हर कोई मुलायम सिंह यादव की तरह समझदार हो भी तो नहीं सकता.उनके पार्श्वभाग में अमर कृतिवाले प्रबंध शिरोमणि श्री अमर सिंह अनुज की तरह सदैव उपस्थित रहते हैं.
सरकार चलाना भी इतना आसान थोड़े ही होता है कि बिना दलाल के चल जाए.नहीं विश्वास होता है तो फ़िर चले जाइये किसी भी मंत्रालय में.आपको ढेर-सारे बड़े-बड़े संपर्कोंवाले पूर्व बेरोजगार,दलाली में शोधकार्य में पूरे मनोयोग से रत दलाल मिल जायेंगे.स्थानांतरण से लेकर पेंशन तक हर टेंशन की दवा है उनके पास.रेलवे ने तो ट्रेवल एजेंट नाम और पदवी देकर इस विधा को सम्मानित भी किया है.भारत का सबसे पुराना शेयर बाज़ार बम्बई स्टॉक एक्सचेंज जिस सड़क पर स्थित है वह तो पूरी तरह दलालों को ही समर्पित है.नाम है-दलाल स्ट्रीट.इस महान गली में रहनेवालों के नाम के साथ भी यह महान शब्द लगा होता है जैसे हितेन दलाल,जितेन दलाल आदि.
अब मैं आपको अपने ऊंचे घराने के बारे में भी बता दूं.मेरे एक दूर के नाना थे वे बैल-भैस की दलाली करते थे.अन्य दलालों की तरह उनके पास भी एक ही जमापूंजी थी दिमाग.जिसका वे जमकर प्रयोग करते थे.क्या मजाल कि कोई ठेकेदार उनसे बिना पूछे स्कूल या कुएं में एक भी ईंट जोड़ दे.इतनी ईज्जत थी उनकी गावों में कि लोग उन्हें दलाल नहीं 'दलाल साहेब' कहकर पुकारते थे.
कुल मिलाकर मित्रों भारत में इस समय कलियुग है.अर्थ प्रधान युग.इस महान युग का और ज्यादा समय व्यर्थ न गंवाते हुए मित्रों अगर अर्थ कमाना है तो जाइए दलाली करना सीखिए.अगर आपके पास एमबीए की डिग्री है तो आप इस काम तो पूरे प्रोफेशनल तरीके से कर सकते हैं.यहाँ भी तो मैनेज ही करना होता है.मैं इस रोजगार में आपके साथ फिफ्टी-फिफ्टी का पार्टनर बनाने को तैयार हूँ.
कुछ साल पहले तक अपने देश में किसी को दलाल या दल्लाल कह देने पर मार का नहीं तो कम-से-कम गालियाँ सुनने का तो इंतजाम हो ही जाता था.पर वर्तमान भारत में यह शब्द गौरव और अभिमान का परिचायक ही नहीं अपितु पर्याय भी बन चुका है.गाँव में आप बिना दलाल के जमीन-जायदाद, मवेशी यहाँ तक कि फसल भी नहीं बेच सकते.यह पुरानों में ही अच्छा लगता है कि विश्व के संचालक भगवान विष्णु हैं और सर्वकष्टनिवारक श्रीगणेश हैं.आज तो एक ही कष्टनिवारक है और वह है दलाल.पहले जब यह व्यवसाय-मात्र था तब दलाल कहने से बुरा मानने का खतरा हो भी सकता था, आज बुरा मानने का प्रश्न ही नहीं! इस शब्द का अर्थ पूरी तरह से बदल चुका है.अब यह निंदा का नहीं प्रशस्ति का गुण धारण करता है.
'हरि के हजार नाम' की तरह दलालों के भी हजारों नाम हैं.किराये पर मकान चाहिए या जमीन खरीदनी है तो प्रोपर्टी डीलर, कम्पनियों के शेयर खरीदने हैं तो शेयर ब्रोकर.यहाँ तक की मंदिर जाएँ तो वहां भी ईश्वर और अपने बीच एक मध्यस्थ को पाएंगे यानि पुजारी.अब अगर आप पूछे की मंदिर में मध्यस्थ की क्या जरुरत?अरे भी भगवान आपकी भाषा थोड़े ही समझते हैं.वे भी उनकी भाषा समझते हैं.
अब इन छुटभैये नेताओं की नादानी देखिये बोफोर्स-बोफोर्स चिल्लाते-चिल्लाते इनका गला बैठ रहा है.अरे नादानों, जब बिना दलाल के कोई अपनी भैंस तक नहीं बेच सकता तो फ़िर रक्षा-उपकरण निर्माता कम्पनियों की कोई ईज्जत है भी कि नहीं, आखिर दलाल नहीं रखने से उनकी ईज्जत नहीं चाटेगी क्या?वो तो भला तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का जिन्होंने सिंह गर्जना करते हुए संसद में कहा कि स्वतंत्रता के बाद कोई भी रक्षा बिना दलालों की कृपा के संपन्न हुआ ही नहीं है.
अब हरेक राजनेता दलालों की महिमा थोड़े ही समझता है.हर कोई मुलायम सिंह यादव की तरह समझदार हो भी तो नहीं सकता.उनके पार्श्वभाग में अमर कृतिवाले प्रबंध शिरोमणि श्री अमर सिंह अनुज की तरह सदैव उपस्थित रहते हैं.
सरकार चलाना भी इतना आसान थोड़े ही होता है कि बिना दलाल के चल जाए.नहीं विश्वास होता है तो फ़िर चले जाइये किसी भी मंत्रालय में.आपको ढेर-सारे बड़े-बड़े संपर्कोंवाले पूर्व बेरोजगार,दलाली में शोधकार्य में पूरे मनोयोग से रत दलाल मिल जायेंगे.स्थानांतरण से लेकर पेंशन तक हर टेंशन की दवा है उनके पास.रेलवे ने तो ट्रेवल एजेंट नाम और पदवी देकर इस विधा को सम्मानित भी किया है.भारत का सबसे पुराना शेयर बाज़ार बम्बई स्टॉक एक्सचेंज जिस सड़क पर स्थित है वह तो पूरी तरह दलालों को ही समर्पित है.नाम है-दलाल स्ट्रीट.इस महान गली में रहनेवालों के नाम के साथ भी यह महान शब्द लगा होता है जैसे हितेन दलाल,जितेन दलाल आदि.
अब मैं आपको अपने ऊंचे घराने के बारे में भी बता दूं.मेरे एक दूर के नाना थे वे बैल-भैस की दलाली करते थे.अन्य दलालों की तरह उनके पास भी एक ही जमापूंजी थी दिमाग.जिसका वे जमकर प्रयोग करते थे.क्या मजाल कि कोई ठेकेदार उनसे बिना पूछे स्कूल या कुएं में एक भी ईंट जोड़ दे.इतनी ईज्जत थी उनकी गावों में कि लोग उन्हें दलाल नहीं 'दलाल साहेब' कहकर पुकारते थे.
कुल मिलाकर मित्रों भारत में इस समय कलियुग है.अर्थ प्रधान युग.इस महान युग का और ज्यादा समय व्यर्थ न गंवाते हुए मित्रों अगर अर्थ कमाना है तो जाइए दलाली करना सीखिए.अगर आपके पास एमबीए की डिग्री है तो आप इस काम तो पूरे प्रोफेशनल तरीके से कर सकते हैं.यहाँ भी तो मैनेज ही करना होता है.मैं इस रोजगार में आपके साथ फिफ्टी-फिफ्टी का पार्टनर बनाने को तैयार हूँ.
शनिवार, 2 जनवरी 2010
रेलगाड़ी या यातना शिविर
क्या आपने कभी भारतीय रेल से सफ़र करने का सौभाग्य पाया है?यदि नहीं तो आप बहुत भाग्यशाली हैं.लेकिन मैं इतना भाग्यशाली नहीं हूँ.इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं हवाई जहाज से यात्रा का खर्च उठा सकूं.मजबूरन मुझे बार-बार रेलगाड़ी से सफ़र करना पड़ता है.वैसे मैं हजारों बार रेलगाड़ी से यात्रा कर चुका हूँ, लेकिन इस बार का मेरा अनुभव इतना भयावह रहा कि मुझे रेलयात्रा करने की अपनी मजबूरी पर काफी क्षोभ हुआ.यह भी कह सकते हैं कि मुझे अपनी स्थिति पर पूरी यात्रा के दौरान खुद ही तरस आती रही.हुआ यूं कि मुझे एम.फिल की फाइनल परीक्षा देने के लिए नोएडा जाना पड़ा.लौटते समय मुझे अपने साथ दीदी और अपनी दो भांजियों को लेकर बिहार आना था.मैंने जाने के समय ही मगध एक्सप्रेस में लौटने का भी आरक्षण करवा लिया था.निर्धारित तिथि यानि २५ दिसम्बर २००९ को शाम के समय रेलवे पूछताछ नंबर १३९ पर पूछने पर पता चला कि हमारी ट्रेन शाम के ८.१० के बजाये देर रात ११.५० में खुलेगी.इसलिए हमलोग रात ११ बजे नई दिल्ली स्टेशन पर पहुंचे.वहां भी डिस्प्ले बोर्ड पर गाड़ी खुलने का समय ११.५० अंकित था.रात साढ़े ११ बजे अचानक स्टेशन के लाउडस्पीकर पर घोषणा की गई कि यात्रियों को सूचना दी जाती है कि २४०२ डाउन मगध एक्सप्रेस अब रात ११.५० के बदले सुबह ४.५० पर रवाना होगी.हमें लगा जैसे हम पर वज्रपात हो गया हो.पूस की यह ठंडी रात अब हमें प्लेटफ़ॉर्म पर गुजारनी थी.मेरी छोटी बहन का घर जहाँ हम रुके हुए थे गाज़ियाबाद में था और हम वापस भी नहीं जा सकते थे.एक घंटे तक तो हम बातचीत में लगे रहे फिर दीदी और दोनों बच्चियों को नींद आने लगी.हमारे पास दो कम्बल थे दोनों निकाल लिए गए लेकिन ठण्ड इतनी ज्यादा थी कि कम्बल बेअसर साबित हो रहे थे.पटना से आनेवाली अप ट्रेन शाम साढ़े छः बजे ही आ चुकी थी फिर ट्रेन के प्रस्थान के समय को सुबह ४.५० क्यों कर दिया गया यह हमलोगों की समझ में नहीं आ रहा था.सर्द हवाओं के झोंके गोलियों की तरह प्रहार करते लग रहे थे.ऐसा अनुभव हो रहा था कि हम अभी के अभी ठन्डे हो जायेंगे.मैं मन में कल्पना कर रहा था कि क्या हिटलर का यातना शिविर कुछ ऐसा ही नहीं होता होगा?ठण्ड के मारे हमें नींद आ भी रही थी और नहीं भी.किसी तरह रात बीती और ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आई परन्तु खुली अपने पुनर्निर्धारित समय से चालीस मिनट की देरी से यानि साढ़े पांच बजे.भारतीय रेल में मैंने जबसे होश संभाला है देख रहा हूँ कि एक बड़ा ही भद्दा रिवाज प्रचलित है यानि देर से चलनेवाली ट्रेनों को और भी लेट करते जाने का.इसी रिवाज का अनुपालन करते हुए रेल प्रशासन ने हमारी ट्रेन को और भी लेट करते हुए इतना लेट कर दिया कि मगध एक्सप्रेस रात २ बजे पटना जंक्शन पर पहुंची.किसी तरह हम हाजीपुर घर तक जीवित पहुँच सके.आज मैं एक आम भारतीय के रूप में रेल मंत्रालय से पूछता हूँ कि वह क्यों चला रहा है ट्रेनों को?क्या वह इसके माध्यम से हम गरीबों की गरीबी का मजाक उड़ाना चाहता है या हमें अपनी जानवरों से भी बदतर हालत का अहसास दिलाने के लिए वह ट्रेनों का परिचालन कर रहा है?अमीरों की गाड़ियों राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेसों के साथ तो ऐसा व्यवहार नहीं किया जाता.आज २ जनवरी को एक ही दिन में तीन रेल दुर्घटनाओं से तो यहीं परिलक्षित होता है कि रेलवे को यात्रियों की जान माल के नुकसान से कोई मतलब ही नहीं रह गया है.उसका काम तो बस दुर्घटनाओं के बाद मुआवजे की घोषणा भर करना शेष रह गया लगता है.