मंगलवार, 30 नवंबर 2010
मुझे मस्त माहौल में जीने दो
पूरा भारत इस कालखंड में मस्त है.कोई गांजा पीकर तो कोई अफीम खाकर तो कोई बिना कुछ खाए-पिए.चारों तरफ मस्ती है.मेरी पड़ोसन भी इन दिनों अपने तीनों सयाने हो चुके बेटों के साथ 'मुन्नी बदनाम हुई' गाना सुन-सुनकर मस्त हुई जा रही है.नेताओं,अफसरों और जजों की मस्ती तो हम-आप कई बार टेलीविजन पर देख चुके हैं.जनता भी कम मस्त नहीं.मस्ती की बहती गंगा में वो क्यों न डुबकी लगाए?देश की मस्त हालत को देखकर यदि बाबू रघुवीर नारायण आज जीवित होते तो मस्ती में फ़िर से गुनगुनाने लगते लेकिन कुछ परिवर्तन के साथ:-सुन्दर मस्त देसवा से भारत के देसवा से मोरे प्राण बसे दारू के बोतल में रे बटोहिया.महनार में जब मैं रहता था तो मेरे एक पड़ोसी के तीन बेटे थे.पड़ोसी भी राजपूत जाति से ही था.तीनों बेटे माता-पिता की तरह ही मस्त थे.न तो नैतिकता की चिंता और न ही किसी भगवान-तगवान का डर.पड़ोसी के बेटी नहीं थी. जिस पर मेरे एक मित्र का मानना था कि भगवान ने कितना अच्छा किया कि इन्हें बहन नहीं दिया वरना ये उससे ही शादी कर लेते.खैर भगवान को जो गलती करनी थी की.लेकिन इन्होंने उनकी गलती में जरूर सुधार कर दिया.बड़े लड़के ने अपनी सगी फूफी की लड़की से शादी कर ली.अब तो उसके कई बच्चे अवतरित भी हो चुके हैं जो दिन में मेरे पड़ोसी को दादा कहते हैं और रात को नाना.आज का पिता पुत्र को शराब पीने से रोकता नहीं है बल्कि उसके साथ में बैठकर पीता है और पिता का कर्त्तव्य बखूबी निभाता है.वो संस्कृत में कहा भी तो गया है कि प्राप्तेषु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रं समाचरेत.मैं अपनी दादी के श्राद्ध में जब वर्ष २००८ में गाँव गया तो सगे चाचाओं को मस्ती में लीन पाया.भोज समाप्त हो चुकने के बाद रोजाना लाउदस्पिकर पर अश्लील भोजपुरी गीत बजाकर नाच-गाने का कार्यक्रम होता.शराब की बोतलें खोली जातीं और घर के बच्चों को भी इस असली ब्रम्ह्भोज में सम्मिलित किया जाता.कबीर ने ६०० साल पहले मृत्यु को महामहोत्सव कहा था और चाचा लोग अब जाकर इसे चरितार्थ कर रहे थे.गाँव-शहर जहाँ भी मैं देखता हूँ लोग मस्त हैं.स्कूल-कॉलेज के बच्चों से तो मैंने बोलना ही छोड़ दिया है.न जाने कौन,कब मस्त गालियाँ देने लगे या शारीरिक क्षति पहुँचाने को उद्धत हो जाए.एक नया प्रचलन भी इन दिनों बिहार में देखने को मिल रहा है.अधेड़ या कुछ बूढ़े भी इतना मस्त हो जा रहे हैं कि पुत्र जब विवाह कर घर में पुत्रवधू लाता है तो उस पर कब्ज़ा जमा ले रहे हैं.ऐसे महान पिता का पुत्र भी कम महान नहीं होता.वह भी जहाँ नौकरी कर रहा होता है वहीँ अपनी मस्ती का इंतजाम कर लेता है.मैं सोंचता हूँ कि इस मस्त माहौल में जब मेरे लिए साँस लेना भी दूभर हो रहा है कैसे जीवित रह पाऊँगा या फ़िर जब मेरे बच्चे होंगे तो उन्हें कैसे मस्त होने से बचा पाऊँगा?मैं मस्त तो नहीं हो सकता (पुराने संस्कारों वाला जो ठहरा) और न ही संन्यास ही ले सकता हूँ (मैं अपने माता-पिता का ईकलौता पुत्र हूँ).तो फ़िर क्या करुँ समझ में नहीं आ रहा.चलिए एक लाईफलाईन का ही प्रयोग कर लेता हूँ.तो औडिएंस आप बताईये मुझे इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए.राय देने के लिए आपका समय शुरू होता है अब.
सोमवार, 29 नवंबर 2010
लोकतंत्र को लूटते लोकतंत्र के प्रहरी
हजारों साल पहले की बात है.किसी राज्य का राजा बड़ा जालिम था.उसके शासन में चारों तरफ लूटमार का वातावरण कायम हो गया.कुछ लोगों ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराने की कोशिश भी की.लेकिन उन सबको अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.उसी राज्य में एक वृद्ध और बुद्धिमान व्यक्ति रहता था.एक दिन जा पहुंचा राजा के दरबार में और कहा कि मैं एक सच्ची कहानी आपको सुनना चाहता हूँ.राजा को कहानियां बहुत पसंद थी.बूढ़े ने कहना शुरू किया कि महाराज जब आपके दादाजी का राज था तब मैं नौजवान हुआ करता था और बैलगाड़ी चलाता था.एक दिन जब शहर से लौट रहा था तब जंगल में ऊपर से नीचे तक सोने के गहनों से लदी नवयौवना मिली.डाकुओं ने उसके कारवां को लूट लिया था और पति और पति के परिवार के लोगों की हत्या कर दी थी.वह किसी तरह बच निकली थी.उसका दुखड़ा सुनकर मुझे दया आई और मैंने उसे गाड़ी में बिठाकर सही-सलामत उसके पिता के घर पहुंचा दिया.बाद में जब आपके पिता का राज आया तब मेरे मन में ख्याल आया कि अच्छा होता कि मैं उसे घर पहुँचाने के ऐवज में उसके गहने ले लेता.अब आपका राज है तो सोंचता हूँ कि अगर जबरन उसे पत्नी बनाकर अपने घर में रख लेता तो कितना अच्छा होता.राजा ने वृद्ध की कहानी में छिपे हुए सन्देश को समझा और पूरी मेहनत से स्थिति को सुधारने में जुट गया.मैं जब भी इस कहानी के बारे में सोंचता था तो मुझे लगता कि भला ऐसा कैसे संभव है कि कोई ईमानदार व्यक्ति समय बदलने पर बेईमान हो जाए.खुद मेरे पिताजी का उदाहरण मेरे सामने था जो सारे सामाजिक प्रतिमानों के बदल जाने पर भी सच्चाई के पथ पर अटल रहे.लेकिन जब प्रसिद्ध पत्रकार और कारगिल फेम बरखा दत्ता को दलाली करते देखा-सुना तो यकीन हो गया कि यह कहानी सिर्फ एक कहानी नहीं है बल्कि हकीकत भी है.ज्यादातर लोग समय के दबाव को नहीं झेल पाते और समयानुसार बदलते रहते हैं.कारगिल युद्ध के समय हिमालय की सबकुछ जमा देनेवाली ठण्ड में अग्रिम और दुर्गम मोर्चों पर जाकर रिपोर्टिंग कर पूरे देश में देशभक्ति का ज्वार पैदा कर देने वाली बरखा कैसे भ्रष्ट हो सकती है?लेकिन सच्चाई चाहे कितनी कडवी क्यों न हो सच्चाई तो सच्चाई है.नीचे ग्रामीण और कस्बाई पत्रकारों ने पैसे लेकर खबरें छापकर और दलाली करके पहले से ही लोकतंत्र के कथित प्रहरी इस कौम को इतना बदनाम कर रखा है कि मैं कहीं भी शर्म के मारे खुद को पत्रकार बताने में हिचकता हूँ.अब ऊपर के पत्रकार भी जब भ्रष्ट होने लगे हैं तो नीचे के तो और भी ज्यादा हो जाएँगे.वो कहते हैं न कि महाजनो येन गतः स पन्थाः.यानी समाज के जानेमाने लोग जिस मार्ग पर चलें वही अनुकरणीय है.मैंने नोएडा में देखा है कि वहां की हरेक गली के एक अख़बार है जिनका उद्देश्य किसी भी तरह समाज या देश की सेवा या उद्धार करना नहीं है.बल्कि इनके मालिक प्रेस के बल पर शासन-प्रशासन पर दबाव बनाते हैं और उसके बल पर दलाली करते हैं,ठेके प्राप्त करते हैं.दुर्भाग्यवश बड़े अख़बारों और चैनलों का भी यही हाल है.दिवंगत प्रभाष जोशी ने पेड न्यूज के खिलाफ अभियान भी चलाया था.लेकिन उनकी असामयिक मृत्यु के चलते यह अभियान अधूरा ही रह गया.कई बार अख़बार या चैनल के मालिक लोभवश सत्ता के हाथों का खिलौना बन जाते हैं और पत्रकारिता की हत्या हो जाती है.अभी दो दिन पहले ही पटना के एक प्रमुख अख़बार दैनिक जागरण के ब्यूरो प्रमुख का तबादला राज्य सरकार के कहने पर लखनऊ कर दिया गया है.खबर आप भड़ास ४ मीडिया पर देख सकते हैं.वैसे भी हम इन बनियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं?जो अख़बार मालिक जन्मना बनिया नहीं है वह भी कर्मणा बनिया है.व्यवसायी तो पहले भी होते थे लेकिन उनमें भी नैतिकता होती थे.जब चारों ओर हवा में नैतिक पतन की दुर्गन्ध तैर रही हो तो पत्रकारिता का क्षेत्र कैसे इससे निरपेक्ष रह सकता है?क्या ऐसा युग या समय के भ्रष्ट हो जाने से हो रहा है.मैं ऐसा नहीं मानता.समय तो निरपेक्ष है.समय का ख़राब या अच्छा होना हमारे नैतिक स्तर पर निर्भर करता है.जब अच्छे लोग ज्यादा होंगे तो समय अच्छा (सतयुग) होगा और जब बुरे लोग ज्यादा संख्या में होंगे तो समय बुरा (कलियुग) होता है.मैं या मेरा परिवार तो आज भी ईमानदार है.परेशानियाँ हैं-हमें किराये के मकान में रहना पड़ता है,कोई गाड़ी हमारे पास नहीं है,हम अच्छा खा या पहन नहीं पाते लेकिन हमें इसका कोई गम नहीं है.इन दिनों टी.वी चैनलों में टी.आर.पी. के चक्कर में अश्लील कार्यक्रम परोसने की होड़ लगी हुई है.समाज और देश गया बूंट लादने इन्हें तो बस पैसा चाहिए.कहाँ तो संविधान में अभिव्यक्ति का अधिकार देकर उम्मीद की गई थी कि प्रेस लोकतंत्र का प्रहरी सिद्ध होगा और कहाँ प्रेस पहरेदारी करने के बजाय खुद ही दलाली और घूसखोरी में लिप्त हो गया है.नीरा राडिया जैसे जनसंपर्क व्यवसायी अब खुलेआम पत्रकारों को निर्देश देने लगे हैं कि आपको क्या और किस तरह लिखना है और क्या नहीं लिखना है,क्या प्रसारित करना है और क्या नहीं करना है.शीर्ष पर बैठे पत्रकार जिन पर सभी पत्रकारों को गर्व हो सकता है पैसे के लिए व्यापारिक घरानों के लिए लिखने और दलाली करने में लगे हैं.जब पहरेदार ही चोरी करने लगे और डाका डालने लगे तो घर को कौन बचाएगा?उसे तो लुटना है ही.कुछ ऐसा ही हाल आज भारतीय लोकतंत्र का हो रहा है.
रविवार, 28 नवंबर 2010
हमें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी
भ्रष्टाचार के खिलाफ इस समय संसद में विपक्ष की एकजुटता देखते ही बनती है.विपक्ष अब भी जे.पी.सी. से कम पर मानने को तैयार नहीं है.लेकिन क्या विपक्ष वास्तव में भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करना चाहता है?नहीं,हरगिज नहीं.उसका मकसद इस मुद्दे पर सिर्फ हल्ला मचाना है.अगर ऐसा नहीं होता तो फ़िर मुख्य विपक्षी दल भाजपा भ्रष्टाचार के दर्जनों आरोपों से घिरे कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा को अभयदान नहीं दे देती.भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह उसका कैसा जेहाद है कि तुम्हारा भ्रष्टाचार गलत और मेरा सही.भाजपा के इस पक्षपात ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रहे अभियान के रथ को किसी परिणति तक पहुँचने से पहले ही रोक दिया है.अब यह निश्चित हो गया है कि देश को निगल रहे इस महादानव के खिलाफ तत्काल कुछ भी नहीं होने जा रहा.पिछले १५-२० दिनों से विपक्ष ने जिस प्रकार से संसद में गतिरोध पैदा कर रखा है उससे जनता में इस लड़ाई के किसी सार्थक परिणाम तक पहुँचने की उम्मीद बंध गई थी.उम्मीद बंधाने में सबसे बड़ा हाथ रहा है मीडिया का.हालांकि मैं इसमें मीडिया की कोई गलती नहीं मानता.विपक्ष इस मुद्दे पर कुछ इस प्रकार से आक्रामक हो ही रहा था कि कोई भी भ्रम में आ जाए.लेकिन अब भाजपा ने कर्नाटक में येदुरप्पा को अपदस्थ नहीं करने का निर्णय लेकर मोर्चे को ही कमजोर कर दिया है.जाहिर है हम इस लड़ाई में किसी भी राजनैतिक पार्टी पर भरोसा नहीं कर सकते.ये दल खुद ही भ्रष्ट हैं,फ़िर क्यों ये हमारी लड़ाई लड़ने लगे?जिस तरह अमेरिका भारत के लिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ सकता उसी तरह ये राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे लिए नहीं लड़ने वाले.यह लड़ाई हमारी लड़ाई है और हमें खुद ही लड़नी पड़ेगी.उधार के कन्धों से लड़ाई जीती नहीं जाती बल्कि हारी जाती है.अब यह हम पर निर्भर करता है कि इस लड़ाई को हम कब शुरू करते हैं.अलग-अलग होकर लड़ते हैं या एकजुट होकर.अलग-अलग होकर हमारी केवल और केवल हार ही संभव है.एकसाथ होकर लड़ेंगे तो निश्चित रूप से जीत हमारी होगी और भ्रष्टाचार की हार होगी.देश में वर्तमान किसी भी राजनैतिक दल या राजनेता में वह नैतिक बल नहीं कि वह देश के लिए आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद से भी बड़ा खतरा बन चुके देश के सबसे बड़े दुश्मन भ्रष्टाचार के विरुद्ध होने वाली इस अवश्यम्भावी और अपरिहार्य बन चुकी लड़ाई में जनमत का नेतृत्व कर सकें.इसके लिए हमें नया और पूरी तरह से नया नेतृत्व तलाशना होगा.लेकिन यह भी कडवी सच्चाई है कि सिर्फ नेतृत्व के बल पर आन्दोलन खड़ा नहीं किया जा सकता.इसके अलावा लाखों की संख्या में तृणमूल स्तर पर जनता को प्रेरित करने वाले कार्यकर्ताओं की भी आवश्यकता होगी.कब उठेगा गाँव-गाँव और शहर-शहर के जर्रे-जर्रे से भ्रष्टाचार के खिलाफ गुब्बार मैं नहीं जानता.कैसे संभव होगा यह यह भी मैं नहीं जानता.मैं तो बस इतना जानता हूँ कि ऐसा गुब्बार बहुत जल्द ही दूर रक्तिम क्षितिज से उठेगा और देखते ही देखते पूरे देश को अपनी जद में ले लेगा.फ़िर भारत के राजनैतिक आसमान पर जो सूरज उगेगा वह निर्दोष और निर्मल होगा,ईमानदार होगा और अमीर-गरीब सब पर बराबर की रोशनी डालने वाला होगा.
शनिवार, 27 नवंबर 2010
अल्प विराम,पूर्ण विराम
पिछले दो दिनों से मैं कम्प्यूटर से दूर था.मेरे जीवन में अल्पविराम आ गया था.वजह यह थी कि विधाता ने मेरे सबसे छोटे चाचा की जिंदगी में पूर्णविराम लगा दिया.यूं तो भाषा और व्याकरण में पूर्णविराम के बाद भी वास्तविक पूर्णविराम नहीं होता और फ़िर से नया वाक्य शुरू हो जाता है.लेकिन जिंदगी में पूर्णविराम लग गया हो तो!दुनिया के सारे धर्म इस रहस्य का पता लगाने का प्रयास करते रहे हैं.बहुत-सी अटकलें लगाई गई हैं दार्शनिकों द्वारा.लेकिन चूंकि सिद्ध कुछ भी नहीं किया जा सकता है इसलिए नहीं किया जा सका है.ईसाई और इस्लाम इसे पूर्णविराम मानते हैं तो सनातन धर्म का मानना है कि मृत्यु के बाद फ़िर से नया जीवन शुरू हो जाता है और यह सिलसिला लगातार चलता रहता है.जिंदगी में हम कदम-कदम पर किन्तु-परन्तु का प्रयोग करते हैं लेकिन मृत्यु कोई किन्तु-परन्तु नहीं जानती.कब,किसे और कहाँ से उठाना है को लेकर उसके दिमाग में कभी कोई संशय नहीं होता.वह यह नहीं जानती कि मरनेवाला १०० साल का है या ५० का या फ़िर १ साल का.जिंदगी का वाक्य अभी अधूरा ही होता है और वह पूर्ण विराम लगा देती है.उसका निर्णय अंतिम होता है.ऑर्डर इज ऑर्डर.मेरे चाचा की उम्र अभी मात्र ४५ साल थी.बेटी की शादी करनी थी.तिलकोत्सव भी संपन्न हो चुका था.लेकिन अचानक जिंदगी समाप्त हो गई,बिना कोई पूर्व सूचना दिए जिंदगी के नाटक से भूमिका समाप्त.मुट्ठी से सारा का सारा रेत फिसल गया.चचेरा भाई अभी ६ठी जमात में पढ़ रहा है.उसे अभी मौत के मायने भी पता नहीं हैं.दाह संस्कार के दौरान भी वह निरपेक्ष बना रहा.हमने जो भी करने को कहा करता गया.नाजुक और नासमझ कन्धों पर परिवार का बोझ.गाँव की गन्दी राजनीति से संघर्ष.उसे असमय बड़ा बनना पड़ेगा.मुझसे भी बड़ा.हालांकि वह मुझसे २२-२३ साल छोटा है फ़िर भी.इस पूर्णविराम ने उसके मार्ग में न जाने कितने अल्पविराम खड़े कर दिए हैं.वैसे अंधाधुध विक्रय के बावजूद इतनी पैतृक संपत्ति अभी शेष है कि खाने-पीने की दिक्कत नहीं आनेवाली.लेकिन ऊपरी व्यय?बहन की शादी तो सिर पर ही है.खेती की गांवों में जो हालत है उसमें तो बड़े-बड़े जमींदारों की माली हालत ठीक नहीं.वैसे मैं भी मदद करूँगा जब भी वह मेरे पास आएगा.लेकिन गाँव के लोग क्या उसे मेरे पास आने से रोकेंगे नहीं?बैठे-निठल्ले लोगों के पास सिवाय पेंच लड़ाने के और कोई काम भी तो नहीं होता.मेरे अन्य जीवित चाचा लोग जिनके वे मुझसे ज्यादा नजदीकी थे,ने उनके परिवार से किनारा करना भी शुरू कर दिया है.मैंने अनगिनत लोगों के दाह-संस्कार में भाग लिया है.लेकिन हर बार प्रत्येक मरनेवाले के परिवार के साथ सहानुभूति रही है,स्वानुभूति नहीं.पहली बार दिल में किसी के मरने के बाद दर्द हो रहा है.आखिर मरनेवाला मेरे घर का जो था.अनगिनत अच्छी बुरी यादें हैं उनसे जुड़ी हुई.लोग जब मृतक-दहन चल रहा था तब चुनाव परिणाम का विश्लेषण करने में लगे थे.कुछ लोग अभद्र मजाक में मशगूल थे.परन्तु मैं वहीँ पर सबसे अलग बैठा गंगा किनारे की रेतीली मिट्टी में चाचा के पदचिन्ह तलाश रहा था.अंतिम यात्रा के पदचिन्ह!!!
बुधवार, 24 नवंबर 2010
बिहार में विकास जीता,जाति हारी
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं.बिहार की जनता ने जातिवादी शक्तियों को एक सिरे से नकारते हुए एनडीए के विकास की राजनीति पर मुहर लगा दी है वो भी तीन चौथाई के आशातीत बहुमत के साथ.एक बात तो तय है कि राजग को सभी जातियों और धर्मों के लोगों का वोट मिला है अन्यथा उसे इतना प्रचंड बहुमत नहीं मिलता.जो लालू फ़िर से बिहार का राजा बनने का सपना देख रहे थे उनके विपक्ष का नेता बनने के भी लाले पड़ गए हैं.८ साल तक बिहार की मुख्यमंत्री रही उनकी पत्नी और भारत के इतिहास में एकमात्र अनपढ़ मुख्यमंत्री रही श्रीमती राबड़ी देवी कथित ससुराल और मायका यानी सोनपुर और राघोपुर दोनों जगहों से हार गई हैं.यह भारत के किसी भी राज्य में किसी भी गठबंधन की सबसे बड़ी जीत है.इतनी बड़ी जीत की उम्मीद न तो एन.डी.ए. के नेताओं को थी और न ही मीडिया को.बिहार भूतकाल में भी भारत की राजनीति को दिशा देता रहा है.१९७४ का आन्दोलन इसी पवित्र भूमि से उठा था जिसके परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी की तानाशाही का अंत हुआ था.उसी पिछड़े और गरीब बिहार ने एक बार फ़िर देश को विकास की राजनीति अपनाने के लिए प्रेरित किया है.साथ ही पूरे भारत में जाति-धर्म के नाम पर जनता को मूर्ख बना रहे नेताओं को अपना एजेंडा बदल लेने की चेतावनी दे दी है.कोई ज्यादा समय नहीं हुआ यही कोई ५ साल पहले बिहार और बिहारी को बांकी भारत के लोग ही दृष्टि से देखते थे.आज बिहारी शब्द गाली का नहीं गर्व की अनुभूति देता है.नीतीश कुमार भले ही ५ साल के अपने शासन में बिहार को विकसित राज्यों की श्रेणी में शामिल नहीं करा पाए.लेकिन उन्होंने बिहार के लोगों की आँखों में विकास और विकसित बिहार के सपने जरूर पैदा कर दिया.यहाँ तक कि विपक्ष के लोग भी कहीं-न-कहीं सीमित सन्दर्भ में ही सही विकास के वादे करने के लिए बाध्य हो गए.उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि जो एक बिहारी होने के नाते मैं मानता हूँ वह रही है जंगल राज वाले राज्य में कानून के शासन की स्थापना.आधारभूत संरचना का भी बिहार में पर्याप्त विकास हुआ है.सड़कों से लेकर पुल निर्माण तक काम धरातल पर नज़र आ रहा है.बिहार की जो जनता ५ साल पहले अपने बच्चों को अपहरणकर्ता बना रही थी वही जनता अब अपने बेटे-बेटियों को डॉक्टर-इंजिनियर बनाने का सपना देखने लगी है.नीतीश सरकार ने उच्च विद्यालयों में पढनेवाले बच्चों को सरकार की तरफ से साईकिल उपलब्ध कराई जिससे लड़कियां भी दूर-दूर तक पढने के लिए जाने लगीं.हालांकि जवाब में लालू ने बच्चों को मोटरसाईकिल देने का वादा किया लेकिन लोगों ने इसे लालू का मजाक मान लिया.वैसे भी लालू इस बार के चुनाव प्रचार में भी कभी गंभीर होते नहीं दिखे.प्रत्येक जनसभा में लोगों को चुटकुले सुनाते रहे.उनकी सभाओं में लोगों की भीड़ जरूर जमा होती रही लेकिन उसका उद्देश्य लालू की हँसानेवाली बातों का मजा लेना मात्र था.कुल मिलाकर जो लोग राजग सरकार से खुश नहीं थे उनके सामने भी विकल्पहीनता की स्थिति थी.लालू को वे वोट दे नहीं सकते थे और लालू के अलावा राज्य में दूसरा कोई सशक्त विकल्प था ही नहीं.इसलिए थक-हारकर उन्होंने भी राजग को मत दे दिया.चुनाव प्रचार के समय राजग ने बड़ी ही चतुराई से लोजपा और राजद को दो परिवारों की पार्टी बताना शुरू कर दिया था.इसका परिणाम यह हुआ कि यादव और पासवान जाति के लोग भी इस बात को समझ गए कि ये लोग वोट बैंक के रूप में सिर्फ उनका इस्तेमाल कर रहे हैं.लगभग सभी चरणों में जिस तरह पिछले चुनावों से कहीं ज्यादा % मतदान हो रहा था इससे लोग कयास लगा रहे थे कि जैसा कि होता आया है इस स्थिति में जनता ने कहीं सरकार के खिलाफ तो वोट नहीं दिया है.लेकिन हुआ उल्टा.इसका सीधा मतलब यह है कि जो भी मत % बढ़ा वह मत सरकार के समर्थकों का था.हद तो यह हो गई कि राजग को मुस्लिम-यादव बहुल क्षेत्रों में भी अप्रत्याशित सफलता हाथ लगी और माई समीकरण का नामो-निशान मिट गया.चुनाव में जदयू और भाजपा दोनों को ही लगभग ३०-३० सीटों का लाभ हुआ है.अभी तक तो तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद गठबंधन सफल रहा है.लेकिन जिस तरह जदयू को साधारण बहुमत से कुछ ही कम सीटें आई हैं उससे नीतीश कुमार के लिए भाजपा की जरुरत निश्चित रूप से कम हो जाएगी.इसलिए भाजपा के लिए नीतीश को संभालना अब और भी मुश्किल साबित होने जा रहा है.हालांकि इन चुनावों में राजग को मात्र ४१-४२ % जनता का वोट मिला है लेकिन इसी अल्पमत के बल पर उसने तीन चौथाई सीटें जीत ली हैं.यह शुरू से ही हमारे लोकतंत्र की बिडम्बना रही है कि देश में हमेशा अल्पमत क़ी सरकार बांटी रही है.देखना है कि सरकार जनता को किए गए वादों में से कितने को पूरा कर पाती है.प्रचार अभियान के दौरान राजग ने बिजली,रोजगार सृजन और भ्रष्टाचार सम्बन्धी नए कानून के क्रियान्वयन का वादा किया था.डगर आसान नहीं है.खासकर भ्रष्टाचार ने जिस तरह से शासन-प्रशासन के रग-रग में अपनी पैठ बना ली है.उससे ऐसा नहीं लगता कि नीतीश भ्रष्टाचारियों खासकर बड़ी मछलियों की संपत्ति पर आसानी से सरकारी कब्ज़ा कर उसमें स्कूल खोल पाएँगे जैसा कि उन्होंने अपने भाषणों में वादा किया था.पिछली बार से कहीं ज्यादा आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग राजग की तरफ से जीत कर विधानसभा में पहुंचे हैं.इन पर नियंत्रण रखना और इन पर मुकदमा चलाकर इन्हें सजा दिलवाना भी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती रहेगी.अगले साल बिहार में पंचायत चुनाव होनेवाले हैं.राजग सरकार इसे दलीय आधार पर करवाना चाहती है.अगर ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से इन चुनावों में भी राजग जीतेगा और सरकार की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाएगी.राज्य में पंचायत स्तर पर और जन वितरण प्रणाली में जो व्यापक भ्रष्टाचार है वह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है.हालांकि गांवों में शिक्षामित्रों की बहाली कर दी गई है लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक में अभी भी गुणात्मक सुधार आना बांकी है.बिहार में १५ सालों के जंगल राज में उपजी हुई और भी बहुत-सी समस्याएं हैं जिनका समाधान नीतीश को अगले पांच सालों में ढूंढ निकालना होगा.बिहार की २१वीं सदी की जनता ज्यादा दिनों तक इंतज़ार करने के मूड में नहीं है.जनता को न तो रीझते और न ही खीझते देर लगती है.राजग को यह समझते हुए राज्य को समस्याविहीन राज्य बनाने की दिशा में अग्रसर करना होगा.नहीं तो राजग का भी राज्य में वही हश्र होगा जो इस चुनाव में लालू-पासवान और कांग्रेस का हुआ है.
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
बेईमानों की भी कराई जाए जनगणना
आजादी के बाद से ही यह कौतुहल का विषय रहा है कि भारत में कितने % लोग बेईमान हैं.हर आदमी के पास अपने-अपने आंकड़े हैं.लेकिन कल तो हद ही हो गई.भारत सरकार के अटोर्नी जनरल ने खुद अपने मुखारविंद से सर्वोच्च न्यायालय में भारत के लोगों पर आरोप लगाया कि भारत की शत-प्रतिशत जनता बेईमान हो गई है.इसका तो सीधा मतलब जनता ने यह निकाला कि श्री वाहनवती भी बेईमान हैं.उनके इस आरोप ने इस बहस को और भी तेज कर दिया है.साथ ही एक नई दिशा भी दे दी है.चूंकि राजीव गांधी के काल में १०% ईमानदार लोग देश में बचे हुए थे इसलिए राजीव ने संसद में स्वीकार किया था कि दिल्ली से चले पैसे का मात्र १०% ही जनता तक पहुँच पाता है.यह भी एक अनुमान ही था क्योंकि इस सम्बन्ध में सरकार के पास कोई विश्वस्त आंकड़े नहीं थे.हालांकि फ़िर भी राजीव ने मेरा भारत महान का महान नारा दिया और पहले भूतपूर्व और बाद में अभूतपूर्व हो गए.लेकिन इसके कुछ ही समय बाद यशवंत फिल्म में भी नाना पाटेकर ने इसकी पुष्टि की कि १०० में ९० भारतीय बेईमान हैं फ़िर भी मेरा भारत महान है.अब वर्तमान काल में कितना पैसा जनता तक पहुँच पा रहा है यह पता करने का सरकार ने कोई प्रयास नहीं किया है और न ही प्रधानमंत्री ने लम्बे समय से इस सम्बन्ध में कोई बयान ही दिया है.अगर अटोर्नी जनरल के आरोप को सही मान लें तो फ़िर जनता तक एक भी पैसा नहीं पहुंचना चाहिए.लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पा रहा है.इसलिए सरकार को यह पता लगाने के लिए कि देश में कितने लोग बेईमान और कितने लोग ईमानदार हैं बेईमानी को भी चल रही जनगणना में शामिल करना चाहिए.इससे सबसे पहले तो यही फायदा होगा कि यह अनुमान लगाने में सुविधा होगी कि योजनाओं की कितनी राशि जनता तक पहुँच पा रही है.चूंकि ईमानदारों की संख्या का % जनता तक पहुंचे धन % के समानुपाती होता है इसलिए सरकार यह मालूम हो जाने के बाद अलग से घोटाले के लिए राशि का प्रावधान कर सकेगी.इस जनगणना में मैं बेईमानों की ग्रेडिंग की अनुशंसा करता हूँ ए,बी,सी,डी आदि में.इसका भी अपना लाभ होगा.जिस पद के लिए जिस श्रेणी का बेईमान चाहिए उस पद के लिए उसी श्रेणी के बेईमान की नियुक्ति की जा सकेगी.जैसे राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों के लिए,दूरसंचार मंत्री के पद के लिए आसानी से ए ग्रेड के बेईमान ढूंढें जा सकेंगे.इसके साथ ही होशियार और मूर्ख बेईमानों की भी अलग-अलग श्रेणी बनानी पड़ेगी.होशियार बेईमानों में उन्हें शामिल किया जाना चाहिए जो घोटाला करने के बावजूद मामले को उजागर नहीं होने देने में माहिर हैं.आज देश को ऐसे बेईमानों की सख्त जरुरत है.वैसे भी इसका सबसे ज्यादा लाभ स्वयं कांग्रेस पार्टी को ही होगा क्योंकि उसके शासन में ही सबसे ज्यादा घोटाले होते हैं.वर्तमान में भी मूर्ख बेईमानों के मंत्री बन जाने के चलते मामला प्रकाश में आ जा रहा है और सरकार की किरकिरी हो रही है.वैसे तो हमारी सरकारें सत्येन्द्र दूबे,अभयानंद और किरण बेदी सरीखे ईमानदारों को पहले से ही उनकी ईमानदारी के लिए दण्डित करती रही हैं.लेकिन जनगणना के बाद ईमानदारों को और भी आसानी से चिन्हित करके दण्डित किया जा सकेगा.इसके साथ ही सरकार को उत्कृष्ट कोटि के बेईमानों के लिए बेईमान रत्न और उच्च कोटि के बेईमानों के लिए बेईमान विभूषण,बेईमान भूषण,बेईमान श्री पुरस्कार देने की व्यवस्था करनी चाहिए.इससे लाभ यह होगा कि ईमानदार अपनी ईमानदारी भरी व्यवस्था विरोधी गतिविधियों के प्रति हतोत्साहित होंगे और भारत को पूरी दुनिया में प्रथम शत-प्रतिशत बेईमान देश बनने का गौरव प्राप्त हो सकेगा.इसके साथ ही ईमानदारों के लिए कठोर कानून बनाया जाना चाहिए जिससे कोई भूलकर भी इस गलत और अपने और अपने परिवार के लिए दुखदायी मार्ग पर चलने की भूल नहीं करे.इन्हीं चंद ईमानदारों के चलते भारत प्रसन्न देशों की सूची में लगातार नीचे खिसक रहा है.लोकतंत्र बहुमत से चलता है यह तो सरकार जानती ही है.हम बेईमानों को भी अपनी जनसंख्या के अनुपात में सत्ता में भागीदारी चाहिए.जिसकी जितनी हिस्सेदारी उतनी उसकी भागेदारी.मैं अंत में सरकार को चेतावनी देता हूँ कि अगर वह हमारी बेईमानों की जनगणना की मांग को नहीं मानती है तो हम न सिर्फ संसद बल्कि पूरे देश को ठप्प कर देंगे क्योंकि देश में प्रत्येक जगह हमारा बहुमत है और सरकार भी यह बात जानती है.
सोमवार, 22 नवंबर 2010
जागिए मनमोहन,जागिए कृपानिधान
वर्ष १९९० का स्वतंत्रता दिवस समारोह मुझे आज भी याद है.तब मैं हाई स्कूल में था और वैश्विक अर्थव्यवस्था को समझने लगा था.लाल किले के प्राचीर से भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह देश को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि वे जानते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था संकट में है और विदेशी मुद्रा भंडार समाप्त होने को है.लेकिन जिस तरह मधुमेह के रोगी को चीनी देने से बीमारी और बढ़ जाती है उसी तरह उनकी समझ से विदेशों से कर्ज लेने से अर्थव्यवस्था का संकट और बढ़ जाएगा.दरअसल उन दिनों भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार सोवियत संघ में उथल-पुथल का वातावरण तो था ही २ अगस्त,१९९० से २८ फरवरी,१९९१ तक चले खाड़ी युद्ध ने खनिज तेल के मूल्य में बेतहाशा वृद्धि कर दी थी.वी.पी. की जिद का परिणाम यह हुआ कि बाद में जब कुछ ही महीनों बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो उन्हें देश का सोना विदेशों में गिरवी रखकर पैसों का इंतजाम करना पड़ा.लेकिन यह कोई स्थाई समाधान तो था नहीं.इसके कुछ ही महीने बाद जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और वित्त मंत्री बने मनमोहन सिंह तो उन्होंने जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहायता मांगी तो उसने इनकार तो नहीं किया लेकिन उनके समक्ष एक शर्त रख दी.वह शर्त यह थी कि भारत को उदारवाद को अपनाना होगा.हालांकि किसी भी देश में बिना पूर्व तैयारी के उदारवाद को अपनाना अच्छा नहीं माना जाता.इसके लिए नए तरह के प्रशासन जो पारदर्शिता सहित और भ्रष्टाचार रहित हो की आवश्यकता होती है.साथ ही जरुरी होती है मजबूत आधारभूत संरचना.जाहिर है कि उस समय की आपातकालीन स्थितियों में ऐसा कर पाने के लिए भारत के पास समय नहीं था.जबकि चीन ने पूरी तैयारी के साथ उदार अर्थव्यवस्था को अपनाया और दूसरे देशों को अपनी शर्तों पर ही पूँजी निवेश की ईजाजत दी थी.इसलिए भारत की तत्कालीन केंद्र सरकार ने आई.एम.एफ. की मांगें मान लीं और भारतीय अर्थव्यवस्था ने बंद और सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था से उदार और मुक्त अर्थव्यवस्था में आँख मूंदकर हनुमान कूद लगा दी.उस समय सोंचा गया कि जो भी बदलाव जरुरी हैं बाद में कर लिए जाएँगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं.अचानक देश में इतना पैसा आने लगा कि राजनेता घूस खाने और विदेशी मुद्रा भंडार गिनने में खो गए.इस प्रकार सारे सुधार पीछे छूट गए.विदेशी और देशी कंपनियां जानती थीं कि भारत के राजनेता और नौकरशाह पैसों के कितने भूखे हैं.इसलिए उन्होंने निवेश के लिए निर्धारित रकम में रिश्वत को भी शामिल करना शुरू कर दिया.कई साल पहले एनरोन नामक अमेरिकी ऊर्जा कंपनी ने दावा किया था कि उसने भारत में अपनी इकाई स्थापित करने के लिए नीति निर्माताओं और संचालकों को करोड़ों रूपये दिए थे.सातवें-आठवें दशक में जहाँ नेताओं का गठजोड़ अपराधियों से हुआ करता था अब उसका स्थान एक नए गठजोड़ नेता-कंपनी गठजोड़ ने ले लिया.यह जोड़ी ज्यादा चालाक,आधुनिक,रणनीतिक,बेफिक्र और सुरक्षित थी.इसी गठजोड़ के दम पर हर्षद मेहता से लेकर २जी स्पेक्ट्रम तक अनगिनत घोटाले किए गए.जिनमें से न जाने कितनों के बारे में तो जनता को आज भी पता नहीं है और कभी पता चलेगा भी नहीं.लगता है जैसे अर्थव्यस्था के उदारीकरण के साथ ही भ्रष्टाचार का भी उदारीकरण कर दिया गया है.हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश में आज भी अंग्रेजो के ज़माने का प्रशासन है.सत्ता में आने से पहले वर्तमान यू.पी.ए. की सरकार ने भी प्रशासनिक सुधार का वादा किया था.लेकिन उसके सत्ता में आए हुए ७ साल होने को हैं और इस दिशा में प्रगति शून्य है.२००५ में लागू किए गए सूचना के अधिकार से कोई खास फायदा होता नजर नहीं आ रहा.सरकार ने प्रशासनिक सुधार पर विचार करने के लिए पहले कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई और फ़िर वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया.मोइली आयोग के मसौदे को अगर लागू कर दिया जाए तो निश्चित रूप से सरकारी कामकाज का ढर्रा बदल जाएगा और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लग जाएगा.आयोग ने नौकरशाहों को सौंपे गए कार्यों के लिए जवाबदेह बनाने की बात कही है,लेकिन सरकार ने अब तक इसे ठन्डे बस्ते में डाल रखा है.नई आर्थिक नीतियों को लागू किए जाने के इतने वर्षों के बाद भी हम अभी तक अपने कामकाज के तौर-तरीके में बदलाव नहीं ला पाए हैं.देश की आजादी के कुछ ही वर्षों में परमिट-लाइसेंस-कोटा राज की जो लौह पकड़ देश की अर्थव्यवस्था पर हावी हो गई आज भी बनी हुई है.देश और अर्थव्यवस्था की आवश्यकतानुसार निर्णय कभी नहीं लिए जाते हैं.महीनों और कभी-कभी कई सालों तक हमारे अफसरशाह मामले को टालते रहते हैं.दरअसल वे अपने अधिकारों का प्रयोग ही अडंगा डालने के लिए करते हैं.उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने के बावजूद हम अपने प्रशासन तंत्र को उदार नहीं बना पाए हैं.इसलिए उदारवादी नीतियों का देश को कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है.उदारवाद का जो भी फायदा हुआ है दुर्भाग्यवश क्रीमी लेयर यानी केवल ऊपर के २ से ३ करोड़ लोगों को हुआ है.प्रधानमंत्री लगभग रोज ही कहते हैं कि विकास की रफ़्तार तेज है लेकिन यह वास्तविक वृद्धि नहीं कही जा सकती.प्रतिव्यक्ति आय में जो बढ़ोत्तरी हो रही है वह इसी क्रीमी लेयर की आय में बढ़ोत्तरी है.ऐसा लगता है कि सरकार प्रशासनिक सुधार करना चाहती ही नहीं है.प्रधानमंत्री नौकरशाही की कछुआ चाल पर चिंता तो व्यक्त करते हैं पर उसके सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाते.जबकि वैश्वीकरण के इस युग में प्रशासनिक सुधार में देरी देश के लिए बहुत घातक होगी.आज आवश्यकता इस बात की है कि मोइली आयोग की सिफारिशें शीघ्रातिशीघ्र लागू की जाएँ.सारी बिमारियों का ईलाज है इसमें.मोइली आयोग चाहता है कि हर विभाग के कामों का लक्ष्य और उसकी सीमा तय हो और इस प्रक्रिया में हर नौकरशाह से जो अपेक्षाएं हों वे सम्बंधित विभाग के मंत्री के साथ लिखित समझौते के रूप में दर्ज की जाए.इतना ही नहीं यह समझौता सार्वजनिक जानकारी में हो जिससे पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके.साथ ही किसी कार्य योजना के मामले में लाभार्थियों की प्रतिक्रियाएं इकट्ठी की जाए ताकि यह आकलन किया जा सके कि लक्ष्य की प्राप्ति वास्तव में हुई है अथवा कागजी या आधी अधूरी रही है.लेकिन सिर्फ कार्यपालिका में सुधार ही काफी नहीं होगा बल्कि न्यायपालिका में भी ठीक इसी तरह की जिम्मेदारी लानी पड़ेगी और इसमें भी ऐसे इंतजाम करने होंगे जिससे मुकदमों का निर्णय सालों के बजाए महीनों में हो सके.साथ ही जानबूझकर गलत निर्णय देने और भ्रष्टाचार में शामिल अधीनस्थ न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक के न्यायाधीशों को दण्डित किये जाने और जरुरत हो तो बाहर का दरवाजा दिखाने की व्यवस्था करनी होगी.इस सम्बन्ध में भी केंद्र सरकार के पास एक संशोधन प्रस्ताव लंबित है और भगवान जाने कब लागू की जाएगी? इसके साथ ही केंद्र को भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टोलरेंस की नीति अपनानी होगी और इसे रोकने के लिए बने निगरानी तंत्र को चुस्त-दुरुस्त करना होगा.यह सही है कि देश आज ८० के दशक के ४-५ % के बजाए ८-९ % की दर से विकास कर रहा है.लेकिन इसी दौर में कृषि क्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है.यही वह दौर है जब हरित क्रांति से भारत के ग्रामीण समाज में आई खुशहाली पर ग्रहण लग गया और प्रति घन्टे के हिसाब से किसान आत्महत्या करने लगे.इस दौर में आई सभी सरकारों ने कृषि,पशुपालन और ग्रामीण उद्योग-धंधों के प्रति उदासीनता दिखाई.नतीजतन आजादी के बाद पहली बार इन क्षेत्रों में नकारात्मक परिवर्तन दर्ज किया गया.इन्हीं नीतियों के चलते कृषि क्षेत्र से श्रम और पूँजी दोनों का पलायन बहुत तेजी से हुआ.आज तमिलनाडु से लेकर जम्मू-कश्मीर तक के किसानों में मातमपुर्सी छाई हुई है.उदारीकरण के कारण सिर्फ सूचना प्रौद्योगिकी जैसे सीमित रोजगार वाले कुछ क्षेत्रों में रोजगार के रोजगार बढे हैं.इसके साथ ही सेवा क्षेत्र का दायरा बढ़ा है जिसमें रोजगार की संभावनाएं नगण्य होती हैं.उद्योग क्षेत्र में कपड़ा,दवा,इमारती सामान जैसे धंधे पिटे हैं तो कंप्यूटर और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों का कारोबार बढ़ा है.वास्तव में वर्तमान काल में देश का जो भी विकास हो रहा है वह रोजगारविहीन विकास है.सरकार को ऊपर बताए गए सुधारों के अलावे इस ओर भी समय रहते ध्यान देना पड़ेगा.अब यह कहने से काम नहीं चलने वाला कि मैं देर करता नहीं देर हो जाती है.यह सही है कि हम वैश्वीकरण अथवा उदारीकरण की प्रक्रिया से अलग नहीं हो सकते लेकिन हमें अपने देश की परिस्थितियों को समझकर अपनी शर्तों के मुताबिक नीतियों को लागू करना पड़ेगा ताकि उसके फायदे का व्यापक विस्तार आम जनता की जिंदगी में भी नजर आये.हाथ पर हाथ रखकर सोंच-विचार का समय समाप्त हो चुका है.सुधार के लिए पहले ही काफी देर हो चुकी है.यह समय अब शीघ्र प्रभावी कदम उठाने का समय है.जागिए मनमोहन,जागिए कृपानिधान.
रविवार, 21 नवंबर 2010
जाने ये कैसा जहर दिलों में उतर गया
जन्म और मृत्यु जीवन के दो विपरीत ध्रुव हैं.एक शुरूआत है तो दूसरा अंत.जो भी है बस इन्हीं दो ध्रुवों के बीच है.जब भी किसी महापुरुष या महास्त्री की जयंती या पुण्यतिथि आती है तो उनके नाम पर राजनीति करनेवाले लोग यह कहना नहीं भूलते कि वे आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं.यूं तो उत्तरोत्तर बढती महंगाई ने जीवन को महंगा बना दिया है.लेकिन कई बार हमें जिंदा रहने के लिए बहुत बड़ा मूल्य चुकाना होता है.कई स्थानों पर नक्सली गरीब आदिवासियों के बच्चों को अपनी कथित जनसेना में भर्ती करने के लिए बन्दूक दिखाकर दबाव डालते हैं और धमकी देते हैं कि जिंदा रहना है तो अपने बच्चे हमें सौंप दो.कई बार कोई चमचा किसी नेता को खुश करने के लिए भरी सभा में उसे जिन्दा आर्दश बताता है.जबकि नेताजी का उन आदर्शों से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता.ऐसा भी कहते हैं कि आदमी मर जाता है पर विचार नहीं मरा करते.आज भी गांधीवाद,मार्क्सवाद आदि को अक्सर जिंदा बताया जाता है.कोई भी वाद जब तक धरातल पर नहीं उतरे तब तक उसका क्या मूल्य है?सिद्धांत तो फ़िर स्वप्न ही है वास्तविकता तो प्रयोग है.इस तरह हम कभी नारों में तो कभी भाषणों में किसी के जिंदा होने की बात बराबर सुनते रहते हैं.क्या हम सचमुच जिंदा हैं?अगर हम जिंदा हैं तो कैसे जिंदा हैं?क्या लक्षण हैं जिंदा रहने के?क्या सिर्फ शारीरिक रूप से जिंदा रहने मात्र से मानव को जीवित मान लिया जाना चाहिए?नहीं,बिलकुल नहीं!!हमारे स्वार्थों ने धरती को बर्बाद कर दिया है.अभी भी ज्ञात आकाशीय पिंडों में सिर्फ धरती पर ही जीवन है.हालांकि हम मानव पिछले ५०-६० सालों से धरती के बाहर जीवन की तलाश में लगे हैं.अगर इसमें सफलता मिल भी जाती है तो हम इसका कितना फायदा उठा पाएँगे अभी भी यह भविष्य के गर्त में है.यह कितनी बड़ी बिडम्बना है कि संवेदनात्मक रूप से तो हम दम तोड़ रहे हैं और तलाश रहे हैं बर्बाद करने के लिए नए ग्रह-उपग्रह को.यूं तो धरती पर जीवों और जीवन की हजारों प्रजातियाँ हैं लेकिन मानव प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना माना जाता है.शायद ऐसा इसलिए हो कि ऐसा बतानेवाले हम मानव हैं.पांच ज्ञानेन्द्रियाँ तो सभी जीवों में होती हैं इसलिए यह आधार तो नहीं हो सकता मानव को धरती का सर्वश्रेष्ठ जीव सिद्ध करने के लिए.बल्कि जो चीज मानव को सर्वश्रेष्ठ बनाती है वह है उसकी संवेदना,एक-दूसरे के सुख-दुःख से उसका प्रभावित होना.लेकिन पिछले सौ सालों में हुई वैज्ञानिक प्रगति ने इसकी सामूहिकता की भावना को क्रमशः कमजोर किया है.अब तो यह क्षरण इस महादशा में पहुँच गया है कि कभी-कभी मानव को मानव कहने में भी शर्मिंदगी महसूस होती है.पहले जहाँ राजतन्त्र में किसी भी व्यक्ति को बहादुरी का प्रदर्शन करने का पुरस्कृत किया जाता था,आज का शासन और समाज उसे अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ देता है.अभी दो दिन पहले ही मेरे शहर हाजीपुर में बैंक डकैती की एक घटना हुई.अख़बारों ने पूरा ब्यौरा छापा कि किस तरह एक डकैत को भागते समय वहां मौजूद लोगों ने पकड़ लिया.लेकिन उसे पकड़ने की पहल करने वाले और इस क्रम में गंभीर रूप से घायल हो गए महादेव नामक ठेलेवाले का कहीं जिक्र नहीं था.उसे और उसकी बहादुरी को तत्काल भुला दिया गया मीडिया द्वारा.गरीब जो ठहरा.खैर बैंक के सामने गोलगप्पे का ठेला लगाने वाले इस अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने अप्रतिम साहस का परिचय देते हुए डकैतों में से एक को पकड़ लिया लेकिन डकैतों द्वारा बम द्वारा प्रहार कर देने से घायल हो गया.घाव गंभीर था इसलिए उसे पी.एम.सी.एच.रेफर कर दिया गया,जहाँ वह उचित ईलाज नहीं होने के कारण तिल-तिल कर मर रहा है.न तो प्रशासन और न ही समाज उसके और उसके भूखे परिवार की सुध ले रहे हैं.भीषण गरीबी के कारण पढाई छोड़ चुका बेटा ईधर-उधर कर्ज के लिए मारा-मारा फ़िर रहा है लेकिन कोई रिश्तेदार या परिचित कर्ज नहीं दे रहा.क्या इस दशा में भी हम कह सकते हैं कि हम जिंदा हैं?क्या लोकतंत्र जिसे जनता का,जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन माना जाता है उसमें एक साहसी व समाजरक्षक की जान की यही कीमत है?फ़िर कोई क्यों जाए सार्वजनिक धन-संपत्ति की रक्षा के लिए जान पर खेलने?जब ओरिएंटल बैंक ऑफ़ कॉमर्स में डकैती हो रही थी तब भीड़-भरे राजेंद्र चौक पर हजारों लोग मौजूद थे लेकिन उनमें जिंदा तो बस एक महादेव ही था जो दिल में देशभक्ति के ज्वार के कारण डकैतों से भिड़ जाने की मूर्खता कर बैठा.क्या आवश्यकता थी उसे ऐसा करने की?बैंक लुट रहा था तो लुटने देता.उसका तो उस बैंक में तो क्या किसी भी बैंक में खाता तक नहीं था.जो गलती उसने की सो की लेकिन उसके प्रति हमारा क्या कर्त्तव्य बनता है? क्या भीड़ में मौजूद इस एकमात्र जिंदा व्यक्ति की मौत हो जाएगी और हम उसे मर जाने देंगे?उसके मर जाने से एक लाभ तो होगा ही कि एक पेट कम हो जाएगा जनसंख्या विस्फोट का सामना कर रहे देश में.वैसे भी गरीबों की जिंदगी की कोई कीमत तो होती नहीं.लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा अस्तित्व ऐसे ही चंद जिन्दा लोगों के चलते कायम है.वरना पूर्ण संवेदनहीनता की स्थिति में हम चाहे शारीरिक रूप से जीवित रहें भी तो मानव पद से गिर जायेंगे और हममें और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाएगा.आज कोई अपराधी किसी को लूट रहा होता है,कोई घायल सड़क किनारे तड़प रहा होता है,किसी की ईज्जत सरेआम तार-तार कर दी जाती है और हजारों जोड़ी आँखें देखकर भी अनदेखा करती रहती हैं.इतना संवेदनहीन तो पशु भी नहीं होता और अगर कोई विरोध की हिम्मत करे भी तो बाद में महादेव की तरह अपने को अकेला पाता है.कहाँ गई परोपकारः पुण्याय की भावना?कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी ने वर्षों पहले ही अपने निबंध गेंहूँ और गुलाब में पेट को गेहूं और मस्तिष्क को गुलाब मानते हुए कहा था कि अगर हमारे लिए गेंहूँ यानी पेट ही सबकुछ है तो फ़िर हम पशु हैं मानव हैं ही नहीं.बल्कि यह गुलाब यानी मस्तिष्क ही है जो हमें उनसे श्रेष्ठ बनाती है.तभी तो हमारे शरीर में पशुओं की तरह पेट और सिर एक ही रेखा में नहीं होते बल्कि मस्तिष्क पेट से काफी ऊपर,सबसे ऊपर होता है.गेंहूँ का गुलाब पर हावी हो जाना मानवता की हार है,मौत है.बढती मानव जनसंख्या के बीच मानवता की मौत पर चिंता व्यक्त करते हुए किसी शायर ने क्या खूब कहा है-जाने ये कैसा जहर दिलों में उतर गया,परछाई जिंदा रह गई इन्सान मर गया.
शनिवार, 20 नवंबर 2010
चोर को बोला चोरी करो और साध से कहा जागते रहो
मेरे गाँव में आपको ऐसे जीव बहुतायत में मिल जाएँगे जो चोर से चोरी करने को कहते हैं तो दूसरी ओर साध यानी घरवालों को कहते हैं जागते रहने को.घरवाले भी खुश और चोर भी प्रसन्न.गाँव वाले ऐसे लोगों को दोगला कहकर सम्मानित करते हैं.कुछ ऐसा ही खेल इन दिनों केंद्र सरकार राष्ट्रमंडल खेल घोटाले में खेल रही हैं.एक तरफ तो सिपाही यानी सी.बी.आई. आदि एजेंसियों को जाँच में लगा दिया कि दूध का दूध और पानी का पानी करो तो वहीँ दूसरी ओर टीम कलमाड़ी यानी चोरों को सेवा विस्तार भी दे दिया.अब सी.बी.आई. समेत जांच में लगी सभी एजेंसियां जांच की प्रगति के लिए जरुरी दस्तावेजों के लिए टीम कलमाड़ी की दया पर निर्भर है.यह जाँच है या जाँच के नाम पर देश को धोखा दिया जा रहा है?इतना ही नहीं खेलों के आयोजन पर हुए व्यय की जांच कर रहे कैग के अंकेक्षक दस्तावेज गायब होने या नष्ट कर दिए जाने का आरोप भी लगा रहे हैं.इन फाइलों के बारे में पूछने पर दूसरी जाँच एजेंसी सी.बी.आई.को आयोजन समिति बता रही है कि समिति को छोड़कर चले गए किसी अधिकारी को इन फाइलों के बारे में जानकारी होगी.आयोजन समिति के अधिकांश अधिकारी और कर्मचारी तो संविदा पर रखे गए थे और खेल ख़त्म होने के बाद उनमें से ६०% दफ्तर छोड़कर जा चुके हैं.ऐसे में यह आसानी से समझा जा सकता है कि टीम कलमाड़ी जाँच में किस तरह सहयोग कर रही है.कहते हैं कि काठ की हांड़ी दोबारा आग पर नहीं चढ़ती लेकिन कांग्रेस पार्टी तो आजादी के बाद न जाने कितनी बार यह चमत्कार कर चुकी है और फ़िर से ऐसा ही करने की कोशिश में है.टीम कलमाड़ी की हरकतों को लेकर सरकार की मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगना लाजिमी है.सरकार को इस बात का फैसला लेना ही होगा कि वह घोटाले के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दिलवाना चाहती है या मामले को येन केन प्रकारेण रफा-दफा कर उनका बचाव करना चाहती है.ए.राजा चूंकि घटक दल से थे इसलिए उनपर कार्रवाई को लेकर केंद्र की कोई मजबूरी हो सकती है लेकिन कलमाड़ी तो उसकी पार्टी के ही हैं.फ़िर उसकी सरकार क्यों उनकों बचाने की कोशिश कर रही है?वादा तो किया गया था कि खेल के बाद सभी छोटे-बड़े आरोपियों को निष्पक्ष जांच के द्वारा सजा दिलाई जाएगी.क्या इस नूरा-कुश्ती को ही कांग्रेसी भाषा में निष्पक्ष जाँच कहते हैं?क्या कोई बिल्ली को ही दही की रक्षा का भार सौंप देता है?लेकिन हमारी मनमोहिनी-जनमोहिनी सरकार ने देश के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करते हुए बिल्ली यानी टीम कलमाड़ी को ही अभी भी सरकारी दही यानी राष्ट्रमंडल खेलों के फंड की देखभाल करने का भार दिया हुआ है वह भी तब जब उसका दही पर हाथ साफ़ करना जगजाहिर हो चुका है.इस प्रकार जब यह साबित हो चुका है कि सरकार भ्रष्टाचार के सभी मामलों की सिर्फ लीपापोती करने के प्रयास में है तो फ़िर हमारे सामने देश को न्याय दिलाने के लिए संयुक्त जांच समिति जाँच के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता.न्यायिक आयोग भी एक विकल्प हो सकता है लेकिन इतिहास से प्राप्त अनुभव बताता है कि ऐसा करने से भी देश को न्याय मिलने की सम्भावना नगण्य है और इसमें २-४ दशकों का समय भी लग जाता है.
शुक्रवार, 19 नवंबर 2010
समर शेष है
हमारे आसपास के कई लोग अक्सर बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं होने फिकरा पढ़ते रहते हैं.लेकिन धरातल की खुरदरी जमीन पर यह आदर्श टिक नहीं पाता.मैं खुद भी इसका भुक्तभोगी हूँ.मैं अपने एक लेख में यह बता चुका हूँ कि मेरे मामा नहीं थे और चचेरे मामा नानी के साथ बराबर मारपीट किया करते थे.एक बार जब उन्होंने नानी का हाथ तोड़ दिया गया तब हमें परिवार सहित नानी की देखभाल के लिए ननिहाल में रहना पड़ा.मेरी माँ अपने माता-पिता की निर्विवाद उत्तराधिकारी थी और अभी भी है.लेकिन नाना के भाई-भतीजों ने हमारा विरोध किया कि पैतृक संपत्ति में पुत्री को हिस्सा नहीं दिया जा सकता.पिताजी प्रोफ़ेसर थे और गाँव के बहुत-से लोग उनसे उपकृत हो चुके थे.लेकिन जब हम लोगों ने गाँव के लोगों से मदद मांगी तो कोई आगे नहीं आया और तटस्थ रहने की बात करने लगे.जाहिर है कि ऐसे में जो पशुबल में आगे था फायदे में रहा.आज भी गाँव में यही स्थिति है.गाँव में ज्यादातर लोग अच्छे हैं लेकिन डरपोक हैं और इसलिए तटस्थ होने का ढोंग कर रहे हैं.हमने न्यायालय में लड़ाई लड़ी और जीत भी हासिल की वो भी बिना गाँववालों की मदद के.हमारे देश में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है.आज भी हर जगह ईमानदारों का बहुमत है.लेकिन ये लोग गांधीजी के असली बन्दर हैं और कुछ देखो मत,कुछ सुनो मत और बोलने का तो प्रश्न ही नहीं;इनका वेदवाक्य है.लालू-राबड़ी के घोटाला युग में एक पंडितजी बिहार के मुख्य सचिव बनाए गए थे.पूरे ईमानदार.कभी-कभी तो रिक्शे से भी कार्यालय पहुँच जाते.कभी हराम के पैसे को हाथ नहीं लगाया.लेकिन जब भी जहाँ भी सत्ता ने उनसे हस्ताक्षर करने को कहा हस्ताक्षर करते रहे.घोटाले पर घोटाला होता रहा.ईमानदार रहे पर बेईमानी को रोकने की कोशिश भी नहीं की.उनकी इस तटस्थतापूर्ण ईमानदारी से किसको लाभ हुआ?राज्य या देश को तो नहीं ही हुआ.फ़िर ऐसी ईमानदारी किस काम की और किसके काम की?कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ईमानदारी की कसमें खाते नहीं थक रहे.लेकिन क्या उनकी ईमानदारी भी तटस्थतापूर्ण नहीं है?उन्होंने क्यों किसी मंत्री को कभी कुछ भी गलत करने से नहीं रोका?उनके मंत्रिमंडल के सदस्य मनमानी करते रहते हैं और वे मूकदर्शक बने रहते हैं.संविधान द्वारा प्राप्त अधिकारों का भी उपयोग नहीं करते.व्यक्तिगत रूप से वे भले ही ईमानदार हों लेकिन कर्त्तव्य के प्रति तो ईमानदार नहीं हैं.ठीक यही सब द्वापर में तब हुआ था जब ध्रितराष्ट्र हस्तिनापुर के राजा थे.क्या फ़िर से हस्तिनापुर में एक ध्रितराष्ट्र का शासन नहीं है?उस समय भी दुर्योधन ने अपने लोगों के लिए खजाने का मुंह खोल दिया था केंद्रीय मंत्री भी तो यही कर रहे हैं.मनमोहन की ईमानदारी से देश को नुकसान छोड़कर क्या कोई लाभ भी मिला है?नहीं.तब फ़िर उनकी ईमानदारी का क्या लाभ?तटस्थतापूर्ण ईमानदारी के कायर धर्म का पालन करनेवाले सारे लोग परोक्ष रूप से महाभारत काम में भी बेईमानों को फायदा पहुंचा रहे थे और आज भी बेईमानों को लाभ पहुंचा रहे है.महाभारत काल में भी भीष्म,द्रोण और कृप की तटस्थता से दुर्योधन ने ही लाभ उठाया था आज भी आज के दुर्योधन उठा रहे हैं.ये ईमानदार लोग वास्तव में ऐसी गायों के समान हैं जो न तो दूध ही दे सकती है और न ही बछड़ा जन सकती है.इतिहास गवाह है कि हस्तिनापुर को उनके इन शुभचिंतकों की तटस्थता का मूल्य चुकाना पड़ा और मगध ने पूरे देश पर कब्ज़ा कर लिया.इन महारथियों का कर्तव्य था कि वे सत्ता और पुत्र के मोह में पड़े राजा को गद्दी से हटाकर युधिष्ठिर को राजा बनाते.लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और हस्तिनापुर पर एक अंधा और अयोग्य व्यक्ति को राजा बने रहने दिया.जबकि मगध में हमेशा योग्यतम का शासन रहा.इसलिए वहां बार-बार वंश परिवर्तन देखने को मिलता है.यही कारण था कि मगध ने १००० साल तक भारतवर्ष पर शासन किया.आज द्वापर समाप्त हुए हजारों वर्ष बीत चुके हैं और हजारों सालों के बाद हम इन तटस्थ ईमानदारों द्वारा की गई गलतियों का विश्लेषण कर रहे हैं.आनेवाला कल निश्चित रूप से हमारा भी विश्लेषण करेगा और तब सभी तटस्थ ईमानदार लोग अपराधी घोषित किए जाएँगे.इसलिए ऐसे तत्वों को महाभारत से शिक्षा ग्रहण करते हुए तटस्थता का त्याग कर युद्ध छेड़ना चाहिए,असत्य और अन्यायी तत्वों के खिलाफ.सत-असत का संघर्ष हमेशा चलते रहने वाला संघर्ष है.यह महाभारत काल में भी चल रहा था और आज भी जारी है और भविष्य में भी चलते रहनेवाला है.राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-समर शेष है,नहीं पाप का भागी केवल व्याध;जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध.
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
यह युग परन्तु का युग है
इस युग के बारे में लोगों के विचारों में पर्याप्त मतभिन्नता है.कुछ लोग मानते हैं कि यह युग कलियुग है तो कुछ लोग इसे भ्रष्ट युग कहते हैं.कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इसे स्वर्ण युग मान रहे हैं.लेकिन मेरी मानें तो यह युग केवल और केवल परन्तु का युग है.मैं अपने-आपको परन्तु के चक्रव्यूह में घिरा हुआ पा रहा हूँ.चाहे मेरा व्यक्तिगत मामला हो या फ़िर मेरे राज्य या देश से सम्बंधित.होना कुछ और चाहिए और होता कुछ और ही है क्योंकि यह परन्तु वैसा नहीं होने देता.मेरे जीवन,मेरे देश और मेरे राज्य में बहुत-कुछ अप्रिय घटित होता रहा है.उन्हें रोका भी जा सकता था या अब भी रोका जा सकता है परन्तु 'परन्तु' हर जगह आकर ऐसा होने नहीं देता.बिना परन्तु के मेरा कोई वाक्य पूरा होता ही नहीं.बचपन के १५-१६ का जो समय गाँव में गुजरा उसे मैं आज भी अपने जीवन का सबसे अच्छा समय मानता हूँ.आज भी उन्ही क्षणों को याद कर जी रहा हूँ और चाहता हूँ कि फ़िर से गाँव में ही रहूँ परन्तु कई प्रश्न आकर मुझे घेर लेते हैं जैसे अभिमन्यु को सात-सात महारथियों ने घेर लिया था.जैसे-बच्चे कैसे गाँव में पढेंगे क्योंकि गाँव के सरकारी स्कूल में अब पढाई का स्तर काफी गिर चुका है,गाँव में बिजली नहीं है वगैरह-वगैरह.सबसे पहले तो गिरते हुए घर का पुनर्निर्माण करवाना पड़ेगा.गाँव में तो फ़िर भी घर है यहाँ शहर में २० सालों से किरायेदार की जिंदगी बीता रहा हूँ.पहले ईमानदार होने पर पारितोषिक मिला करता था अब दण्डित-अपमानित होना पड़ता है.इन बीस सालों में १० मकान बदल चुका हूँ और हर जगह से अपमानित होकर निकला हूँ.पिताजी कॉलेज में प्रधानाचार्य थे.भ्रष्ट होते तो कब का अपना घर बन गया होता परन्तु वे बदलते युगधर्म से तनिक भी प्रभावित नहीं हुए और ईमानदारी को ही सबसे बड़ी पूँजी मानते रहे जबकि इस परन्तु के युग में तो पूँजी के अलावा कोई पूँजी है ही नहीं.यहाँ भी परिणति परन्तु है.मैं आज भी बेरोजगार हूँ तो अपनी कबीराना तबियत के कारण.वो कहते हैं न कि 'कुछ तबियत ही मिली है ऐसी चैन से जीने की फ़ुरसत न हुई, जिसको चाहा उसे अपना न सके जो मिला उससे मुहब्बत न हुई'.मैं भी पिताजी की ही तरह ईमानदार और खुद्दार किस्म का इंसान हूँ.मुई ईमानदारी के कारण रामविलास पासवान के रेलमंत्री रहते समय रेलवे में घूस देकर जा नहीं सका और निगोड़ी खुद्दारी के चलते अब प्रेस की नौकरी नहीं कर पा रहा हूँ.वैसे कायदे से मुझे सिविल सेवा में होना चाहिए था परन्तु २००३ के अक्तूबर में डेंगू मच्छर ने मुख्य परीक्षा का अंतिम पेपर नहीं देने दिया.एक छोटे-से मच्छर ने मेरी जिंदगी के आगे सबसे बड़ा परन्तु खड़ा कर दिया.इससे पहले मैं अगर इलाहाबाद जाते समय मुगलसराय स्टेशन पर टाइप मशीन लिए गिरता नहीं तो आज केंद्र सरकार का तृतीय वर्ग का ही सही कर्मचारी होता परन्तु होनी ही ख़राब थी.इसी तरह अगर १९९९-२००० में बोकारो जाते समय मेरी बस ख़राब नहीं हुई होती तो मैं बिहार सरकार में शिक्षक होता परन्तु बदमाश एक बार नहीं तीन-तीन बार ख़राब हुई और मैं परीक्षा केंद्र पर तब पहुंचा जब परीक्षा समाप्त हो रही थी.इसी तरह मेरा राज्य बिहार भी परन्तु का शिकार होता रहा है.आजादी के समय यह भारत का दूसरा सबसे धनी राज्य था परन्तु बाद में केंद्र द्वारा बरते गए भेदभाव के कारण पीछे और पीछे होता चला गया.फ़िर भी १९९० तक वह कई अन्य राज्यों से आगे था परन्तु लालू के आने के बाद सब बर्बाद हो गया और यह प्रत्येक मामले में पीछे से नंबर १ हो गया.ऐसा भी नहीं है कि हम लालू-राबड़ी के १५ सालों के शासन में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे परन्तु हमारे द्वारा खिलाफ में मतदान करने के बावजूद वे सत्ता में बने रहे.फ़िर सत्ता बदली परन्तु तब तक राज्य का बंटवारा हो चुका था और बिहार में बतौर लालू सिवाय लालू,बालू और आलू के कुछ नहीं बचा था.मतलब कि जब मौके थे तब कदम नहीं उठाया गया और जब कुछ हद तक जिम्मेदार शासन आया तो साधन ही नहीं थे.इसे कहते हैं गंजे के हाथ में कंघी का आना.अब अपने भारत को लें तो अगर नेहरु-पटेल-प्रसाद आदि कांग्रेसी नेताओं ने गलतियाँ नहीं की होती और जिन्ना ने हठधर्मिता नहीं दिखाई होती तो न तो देश में मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे बड़ा सांप्रदायिक संघर्ष ही होता और न ही देश का बंटवारा ही होता परन्तु ऐसा हुआ.भारत पहले १९४७ में पाकिस्तान से और फ़िर १९६२ में चीन से हारा और लाखों वर्ग किलोमीटर जमीन से हाथ धो बैठा.इस स्थिति से भी बचा जा सकता था परन्तु नेहरु ठहरे सपनों में जीनेवाले और हम उनके द्वारा देखे गए आदर्शवादी सपनों का मूल्य आज तलक चुका रहे हैं और आगे भी चुकाते रहेंगे.बाद में शास्त्री और इंदिरा को पाकिस्तान से जमीन वापस पाने का अवसर भी मिला परन्तु ये लोग युद्ध जीतने के बाद मन में अचानक पैदा हुए आदर्शवाद के चलते ऐसा कर पाने में असमर्थ रहे.भारत को गांधी-नेहरु परिवार के कुशासन से बचाया जा सकता था यदि शास्त्री की रहस्यमय स्थितियों में मौत नहीं हुई होती परन्तु शास्त्री की मौत होनी थी सो हुई.कैसे हुई सामने आना चाहिए था परन्तु यह तब भी रहस्य था आज भी रहस्य है.इसी तरह मेरे,मेरे राज्य और मेरे देश के जीवन में बहुत-कुछ ऐसा होता रहा जैसा होना नहीं चाहिए था परन्तु उनकी व्याख्या इस आधार पर नहीं की जा सकती कि ऐसा हुआ होता तो क्या होता और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो क्या नहीं होता.बल्कि उन्हें अब सिर्फ होनी ही कहा जा सकता है.आज देश के जो हालात हैं उस पर गोपी फिल्म का 'रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा,हंस चुनेगा दाना धूर्त कौआ मोती खायेगा' वाला गीत एकदम सटीक बैठता है.आजादी के दीवाने शहीदों ने देश के भविष्य के बारे में क्या-क्या सपने देखे थे परन्तु जब बहार आने का समय आया तो हर डाल पर उल्लू नजर आने लगे.भारतेंदु ने सवा शताब्दी पहले जब भारत दुर्दशा या अंधेर नगरी लिखा था तब वे नहीं जानते थे कि इतने समय बाद भी उनके ये नाटक सामयिक बने रहेंगे.ठीक यही बात प्रेमचंद के गोदान के बारे में भी कहा जा सकता है जिसके प्रकाशन के भी ८० साल होने को हैं.परन्तु सच्चाई तो यही है कि देश में आज भी अंधेर मचा हुआ है और चौपट लोगों का शासन है.सच यह भी है कि जनता चाहे तो अच्छे लोग भी सत्ता में आ सकते हैं परन्तु अगर नेता ५० साल पहले वाले नेता नहीं रहे तो जनता भी तो ५० साल पहले वाली जनता नहीं रही.और इस परन्तु के बार-बार आने का सबसे बड़ा कारण यही है कि हम अब तक अपने आपको लोकतंत्र के मुताबिक ढाल ही नहीं पाए हैं.लोकतंत्र में वोट से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होती है नैतिकता.मतदाताओं में नैतिकता का जो स्तर होगा लोकतंत्र का भी वही स्तर होगा परन्तु सरकारें और चुनाव आयोग का सारा जोर सिर्फ मतदान के प्रतिशत में वृद्धि पर होता है.जड़ का कहीं पता ही नहीं और सिंचाई हो रही है तने की.सिर्फ और सिर्फ इसलिए यह परन्तु वाक्यों में घुसपैठ कर जा रहा है क्योंकि हमारा नैतिक पतन हो रहा है.हम चाहकर भी तब तक इससे पीछा नहीं छुड़ा सकते जब तक हमारी नैतिकता का ग्राफ गोते लगाने के बदले ऊपर नहीं उठने लगे और जब तक नैतिकता के सेंसेक्स में वृद्धि दर्ज होना शुरू नहीं होता हमें न चाहते हुए भी इसके साथ ही जीना होगा.
बुधवार, 17 नवंबर 2010
घटना ही नहीं प्रतीक भी है लक्ष्मीनगर हादसा
कभी पटना में तो कभी मुम्बई में अक्सर घर गिरते रहते हैं लेकिन चूंकि इस बार घटना दिल्ली की थी इसलिए शोर भी ज्यादा हुआ.दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की राजधानी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में ५ मंजिला ईमारत को गिरे दो दिन बीत चुके हैं.अभी भी मकान के मलबे में से जिंदगियों की तलाश जारी है.इस मकान में रहनेवाले लोगों को क्या पता था कि उनका घर ही उनके लिए कब्र बन जाएगा,जिंदा लोगों का कब्र.१०-११ साल के शिबू का सबकुछ छिन गया है.वह अपने परिवार का एकमात्र जीवित सदस्य है.उसकी समझ में यह नहीं आ रहा कि वह अपने को अभागा माने या भाग्यशाली.मैं यह नहीं कहूँगा कि यह घटना केंद्र सरकार की नाक के नीचे हुई.केंद्र सरकार के भीतर ही क्या-कुछ नहीं हो रहा?यह सिर्फ एक घटना मात्र नहीं है यह प्रतीक भी है.यह घटना प्रतीक है हमारी व्यवस्था की नींव में लगे भ्रष्टाचार के घुन का जो लगातार हमारे संप्रभु देश को खोखला कर रहा है.यह घटना प्रतीक है अनिश्चितकालीन सुसुप्तावस्था में चले गए तंत्र का.कैसे एक व्यक्ति ने ईमारत बनाने के लिए सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों का उल्लंघन करते हुए अवैध रूप से इतनी ऊंची ईमारत खड़ी कर दी?जिन लोगों पर निर्माण की निगरानी करने की जिम्मेदारी थी उन्होंने क्यों अपने कर्तव्यों का सम्यक रूप से निर्वहन नहीं किया?सच्चाई तो यह है सभी सरकारी दफ्तरों में रिश्वत का बाज़ार गर्म है और रिश्वत देकर कुछ भी करवाया जा सकता है.जहाँ २ मंजिल से ज्यादा ऊंची ईमारत बनाने की अनुमति नहीं है वहां भी रिश्वत देकर २० मंजिला मकान बड़े शौक से बनाया जा सकता है.अभी कुछ साल पहले जब कलाम साहब भारत के राष्ट्रपति थे तब कुछ पत्रकारों ने उत्तर प्रदेश के किसी प्रखंड में रिश्वत देकर उनके नाम पर राशन कार्ड बनवा लिया था.आए दिन जीवित लोगों के मृत्यु प्रमाण पत्र बना कर संपत्ति हड़पने की घटनाएँ भी देश के विभिन्न भागों से प्रकाश में आती रहती है.१० हजार रूपये से भी कम वेतन पानेवाला हल्के का कर्मचारी महीने में कम-से-कम २-३ लाख रूपये की ऊपरी (अवैध) कमाई कर रहा है.कई साल हुए मैंने 1984 में प्रदर्शित हुई एक फिल्म देखी थी नाम था इन्कलाब.फिल्म में अमिताभ बच्चन एक ऐसे ईमानदार पुलिस अफसर बने हैं जिसे माफिया चक्रव्यूह में फँसा लेते हैं.जनता में बनी उनकी अच्छी छवि के बल पर माफियाओं की पार्टी चुनाव जीतती है.इस फिल्म में अमिताभ के किरदार का नाम है अमरनाथ.फिल्म के अंत में अमरनाथ विधायकों की बैठक में भाग लेने जाते हैं.बाहर जनता जय-जयकार कर रही होती है.भीतर शराब,जुआ,परिवहन,खान,पेट्रोलियम,शिक्षा,चीनी आदि चीजों के माफिया विधायकों के साथ अमरनाथ विचार-विमर्श कर रहे हैं कि किसको कौन-सा महकमा दिया जाए.पार्टी अध्यक्ष उन्हें संभावित मंत्रियों की सूची जिसमें विभागों का भी वर्णन है,थमाता है.सूची में शराब माफिया को उत्पाद मंत्री,परिवहन माफिया को परिवहन मंत्री,जुआ माफिया को गृह मंत्री,खान माफिया को खान मंत्री यानी जो जिस चीज का माफिया होता है उसे ही वह विभाग देने का प्रस्ताव है.अमरनाथ शपथ-ग्रहण से पहले ही इन्हें मशीन गन जिसे वे अटैची में लेकर आए थे से भून डालते हैं.सिनेमा हॉल में जमकर तालियाँ बजती हैं और लोग बाहर निकलने लगते हैं.कितना बड़ा व्यंग्य है हमारी व्यवस्था पर टी. रामाराव की यह फिल्म!आज क्या देश में यही स्थिति नहीं है?क्या हमारे देश में अयोग्यता ही सबसे बड़ी योग्यता नहीं बन गई है?शासन के तीनों अंगों व्यवस्थापिका,न्यायपालिका और कार्यपालिका में सबसे ऊपर से सबसे नीचे तक कमोबेश सभी भ्रष्ट हैं.१०० में ९९ बेईमान हैं फ़िर क्यों न हो लक्ष्मी नगर हादसा?आदर्श सोसाईटी घोटाले में तो सेना के पूर्व आला अधिकारियों पर भी गड़बड़झाला में शामिल होने के आरोप हैं.पूर्वी उत्तर प्रदेश के भारत-नेपाल सीमा पर स्थित एक बैंक का कैशियर नकली नोट को असली से बदलते हुए पकड़ा गया.सुप्रीम कोर्ट स्वयं २जी स्पेक्ट्रम मामले में प्रधान मंत्री कार्यालय की भूमिका पर ऊंगली उठा रहा है तो फ़िर बचा कौन?कुल मिलाकर भारत की हालत संतोषजनक से नाजुक तक पहुँच चुकी है.पूरा का पूरा लोकतान्त्रिक ढांचा चरमरा गया है ऐसे में किसी मकान में अवैध निर्माण करना कौन-सा मुश्किल काम है?जब दिल्ली में बिना भूकंप के ही घर गिर रहे हैं तो भूकंप आने पर क्या होगा?हमें याद रखना चाहिए कि दिल्ली भूकंप जोन ४ में स्थित है और यहाँ कभी भी ८ रियक्टर स्केल का तेज भूकम्प आ सकता है.भगवान न करे कि ऐसा हो लेकिन अगर ऐसा हुआ तो लाखों लोगों के मारे जाने के लिए और कोई नहीं बल्कि भ्रष्टाचार का चारागाह बन चुका तंत्र ही जिम्मेदार होगा.तंत्र हो या व्यक्ति उसको सुधारने के दो ही रास्ते होते हैं-१) पहले समझाया जाता है,गलत काम नहीं करने और अच्छे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया जाता है.२)और जब बात का कोई असर नहीं हो तब लात से काम लेना पड़ता है यानी दण्डित करना पड़ता है.हमारी सरकार ने नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम से ही बाहर कर दिया है और न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल और लाचार है कि सजा दिलवाना भी टेढ़ी खीर है.अगरचे होता तो यह भी है कि अभियोजन पक्ष घूस खाकर केस को ही कमजोर कर देता है और अपराधी छूट जाता है.यानी हमारी सरकारें जिनमें केंद्र और राज्यों दोनों प्रकार की सरकारें शामिल हैं न तो पहले प्रकार के कदम ही उठा रही हैं और न ही दूसरे प्रकार के.इस तरह लक्ष्मीनगर का हादसा इस बात का द्योतक भी है कि हमारी सरकारें यथास्थितिवादी बन गई हैं और इसलिए आगे स्थिति सुधरने के बजाए बिगड़ने ही वाली है.तो फ़िर चाय पीते हुए टी.वी. देखिए,अख़बार पढ़िए और इंतजार करिए अगले और भी दर्दनाक लक्ष्मीनगर का.
मंगलवार, 16 नवंबर 2010
दीवार नहीं पहाड़ हैं हरभजन
यह हमारे लिए गर्व की बात है कि भारत आज टेस्ट क्रिकेट वर्ल्ड रैंकिंग में नंबर १ है.हो भी क्यों नहीं उसके पास एक से एक नायाब हीरे जो हैं.लेकिन जो हीरा वर्तमान भारत-न्यूजीलैंड श्रृंखला में सबसे ज्यादा चमक बिखेर रहा है वह है हरभजन सिंह.भारत के नए संकटमोचक.दीवार तो टीम में पहले से ही कई हैं.हरभजन सिंह तो पहाड़ हैं जिसको लांघे बिना किसी भी टीम के लिए भारत पर जीत दर्ज करना असंभव बन चुका है.८ नवम्बर को समाप्त हुए पहले टेस्ट मैच की दूसरी पारी में जब उन्हें बल्लेबाजी के लिए उतारा गया तब भारत की स्थिति बहुत ही नाजुक थी.रेडियो पर मैच का आंखो देखाहाल सुना रहे उद्घोषक भारत द्वारा टेस्ट क्रिकेट में बनाए गए न्यूनतम स्कोरों का विश्लेषण करने में लगे थे.दर्शकों ने भी मान लिया था कि आज सबसे कम रन पर सिमटने का नया रिकार्ड बनने जा रहा है.हार को तो लगभग तय माना जा ही रहा था.हार के साथ ही भारत का टेस्ट शिखर पर से फिसलना भी तय था.पहला विकेट गंभीर के रूप में ० पर,दूसरा सहवाग के रूप में १ पर,तीसरा द्रविड़ के रूप में २ पर,चौथा और पांचवां सचिन और रैना के रूप में १५ पर और छठा विकेट कप्तान धोनी के रूप में ६५ पर गिर चुका था.मार्टिन और विटोरी की गेदें आग उगल रही थीं लेकिन हरभजन सिंह तो कुछ और ही सोंचकर उतरे थे.मैदान पर दीवार और संकटमोचक के नाम से प्रसिद्ध अटल इरादोंवाले लक्ष्मण पहले से ही मौजूद थे.एक तरफ दीवार और दूसरी तरफ पहाड़.जब लक्ष्मण ७वें विकेट के रूप में मैदान से बाहर गए तो स्कोरबोर्ड पर २२८ रन दर्ज हो चुके थे और भारत खतरे से बाहर था.लेकिन हरभजन की रनों की भूख अभी मिटी नहीं थी.नौवें विकेट के रूप में जब उन्हें टेलर ने अपना शिकार बनाया तब स्कोरबोर्ड २६० की रन संख्या दर्शा रहा था.हरभजन ने न सिर्फ भारत को चिंताजनक स्थिति से उबारा बल्कि अपने टेस्ट कैरियर का पहला शतक भी लगाया.२७२ मिनट तक क्रीज पर रहते हुए १९३ गेंदों पर ३ आसमानी छक्कों और ११ चौकों की मदद से उन्होंने कुल ११५ रन बनाये और साबित कर दिया कि चाहे खेल हो या जीवन,प्रत्येक क्षेत्र में तकनीक से ज्यादा जज्बा काम करता है.इन छक्कों में वह आसमानी छक्का भी शामिल था जिसके द्वारा उन्होंने अपना शतक पूरा किया.इससे पहले वे पहली पारी में भी ६९ रन बना चुके थे.हालांकि इस मैच में गेंदों के द्वारा वे कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर सके लेकिन अपनी बल्लेबाजी के द्वारा उन्होंने न सिर्फ इसकी भरपाई कर दी बल्कि ऐसी परियां खेली कि लोग उनमें भारत के महानतम हरफनमौला कपिलदेव का अस्क देखने लगे.इतना ही नहीं अभी हैदराबाद में चल रहे दूसरे टेस्ट में न्यूजीलैंड की पहली पारी में ४ खिलाडिओं को पेवेलियन का रास्ता दिखा चुकने के बाद पहली पारी में बल्ले से एकबार फ़िर जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए नाबाद १११ रन बना चुके है.इन पारी में भी जबरदस्त आतिशबाजी देखने को मिली.अपने प्रशंसकों के बीच भज्जी के नाम से लोकप्रिय इस जाबांज ने ७ छक्के और ७ चौके लगाए और कभी भी दबाव में नहीं दिखे.हरभजन क्रिकेट ही तरह जीवन में भी हरफनमौला हैं.वे रैम्प के भी चैम्प हैं और ठुमके लगाने में भी उनका जवाब नहीं.विवादों से तो जैसे उनका जन्म-जन्म का नाता है.कभी साइमंड्स पर कथित नस्लभेदी टिपण्णी के चलते तो कभी श्रीसंत को तमाचा मारकर वे सुर्ख़ियों में आते रहे हैं.लेकिन उनके प्रदर्शन पर कभी विवादों का असर नहीं पड़ा.जहाँ तक क्रिकेट कैरियर का प्रश्न है तो मुथैय्या मुरलीधरन की नजर में दुनिया का यह सर्वश्रेष्ठ स्पिनर अब तक ८९ टेस्ट मैचों में 373 विकेट और २१० अंतर्राष्ट्रीय एकदिवसीय मैचों में २३८ विकेट ले चुका है.इतना ही नहीं वे टेस्ट मैचों में १८.५८ के औसत से १८८५ रन और एक दिवसीय मैचों में १३.२४ के औसत से १०५९ रन भी बना चुके हैं.बल्लेबाजी के आंकड़े भले ही बहुत आकर्षक नहीं लग रहे हों लेकिन यह भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि जब-जब टीम पर संकट आया है तब-तब हरभजन ने जबरदस्त बल्लेबाजी के द्वारा टीम को उबारा है.यानी इन रनों में से अधिकतर रन जबरदस्त दबाव के क्षणों में बने हैं.अभी भज्जी ने कुछ ही महीने पहले अपना ३०वाँ जन्मदिन मनाया है और अभी कम-से-कम ५-६ साल तो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में रहनेवाले हैं.उन्होंने कई मंजिलें तय की हैं और अभी कई मंजिलें तय करनेवाले हैं हम ऐसी उम्मीद करते हैं.वेलडन भज्जी.
सोमवार, 15 नवंबर 2010
बड़े बेआबरू होकर मंत्रालय से तुम निकले
आखिर यूपीए को बढ़ते जनदबाव के आगे झुकना पड़ा और अपने राजाजी अब राजा नहीं रहे लेकिन वे हमेशा जनता के दिलों में,उनकी यादों में बने रहेंगे.उन्होंने देश को पौने २ लाख रूपये का महाघोटाला जो दिया है.वरना हमने तो चारा और अलकतरा जैसे हजार-पॉँच सौ करोड़ के छोटे-मोटे घोटालों के बारे में पढ़-सुनकर संतोष कर लेना सीख लिया था.हमारे राजाजी ने हमें इस बात की अमूल्य शिक्षा दी है कि हमेशा बड़े की तमन्ना करो.वे अभी भी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं हैं और यह भी नहीं बता रहे कि इतना बड़ा घोटाला फ़िर उजागर हुआ किसकी गलती से.गजब का जीवट है उनका.मामला उजागर होने के बाद भी १ साल तक कुर्सी से चिपके रहे और जब देखा कि अब इस्तीफा देना ही पड़ेगा तब अपनी कालिख भरी बाँहों की आगोश में लेना चाहा प्रधानमंत्री कार्यालय को भी.शायद किसी ने मेरे गाँव की कहानी उन्हें भी सुना दी है.संचार क्रांति का समय जो है.हुआ यूं कि मेरे गाँव के एक गरीब ग्वाले को लड़की की शादी करनी थी.सो काफी परेशान रहा करता था.एक दिन बाल मूड देने के बाद जब गाँव का नाई उसकी दाढ़ी बना रहा था तब उसने उससे अपनी व्यथा सुनाई.नाई ने उससे कहा कि पहले क्यों नहीं बताया?वैसे यह उसका तकियाकलाम था.आगे उसने कहा कि उसके ससुराल में एक बड़ा ही होनहार लड़का है.उन दिनों होनहार का मतलब अच्छी खेती-गृहस्थी करनेवाला माना जाता था.दोनों एक दिन चल पड़े लड़का देखने.तब न तो गाड़ियाँ थी और न ही साईकिल वगैरह.पैदल चलते-चलते बीच जंगल में रात हो गई.कहानियों में रात हमेशा बीच जंगल में ही होती है.उन्होंने एक बड़े पेड़ की तलाश की और उसके मोटे तने पर सो गए.रात गहराई तो डाकुओं का गिरोह आ गया और उसी पेड़ के नीचे अपनी मेहनत की कमाई का बंटवारा करने लगा.जब वे लोग झगड़ने लगे तब तेज आवाज से ग्वाले भाई की नींद खुल गई और डर के मारे तना हाथ से छूट गया.बेचारा डालों से टकराता हुआ नीचे गिरने लगा.तभी नाई की नींद खुल गई.लेकिन नाई ठहरा चतुर-सुजान.सो घबराया नहीं और नाक से बोला,सरदार को ही पकड़ना.डाकुओं को लगा कि कोई भूत-पिचाश है और चूंकि सरदार का नाम लिया गया था इसलिए पहले भागने की बारी भी उसी की थी.आगे-आगे सरदार और पीछे-पीछे अन्य.पलक झपकते मैदान साफ़.सबसे पहले इस लोककथा से प्राप्त शिक्षा का प्रयोग हर्षद मेहता ने किया था प्रधानमंत्री नरसिंह राव के विरुद्ध.बाद में तो जैसे इस तरह के मामलों की बाढ़ ही आ गई.कुछ ही समय पहले कॉमन वेल्थ यानी कॉमन मैन के धन के गबन के आरोपी सुरेश कलमाड़ी भी पी.एम. कार्यालय को लपेटे में लेने की नाकामयाब कोशिश कर चुके हैं.अब इस फार्मूले से वे दोनों ग्रामीण तो बच गए थे.ऊपर से आर्थिक लाभ भी हुआ था.आर्थिक लाभ तो इन लोगों को भी हुआ लेकिन पगड़ीवाला सरदार डरा नहीं.उल्टे कुर्सी छीन ली.राजनीति में २ और २ चार ही हो कोई जरुरी भी तो नहीं.पौने दो लाख करोड़ के ऐतिहासिक घोटाले के कारण अपने राजाजी अभूतपूर्व तो पहले ही हो गए थे अब भूतपूर्व भी हो गए हैं.लेकिन होने से पहले हमें अवसर दे गए गर्व करने का अपने महान राष्ट्र पर.जहाँ मंत्री घोटाले में फँसने पर भी पूरे सालभर तक पद पर बना रहता है.दुनिया के किसी भी अन्य लोकतंत्र में ऐसा कोई उदाहरण नहीं.इट हैप्पेंस ओनली इन इंडिया.अब यूपीए यह कह सकती है कि राजाजी जैसे जिद्दी से इस्तीफा दिलवाकर उन्होंने उदाहरण पेश किया है.लेकिन ऐसा करके उसने देश पर कोई एहसान नहीं किया है.राजाजी तो उसके लिए गले की हड्डी बन गए थे जिसे या तो निगला जा सकता था या फ़िर उगला ही जा सकता था.जब तक बन पड़ा निगलने की कोशिश करते रहे.लेकिन जब देखा कि हड्डी बड़ी होती जा रही है तो उगल दिया और कोई उपाय भी तो नहीं था.मरता क्या नहीं करता?हम भाई लोग कब से अपनी आदत से मजबूर होकर राजाजी को मुफ्त में सलाह दे रहे थे कि सत्ता का मोह त्यागो,सब माया है.लेकिन वे ठहरे नास्तिक पार्टी के नेता सो ध्यान ही नहीं दिया.नहीं तो इस तरह इतना बेईज्जत होकर तो मंत्रालय से बाहर नहीं होना पड़ता.खैर राजाजी को अब भी चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है.बिलकुल भी नहीं.इस घोटाले का उनके कैरियर पर यक़ीनन कोई असर नहीं होगा.हमारी जनता की मेमोरी बहुत कम है १ जीबी से भी कम.वह बहुत जल्दी सबकुछ भूल जाएगी और फ़िर से जय-जयकार करने लगेगी.बस उस समय तक इन्तजार करना पड़ेगा और थोड़ी अंटी भी ढीली करनी पड़ेगी.खैर नेता हो या कोई आम आदमी बुरे वक़्त के लिए ही तो कमाता है.जय राजाजी,जय लोकतंत्र.तो अब आज्ञा दीजिए किसी अन्य राजनेता का घोटाला पुराण लेकर हम बहुत जल्द हाजिर होंगे.हमारे राजनेता बड़े ही योग्य हैं घबराईए नहीं हमें बिलकुल भी इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा और बहुत जल्दी कोई सूरमा इस पौने दो लाख करोड़ के नेशनल रिकार्ड को भंग कर देगा.तब तक के लिए हम कुछ और बात कर लेंगे.और भी बातें हैं ज़माने में घोटालों के सिवा.
शनिवार, 13 नवंबर 2010
राजा तुम कब जाओगे
एक समय वो भी था जब मंत्री लोग भ्रष्टाचार का आरोप लगते ही शर्म के मारे इस्तीफा दे देते थे.लेकिन वक़्त बदला और समाज और देश में नैतिकता दुर्लभ हो गई. बांकी क्षेत्रों में भले ही कुछ नैतिकता बच हुई है भी लेकिन राजनीति से तो यह कपूर की माफिक उर्ध्वपातित ही हो गई है.साथ ही इस व्यवसाय से शर्म भी महानतम पशु गदहे की सिंग की तरह गायब हो गई है.अब मंत्री सारे सबूत खिलाफ होने पर भी पद से इस्तीफा नहीं देता बल्कि ढीठ की तरह कानूनी लड़ाई लड़ता है.जेल जाता भी है तो गर्व के साथ हाथी पर सवार होकर.समर्थकों का जुलूस जय-जयकार करता हुआ उसके पीछे नारा लगाता है-जब तक सूरज-चांद रहेगा.......मानों भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाना शर्म की नहीं गौरव की बात हो.राजतन्त्र में भी राजा जनविद्रोह से डरता था.आज का राजा जनता से नहीं डरता और कुर्सी से फेविकोल लगाकर चिपका रहता है.भले ही उस पर १ लाख ७६ हजार करोड़ रूपये के महाघोटाले का आरोप ही क्यों न हो.पूरा देश पूछ रहा है कि राजा तुम कब जाओगे लेकिन राजा दया प्रदर्शित करने को तैयार नहीं.कोई ऐसा लक्षण नहीं जिससे यह पता चले कि पौने २ लाख के रिकार्डतोड़ घोटाले के बल पर भारत की जनता से भ्रष्टाचार के राजा का ख़िताब पा चुका यह राजा पद छोड़कर त्याग की एक नई मिशाल कायम करने के बारे में सोंच भी रहा है.जब इसे मंत्री बनाया गया था तब जनता को संदेह था कि यह सिर्फ नाम का राजा तो नहीं है.लेकिन वह तो मन का भी राजा निकला,अपने मन का राजा.किसी भी नियम-कानून को नहीं माननेवाला.सरकार का हिसाब-किताब देखनेवाले सीएजी के अनुसार २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन में इसने कानून मंत्रालय और दूरसंचार आयोग की सलाहों को नहीं माना और कोई तर्क और कारण बताए बिना मनमानी की.क्या इन दोनों ने उसे गलत सलाह दी थी?लाइसेंस के आवंटन में कुछ ऑपरेटर्स को फायदा पहुँचाने के मकसद से नियमों में ही बदलाव कर दिया.यह यारों का यार है.यार-दोस्तों को लाभ पहुँचाने के लिए कुछ भी कर सकता है.इधर कांग्रेस भी गंभीरता से अपने इस भ्रष्टाचारी दोस्त के साथ राजनीतिक दोस्ती निभा रही है और उसे बचाने के लिए हर तरह के वैध-अवैध हथकंडे अपना रही है.नैतिकता और राजनैतिक शुचिता का तो यू.पी.ए. ने अंतिम संस्कार ही कर डाला है.सरकार अब राजा की तरफ से कानूनी लड़ाई लड़ने के मूड में है और तर्क दे रही है कि राजा के भ्रष्टाचारी कृत्य से जनता को लाभ ही हुआ है.भ्रष्टाचार से लाभ!उसका दावा है कि इस दृष्टिकोण से आवंटन सही है और पूरा का पूरा मामला नीतिगत है.उसके अनुसार सरकार का उद्देश्य टेलीफोन घनत्व को बढ़ाना था न कि अधिक राजस्व वसूली.चलिए इससे यह तो पता चला कि सरकार का कोई उद्देश्य भी है.वह यह तर्क भी दे रही है कि एन.डी.ए. ने भी ऐसा किया था.जबकि उसे समझना चाहिए कि गलत काम चाहे यू.पी.ए. करे अथवा एन.डी.ए. गलत तो गलत ही होता है.सरकार कैग के बारे में कह रही है कि उसे यह पूछने का कोई अधिकार नहीं है कि किस नीति के तहत स्पेक्ट्रम आवंटित किए गए.एक तरफ तो यही सरकार जनता को सूचना के अधिकार के तहत कुछ भी पूछने का अधिकार देती है तो दूसरी ओर कैग जैसी संवैधानिक संस्था के अधिकारों पर ही प्रश्नचिन्ह लगाती है.अगर सरकार को घोटाला करने का अधिकार है तो क्या जनता को पूछने का अधिकार भी नहीं है?क्या भारत का नियन्त्रक और महालेखाकार परीक्षक भारत का नागरिक नहीं है?फ़िर भी अगर कैग को बताने से किसी तरह का संवैधानिक संकट उत्पन्न होता है तो जनता को ही बता दे और इस घोटाले पर श्वेत-पत्र जारी करे.लेकिन वह ऐसा नहीं करेगी क्योंकि जो कुछ भी हुआ है वह गलत हुआ है और उसे छिपाने में ही सरकार की भलाई है.कोर्ट-कचहरी के बल पर सरकार अपने मंत्री की कुर्सी भले ही बचा ले लेकिन उसके कृत्य को वह नैतिकता की दृष्टि से किसी भी तरह से उचित नहीं सिद्ध कर सकती.अगर कैग द्वारा पूछ गया सवाल यू.पी.ए. सरकार को कठिन लग रहा हो तो वो मेरे इस सरल प्रश्न का ही उत्तर दे दे कि वह कब सत्ता पर देशहित को प्राथमिकता देना शुरू करेगी?उत्तर देने की समय-सीमा भी वही तय कर ले.सवा अरब (लोगों) का सवाल है यह.वैसे मेरा पहला सवाल भी जो सीधे राजा से है,अभी तक अनुत्तरित ही है कि राजा तुम कब जाओगे?
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
न्याय की हत्या
कल का दिन भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का काला दिन माना जाना चाहिए.कल कानून के रक्षक से भक्षक बना एक ढीठ अपने रसूख के बल पर फ़िर से आजाद हो गया.१९ सालों से न्याय का इंतजार कर रहे रूचिका के परिवार के लिए यह बेटी को खोने से भी बड़ा सदमा है.भारत में अंग्रेजी शासन की देनों में एक महत्वपूर्ण देन माना जाता है कानून का शासन और कानून के समक्ष समानता.हमारे संविधान में भी इन तत्वों को समाहित किया गया है.लेकिन यथार्थ में न तो अंग्रेजों के समय ही कानून के समक्ष समानता थी और न ही अभी है.गांधीजी ने भी न्यायिक प्रणाली की इस अन्यायी प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर कहा था कि कानून अमीरों की रखैल है.हमारी न्यायिक प्रक्रिया में निहित दोषों के चलते फैसला आने में वर्षों नहीं दशकों लग जाते हैं.पीड़ित बार-बार न्यायालय जाता है और उसे न्याय के बदले थमा दी जाती है तारीख.तारीख पर तारीख बीतती जाती है.तारीख मिलती है फैसला नहीं मिलता और जब दशकों बाद फैसला आता है तो पता चलता है कि न्याय तो मिला ही नहीं.फ़िर ऊपरी अदालतों में अपील और फ़िर से उसी नाटक का दोहराया जाना.रूचिका के पूरी परिवार के लिए संकट की शुरुआत तब हुई जब १२ अगस्त,१९९० को रूचिका गिरहोत्रा नामक १४ वर्षीया उभरती टेनिस खिलाड़ी के साथ हरियाणा पुलिस का तत्कालीन महानिरीक्षक और हरियाणा लॉन टेनिस एसोसिएशन का अध्यक्ष एसपीएस राठौड़ छेड़छाड़ करता है.१६ अगस्त को रूचिका और उसके परिवारवाले राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह और राज्य के गृह सचिव से इसकी शिकायत करते हैं.१७ अगस्त को मुख्यमंत्री तत्कालीन पुलिस महानिदेशक आर.आर.सिंह को जाँच करने के लिए कहते हैं.१८ अगस्त को राठौड़ के खिलाफ शिकायत दर्ज की जाती है.जाँच में आरआरसिंह राठौड़ को प्रथम दृष्टया दोषी पाते हैं और रिपोर्ट और प्राथमिकी दर्ज करने की सिफारिश करते हैं. डीजीपी और गृह सचिव जेके दुग्गल राठौड़ के खिलाफ विभागीय कार्रवाई और आरोप पत्र दाखिल करने की अनुशंसा करते हैं.१२ मार्च १९९१ को गृहमंत्री संपत सिंह विभागीय कार्रवाई की स्वीकृति देते हैं और फाईल मुख्यमंत्री के पास भेज दी जाती है.अगले ही दिन मुख्यमंत्री मंजूरी दे देते हैं.२८ मई १९९१ को राठौड़ के खिलाफ आरोप पत्र स्वीकार किया जाता है.तब तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लग जाता है.इसके बाद २३ जुलाई १९९१ को भजनलाल कांग्रेस पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री बनते हैं और ९ मई १९९६ तक पद पर बने रहते हैं.इनके समय राठौड़ के प्रति सरकारी रवैया अचानक बदल जाता है.वह अपराधी मुख्यमंत्री का कृपापात्र बन जाता है और इसका लाभ उठाकर वह अशुभारम्भ करता है रूचिका के परिजनों को प्रताड़ना देने के कार्य का.अचानक हरियाणा पुलिस द्वारा रूचिका के भाई को कार चोर बना दिया जाता है और ६ अप्रैल १९९२ से ४ सितम्बर १९९३ के काले कालखंड में उसके खिलाफ कार चोरी के एक के बाद एक छह मामले दर्ज किए जाते हैं.सभी मामले भादंसं की धारा 379 के तहत दर्ज किए जाते हैं.२३ अक्तूबर १९९३ को आशु को हरियाणा पुलिस अवैध तरीके से घर से उठा लेती है और दो महीने तक हिरासत में रखती है.इसी दौरान 4 नवम्बर,१९९३ को भजनलाल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार राठौड़ को अपर पुलिस महानिदेशक के रूप में तरक्की दे देती है.पारितोषिक,वाह री आम आदमी की पार्टी की सरकार.कितना ख्याल रखा तूने आम आदमी को प्रताड़ित करनेवाले इस खास आदमी का.२८ दिसंबर,१९९३ को अपने और अपने परिवार के ऊपर हो रही ज्यादतियों को नहीं सह पाने के कारण रुचिका जहर खाकर आत्महत्या कर लेती है और अगले ही दिन आशु को रिहा कर दिया जाता है.जैसे पुलिस और सरकार को उसे रिहा करने के लिए इसी सुनहरे पल का इन्तजार था.रुचिका की मौत के महीनों बाद अप्रैल १९९४ में राठौड़ के खिलाफ आरोप तय कर दिया जाता है.इसी बीच ११ मई १९९६ को बंसीलाल राजपाट सँभालते हैं और ५ जून १९९८ को राठौड़ एक अन्य मामले में निलंबित कर दिए जाते हैं.२१ अगस्त १९९८ को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय हरियाणा पुलिस पर अविश्वास जताते हुए इस मामले यानी रूचिका मामले की सीबीआई जाँच का आदेश देता है इस उम्मीद के साथ कि वह इस हाई प्रोफाईल मामले की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच करेगा.विश्वास और सीबीआई पर!उसे तो ऐसे मामलों को दबाने में मास्टरी हासिल है.३ मार्च १९९९ को बंसीलाल सरकार राठौड़ को अपर पुलिस महानिदेशक के रूप में फ़िर से बहाल कर देती है और उसे फ़िर से खुली छूट मिल जाती है अपने ओहदे के नाजायज इस्तेमाल करने की.२३ जुलाई १९९९ को ओमप्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री बनते हैं और ३० सितम्बर को विभागीय जांच में जैसा कि हरेक हाई प्रोफाईल मामले में होता है,राठौड़ को दोषमुक्त करार दिया जाता है.इसी को तो भाईचारा कहते हैं न!जब तुम फँसों तो हम बचाएँ और जब हम फंसें तो तुम बचाना.१० अक्तूबर १९९९ को लोकतान्त्रिक तरीके से आम आदमी द्वारा चुनी गई चौटाला सरकार द्वारा एक आम परिवार के अमन-चैन की हत्या करनेवाले,कानून का गला घोंत्नेवाले राठौड़ को हरियाणा पुलिस का महानिदेशक बना दिया जाता है.पूरे प्रदेश की पुलिस का मुखिया.१६ नवम्बर २००० को घटना के १० साल बाद आखिरकार सीबीआई रुचिका छेड़छाड़ मामले में राठौड़ के खिलाफ आरोप पत्र दायर करने में सफल हो जाती है.परिणामस्वरूप दिखावे के लिए ५ दिसंबर को उसे डीजीपी के पद से हटा दिया जाता है और छुट्टी पर भेज दिया जाता है.हालांकि इससे उसके रूतबे में कोई कमी नहीं आती है.छुट्टी में रहते हुए ही राठौड़ पुलिस सेवा से सेवानिवृत्त हो जाता है.क्या इसे ही जनता की सेवा करना कहते हैं जो वह जीवनभर करता रहा.त्वरित न्याय के नए मानदंड स्थापित करते हुए घटना के १९ साल बाद २१ दिसंबर २००९ को सीबीआई की विशेष अदालत राठौड़ को दोषी ठहराती है और छह महीने की कैद और एक हजार रुपए के जुर्माने की मामूली सजा सुनाती है.मानो उसने पड़ोसी के बगीचे से चोरी से आम तोड़ने जैसा कोई छोटा-मोटा अपराध किया हो.८ फरवरी २०१० को नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ फैशन डिजाइनिंग अहमदाबाद का एक छात्र अदालत परिसर में ही राठौड़ पर चाकू से हमला करता है,लेकिन वह बच जाता है.अभी कुछ साल भी पहले महाराष्ट्र में बलात्कार के मामले में एक रसूखदार अभियुक्त को अदालत द्वारा छोड़ देने के बाद कई महिलाओं ने मिलकर छुरा घोंपकर भरी अदालत में वध कर दिया था.क्यों बढ़ रही है इस तरह की प्रवृत्ति,क्या हमारे नीति-निर्मातों का इस ओर ध्यान गया है?जब न्यायालयों से न्याय नहीं मिलेगा तो जनता में गुस्से का उत्पन्न होना स्वाभाविक है.सरकार ने अगर समय रहते स्थिति को नहीं संभाला तो भविष्य में वह दिन दूर नहीं जब पढ़े-लिखे लोग भी कानून को हाथ में लेने को बाध्य हो जाएँगे.२५ मई २०१० को अदालत गिरहोत्रा परिवार की अपील पर छह महीने कैद की सजा को बढ़ाकर डेढ़ साल कर देती है और सीबीआई राठौड़ को गिरफ्तार कर लेती है.लेकिन कल उच्चतम न्यायालय में सीबीआई ने अपना असली रूप दिखा दिया है.उसने बता दिया है कि उसका गठन भले ही भ्रष्टाचार को रोकने के लिए किया गया हो,उसका वास्तविक काम भ्रष्टाचारियों की कानून से रक्षा करना है.शातिर,सुशिक्षित और समाज में उच्च प्रास्थिति रखनेवाला निर्लज्ज अपराधी एक बार फ़िर स्वतंत्र हो चुका है.उसके चेहरे पर फ़िर से दंभ भरी हंसी विराजमान है.अदालत का यह आदेश केन्द्रीय जाँच ब्यूरो के उस फ़ैसले के बाद आया है जिसमें जाँच एजेंसी ने रुचिका गिरहोत्रा मामले में दर्ज किए गए तीन नए केस में से दो में जाँच बंद करने का फ़ैसला किया है.ये केस रुचिका के पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के साथ छेड़-छाड़ करने और उसके भाई आशू को हवालात में प्रताड़ित करने से संबंधित थे.तो क्या यह माँ लेना चाहिए कि पुलिस आशू को झूठे मुक़दमे में फँसाकर हवालात में प्रताड़ित करने नहीं बल्कि दामाद की तरह आवभगत करने के लिए ले गई थी.हालांकि 68-वर्षीय राठौर के ख़िलाफ़ रुचिका को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में जाँच जारी रहेगी.लेकिन कब तक?बहुत जल्दी यह मामला भी निश्चित रूप से दफ़न हो जाएगा और उसके साथ दफ़न हो जाएगा सवा अरब भारतीयों का कानून पर विश्वास,पुलिस अधिकारी की सनक के चलते बर्बाद हो चुके परिवार के न्याय पाने के अरमान.जब न्याय तंत्र न्याय दे ही नहीं सकता तो क्यों खर्च किए जा रहे हैं रोजाना इसके नाम पर करोड़ों रूपये?क्यों नष्ट किया जा रहा है जनता का अमूल्य समय कानूनी कार्यवाहियों में?क्या औचित्य है न्याय के इन कथित मंदिरों का?क्यों नहीं हटा दिया जाता संविधान से समानता का अधिकार प्रदान करने वाले बेकार और बेजान शब्दों को?क्यों???
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
छठ-भक्ति और हठयोग का संगम
श्रीमदभगवद्गीता में भक्ति की व्याख्या करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि भक्ति सहजता से करो न कि हठपूर्वक.जो व्यक्ति मेरे नाम पर शरीर को कष्ट देता है वह भक्त है ही नहीं वह दम्भी या हठयोगी है.उन्होंने कहा है कि कर्त्ता भी मैं ही हूँ,कारण भी मैं और कर्म भी मैं ही हूँ.मैं ही आदि हूँ और मैं ही अंत भी.इसलिए सबकुछ मुझे समर्पित करते हुए निष्काम कर्म करो.लेकिन दुनिया के विभिन्न धर्मों में प्राचीन काल से ही भगवान को खुश करने के लिए शरीर को कष्ट देने की परंपरा रही है.कहीं-कहीं तो लोग शरीर में लोहे की सींक भोंक कर खुद को लहू-लुहान भी कर डालते हैं तो कहीं आग पर नंगे पांव चलते हैं.जैन धर्म के मुनियों में उपवास द्वारा प्राण-त्यागा जाता है.बिहार में इन दिनों आस्था का महापर्व छठ मनाया जा रहा है.आज खरना है.इस व्रत में व्रती जितना अपने शरीर को कष्ट देता या देती है उतना बिहार में किए जानेवाले अन्य किसी व्रत में नहीं.शरीर को कष्ट देना योग का विषय है.योगी इसके माध्यम से समाधि पाने का प्रयास करता है.लेकिन भक्ति तो मधुर भाव से उत्पन्न होती है.इसमें शक्ति प्रदर्शन का कोई महत्त्व नहीं.उल्टे भक्त जितना विनीत होता है उसे उतनी ही अधिक ईश्वरीय कृपा प्राप्त होती है.कुम्भ मेले में आनेवाले कई योगी इसलिए आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं कि उनमें से कईयों ने वर्षों से अपने एक हाथ को ऊपर उठा रखा होता है और जो सूखकर कांटा हो चुका होता है.उनमें से कई सिर्फ पानी पीकर जी रहे होते हैं तो कई सिर्फ मिर्ची या कोई अन्य बेस्वाद चीज खाकर.ऐसा करके उन्हें क्या प्राप्त होता है ये तो वही जानें.संत कबीर ने भक्तिमार्ग अपनाने से पहले योग द्वारा ईश्वर प्राप्ति का भी प्रयास किया था.उन्हें ईश्वर का दर्शन भी मिला लेकिन समाधि से बाहर आते ही एकात्म भाव नष्ट हो जाता था.तब कबीर ने कहा था-गगना-पवना विन्से दोनों कहाँ गया योग तुम्हारा और भक्ति की ओर आकर्षित हुए थे.भक्ति में आनंद नष्ट नहीं होता,समय के साथ प्रगाढ़ होता जाता है,उसमें अभिवृद्धि होती जाती है.भक्त प्रवर रामकृष्ण परमहंस का भी कहना था कि भगवान की भक्ति सहज भाव से करो,कुछ मांगो मत.तुम्हें क्या चाहिए वह तुमसे बेहतर जानता है.भगवान की तुलना उन्होंने बिल्ली से की है जो अपने बच्चे को मुंह में दबाये घूमती रहती है.उसके बच्चे को गिरने का भय नहीं होता.वह अपनी सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त होता है.छठ महाव्रत में नहा-खा के दिन तक सबकुछ सामान्य होता है.व्रती सेंधा नमक में बनी सब्जी नहाने के बाद खाता है और उसके बाद दिनभर वह चाहे जितनी बार खा सकता है.भोर में चाय-पानी भी पी सकता है.दूसरे दिन जिसे खरना कहते हैं व्रती रात में पूजा करने करने के बाद दिन भर में सिर्फ एक बार खाता है.इस दिन वह नमक नहीं खा सकता,उसे सिर्फ रोटी और गुड की बनी खीर खाने की ही अनुमति होती है.भोर में जितना चाहे पानी पी सकता है.उसके बाद उसे २४ घन्टे से भी ज्यादा समय तक निर्जल उपवास करना होता है.इस दौरान उसे शाम में डूबते हुए और सुबह में उगते हुए सूर्य को अर्क अर्पित करने के लिए २-३ घन्टे तक कमर-भर नदी या तालाब के ठन्डे पानी में खड़ा भी होना होता है.एक तो लम्बा उपवास और उस पर ठन्डे पानी में खड़ा रहना.कई व्रतियों की इस दौरान तबियत बिगड़ जाती है और कईयों को हालात गंभीर होने पर अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है.जान न भी जाए तो स्वास्थ्य पर बुरा असर तो पड़ता ही है.कहा गया है-शरीरमाद्यं धर्म खलु साधनं.हमारे लिए शरीर भगवान की दी हुई विभूति है.चूंकि हम सारे क्रियाकलाप इसी के माध्यम से करते हैं इसलिए इसका समुचित रखरखाव करना हमारा कर्तव्य है.साथ ही भक्ति तो श्रद्धा और विश्वास से की जाती है,मन और ह्रदय से की जाती है.इसमें शरीर को घसीटने का क्या मतलब?जब कोई शारीरिक कष्ट में रहेगा तो भगवान में मन को एकाग्र कैसे कर पाएगा?मेरी माँ पिछले १४-१५ सालों से लगातार शुक्रवार व्रत कर रही थी.धीरे-धीरे उम्र बढ़ने के साथ स्वास्थ्य गिरता जा रहा था.घर के सभी लोग मना भी कर रहे थे लेकिन वह जिद पर अड़ी थी.कुछ महीने पहले एक शुक्रवार को उसकी तबियत बहुत बिगड़ गई और न चाहते हुए भी व्रत को तोडना पड़ा.भक्ति तो आनंद का विषय है,निरे आनंद का.फ़िर हम क्यों शारीरिक कष्ट सहते हैं?हम सभी भिखारी हैं.हम भगवान से हमेशा कुछ-न-कुछ मांगते रहते हैं और रिश्वत के रूप में ऐसा-वैसा करने का लालच भी उन्हें देते रहते हैं.चूंकि ईच्छाएं अनंत हैं इसलिए यह सिलसिला भी अनवरत चलता रहता है.कुछ महिलाऐं तो सप्ताह के सातों दिन व्रत करती हैं और स्वास्थ्य का भट्ठा बैठा लेतीं हैं.जबकि हम-आप सब लोग जानते हैं कि किसी को भी समय से पहले और भाग्य से ज्यादा कुछ भी,कभी भी नहीं मिलता.मेरी एक जमीन जो कोढ़ा (कटिहार) में है के कागजात रजिस्ट्री के कुछ ही दिनों बाद चोरी हो गए.मुझे लोगों ने पूर्णिया रजिस्ट्री ऑफिस से पता लगाने की सलाह दी.मैं जब पहली बार इस काम के लिए पूर्णिया जा रहा था तो माँ ने गणेशजी का जयघोष किया और बोली कि गणपति की कृपा से बिगड़े काम बन जाते हैं इसलिए कागजात भी मिल जाएँगे.लेकिन दिन-पर-दिन बीतते रहे और रोजाना रवानगी के समय गणेश-स्मरण भी चलता रहा लेकिन कागज को नहीं मिलना था सो नहीं मिला.इसी प्रकार मैंने कई संतानविहीन दम्पतियों को मंदिरों के चक्कर काटते हुए देखा है और इसी चक्कर में बूढ़े होते भी देखा है.मेरे एक नाना ओझागिरी करते थे.एक दिन जब वे दरवाजे पर नहीं थे तभी एक महिला आई उनके भाई को ही ओझा समझ कर झाडफूंक करने को कहा.वह महिला निस्संतान थी.उन्होंने भी मजाक में थोड़ी-सी भभूत उठाई और उसे देते हुए कहा जा तुझे बेटा होगा.एक-डेढ़ साल बाद वह महिला गोद में बच्चा लिए आई और भगत नाना के भाई को दक्षिणा देने लगी और बार-बार आभार प्रकट करने लगी.भगत नाना भी उस समय वहीँ पर थे.महिला के जाने के बाद उन्हें जब असलियत मालूम हुई तो वे भी हमारे साथ ठहाका लगाए बिना नहीं रह सके.कहने का मतलब यह कि जीवन में सबकुछ संयोग है,इत्तिफाक.रामचरित मानस में दशरथ के निधन के समय वशिष्ठ ने भरत को सांत्वना देते हुए कहा है-सुनहूँ भरत भावी प्रबल,बिलखी कहेऊ मुनिनाथ| हानि-लाभ जीवन-मरण जश-अपजश विधि हाथ||इस दृष्टि से भी भक्ति में शरीर को सधाने की कोई आवश्यकता नहीं.भगवान प्रेम करने की चीज हैं और प्रेम में मोलभाव नहीं होता.जहाँ तक छठ का सवाल है तो विज्ञान द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि हम सभी सूर्य के अंश हैं और सृष्टि के अंत में पृथ्वी सूर्य में ही विलीन हो जाएगी.धरती पर जीवन भी बिना सूर्य के संभव नहीं.वे एकमात्र प्रत्यक्ष भगवान हैं.उनकी भक्ति करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन उसमें सहजता होनी चाहिए.अगर इस सूर्यपूजा को सरल बना दिया जाए तो वे लोग भी इसे कर पाएँगे जो नहीं सकने के डर से इसे नहीं कर पाते.गीता में ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि मानव अपने कर्मों के फल से किसी भी प्रकार नहीं बच सकता,उसे उसके कर्मों का फल मिलकर ही रहता है-योगक्षेमं वहाम्यहम.तुसली बाबा ने भी रामचरितमानस में कहा है-कर्म प्रधान विश्व करि राखा,जो जस करहिं सो तस फल चाखा.तब फ़िर वेवजह शरीर को कष्ट देने के बजाए हम अपने कर्मों को क्यों न शुद्ध करें?व्रत भर तो हम बाह्य शुद्धता का खूब ख्याल रखते हैं लेकिन आतंरिक शुद्धता के अभाव में बांकी के सालभर फ़िर कर्म-अकर्म में लिप्त रहते हैं.अशुद्ध कर्म करके अशुद्ध मन (चित्त) से चाहे हम भगवान के नाम पर कितना ही कष्ट क्यों न सह लें,हासिल कुछ नहीं होनेवाला.इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि महापर्व छठ में केवल भक्ति को रहने दें,विशुद्ध आनंदमय भक्ति को और इसमें से हठयोग के तत्व को अलग कर दें.
बुधवार, 10 नवंबर 2010
धंधा है इसलिए गन्दा है
दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में किसी भी राजनेता के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है उसकी सार्वजनिक छवि.लेकिन जब समाज का ही नैतिक पतन हो जाए तो इसका महत्त्व अपने आप ही समाप्त हो जाता है.कहते हैं कि राजनीति काजल की कोठरी होती है और जो भी इसमें आता है उसका दागी हो जाना स्वाभाविक है.लेकिन यह भी सच है कि जहाँ आग होती है धुआं भी वहीँ होता है.आज के दौर में भी कई ऐसे राजनेता मौजूद हैं जिनका दामन पाक साफ़ है.कोई भी तंत्र तकनीक के समान निर्दोष होता है.यह उसे संचालित करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसकी सोंच क्या है,उसकी मनोवृत्ति क्या है?आज का सच यह है कि राजनीति अब जनसेवा का माध्यम नहीं रह गई है बल्कि इसने धंधे का स्वरुप अख्तियार कर लिया है.और धंधा है तो गन्दा भी हो सकता है.क्योंकि धंधे का तो कोई उसूल होता ही नहीं.वह तो सिर्फ लाभ के लिए किया जाता है.कहते हैं कि सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट कर देती है.चूंकि कांग्रेस ने देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन किया है इसलिए यह स्वाभाविक है कि भ्रष्टाचार के सबसे ज्यादा आरोप समय-समय पर इसी पार्टी के नेताओं पर लगे हैं.आदर्श सोसाईटी घोटाले में बुरी तरह फंस चुके अशोक चौहान से कांग्रेस ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिलवा दिया है.लेकिन क्या इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लग जाएगी?क्या भ्रष्टाचार के आरोपी नेता को केवल पद से हटा देना ही पर्याप्त है?नहीं कदापि नहीं!यह जहर अब वट वृक्ष रूपी भारतवर्ष के नस-नस में फ़ैल चुका है और सिर्फ फुनगी काट देने से इसका कुछ नहीं बिगड़ने वाला.आदर्श घोटाले में तो सेना भी फंसी हुई है.अभी कुछ ही दिनों पहले हुई वर्धा रैली के समय कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर भी मुख्यमंत्री अशोक चौहान से २ करोड़ रूपये बस के भाड़े के लिए देने के लिए कहने का आरोप स्वयं प्रदेश अध्यक्ष मानिक राव ठाकरे की गलती से सामने आया था और अब बात आई-गई भी हो गई है.यानी भ्रष्टाचार की गन्दगी राजनीति की गंगा में स्वयं शीर्ष नेतृत्व यानी गंगोत्री से ही आ रही है.जब किंग मेकर ही भ्रष्ट होगा तो किंग तो भ्रष्ट होगा ही.पार्टी फंड भी देश में भ्रष्टाचार का माध्यम बन गया है.इसलिए इन इक्के-दुक्के लोगों पर कार्रवाई करने से भ्रष्टाचार न तो कम होने जा रहा है और न ही मिटने जा रहा है.महाराष्ट्र का क्षत्रप चाहे कोई भी हो उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पेशवा (केंद्रीय नेतृत्व)को सरदेशमुखी तो देना ही होगा.हमारे राजनीतिज्ञों के नैतिक स्तर में लगातार गिरावट आ रही है.अब तो घपले-घोटालों से सीधा सम्बन्ध होने का सबूत होने के बावजूद भी मंत्री-मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री इस्तीफा नहीं देता.राष्ट्रमंडल खेलों में करोड़ों की हेराफेरी का आरोपी होने पर भी कलमाड़ी अंग्रेजी हैट पहने माथा गर्वोन्नत किए घूम रहे हैं.हालांकी कांग्रेस ने उन्हें अपनी कार्यसमिति से हटाकर खुद को पाकसाफ सिद्ध करने का प्रयास किया है.लेकिन क्या इतनी कार्रवाई ही काफी है?क्या उन पर निष्पक्षता से मुकदमा चलाकर उन्हें इसके लिए दण्डित नहीं किया जाना चाहिए?लेकिन यक़ीनन ऐसा नहीं होने जा रहा है.पिछले ५०-६० सालों में सत्ता में रहते हुए कांग्रेस इस तरह के न जाने कितने ही मामलों की लीपा-पोती कर चुकी है.अभी भी भ्रष्टाचार का राजा ए.राजा केंद्रीय मंत्रिमंडल का हिस्सा है और कांग्रेस देशहित पर सत्ता को वरीयता देने के कारण उसे हटा भी नहीं सकता,जेल भेजना तो दूर की कौड़ी है.ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस में ही गलत लोग हैं.ऐसे लोग सभी पार्टियों में हैं.हमारी विधायिका में एक तिहाई से भी ज्यादा जनप्रतिनिधि दागी हैं.स्थिति संतोषजनक भले ही नहीं हो,सुधार की गुंजाईश समाप्त नहीं हुई है.सबसे पहले तो सभी पार्टियों को निजी स्वार्थों से ऊपर उठना पड़ेगा और सत्ता पर देशहित को प्राथमिकता देनी होगी.लोकतंत्र में नैतिकता का महत्व अन्य शासन प्रणालियों से कहीं ज्यादा होता है.बिहार विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने लगभग ४७ % दागियों को टिकट दिया है.किसी-किसी सीट पर तो सारे उम्मीदवार ही दागी हैं.जनता किसको वोट दे और क्यों वोट दे?इसलिए जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव करते हुए जनता को उम्मीदवारों को नकारने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए.साथ ही अगर नकारात्मक वोट सबसे ज्यादा हो जाएँ तो नए उम्मीदवारों के साथ दोबारा मतदान होना चाहिए.तीसरा सुधार हमारी न्यायिक व्यवस्था में होना चाहिए और इस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए कि कानून के जाल में आने से छोटी ही नहीं बड़ी मछलियाँ भी नहीं बच पाए.
मंगलवार, 9 नवंबर 2010
ग़लतफ़हमी नहीं पाले भारत
ओबामा अपनी चार दिन की यात्रा पूरी कर पूर्वी एशिया के लिए रवाना हो चुके हैं.ओबामा जब तक भारत में रहे,भारत की स्तुति में लगे रहे.हम भारतीयों की यह पुरानी बीमारी है कि हम किसी भी तथ्य को तभी सत्य मानते हैं जब कोई विदेशी उसकी पुष्टि कर दे.चाहे वो वैज्ञानिक हो या कोई लेखक-कवि उसे अपने देश में तभी मान्यता मिलती है जब किसी पश्चिमी देश ने उसे पुरस्कृत कर दिया हो.ओबामा हमारी धरती पर खड़े होकर बार-बार हमें वैश्विक महाशक्ति कह रहे हैं और हम भी मस्त हुए जा रहे हैं.क्या उनके कहने से ही हम महाशक्ति होंगे या फ़िर नहीं होंगे?हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मानव विकास सूचकांक में हम काफी नीचे हैं.स्वच्छ शासन के मामले में भी हमारी स्थिति शर्मनाक है.हमारी जनसंख्या का बड़ा भाग २० रूपये प्रतिदिन से भी कम में गुजारा कर रहा है.सुरक्षा के क्षेत्र में हम पूरी तरह दूसरे देशों पर निर्भर हैं.हम अभी अपने पड़ोसियों से भी निबट पाने में सक्षम नहीं हैं.हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन पिछले ६०-६५ सालों से चीन और पाकिस्तान के कब्जे में है और हम आज भी उसे छुड़ा पाने की स्थिति में नहीं हैं.फ़िर हम किस तरह की महाशक्ति हैं?ओबामा इस समय याचक की भूमिका में हैं और ठकुरसोहाती करना उनकी जरुरत ही नहीं मजबूरी भी है.इसलिए हमें अतिरिक्त सावधान रहने की जरुरत है.हो सकता है हम भुलावे में आकर ऐसी गलती कर बैठें जिसका खामियाजा हमें लम्बे समय तक भुगतना पड़े.इंग्लैण्ड की तरह अमेरिका भी बनियों का देश है और बनिया कोई भी काम बेवजह नहीं करता.कल की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका को एक अन्य महाशक्ति चीन ने सस्ते मालों से पाटकर उत्पादकों के बदले उपभोक्ताओं के देश में बदल दिया है.अमेरिका में एक तरफ उत्पादन में कमी आ रही है तो वहीँ दूसरी ओर आश्चर्यजनक तरीके से मुद्रा-स्फीति में भी कमी देखने को मिल रही है.जी.डी.पी. बढ़ने के बजाए कम हो रही है और बेरोजारी बढ़कर ९ प्रतिशत पर पहुँच गई है.दूसरी ओर चीन दिन-ब-दिन ताकतवर होने के साथ आक्रामक होता जा रहा है.उसकी शक्ति इतनी बढ़ चुकी है कि अकेले अमेरिका उससे नहीं निबट सकता.यह कारण भी है कि ओबामा भारत समेट चीन द्वारा प्रताड़ित अन्य देशों की यात्रा पर हैं.अमेरिका का इतिहास स्वार्थ का इतिहास रहा है.जब भी जैसे भी उसका मतलब साधा है उसने अन्य देशों से दोस्ती-दुश्मनी की है.सद्दाम हुसैन भी कभी उसके दोस्तों में थे.तालिबान भी उसी का मानस पुत्र है.उसने यह कभी नहीं देखा कि जिस देश से उसका हित सध रहा है वहां तानाशाही है या लोकशाही.आज जब उसका हित भारत से सध रहा है तो वह लोकतंत्र का पैरोकार बन गया है.क्या आज से पहले भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र नहीं था?ठीक एक साल पहले ओबामा चीन की धरती पर चीन का गुणगान करने और उसे अपना स्वाभाविक मित्र बताते थक नहीं रहे थे.तब क्या चीन में लोकतंत्र था?भारत को ओबामा के गुणगान में बह नहीं जाना चाहिए और वास्तविकताओं को समझना चाहिए.भारत निश्चित रूप से तेज गति से विकास कर रहा है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि समय रहते अगर हमने बढ़ते भ्रष्टाचार और गरीबी को नियंत्रित नहीं किया तो यह गति कायम नहीं रहनेवाली.अगर ऐसा हुआ तो हमसे ज्यादा दुर्भाग्यशाली कोई और नहीं होगा.हमारे गाँव में एक मंदबुद्धि का युवक था.लोग उसे बराबर चढ़ा-बढ़ा देते-यार तुम तो जन्मजात बहादुर हो.तुम चाहो तो क्या नहीं कर सकते.तुम चाहो हो आसानी से मुक्का मारकर जलते लालटेन को भी फोड़ सकते हो और वह व्यक्ति बहकावे में आकर अक्सर लालटेन को फोड़ डालता.आर्थिक नुकसान तो होता ही था बाद में डांट और मार पड़ती सो अलग.आज भारत के साथ भी ओबामा यही कर रहे हैं.हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हमारी सरकार उनके बहकावे में नहीं आएगी और कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाएगी जिससे हमारा दीर्घकालीन हित प्रभावित होता हो.मैं इस लेख का अंत अपने एक संस्मरण से करना चाहूँगा.उन दिनों मैं विद्यार्थी था.मुझे हर सप्ताह साथ में पढनेवाली किसी-न-किसी लड़की से एकतरफा प्यार हो जाता था और लगता था कि वह लड़की भी मुझे प्यार करती है.जब मैं इस बात का जिक्र अपने सहपाठी अनुज सदृश संतोष उरांव से करता तो वह कहता-क्या भैया आप भी!अच्छा हो कि कुत्ता पाल लीजिए,बिल्ली पाल लीजिए अगर फ़िर भी मन नहीं माने तो सूअर पाल लीजिए लेकिन कभी ग़लतफ़हमी नहीं पालिए.
रविवार, 7 नवंबर 2010
लाईन चरित मानस
वर्ष १८५९,दिन और समय मालूम नहीं,स्थान रंगून.भारत के निर्वासित शायर बादशाह बहादुर शाह ज़फर का मन व्याकुल है.वे अपनी जिंदगी का हिसाब-किताब करने में लगे हैं.धीरे-धीरे फिंजा में उनकी रेशमी आवाज गूंजती है-लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में, किसकी बनी है आलम-ए-नापायेदार में; उम्र-ए-दराज़ मांग के लाये थे चार दिन;दो आरजू में काट गए दो इंतज़ार में.कहते हैं इंतज़ार की घड़ियाँ लम्बी होती हैं.लेकिन हर किसी को कभी-न-कभी इंतज़ार करना पड़ता है.कभी ट्रेन के आने का तो कभी उसके जाने का,तो कभी पत्नी के चुप होने का,किसी को इंतज़ार रहता है माशूक की हामी का तो किसी को क़यामत (सुहागरात) के आने का.कोई अगर बुद्धिजीवी हुआ और साथ में समझदार भी तो उसे इंतज़ार रहता है देश की जनसंख्या के नियंत्रित होने का और नेताओं के सच्चे हो जाने का.निश्चित रूप से इनके इंतजार में भी काफी सब्र रखना पड़ता है लेकिन इंतज़ार की घड़ियाँ सबसे ज्यादा लम्बी और कष्टकारी तब लगती हैं जब हम लाईन में लगे हों और काफी पीछे हों.अगर आप पैसे वाले हैं तो लाईन में खड़े हुए बिना भी आपका काम हो सकता है लेकिन हम तो ठहरे आम आदमी.वर्षों पहले जब मैं महनार के अमरदीप सिनेमाघर में सिनेमा देखने गया तब मुझे पहली बार लाईन में खड़ा होना पड़ा.लेकिन तब टिकट खिड़की खुलने के साथ ही लाईन समाप्त हो जाती थी और शारीरिक बल का प्रदर्शन करके मुझे टिकट लेना पड़ता था.उन्हीं दिनों अख़बार में पढ़ा और फिल्मों में भी देखा कि महानगर मुम्बई में बस में चढ़ने के लिए लाईन में लगना पड़ता है.हंसी भी आई यार ये कैसे लोग हैं जो बस में चढ़ने के लिए लाईन में लगे हैं.अपन तो बस की सीढ़ी,गेट कुछ भी पकड़कर लटक जाते हैं और वो भी मुफ्त में.एक और जगह भी उन दिनों मेरा साबका लाईन से पड़ता था और वह जगह थी रेलवे स्टेशन.लेकिन लाईन छोटी हुआ करती थी.तब मैं कम दूरी की यात्रा ही करता था.लेकिन अब तो अनारक्षित टिकट खिडकियों पर भी लाईन बड़ी होने लगी है.शायद यह जनसंख्या बढ़ने का असर है या फ़िर लोगों ने ज्यादा यात्रा करनी शुरू कर दी है,या फ़िर दोनों का संयुक्त प्रभाव है.अभी इसी गर्मी का वाकया है.मैं अपने मित्र धीरज के तिलकोत्सव से वापस आ रहा था.छपरा स्टेशन पर पाया कि तीन काउंटरों पर टिकट काटा जा रहा है और तीनों पर कम-से-कम ३००-३०० लोग लाईन में खड़े हैं.लाईन देखकर दिल बैठने लगा.फ़िर मन में अपना पुराना डायलाग दोहराया-सोंचना क्या जो भी होगा देखा जाएगा.लाईन में लग गया यह सोंचते हुए कि अगर टिकट लेने से पहले ट्रेन आ जाती है तो टिकट लिए बिना ही यात्रा कर ली जाएगी.लेकिन खुदा के फजल से ट्रेन आने से चंद मिनट पहले टिकट मिल गया, हालांकि मैं पसीने में नहा चुका था.ये तो हुई बात उन लाईनों की जिनका लिंक से कुछ भी लेना-देना नहीं होता.असली परेशानी तो वहां होती है जहाँ आपका काम होने के लिए लिंक का होना आवश्यक होता है.मेरे साथ कई बार ऐसा हो चुका है और शायद आपका भी सामना हुआ हो.होता यूं है कि मैं किसी भी ए.टी.एम. पर २०-३० लोगों के पीछे लाईन में खड़ा हूँ.सूर्य देव पूरे गुस्से में हैं.लाईन में खड़े-खड़े एक घंटा या आधा घंटा बीत चुका है.भगवान की कृपा से मेरी बारी भी आ चुकी है लेकिन आलसी और लापरवाह बैंककर्मियों की कृपा से लिंक फेल हो जाता है.सारे किये धरे पर गरम पानी.कभी-कभी आप बैंक के भीतर ही लाईन में खड़े होते हैं और लिंक अंतर्धान हो जाता है और आपके पास सिवाय लाईन में खड़े होकर इंतजार करने के कोई उपाय नहीं होता.अभी कुछ ही महीने पहले महनार (वैशाली)में सेन्ट्रल बैंक को लिंक से जोड़ा गया.जनता खुश थी कि अब वह कहीं से भी पैसे की जमा-निकासी कर पाएगी.लेकिन १ महीने तक लिंक आँख मिचौली करता रहा.सैंकड़ों लोग रोजाना आते लाईन में खड़े होते और शाम ढलने के बाद खाली हाथ वापस चले जाते,सरकार और बैंक को मीठी-मीठी गालियाँ देते हुए.तब लाईन देखते ही उनके मन में लाचारी मिश्रित क्रोध उमड़ने-घुमरने लगता.कुछ ऐसा ही अनुभव प्राप्त करने का सुअवसर आपको तब प्राप्त हो सकता है जब आप रेलवे आरक्षण काउंटर पर घन्टे-भर लाईन में खड़े होते हैं और लिंक शरारत पर उतारू हो जाता है.मैंने अभी जिन संभावनाओं का जिक्र किया है उससे हम सबका सामना होता रहता है.वैसे आज के भारत में लाईन सर्वव्यापी सत्य है.आपको लाईन में लगने का सौभाग्य अस्पताल से श्मशान तक में कहीं भी प्राप्त हो सकता है.आपने शायद कभी हिसाब नहीं लगाया होगा कि आपका कितना समय लाईन में लगे-लगे गुजरता है यानी जन्म से मृत्यु तक हमारे जीवन का एक बड़ा भाग लाईन में लगे-लगे बीतता है.हम कभी नहीं चाहते कि लाईन में लगें लेकिन काम करवाने के लिए लगना ही पड़ता है.हम लाईन से भाग सकते हैं पर बच नहीं सकते.सिर्फ यमराज की कृपा आप पर हो जाए तभी आप लाईन से मुक्ति (मोक्ष) पा सकते हैं.आज अगर तुलसीदास होते तो क्या कर रहे होते कल्पना कीजिए.कहाँ खो गए?मैं बताता हूँ वे किसी लाईन में खड़े होकर या तो भगवान राम से लाईन से मुक्ति देने की प्रार्थना कर रहे होते या फ़िर लाईन चरित मानस लिख रहे होते.इस कमबख्त मोबाईल को भी अभी ही बजना था.पिछले एक घन्टे से ए.टी.एम.पर लाईन में हूँ और अब जब मेरी बारी आ गई है तब बॉस का फोन आ रहा है.समझ नहीं पा रहा फोन काटकर नौकरी जाने का खतरा उठाऊँ या फोन उठाकर फ़िर से एक घन्टे के लिए लाईन में खड़े होने की फजीहत झेलूं.लीजिये मैंने ये फोन कट कर दिया.