बुधवार, 31 दिसंबर 2014

भारतीय इतिहास का प्रस्थान विन्दु था 2014

31 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कुछ वक्त ऐसे होते हैं जो बिना कोई हलचल मचाए ही इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं जबकि कुछ लम्हे ऐसे भी होते हैं जो इतिहास को ही बदल देते हैं। साल 2014 भी ऐसा ही साल था जिसमें न केवल भारत के इतिहास को बल्कि पूरी दुनिया के वर्तमान और भविष्य को बदलकर रख देने की क्षमता थी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले पूरे भारत में निराशा-ही-निराशा का माहौल था और ऐसा लग रहा था जैसे भारत एशिया का नया मरीज बनने जा रहा है। केंद्र सरकार में रोज-रोज नए-नए घोटाले सामने आ रहे थे जो नित नए-नए रिकॉर्ड बना रहे थे। छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों ने हुआँ-हुआँ करके ऐसा माहौल बना दिया था जैसे कि हिन्दू धर्म में जन्म लेना ही अपराध हो। रजिया और डायना के लिए तो सरकार के पास एक-से-एक योजना थी लेकिन कहीं ज्यादा अभावों में जी रही राधा के लिए कुछ भी नहीं था।
मित्रों,फिर आया लोकसभा चुनाव,2014। लगभग पूरे भारत के हिन्दू एकजुट हो गए और पहली बार भारत में किसी हिन्दुवादी दल को लोकसभा में अपने बल पर बहुमत प्राप्त हुआ। भारत में रक्तहीन क्रांति हो गई जो बारास्ता ईवीएम संपन्न हुई। आज हम विलियम वर्ड्सवर्थ की तरह जिसने कभी फ्रांस की क्रांति के बारे में कहा था कि उस काल में जीवित होना ही बहुत बड़ी बात थी और युवा होना तो स्वर्गिक अनुभव था, की तरह कह सकते हैं कि उस चुनाव के समय भारत में होना ही बहुत बड़ी बात थी और मतदान करना तो स्वर्गिक अनुभव था। वर्ष 2014 की यह इकलौती यादगार घटना हो ऐसा भी नहीं है। भारत की जनता ने इस चुनाव के बाद भी विभिन्न विधानसभा चुनावों में भाजपा को शानदार जीत देकर राज्यसभा में पार्टी के बहुमत की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाया है।
मित्रों,यद्यपि अभी केंद्र सरकार को सत्ता में आए ज्यादा दिन नहीं हुए हैं लेकिन इस अल्पकाल में भी आज पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है। एक बार फिर से स्वदेशी का जोर बढ़ने लगा है,भारत को दुनिया की फैक्ट्री बना डालने की दिशा में जोर-शोर से कोशिश हो रही है,सरकार में कहीं कोई घोटाला नहीं है,कानून का बोझ कम किया जा रहा है,देश के गणमान्य लोगों ने झाड़ू उठा लिए हैं,भारत दुनिया के सारे देशों के साथ आँखों में आँखें डालकर बात कर रहा है,पूंजी निवेश को आसान बनाया जा रहा है,नए उद्यमों की स्थापना को आसान बनाने के प्रयास काफी तेजी से और शिद्दत से किए जा रहे हैं,युवाओं को भिक्षा के स्थान पर शिक्षा और रोजगार देने के इंतजामों में सरकार लग गई है।
मित्रों,किसी भी एक साल में भारत की दशा और दिशा में इतना बदलाव नहीं आया जितना कि वर्ष 2014 में। इस मामले में यह साल निश्चित रूप से सन् 1947 और 1974 से भी ज्यादा क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी रहा। सबसे बड़ी बात तो यह रही कि इस क्रांति को अंजाम तक पहुँचाया स्वयं भारत की सवा सौ करोड़ जनता ने। अगर जनता जागरुक नहीं हुई होती तो एक तो क्या एक हजार नरेंद्र मोदी भी व्यवस्था तो क्या सत्ता तक को भी नहीं बदल पाते और आज भी देश में देशविरोधी,हिन्दूविरोधी तत्त्वों का शासन होता।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 28 दिसंबर 2014

मुंशी प्रेमचंद,डॉ. धर्मवीर और नीतीश कुमार

28 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आप जानते हैं कि हिंदी साहित्य में एक धारा चलती है दलित साहित्य। इस धारा के कई लोगों का मानना है कि दलितों के दर्द को बयान करने का अनन्य अधिकार सिर्फ दलितों को ही है। इनमें से एक डॉ. धर्मवीर ने तो दलितों के दर्द को सबसे ज्यादा जुबान देनेवाले व हिन्दी के महानतम कथाकार मुंशी प्रेमचंद को सामंतों का मुंशी तक कह दिया। कदाचित इस धारा के समर्थकों के अनुसार दलितों पर दलित अत्याचार करे,दबंग दलित दलित अबला के साथ बलात्कार करे फिर भी दलितों के बारे में लिखेगा सिर्फ वही। वह व्यक्ति जो दलितों के साथ सहानुभूति रखता है,उनके सामाजिक,आर्थिक व शैक्षिक उत्थान के लिए अपने श्रम,धन व समय का व्यय करता है अगर वह दलित नहीं है तो फिर उसको दलितों के दर्द को बाँटने का अधिकार ही नहीं है। शायद वे यह भी मानते हैं कि कोई दलित अगर सड़क-दुर्घटना का शिकार हो जाए तो किसी गैरदलित को उसकी मदद नहीं करनी चाहिए भले ही उसके ऐसा करने से दुर्घटना-पीड़ित की मौत ही क्यों न हो जाए। वह व्यक्ति अगर ऐसा कुछ करता है तो शायद सीधे तौर पर वो अनाधिकार चेष्टा कर रहा है और ऐसा करने से उसको बलपूर्वक रोका जाना चाहिए।
मित्रों,कुछ इसी तरह की धारा राजनीति में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी बहाना चाहते हैं और बहा भी रहे हैं। श्री कुमार भारतीय जनता पार्टी से इस बात को लेकर काफी नाराज हैं कि भाजपा ने आदिवासीबहुल झारखंड में किसी गैर आदिवासी को कैसे मुख्यमंत्री बना दिया। नीतीश जी की निगाह में भाजपा ने ऐसा करके एक गलत परंपरा की शुरुआत की है। शायद इसलिए उन्होंने महाअयोग्य जीतनराम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर महान परंपरा की रक्षा की क्योंकि उनको लगता है कि श्री मांझी के सीएम बनते ही तत्क्षण सारे महादलितों के दिन बहुर गए। शायद नीतीश आँखवाले अंधे हैं। वे यह नहीं देख पाए कि पिछले 14 सालों में राज्य के शासन की बागडोर संभालनेवाले आदिवासी मुख्यमंत्रियों ने राज्य की और राज्य के आदिवासियों की क्या हालत कर दी है। जनता (मुसहर) शासक (मांझी) की जाति लेकर क्या उसका अँचार डालेगी? जनता को तो सुशासन से मतलब है फिर चाहे वो रघुवर दास लाएँ या नीतीश कुमार या कोई भी और। क्या कोई सड़क-दुर्घटना पीड़ित सहायता प्राप्त करने से पहले मदद करनेवाले की जाति या धर्म पूछता है या उसको सिर्फ मदद पाने से मतलब रहता है? पिछले 14 सालों में जिन आदिवासी नेताओं ने झारखंड को लूट लिया उनको क्या उनके ऐसे कृत्य के लिए नीतीश कुमार सम्मानित करना पसंद करेंगे? क्या नीतीश कुमार सहित सारे समाजवादियों के लिए जाति ही सबकुछ होती है या धर्म ही सर्वस्व होता है? लोगों के कर्मों और चरित्र की कोई कीमत नहीं? क्या नीतीश कुमार जी किसी मूर्ख स्वजातीय या दलित चिकित्सक से ऑपरेशन या ईलाज करवाना पसंद करेंगे बजाए किसी सवर्ण योग्य डॉक्टर से? क्या पिछड़ी जाति होने के चलते लालू जी के तमाम काले कारनामे अचानक उजले हो गए? छि,घिन्न आती है मुझे ऐसे नेताओं से और इस बात को लेकर शर्म आती है कि ऐसे नेता ने हमारे राज्य बिहार में जन्म लिया!!!

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

भटके हुए समाजवाद के प्रतीक थे मुंशीलाल राय

28 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कल वैशाली जिले के महान समाजवादी नेता मुंशीलाल राय का निधन हो गया। आज बहुत से लोग उनको याद कर रहे हैं। मैं ठहरा एक छोटा और आम आदमी सो मैं उनको इसी रूप में याद करूंगा। मुंशीलाल जी का नाम मैंने पहली बार 80 के दशक में सुना मेरे ननिहाल जगन्नाथपुर जो कि बासुदेवपुर चंदेल और महनार रोड रेलवे स्टेशन के पास है में। तब अक्सर उनके बारे में लोग बातें करते। उनकी शिकायत रहती कि बगल के गोरीगामा गांव में तो मुंशीलाल जी जो तब महनार के विधायक थे गली-गली में सड़कें बनवा रहे हैं लेकिन जगन्नाथपुर जो कि राजपूतों का गांव था में वोट मांगने भी नहीं आते।
मित्रों,इसके बाद आया 1985 का चुनाव। चूँकि कांग्रेस प्रत्याशी प्रो. मिथिलेश्वर प्रसाद सिंह मेरे पिताजी के स्नेहिल थे इसलिए अक्सर हमारे दरवाजे पर जमे रहते। मगर जब मतदान शुरू हुआ तो मेरे मामा शोकहरण प्रसाद सिंह के दबाव में गांववालों ने मुनीश्वर प्रसाद सिंह को वोट दे दिया जो वोटकटवा की भूमिका में थे। परिणाम यह हुआ कि मुंशीलाल जी 2-ढाई हजार मतों से जीतकर फिर से विधायक बन गए। मगर इस बार भी उनका रवैय्या वही था कि वे सिर्फ अवर्णों के पास मत मांगने गए और सवर्णों से दूरी बनाए रखी।
मित्रों,फिर 1990 के चुनाव में उनको महनार से टिकट ही नहीं मिला। पार्टी की अंदरूनी राजनीति के चलते हाजीपुर से मिला था मगर वे चौथे स्थान पर रहे। कहा जाता है कि लालू जी मुंशीलाल जी से डरते थे कि कहीं मुंशीलाल जी चुनावों के बाद मुख्यमंत्री न बन जाएँ। 1990 के बाद बिहार में जातीय युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए जिससे महनार भी अछूता नहीं रहा। महनार बाजार में 1992 में मुक्तियारपुर के मुखिया प्रह्लाद सिंह की हत्या हो गई जिसमें महनार के बनियों का भी नाम आया। तब बनिए आरक्षण के नाम पर पिछड़ी जातियों के साथ एकजुट थे। मगर जल्दी ही हालत बदल गई। यादव जाति के दो अपराधियों देशराजपुर के नागेश्वर राय और चकेसो के राजगीर राय ने महनार में अपहरण को उद्योग का रूप दे दिया और धीरे-धीरे स्थिति इतनी खराब हो गई कि दिन ढलते-ढलते बाजार बंद हो जाता। जब भी महनार से हाजीपुर आने-जानेवाली बसों को चकौसन,चेचर या खिलवत में रोका जाता तो लोग समझ जाते कि महनार के किसी तेली-कलवार या बढ़ई का अपहरण हो गया। रात में राजगीर राय घोड़े पर सवार होकर महनार बाजार में निकलता तो महनार के तेली-कलवार और सुनार कथित रूप से रास्तों पर थालियों में रुपये और सोना-चांदी लेकर खड़े रहते। अब तक मुंशीलाल जी समाजवाद भूलकर अन्य यादव नेताओें की तरह जातिवादी हो चुके थे और महनार के लोगों का मानना था कि अपहर्ताओं को मुंशीलाल का वरदहस्त प्राप्त था।
मित्रों,इसी माहौल में 1995 का विधानसभा चुनाव हुआ। इस बार मुंशीलाल जी महनार से जनता दल के उम्मीदवार थे। बक्से से जिन्न निकला और वे जीत गए। जीतने के बाद उन्होंने अपने संरक्षक शरद यादव जी के यहां लॉबिंग की कि उनको नई सरकार में मंत्री बनाया जाना चाहिए। शरद यादव जी जब मुंशीलाल जी को साथ में लेकर लालू जी के यहाँ पहुँचे तो उनके साथ महनार के उनके कई समर्थक भी थे जिनमें से किसी ने हमें बताया था कि लालू जी ने शरद जी से तब कहा था कि हमने 13 को 39 कर दिया अब मंत्री भी बना दें? यानि 13 हजार मत को 39 हजार कर दिया अब मंत्री कैसे बना दें? लेकिन बाद में जब जनता दल का विभाजन हुआ तो मजबूरन लालू जी को मुंशीलाल जी को मंत्री बनाना ही पड़ा। अभी भी महनार में नागेश्वर राय और राजगीर राय का आतंकराज जारी था।
मित्रों,मुंशीलाल जी को इस बार कुछ नए चेले मिल गए थे। उनमें से सबसे बड़ा नाम था महनार के इशहाकपुर के बंधुद्वय बच्चू राय और शंभू राय का। दोनों भाई ठेकेदार थे और छँटे हुए बदमाश भी। मुंशीलाल जी के कथित इशारे पर उनके चेलों ने पहले लावापुर के चंद्रशेखर राय की और बाद में महनार बाजार के ही रामपुकार सिंह की हत्या कर दी। उस कालखंड का एक वाकया मुझे आज भी याद है। एक बार डीएम साहब महनार में नाली-निर्माण का निरीक्षण कर रहे थे। महनार के महान समाजवादी और कर्पूरी ठाकुर के मित्र रहे सत्यनारायण दिवाकर जी भी साथ में थे। दिवाकर जी ने कहा कि अगर मैं जोर से पेशाब कर दूँ तो यह नाली बह जाएगी। डीएम साहब ने ठेका रद्द कर दिया। बाद में बच्चू और शंभू राय ने सत्यनारायण दिवाकर जी को उनकी उम्र का ख्याल किए बिना न सिर्फ अपमानित किया बल्कि जमकर पीटा भी। मुझे आज भी चलचित्र की तरह याद है कि रामपुकार सिंह की प्रतिमा का अनावरण हो रहा था और अनावरण करने के लिए बिहार सरकार में पीएचडी मंत्री मुंशीलाल राय जी मंच पर मौजूद थे। तभी सत्यनारायण दिवाकर जी ने माईक संभाली और कहा कि मंत्रीजी बड़े ही दयालु हैं। पहले तो हत्या करवाते हैं,फिर अपने फंड से मूर्ति बनवाते हैं और अपने हाथों से अनावरण भी करते हैं। फिर तो मुंशीलाल जी को जनता के इतने तीखे विरोध का सामना करना पड़ा कि उन्होंने निकल भागने में ही अपनी भलाई समझी। यह बात अलग है कि इसके बाद दिवाकर जी कई दिनों तक घर से बाहर ही नहीं निकले।
मित्रों,इसी बीच पहले नागेश्वर राय और फिर बाद में राजगीर राय की हत्या हो गई। मौके की नजाकत को समझते हुए अब मुंशीलाल जी सवर्णों के गांवों में भी आने-जाने लगे। जगन्नाथपुर में भी उन्होंने स्टेट बोरिंग की स्थापना करवाई। यह बात अलग है कि आज तक बोरिंग ने पानी देना शुरू नहीं किया है। फिर आया साल 2000 का चुनाव और इस बार मुंशीलाल जी रामा सिंह से 40000 मतों के भारी अंतर से पराजित हो गए। इसी के साथ उनके राजनैतिक जीवन का लगभग अंत हो गया और इसके बाद वे लगातार चुनावों में हारते रहे।
मित्रों,मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूँ कि मैं एक आम आदमी था और आज भी हूँ इसलिए मैं उसी रूप में मुंशीलाल जी याद करूंगा। खास रहता तो उनके बारे में खास बातें बताता। दरअसल मेरी नजर में मुंशीलाल जी समाजवादी कम जातिवादी ज्यादा थे। लालू युग से पहले भी वे सवर्णों से दूरी रखते थे। शायद उनकी दृष्टि में ऐसा करना ही समाजवाद था। बाद में उन्होंने अपराधियों को जमकर संरक्षण दिया। कथित रूप से दो-चार हत्याएँ भी करवाईं शायद यह भी उनका समाजवाद ही था। अगर हम दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि आज लालू-मुलायम-नीतीश-शरद आदि का समाजवाद भी तो वही समाजवाद है जो मुंशीलाल जी का समाजवाद था। वैसे आप क्या समझते हैं कि मुंशीलाल जी का भटकाव समाजवादियों का भटकाव था या स्वयं समाजवाद का?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

भाजपा की कम मोदी की जीत अधिक

25 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आपलोग इस शीर्षक को देखकर जरूर चौंक सकते हैं लेकिन हकीकत तो जो है सो है। जम्मू-कश्मीर और झारखंड दोनों ही राज्यों के चुनाव-परिणाम स्पष्ट तौर पर यही दर्शाते हैं कि भारत की जनता का अभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में विश्वास बना हुआ है लेकिन साथ-ही चुनावों के नतीजों से यह भी पता चलता है कि पार्टी के तौर पर जनता के लिए भारतीय जनता पार्टी बेतहर विकल्प तो है लेकिन एकमात्र विकल्प नहीं।
मित्रों,अगर हम प्रचुरता में निर्धनता के दुनिया में सर्वश्रेष्ठ उदाहरण झारखंड को देखें तो वहाँ की जनता ने न सिर्फ सारे पूर्व मुख्यमंत्रियों को नकार दिया बल्कि पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो को भी विधानसभा का मुँह नहीं देखने दिया। जाहिर है कि जनता राज्य को लूटने के लिए जिम्मेदार चेहरों को दंडित करना चाहती थी। जनता ने भाजपा को बहुमत तो दे दिया लेकिन संभावित मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को हरा दिया। विदित हो कि झारखंड के निर्माण के बाद के 14 वर्षों में भाजपा 9 सालों तक सत्ता में रही है और राज्य में सबसे ज्यादा समय तक अर्जुन मुंडा ही मुख्यमंत्री रहे हैं। जाहिर है कि जनता चाहती थी कि भाजपा की ओर से इस बार ऩया व ताजा चेहरा राज्य का मुख्यमंत्री बने। झारखंड के चुनाव-परिणामों से यह भी पता चलता है कि राज्य की एक तिहाई आबादी आदिवासियों का विश्वास अभी भी झारखंड मुक्ति मोर्चा में बना हुआ है। इसके साथ ही झारखंड की जनता ने कांग्रेस,लालू और नीतीश के महागठबंधन को सिरे से नकार दिया है। लालू और नीतीश की पार्टियों का तो राज्य में पहली बार खाता भी नहीं खुला।
 मित्रों,इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर के चुनाव-परिणाम भी यही दर्शाते हैं कि जनता का मोदी में विश्वास अभी भी बना हुआ है। कश्मीर में भाजपा ने 44+ का जो लक्ष्य रखा था वह कहीं से भी यथार्थवादी था ही नहीं। मुसलमानों ने इस बार भी  भाजपा को वोट नहीं दिया है जबकि जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों का ही बहुमत है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में भाजपा को 25 सीटें ही मिल सकती थीं 44 तो कभी भी नहीं।  भाजपा के लिए जम्मू-कश्मीर में सबसे बड़ा झटका लद्दाख में कोई सीट नहीं मिलना है जबकि प्रधानमंत्री ने पीएम बनने के बाद भी कई-कई बार इस क्षेत्र का दौरा किया है।
मित्रों,चाहे चुनावों में कोई जीता हो,कोई हारा हो सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन दोनों ही राज्यों में जनता ने अलगाववाद और प्रतिक्रियावाद को नकार दिया और भारी मतदान करके लोकतंत्र में अपनी आस्था पर मुहर तो लगा ही दी है। इसके साथ ही दोनों राज्यों की जनता ने चुनाव-परिणामों के माध्यम से नेताओं को यह चेतावनी भी दी है कि जनता अब लूट और कुशासन के प्रतीकों को बनाए रखने में नहीं बल्कि ढहा देने में यकीन रखती है। चूँकि भाजपा के पास जनता को सुशासन की उम्मीद बंधाने के लिए नरेंद्र मोदी नामक चेहरा मौजूद था इसलिए सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ वैसे फायदे में तो जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और झारखंड में झामुमो भी रहा।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

कुछ ऐसी ही कसमें अनिल कुमार की शहादत पर भी खाई गई थीं

24 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आपको याद होगा कि वर्ष 2014 के पहले ही दिन वैशाली जिले के जुड़ावनपुर थाने के प्रभारी अनिल कुमार की अपराधियों ने थाने में घुसकर कर दी थी। इतना ही नहीं उन्होंने एक स्थानीय ग्रामीण की भी हत्या कर दी थी और पैदल ही आराम से भाग निकले थे। तब अनिल कुमार के शव के सामने वैशाली के पुलिस अधीक्षक सुरेश प्रसाद चौधरी ने हत्यारों को सजा दिलाने की कसमें खाई थीं। मगर हुआ इसका उल्टा। न जाने किस दबाव में और किसके दबाव में वैशाली पुलिस ने सिर्फ एक ही अभियुक्त को गिरफ्तार किया और उसको भी बाद में हाईकोर्ट से जमानत ले लेने दिया। इस प्रकार शहीद अनिल कुमार को मरने के बाद भी खुद उनके सहयोगी ही न्याय नहीं दिला सके या जानबूझकर इसके लिए प्रयास ही नहीं किया। न तो कोई गवाह ही जुटाया गया और न ही हत्या में इस्तेमाल हथियार को ही बरामद किया गया। इतना ही नहीं वैशाली पुलिस एक साल में अपने ही जवानों से लूटे गए हथियारों को ही बरामद कर पाई। जाहिर है कि पुलिस के ऐसे रवैये से पुलिस के जवानों का नहीं बल्कि अपराधियों का मनोबल बढ़ा।

मित्रों,कुछ ऐसे ही वादे कल सूबे के अपर पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडे ने बिहार की जनता और शहीद के परिजनों से किए। मेरी मानिए तो इस बार भी बिहार पुलिस अपने के शहीद सहकर्मी को मरणोपरांत न्याय नहीं दिला सकेगी। फिर से वही पैरवी का खेल चलेगा और अपराधी पकड़े जाने के बाद भी बाईज्जत बरी हो जाएंगे। जिस तरह से वर्ष 2014 में जुड़ावनपुर थाने के थानेदार की हत्या के मुख्य नामजद अभियुक्त श्रीकांत राय का बैंड बाजे के साथ जमानत पर रिहा होने के बाद गांव में स्वागत किया गया फिर से संजय कुमार तिवारी के हत्यारों का भी नए साल में भी स्वागत किया जाएगा।

मित्रों,सवाल उठता है कि जो बिहार पुलिस अपने ही सहकर्मियों के हत्यारों को सजा नहीं दिलवा पा रही है उस पर कैसे यकीन किया जाए कि वो बिहार के आम गरीब-दबे-कुचले नागरिकों को इंसाफ दिलवाएगी? मैं कई बार अपने पूर्व के आलेखों पुलिस वाला लुटेरा अथवा वर्दी वाला गुंडा,दरिंदा बनता सिस्टम,क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ?,दुश्शासनों के भरोसे सुशासन में निवेदन कर चुका हूँ कि या तो पुलिस के रवैये को बदलिए नहीं तो इस संगठन को समाप्त ही कर दीजिए क्योंकि यह अपराधियों की रक्षक और शरीफ लोगों की भक्षक बन गई है। ऐ भाई,ऐ भाई,नरेंद्र मोदी जी ! सुन रहे हो क्या? बिहार सरकार तो बहरी है भाई!

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

इस्लाम,आतंकवाद और पाकिस्तान

19 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,पिछले दिनों पेशावर के मिलिट्री स्कूल में जो कुछ भी हुआ उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है। बच्चे,महिलायें या कोई भी निर्दोष इंसान चाहे भारत के हों या पाकिस्तान या कहीं के भी उनकी हत्या करना सीधे इंसानियत की हत्या करना है और कोई भी मजहब इंसानियत से ऊपर नहीं हो सकता। लेकिन जब कोई मजहब ही हिंसा की नींव पर खड़ी हो और अपनी स्थापना के समय से ही हिंसा का मजहब हो तो फिर ऐसी हिंसा को कोई रोकेगा कैसे? मैं यहाँ इस्लाम को हिंसा का मजहब इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इसको माननेवाले ही आज पाकिस्तान से लेकर नाइजीरिया तक खून बहा रहे हैं। दुर्भाग्यवश इस्लाम एक ऐसा मजहब है जिसके मुख्य धर्मग्रंथ कुरान में एक जगह नहीं बल्कि 50 जगह हिंसा का समर्थन किया गया है। जबकि यह तथाकथित ईश्वरीय पुस्तक खुलेआम अपने अनुयायियों से कहता है कि जब वर्जित समय बीत जाए, तब लड़ो और काफिर जहाँ मिले उन्हें मारो, बंदी बना लो, घेर लो, और हर लड़ाई में उनकी ताक में रहो! अभी-अभी कुछ ही समय पहले आईएसआईएस ने इसी कुरान के हवाले से यजीदी और कुर्द महिलाओं के साथ सामूहिक पाशविक बलात्कार और उनके क्रय-विक्रय को उचित ठहराया है।
मित्रों,सवाल उठता है कि जब सुन्नी मुसलमान हजारा,इसाई,अहमदियों,यजीदी,कुर्द,हिंदू,सिख बच्चों को बेरहमी से मारते हैं तब क्या इंसानियत की हत्या नहीं होती? क्या इस धरती पर सिर्फ सुन्नी मुसलमान ही जीने के हकदार हैं? फिर सुन्नी जब सुन्नी को मारता है तब वो किस अल्लाह के बताए रास्ते पर चल रहा होता है? जिस घर में बच्चे बचपन से ही रोजाना दूध पिलानेवाली मातासमान गायों के गले पर बड़ों को छुरियाँ फेरते हुए देखेंगे उस घर के बच्चे बड़े होकर क्रूर नहीं होंगे तो क्या दयावान होंगे? हिन्दी में एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है कि जाके पैर न फटे बिवाई सो क्या जाने पीड़ पराई। सो पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद की नर्सरी पाकिस्तान को पेशावर बालसंहार के बाद शायद पूरी तरह से नहीं तो थोड़ी-थोड़ी यह समझ में आ गया होगा कि दूसरों को खाने के लिए अपने घर में बाघ को पालना कितना खतरनाक हो सकता है? कुरान के गलत अंशों को आधार बनाकर मजहबी हिंसा को प्रश्रय देना आत्मघाती भी हो सकता है।
मित्रों,पूरी इस्लामिक दुनिया में आज जो खून-खराबी हो रही है उसके लिए सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं बल्कि मेरी समझ में संयुक्त राज्य अमेरिका,रूस और सऊदी अरब भी जिम्मेदार हैं। अमेरिका ने अफगानिस्तान से सोवियत संघ को निष्कासित करने के लिए तालिबान को जन्म दिया,वैश्विक राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कुरान और इस्लाम का दुरूपयोग किया और पाकिस्तान की पंजाब और कश्मीर नीति का आँखें बंद करके समर्थन किया। रूस ने फिलीस्तीन के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा दिया तो सऊदी अरब ने पूरी दुनिया में इस्लाम के गलत-सही तरीके से प्रचार-प्रसार के लिए अनाप-शनाप पैसे दिए। सीरिया में आईएसआईएस व अन्य विद्रोहियों को पहले अमेरिका ने ही सहायता देकर मजबूती दी और आज कथित रूप से उसके खिलाफ ही लड़ रहा है।
मित्रों,पूरी दुनिया के मुसलमानों को देर-सबेर यह समझ लेना होगा कि आज की दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान ही अकालमृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। मरनेवाले भी अल्लाह हो अकबर कहकर मर रहे हैं और मारनेवाले भी अल्लाह हो अकबर के नारे लगाकर उनको मौत के घाट उतार रहे हैं। मैं नहीं मानता कि कोई भी किताब ईश्वर की लिखी हुई हो सकती है और उसमें संशोधन नहीं किया जा सकता। किताब या धर्म ने इंसान को नहीं बनाया बल्कि इंसानों ने किताबें लिखीं और धर्म बनाए यहाँ तक कि ईश्वर को भी बनाया। फिर क्यों कुरान में संशोधन नहीं हो सकता? जब कुरान को माननेवाले ही कुरान के पालन के नाम पर एक-दूसरे को मार डालेंगे तो फिर मानव-समाज ऐसे धर्मग्रंथ को लेकर क्या करेगा? मैं पहले भी अपने आलेखों जैसे- अफजल गुरू जेहाद का फल था जड़ नहीं,इराक में इस्लाम कहाँ है?,व्यक्ति नहीं विचारधारा है ओसामा में मुसलमानों से इस तरह का निवेदन कर चुका हूँ लेकिन तब से न जाने कितने ही लाख मुसलमानों को मुसलमान मार चुके हैं और अभी तक तो मेरी अपील बेअसर रही। जाने कभी मेरी अपील का असर होगा भी कि नहीं?!

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

उसने कहा था

16 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बात जून,2013 की है। तब हमलोग प्रोफेसर कॉलोनी के प्रोफेसर सत्येंद्र पांडे के यहाँ किरायेदार थे और काफी परेशान थे। मकान के शौचालय की दशा काफी खराब थी और हर बार शौच जाने के बाद कपड़ा लगे डंडे से शौचालय के पैन को हूरना पड़ता था। बराबर डंडे का कपड़ा भीतर में ही खुल जाता जिसको फिर अपने हाथ से निकालना पड़ता। उस पर जब जी में आए तब पांडेजी उस भीषण गर्मी में हमारे डेरे की बिजली काट देते थे। तभी मेरे गांव के एक पंडित जी बस्कित मिश्र की बेटी की शादी हुई। श्री मिश्र तब आरएन कॉलेज के मैदान के दक्षिणी छोर पर रहा करते थे। श्री मिश्र के मामाजी और उनका लड़का भी शादी में आया हुआ था जो उन दिनों पास में ही घर बनवा रहा था। मिश्र जी के मामाजी मेरे पिताजी के काफी पुराने मित्र थे और पहले महनार,अंचल कार्यालय में बड़ा बाबू हुआ करते थे जो कि बिहार में काफी मलाईदार पद माना जाता है। मामाजी ने पिताजी से हाल पूछा तो स्वाभाविक रूप से पिताजी ने तत्कालीन मकान मालिक के अत्याचारों का वर्णन किया। तभी मामाजी ने अपने बेटे से कहा कि जब तुम्हारा घर बन जाए तब प्रोफेसर साहेब यानि मेरे पिताजी को ही किरायेदार बनाना।
मित्रों,हमें तो अकस्मात् ऐसा लगा जैसे कि किसी कई दिन से भूखे-प्यासे व्यक्ति को छप्पन भोग या गंगा का पानी मिल गया हो। इस बीच मामाजी का देहान्त हो गया लेकिन जब हम अक्तूबर में उनके बेटे से मिलने गए तो उन्होंने कहा कि उनको अपने मृतक पिता का कथन भलीभाँति याद है इसलिए वे हमलोगों को ही किराया पर फ्लैट देंगे। इस बीच उन्होंने घर का काम पूरा करने के लिए दो महीने का भाड़ा 7000 रु. अग्रिम के रूप में मांगा जो हमने दे भी दिया मगर इस ताकिद के साथ कि हम पहले दो महीने में इस राशि का समायोजन कर लेंगे। फिर हम 1 फरवरी,2013 को उनके यहाँ रहने के लिए बैंक मेन कॉलोनी में आ गये। पहली बार उनकी पत्नी के दर्शन हुए। वो रात का खाना लेकर हमारे पास आईं। चाय भी पिलाई। माँ से तो वो जब भी मिलती तो यही कहतीं कि अब आप ही मेरी सास हैं और गले से लिपट जातीं। बच्चे जब भी देखते कि पिताजी भारी झोला लिए आ रहे हैं तो दौड़कर झोला ले लेते और हमारे घर दे जाते। हम आश्चर्यचकित थे कि कोई मकानमालिक ऐसा कैसे हो सकता है?
मित्रों,इसी बीच हमने दो महीने के अग्रिम को सधा लिया और तभी  से उनलोगों के व्यवहार में भी बदलाव आने लगा। मुझे इस बात का भी शक हुआ कि उनका लगाया बिजली का मीटर ज्यादा तेज भाग रहा है इसलिए हमने मामाजी के बेटे श्रीमोहन मिश्र की सहमति से बाजार से बिजली का मीटर खरीदकर लगा दिया। जब तक मैं हाजीपुर में था उनलोगों ने कुछ भी नहीं कहा लेकिन जैसे ही मैं वेबसाईट संबंधी कार्यों के लिए दिल्ली के लिए रवाना हुआ जैसा कि मुझे बाद में पता चला कि उनकी पत्नी ने आसमान को सिर पर उठा लिया। मेरी समझ में यह नहीं आया कि उनका मीटर अगर सही था तो मेरा मीटर गलत कैसे हो सकता था? क्या इसलिए क्योंकि वे मकान मालकिन थीं और हम किरायेदार?
मित्रों,इसी बीच मैं अपनी पत्नी और बेटे को डेरे में ले आया और मेरी माँ की आत्मघाती मूर्खता के चलते मेरा घर कुरूक्षेत्र का मैदान बन गया। मेरी माँ दिन-रात मकान-मालकिन के पास ही बैठी रहती और बार-बार उसको पंचायत करने के लिए बुलाती। इस बीच स्वाभाविक तौर पर हमारे घर में पानी का खर्च काफी बढ़ गया था जिससे मकान-मालकिन खुश नहीं थीं। अब तक हम यह अच्छी तरह से समझ चुके थे कि हमारे मकान-मालिक श्रीमोहन झा की उनके घर में कुछ भी नहीं चलती बल्कि जो भी चलती है उनकी पत्नी की ही चलती है। मेरी माँ अपने घर में होनेवाले विवादों की विस्तृत रिपोर्ट रोजाना मकान मालकिन को सुनातीं और कहतीं कि उनकी बहू बहुत देर तक स्नान करती है।
मित्रों,इसी बीच एक दिन हम अपने बेटे को चापाकल के ताजा पानी से नहाने के लिए चापाकल पर ले जा रहे थे कि हमने देखा कि पानी का मोटर चल रहा है। जब मोटर को बंद कर ग्रिल में ताला लगा दिया गया तब हमने चापाकल चलाकर अपने बेटे को स्नान करवाया। मगर जब हम उसको लेकर छत पर गए तो पाया कि मेरी मकान-मालकिन इस बात को लेकर हल्ला कर रही हैं कि हमने मोटर चलने के दौरान ही तथाकथित रूप से चापाकल चलाया जिससे कि मोटर जल भी सकता था। मेरी माँ उसका ही साथ दे रही थीं और पिताजी चुपचाप थे जबकि वे दोनों ही जानते थे कि मैं मजाक में भी झूठ नहीं बोलता। मैंने प्रतिवाद किया और कहा कि मैंने मोटर बंद होने के बाद ही चापाकल चलाया था मगर वे अपनी ही बात पर अड़ी रहीं। मैंने कहा भी कि मकान मालकिन होने के कारण मैं आपके झूठ को सच नहीं मान लूंगा क्योंकि झूठ झूठ होता है चाहे उसको बोलनेवाला बॉस हो या मकान-मालकिन।
मित्रों,उसी दिन से डेरे में जल-संकट उत्पन्न कर दिया गया और कहा गया कि दिनभर में सिर्फ एक बार ही टंकी को भरा जाएगा। कुछ दिनों तक जल-संकट झेलने और चापाकल पर कपड़े धोने के बाद मैंने पत्नी और बच्चे को मायके भेज दिया। मैं करता भी क्या जबकि खुद मेरी माँ ही नहीं चाहती थीं कि हमलोग एकसाथ रहें। पत्नी के जाते ही कुछ ही दिनों में घर भूत का डेरा बन गया। इसी बीच मकान-मालकिन को शिकायत रहने लगी कि हम घर में पोंछा नहीं लगाते। मैंने जब कहा कि अगर आप पर्याप्त मात्रा में पानी देने का वादा करें तो मैं फिर से पत्नी को ले आऊंगा तो वे मौन साध गईं। इस बीच उनका बड़ा बेटा सौरभ हमसे हमारे दोनों बेंच मांग कर ले गया और हमने सीधेपन में दे दिया। अब तक हमने एक मोटरसाईकिल भी ले ली थी और मुझे लग रहा था कि उनको हमारा मोटरसाईकिल खरीदना पसंद नहीं आया था। आखिर कोई किरायेदार मकान-मालिक से ज्यादा अच्छी जिंदगी कैसे जी सकता था? इस बीच एक दिन मेरी माताजी नल को खुला छोड़कर घर में ताला लगाकर घूमने चली गईं। बाद में जब मोटर चला तो नल से पानी बहने लगा। उस दिन मैं ससुराल में था। आने के बाद पता चला कि उस रात मकान-मालकिन ने मेरे माँ-पिताजी को काफी खरी-खोटी सुनाई। दोनों हाथ जोड़कर बार-बार माफी मांगते रहे लेकिन वे सुनने को तैयार ही नहीं थीं। अब तक मकान-मालकिन का खुलकर समर्थन करनेवाले माँ-पिताजी समझ चुके थे कि मकान-मालकिन जैसी दिखती हैं वैसी हैं नहीं बल्कि विषकुंभंपयोमुखम् हैं।
मित्रों,सितंबर में उन्होंने यह कहकर दो महीने का एडवांस मांगा कि हमने ऐसा वादा किया था जबकि हमने कभी ऐसा वादा नहीं किया था। पिताजी ने शांति बनाए रखने के लिए एक महीने का एडवांस दे भी दिया कि तभी से हमें डेरा खाली करने के लिए तंग किया जाने लगा। मैं समझ गया कि अब हमारे दोनों बेंचों को तुरूप से पत्तों की तरह इस्तेमाल किया जाएगा क्योंकि हमारी मकान-मालकिन इस बीच हमारे बगल के फ्लैट में रहनेवाली एक महिला का एक महीने का किराया पचा चुकी थीं। फिर एक दिन हमसे चाबी खो जाने के नाम पर बाहर के ग्रिल की चाबी ले ली गई और कहा गया कि हमारी माताजी यानि उनकी पूर्व मित्र उनके खिलाफ मुहल्ले में प्रचार करती हैं। जवाब में मैंने बस इतना ही कहा कि मैं औरतों के झमेले में नहीं पड़ता। इस बीच एक दिन देर शाम को पिताजी अपना टॉर्च किसी दुकान पर छोड़ आए। तब तक मैं अपनी मोटरसाईकिल गैरेज में रख चुका था। मैंने गैरेज खुलवाकर फिर से मोटरसाईकिल निकाली और टॉर्च लाने चला गया। मगर यह क्या जब मैं लौटकर आया तो मकान-मालकिन मेरी गाड़ी को गैरेज में रखने को तैयार ही नहीं हुई। फिर दो महीने तक मुझे अपनी गाड़ी को मुहल्ले के मित्रों के यहाँ रखना पड़ा।
मित्रों,इस बीच हमने डेरा ढूंढ़ लिया और डेरा बदलने से एक सप्ताह पहले से बेंच के लिए तकादा करना शुरू कर दिया मगर कोई असर ही नहीं हो रहा था। बाद में बेंच दिया गया मगर तब जब मेरा पूरा सामान ढोया जा चुका था जिसके कारण मुझे बेंचों को अपने सिर पर उठाकर लाना पड़ा। अंत में जब मैं डेरा खाली करने के बाद घर को साफ कर रहा था तब श्रीमोहन झा आकर मुझसे बेवजह की बक-झक करने लगे। उनका कहना था कि उनके पास बहुत पैसा है। जब मैं उनपर काफी नाराज हो गया तब उनकी पत्नी ने आकर बीच-बचाव किया।
मित्रों,आज जब मैं अपने गांव के पड़ोसी बस्कित मिश्र के मामाजी के बेटे के मकान से निकल चुका हूँ या निकाला जा चुका हूँ तब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मामाजी ने हमें उस मकान में रहने की दावत क्यों दी थी? क्या वे यह बताना चाहते थे कि मकान-मालिक और किरायेदार के बीच सिर्फ एक ही रिश्ता होता है और वह रिश्ता होता है मकान-मालिक और किरायेदार का? या फिर यह अहसास दिलाना चाह रहे थे कि आज के जमाने में सच्चाई,ईमानदारी और अच्छाई की कोई कीमत नहीं है जो भी कीमत है वो पैसे की है? या फिर अपने बेटे और उसके परिवार को बताना चाह रहे थे कि कैसे एक बेटे को अपने बूढ़े माता-पिता की देखभाल करनी चाहिए या फिर किस तरह से एक परिवार सच्चाई के मार्ग पर चलकर इस घनघोर कलियुग में भी जी रहा है?
मित्रों,खैर मामाजी हमें क्या बताना चाहते थे यह राज तो उनके साथ ही चला गया मगर हम भी कुछ कहना चाहते हैं और कहना चाहते हैं अपनी राज्य और केंद्र की सरकारों से। हम कहना चाहते हैं कि भारत में ऐसे करोड़ो लोग हैं जो मजबूरी में किराया के मकान में रहते हैं और दिन-रात मकान-मालिकों के जुल्म को सहते हैं। क्या उनका कोई मानवाधिकार नहीं होता? मकान-मालिक जब जी चाहे तब मकान खाली करने का फरमान सुना देता है और किरायेदारों को खाली करना भी पड़ता है। इस तंगदिली के जमाने में किराये के मकान में रहना जेल में रहने के बराबर है। मकान-मालिक किरायेदारों को अपने बंधुआ मजदूर से ज्यादा कुछ भी नहीं समझते और मकान-मालिक ईज ऑलवेज राईट की नीति पर अमल करते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्यों व केंद्र की सरकारें कब तक करोड़ों लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को नजरंदाज करती रहेंगी? क्या दिन-रात अपनी सरकार को गरीबों की सरकार बतानेवाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी कभी गरीब और लाचार करोड़ों किरायेदारों पर नजरे ईनायत करेंगे और उनके अधिकारों की रक्षा से संबंधित कानून बनाएंगे,उनको बंधुआ मजदूरी से आजाद करवाएंगे?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

'घरवापसी' पर हंगामा क्यों?

13 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,यकीन मानिए कि लेखन के लिए धर्म मेरा प्रिय विषय नहीं है लेकिन जब धर्म के नाम पर अधर्म बढ़ने लगे तो फिर लिखना ही पड़ता है। अभी-अभी हमने देखा कि आगरा में चंद मुसलमानों को हिन्दू बना दिया गया है और इस समारोह को नाम दिया गया घरवापसी। न जाने क्यों इस घटना के सामने आते ही देश की कथित धर्मनिरपेक्ष जमात बुरी तरह से तिलमिला उठी है जैसे कि कोई कुत्ते की पूँछ पर पेट्रोल डाल दे या फिर बंदर की पूँछ कुचल दे।
मित्रों,आश्चर्य है कि जब हिन्दू हजारों की संख्या में लालच,दबाव या प्राण पर संकट आने पर किसी दूसरे धर्म को अपनाते हैं तब देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं होता लेकिन जब कोई इक्का-दुक्का ऐसा मुसलमान या ईसाई जो स्वयं जन्मना हिन्दू था या जिनके पूर्वज हिन्दू थे फिर से हिन्दू समाज में वापसी करते है तब भारत में धर्मनिरपेक्षता खतरे में आ जाती है! यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है जो प्रत्येक मामले में हिन्दुओं और अन्य धर्माम्बलंबियों के बीच भेदभाव करती है?
मित्रों,इतिहास गवाह है कि भारत ही नहीं काबुल तक के ईलाके में सनातन-धर्मी हिंदू-ही-हिंदू रहते थे। यह भी सही है कि हिन्दुओं में मध्यकाल में ऊँच-नीच और छुआछुत की कुरीति शर्मनाक स्तर तक बढ़ गई थी जिससे आहत होकर बहुत-से हिन्दू मुसलमान बन गए। साथ ही सत्य यह भी है कि बहुत सारे हिन्दुओं को तलवार के बल पर मुसलमान बनने पर बाध्य किया गया। गजनवी,गोरी,तैमूर,नादिरशाह,अब्दाली,खिलजी के साथ भारत आए इतिहासकारों के विवरण इस बात के प्रमाण हैं कि भारत के विभिन्न शहरों में हिन्दू पुरुषों के मुंडों के पहाड़ खड़े कर दिए गए,बच्चों को हवा में उछालकर भालों से बींध दिया गया और स्त्रियों को अरब देशों में ले जाकर बाजार में ठीक उसी तरह से खुलेआम नीलाम कर दिया गया जैसे कि इन दिनों कुर्द व यजीदी महिलाओं को आईएसआईएस के इस्लामिक वीर कर रहे हैं।
मित्रों,गुरू तेगबहादुर को इसलिए बलिदान देना पड़ा क्योंकि उन्होंने औरंगजेब द्वारा कश्मीरी पंडितों पर किए जा रहे अत्याचार का विरोध किया। अगर कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को मारा और सताया नहीं गया होता तो आज भी कश्मीर हिन्दू-बहुल होता। गुरू गोविन्द सिंह के मासूम बच्चों को दीवार में इसलिए चुनवा दिया गया क्योंकि वे मुसलमान बनने के लिए राजी नहीं हुए।
मित्रों,आज जबकि स्थितियाँ बदल गई हैं। आज हिन्दू समाज में जातिगत भेदभाव न के बराबर रह गया है और न ही हिन्दुओं को हिन्दू होने के चलते जान से हाथ धोने का भय है तो फिर अगर कोई पूर्व हिन्दू मुसलमान या इसाई फिर से हिन्दू बनना चाहता है तो इससे किसी को भी क्यों ऐतराज हो? जब हिन्दू किसी अन्य धर्म को अपनाता है तब तो किसी को भी ऐतराज नहीं होता,क्यों?
मित्रों,स्वयं राष्ट्रपिता गांधी ने इसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दुओं को लालच देकर या बहला-फुसलाकर,झूठ बोलकर इसाई बनाने की जमकर भर्त्सना की है और ऐसा आदिवासी हिन्दुओं के साथ तो आज भी किया जा रहा है इसलिए जरुरत इस बात की है कि गलत तरीके से किए जानेवाले धर्मान्तरण को रोकने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान किए जाएँ। केंद्र सरकार इसके लिए तैयार भी दिखती है। तो क्या भारत के छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी लोग इस पुनीत कार्य में सरकार का साथ देने के लिए तैयार हैं?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

हत्या सिर्फ ललित बाबू की नहीं इंसाफ की भी हुई है मी लॉर्ड!

9 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आज से करीब ढाई हजार साल पहले कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लिखा था कि जिस राज्य के निवासियों को न्याय नहीं मिलता वहाँ अराजकता पैदा होती है और अंततः उस राज्य का अंत हो जाता है। अभी कुछ ही दिन पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दत्तू ने भी भारत की न्यायिक प्रणाली पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि भारत की न्यायिक प्रणाली गरीब-विरोधी है। अब जब मुख्य न्यायाधीश का ही ऐसा मानना है तो फिर इस संबंध में बहुत-कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है।
मित्रों,अभी कुछ ही हफ्ते पहले निठारी कांड पर कोर्ट का फैसला आया और अजीबोगरीब आया,अमीर-गरीब के बीच फर्क करनेवाला आया। जिस मकान में कई दर्जन बच्चों के साथ बलात्कार किया गया और फिर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए आश्चर्यजनक तरीके से उस मकान के मालिक को सीबीआई और कोर्ट ने निर्दोष बताते हुए बरी कर दिया। आप ही बताईए कि क्या ऐसा संभव है कि कई सालों से मकान में अनवरत जारी बलात्कारों और हत्याओं के बारे में मकान मालिक पूरी तरह से अनभिज्ञ रहे और अगर पंढ़ेर को सबकुछ पता था तो उसने पकड़े जाने तक चुप्पी क्यों साधे रखी? क्या धनवान पंढ़ेर ने सीबीआई अधिकारियों को मोटी रकम देकर उनके ईमान को खरीद नहीं लिया था?  क्या गरीब नौकर कोली अपनी गरीबी के कारण ऐसा नहीं कर पाने के कारण आज फाँसी की सजा का इंतजार नहीं कर रहा है?
मित्रों,जहाँ तक ललित बाबू की हत्या के मामले का सवाल है तो खुद स्वर्गीय ललित नारायण मिश्र के बेटे ने कल कोर्ट का फैसला आने पर कहा कि एक तो फैसला काफी देर से आया है और दूसरी बात यह है कि जिन लोगों को सजा दी गई है वे पूरी तरह से निर्दोष हैं। जहाँ तक मैं और मेरे इलाके के लोग जानते हैं कि बिहार विधान परिषद् के माननीय सदस्य विजय कुमार मिश्र एकदम सही कह रहे हैं। वास्तव में इस हत्याकांड की साजिश के पीछे तथ्य यह था कि जैसा कि तब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और ललित बाबू के अनुज डॉ. जगन्नाथ मिश्र जो खुद भी बम-विस्फोट में घायल हो गए थे,ने मित्रोखिन आर्चिव्स के आधार पर आरोप लगाया था कि चूँकि तत्कालीन रेल मंत्री ललित बाबू और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रूसी खुफिया एजेंसी केबीजी से रिश्वत ली थी इसलिए सबूत मिटाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व और उनके बिगड़ैल बेटे ने ललित बाबू की हत्या करवा दी। हालाँकि बाद में जब जगन्नाथ मिश्र को इंदिरा ने बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया तो वे चुप लगा गए। 2 जनवरी और 3 जनवरी,1975 के घटनाक्रम को देखते हुए भी ऐसा ही लगता है कि श्री मिश्र की हत्या में सीधे प्रधानमंत्री का हाथ था। जहाँ बम-विस्फोट में घायल बाँकी लोगों को तत्काल दरभंगा मेडिकल क़ॉलेज अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया वहीं स्व. मिश्र के ईलाज में जानबूझकर रेलवे के अधिकारियों ने 10 घंटे की देरी की और उनको दानापुर रेलवे अस्पताल में भर्ती करवा दिया जबकि वहाँ अच्छे डॉक्टर नहीं थे।
मित्रों,बाद में बिहार पुलिस से मामले की जाँच को सीबीआई ने अपने हाथों में ले लिया और न जाने कहाँ से चार निर्दोष आनंदमार्गियों को पकड़कर आरोपी बना दिया। वह सीबीआई उस युग की सीबीआई थी जिस युग में कहा जाता था कि इंदिरा ईज इंडिया एंड इंडिया ईज इंदिरा। पहले निठारी और अब ललित बाबू हत्याकांड में जिस तरह से सीबीआई और अदालत ने संभावित निर्दोषों को सजा सुनाई है उससे सवाल उठता है कि अगर न्याय-प्रणाली को इसी तरह से काम करना है तो फिर भारत में पुलिस,सीबीआई और न्यायालयों की जरुरत ही क्या है? क्या हमारी अनुसंधान-एजेंसी और अदालतें रोजाना सैंकड़ों-हजारों निर्दोषों को इसी तरह से सजा नहीं सुना रही है?
मित्रों,जैसा कि पीएम मोदी बार-बार कह रहे हैं कि बेकार के कानुनों को समाप्त कर न्यायिक-प्रक्रिया को सरल बनाया जाएगा उसको ध्यान में रखते हुए क्या हमें यह उम्मीद रखनी चाहिए कि वर्तमान केंद्र सरकार यानि मोदी सरकार न्यायिक-प्रक्रिया को द्रुत और पारदर्शी बनाने की दिशा में कोई प्रभावी कदम उठाएगी? क्या कभी भारत की न्याय-प्रणाली गरीब-विरोधी के बजाए निष्पक्ष हो सकेगी या फिर आगे के मुख्य न्यायाधीश भी यह कहकर अपनी लाचारी व्यक्त करने को मजबूर होंगे कि भारत की न्याय-प्रणाली आज 22वीं सदी में भी गरीब-विरोधी या अमीरों की रखैल है?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 26 नवंबर 2014

मांझी सरकार के रिपोर्ट कार्ड में उपलब्धियाँ कम वादे ज्यादा

26 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि रिपोर्ट कार्ड में सरकार की उपलब्धियाँ होनी चाहिए,सरकार द्वारा किए गए कार्यों का जिक्र होना चाहिए लेकिन बिहार की मांझी सरकार की वार्षिक रिपोर्ट को देखकर यह दुःखद आश्चर्य हुआ कि रिपोर्ट कार्ड में रिपोर्ट थी ही नहीं बल्कि थी तो सिर्फ वादों की भरमाऱ। नौ साल से बिहार पर राज कर रही जदयू सरकार ने एक बार फिर से राज्य के लोगों के साथ प्रति वर्ष एक के हिसाब से 9 वादे कर दिए कि हम सभी किसानों को छह माह में बिजली कनेक्शन देंगे, धान के क्रय पर प्रति क्विंटल 300 रुपये बोनस देंगे, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक व दिल्ली की तर्ज पर 70 हजार सिपाही-हवलदारों को 13 महीने का वेतन देंगे, एससी-एसटी आवासीय विद्यालयों में आवासन क्षमता 20 हजार से बढ़ाकर अब एक लाख करेंगे, एक लाख से अधिक आबादी के शहरों में एक यातायात थाना खोलेंगे, दो लाख से अधिक की आबादी के लिए डीएसपी कार्यालय की स्थापना करेंगे, बिहार उर्दू अकादमी को एक करोड़ के अनुदान को बढ़ाकर तीन करोड़ करेंगे, पर्यावरण की चिंता करेंगे व मुंगेर में वानिकी महाविद्यालय खोलेंगे, अफसरों और कर्मचारियों के प्रशिक्षण की नयी व्यवस्था शुरू करेंगे। वहीं सरकार ने अपनी उपलब्धियों में जाति,आय एवं आवास प्रमाण-पत्र के लिए तत्काल सेवा आरंभ करने के काम को सबसे ऊपर रखा है। बिहार लोक सेवाओं के अधिकार के तहत प्राप्त 8 करोड़ 39 लाख 77 हजार 695 आवेदनों में से 8 करोड़ 26 लाख 76 हजार 474 के निष्पादन को भी सरकार बड़ी उपलब्धि बता रही है। मगर सवाल उठता है कि क्या सारे आवेदनों का निष्पादन निर्धारित समय-सीमा के भीतर कर दिया गया? अगर नहीं तो फिर पहले और वर्तमान की स्थिति में क्या अंतर रह गया? इसी तरह सरकार 411 भ्रष्ट लोक सेवकों की बर्खास्तगी को भी अपनी उपलब्धि बता रही है परंतु सवाल उठता है कि क्या इससे राज्य में भ्रष्टाचार में और घूस के रेट में किसी तरह की कमी आई है? नहीं भ्रष्टाचार तो पहले से और भी बढ़ा है फिर यह कैसा जीरो टॉलरेंस है? फिर ये जो 411 भ्रष्ट लोकसेवक हैं उनको तो जनता ने पहल करके पकड़वाया है सरकार अपनी तरफ से कब भ्रष्टाचारियों के खिलाफ स्वतः कार्रवाई करेगी? जब मुख्यमंत्री ही अपने दामाद को पीए बनाकर नियमों को तोड़ेगा,जब मुख्यमंत्री का बेटा ही शराब पीकर होटल में रंगदारी करेगा,महिला दारोगा का यौन-शोषण करेगा तो फिर कैसे भ्रष्टाचार कमेगा?
मित्रों,इसी तरह से सरकार कह रही है कि वर्ष 2015 तक राज्य के लिए 5000 मेगावाट बिजली उपलब्ध होगी मगर सरकार ने यह नहीं बताया है कि वह बिजली आएगी कहाँ से। सच्चाई तो यह है कि इसमें से ज्यादातर बिजली केंद्र द्वारा बिहार को प्राप्त हो रही है और बिहार में बिजली का उत्पादन आज भी काफी कम है। सरकार ने रिपोर्ट कार्ड में खुलेआम जाति-पाँति का खेल खेला है। सरकार जहाँ एक ओर सवर्ण आयोग को जल्दी रिपोर्ट देने के लिए कह रही है वहीं वह यह भी बता रही है कि फलां-फलां जाति को अनुसूचित जाति और अत्यंत पिछड़े वर्ग में शामिल किया गया है। मतलब अभी भी आरक्षण को सरकार ने वोट पाने का हथियार बनाया हुआ है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सीएम मांझी अभी कुछ ही दिन पहले सवर्णों को विदेशी बता रहे थे और अब अचानक सवर्णों पर मेहरबान हो रहे हैं। मुझे तो इस बात की आशंका लग रही हैं कि कहीं मुख्यमंत्री इस मामले में भी ऐसा न कह दें कि मैंने तो मजाक किया था। मुख्यमंत्री मजाक बहुत करते हैं। काम कुछ नहीं करते राज्य की जनता के साथ सिर्फ मजाक ही करते हैं। न जाने कब किस मुद्दे पर पलट जाएँ और कह दें कि मैंने तो जनता के साथ मजाक किया था। साथ ही सरकार बता रही है कि राज्य में एक आतंकवाद निरोधी दस्ते का गठन किया गया है मगर यह नहीं बताया है कि इस दस्ते ने अबतक किया क्या है? कितने आतंकियों को पकड़ा है और कितने माड्युलों को ध्वस्त किया है? राज्य में 85 नए थाने भी खोले गए हैं। आश्चर्य है कि नए थानों का खुलना उपलब्धि कैसे हो गई बल्कि यह तो शर्मनाक स्थिति है कि अपराध बढ़े हैं तभी तो नए थाने खोलने की आवश्यकता पड़ी? सरकार कहती है कि उसने इतने आर्सेनिक और लौह-शोधक पेयजल संयंत्र स्थापित किए मगर जहाँ तक हमारी जानकारी है वैशाली जिले में स्थापित किया गया ऐसा कोई भी संयंत्र इस समय काम नहीं कर रहा है और सफेद हाथी बना हुआ है और मैं समझता हूँ कि राज्य के बाँकी जिलों के संयंत्रों का भी यही हाल है।
मित्रों,रिपोर्ट कार्ड में किए गए जिस वादे पर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है वो यह है कि सरकार राज्य की छात्राओं को मुफ्त में उच्च शिक्षा देगी। अच्छा होता कि सरकार उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने के उपाय करती बजाए मुफ्त शिक्षा देने के। सच्चाई तो यह है कि राज्य के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अब पढ़ाई होती ही नहीं है बल्कि डिग्री बाँटी जाती है। राज्य में शोध के नाम पर सिर्फ कट,कॉपी,पेस्ट चल रहा है। मैट्रिक से लेकर एमए तक की परीक्षाओं में कुछेक अपवादों को छोड़कर छात्र-छात्राओं को जमकर नकल की सुविधा उपलब्ध करवाई जाती है जिससे एमए पास विद्यार्थी भी एक आवेदन-पत्र तक लिख पाने में असमर्थ होते हैं।
मित्रों,आश्चर्यजनक तरीके से वादों की लिस्ट से भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस नदारद है जबकि 2010 के चुनावों में यह सरकार के एजेंडे में सबसे ऊपर था। तो क्या यह मान लिया जाए कि सरकार ने भ्रष्टाचार के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है? कहने का तात्पर्य यह है कि राज्य सरकार के पास उपलब्धियों के नाम पर जब कुछ था ही नहीं तो वो बताती क्या? वास्तविकता तो यह है वर्ष 2005 से 2013 की उस अवधि में जब भाजपा भी सरकार में शामिल थी तब सरकार ने जो भी अच्छे काम किए उनमें से ज्यादातर या लगभग सारे भाजपा मंत्रियों द्वारा किये गए थे। वास्तविकता यह भी है कि भाजपा को सरकार से हटाने के बाद से उन मंत्रालयों व विभागों की स्थिति को बिगाड़ा ही गया है जिसमें स्वास्थ्य विभाग सबसे ऊपर है जिसका सर्वोत्तम उदाहरण आईजीआईएमएस में जज से थर्मामीटर खरीदवाना है। जनता ने नीतीश कुमार को इसलिए जनमत नहीं दिया था कि वे 9 साल सरकार चलाने के बाद भी उपलब्धियाँ गिनवाने के बदले वादे ही करें। यह तो वही बात हो गई कि परीक्षार्थी परीक्षा में प्रश्नों के उत्तर देने के बजाए अपनी आगे की पढ़ाई की योजना प्रस्तुत करे कि हम अगली कक्षा में इस तरह से कड़ी मेहनत से पढ़ेंगे और हम यह सब पढ़ेंगे इसलिए हमें उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाए।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

कबीरपंथियों के पाखंड की पराकाष्ठा हैं रामपाल

20 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,साहेब बंदगी!
कबीर कहते हैं कि
कबीरा जब हम पैदा हुए जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो हम हँसें जग रोये।
मगर कबीर के अनुयायी अब जो कर रहे हैं उसको देखकर दुनिया हँस भी रही है और रो भी रही है। हँस रही है यह देखकर कि कबीर ने क्या कहा था और अनुयायी क्या कर रहे हैं और रो रही है उनके नैतिक पतन को देखकर। यह देखकर कि जो कबीर आजीवन पाखंड और पाखंडवाद से लड़ते रहे उनके ही नाम पर उनके कथित भक्तों ने यह कैसा पाखंड का साम्राज्य खड़ा कर दिया!
मित्रों,मैं वर्षों पहले अपने एक आलेख कबीर के नाम पर पाखंड का साम्राज्य में कबीर के नाम पर फैले पाखंड के साम्राज्य पर काफी विस्तार से लिख चुका हूँ लेकिन मैं जहाँ तक समझता था कबीर के नाम पर धंधा करनेवाले उससे कहीं ज्यादा ठग,चोर,फरेबी,पाखंडी और मानवशत्रु निकले। अगर ऐसा नहीं है तो फिर यह बाबा रामपाल कैसा कबीरपंथी है और किस तरह से कबीरपंथी है। कबीर ने तो अपने प्रशंसकों को इंसान बनने और इंसानों के साथ इंसानों की तरह पेश आने की शिक्षा दी थी फिर यह रामपाल भगवान कैसे बन गया? पूरे आश्रम में जमीन के भीतर बने सुरंगों के माध्यम से कहीं भी प्रकट हो जाना,विज्ञान के चमत्कारों के माध्यम से हवा में चलना,लेजर की सहायता से अपने चारों ओर आभामंडल बनाना और सिंहासन सहित आसमान से उतरना आदि के माध्यम से रामपाल तो क्या कोई भी भगवान बन सकता है।
मित्रों,हमें इस बात को भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि कबीरपंथ के अधिकतर अनुयायी गरीब और दलित-पिछड़ी जातियों से आते हैं जिनके खाने के भी लाले पड़े होते हैं। स्वाभाविक रूप से उनमें से ज्यादातर अनपढ़ होते हैं और उनमें इतनी बुद्धि नहीं होती कि वे रामपाल के चमत्कारों को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कस सकें। रामपाल ने गिरफ्तारी से बचने के लिए जो मानव-शील्ड बनाई उनमें से अधिकतर लोग इसी तरह के थे।
मित्रों,विज्ञान और संचार-क्रांति का उपयोग जहाँ इस तरह की ठगविद्या के भंडाभोड़ के लिए होना चाहिए वहीं दुर्भाग्यवश उसका उपयोग ठगने के लिए किया जा रहा है। दिनभर टीवी चैनलों पर ऐसे बाबाओं से संबंधित कार्यक्रम आते रहते हैं जिनमें से कोई जन्तर बेच रहा होता है तो कोई भविष्य बतानेवाली किताब और कोई तो अपनी कृपा भी। और आश्चर्य की बात तो यह है कि 21वीं सदी में भी इन बाबाओं की दुकानें धड़ल्ले से चल रही हैं।
मित्रों,रहा बाबा रामपाल का सवाल तो यह आदमी संत या अवतार तो क्या आदमी कहलाने के लायक भी नहीं है। जो व्यक्ति आदमी की जान का इस्तेमाल अपने को जेल से जाने से बचने के लिए करे उसको भला अवतार (भले ही संत कबीर का ही) कहा जा सकता है क्या? संत या अवतार तो वो है जो एक आदमी की प्राण-रक्षा के लिए अपने प्राण को न्योछावर कर दे। कबीर संत थे जिन्होंने अंधविश्वास,भेदभाव,छुआछूत और पाखंड के खिलाफ आवाज उठाई। भले ही तत्कालीन शासक सिकंदर लोदी ने तीन-तीन बार उनपर जानलेवा हमला क्यों न करवाया कबीर न तो डरे और न ही जान की परवाह ही की। कबीर ने तो भगवान से बस इतना ही मांगा था-
साईँ इतना दीजिए जामें कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय।।
अर्थात् हे ईश्वर,हमको बस इतना बड़ा घर दे दो जिसमें मेरा पूरा परिवार समा जाए और इतना धन दे दो कि न तो मेरा परिवार ही भूखा रहे और न हीं अतिथि को मेरे द्वार से भूखा लौटना पड़े। फिर कबीर के रामपाल जैसे अनुयायियों को क्यों राजाओं जैसे ऐश्वर्यपूर्ण ठाठ-बाट की आवश्यकता पड़ गई? वे क्यों उस महाठगनी माया के चक्कर में पड़ गए जिसे बारे में कबीर ने कहा था कि-
माया महा ठगनी हम जानी।
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरी बानी।।
केसव के कमला भय बैठी शिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत भय बैठीं तीरथ में भई पानी।।
योगी के योगन भय बैठी राजा के घर रानी।
काहू के हीरा भय बैठी काहू के कौड़ी कानी।।
माया महा ठगनी हम जानी।।
मित्रों,कहने का तात्पर्य यह है कि अगर कहीं पर संत कबीर की आत्मा होगी तो आज जरूर रो रही होगी। कबीर ने अपने जीते-जी ऐसा कभी नहीं कहा कि उनको उनकी मृत्यु के बाद कथित भूदेव ब्राह्मणों की तरह देवता या भगवान का दर्जा दे दिया जाए बल्कि वे तो लोगों की ज्ञान-चक्षु खोलना चाहते थे जिससे कोई बाबा या ढोंगी उनको बरगला न सके। वे तो चाहते थे कि लोग किताबों में लिखी बातों से ज्यादा अपनी तर्कशक्ति,बुद्धि और विवेक पर विश्वास करें। वे तो चाहते थे कि लोग जब उनकी बातों पर अमल करें और उनकी शिक्षाओं का पालन करें तब भी आँख मूंदकर न करें बल्कि भले-बुरे पर विचार करके करें फिर कबीर को किसने और क्यों साधारण इंसान से साक्षात् परब्रह्म बना दिया? क्या ऐसा रामपाल जैसे ढोंगियों ने इसलिए नहीं किया क्योंकि उनको खुद को भगवान घोषित करना था और लोगों के विश्वास का नाजायज फायदा उठाना था?
मित्रों,अंत में दुनिया के तमाम कबीरपंथियों और सारे अन्य पंथियों से मेरा यह विनम्र निवेदन है कि वे सारे महामानवों को इंसान ही रहने दें भगवान न बनाएँ क्योंकि जैसे ही हम उनको भगवान मान लेंगे उसी क्षण हम यह भी मान लेंगे कि इनके जैसा हो पाना किसी भी मानव के लिए संभव ही नहीं है। चाहे वे राम हों,कृष्ण हों,बुद्ध,ईसा,महावीर या कबीर हों ये सभी इंसान थे और इस धरती पर विचरण करते थे। इन्होंने भी उसी प्रक्रिया से जन्म लिया था जिस प्रक्रिया से हम सभी ने लिया है। इनके भीतर जरूर ऐसे गुण थे जिसके चलते इन लोगों को महामानव की श्रेणी में रखा जा सकता है और ऐसे गुण हमारे भीतर भी हो सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने भीतर इन महामानवों के महान गुणों का विकास करें,उनके आदर्शों पर चलें और पूरी दुनिया को महामानवों की दुनिया बनाएँ न कि दिन-रात इनका नाम रटें। जिस दिन ऐसा हो जाएगा उसी दिन धरती पर सतयुग आ जाएगा न कि किसी मकान या महल का नाम सतलोक आश्रम रख देने से आएगा।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 19 नवंबर 2014

मेला सोनपुर का आता है हर साल,आके चला जाता है

19 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,भारत त्योहारों और मेलों का देश है। यहाँ रोजाना कोई न कोई-न-कोई पर्व-त्योहार होता है और रोज कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी हिस्से में मेला लगता है मगर सोनपुर के हरिहर क्षेत्र मेले की तो साहब बात ही कुछ और है। हाँ भई यह मेला उसी हरिहरनाथ के पूजन के सिलसिले में लगता है जिसके गीत हर साल बिहार और पूर्वांचल के कोने-कोने में होली में गाए जाते हैं-बाबा हरिहरनाथ,बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग लूटे,होरी राम हो हो हो,बाबा हरिहरनाथ बाबा हरिहरनाथ.....।
मित्रों,कोई नहीं कह सकता कि यह विश्वप्रसिद्ध मेला कितने सालों से लग रहा है। पहले बिहार के लोग सालभर इस मेले का इंतजार करते। कार्तिक पूर्णिमा के दिन बैलगाड़ी जुतती और लोग दाल-चावल बर्तन लेकर मेले में आते। गंगा-नारायणी के पवित्र संगम पर गंगा-स्नान करते और मेला घूमते। तब यहाँ कई वर्ग किलोमीटर में हाथी,घोड़े,गाय,बैल,बकरी और भैंसों के बाजार लगते। लोग जानवरों को बेचते और खरीदते। रात में किसी पेड़ के नीचे दरी बिछाकर या बैलगाड़ी पर ही सो जाते। लौटने लगते तो ग्रामीण सामुदायिक व व्यक्तिगत उपयोग के लिए दरी,कंबल,बर्तन,चादर,साड़ियाँ-कपड़े,खिलौने,मिठाई आदि लेकर लौटते। गांव में बच्चों को भी अपने पिता-चाचा-दादा-मामा के मेले से लौटने का बेसब्री से इंतजार रहता। अगर किसी बच्चे को मेले में स्वयं जाने का अवसर मिल जाता तो समझिए कि उसकी तो लौटरी ही लग गई। फिर वो कई महीनों तक अपने ग्रामीण मित्रों को मेले की कहानियाँ सुनाता रहता।
मित्रों,बदलते जमाने के साथ दुनिया बदली है,लोग बदले हैं सो सोनपुर मेला भी बदला है। अब ज्यादातर लोग मोटरसाईकिल से आते हैं। स्टैंडवाले को 5 के बदले 15 रुपया देकर गाड़ी खड़ी करते हैं और घूम-फिरकर घर चल देते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सुबह की ट्रेन से आते हैं और शाम की ट्रेन से वापस लौट जाते हैं। अभी भी मेले के लिए पूरे एक महीने तक ट्रेन मेले में रूकती है। जानवर के नाम पर अब दस-बीस घोड़ों और कुछ दर्जन गाय-भैसों,कुछेक बैलों के अलावा और कुछ होता नहीं होता। अब गांव में भी ज्यादातर लोगों ने गाय-बैलों को पालना छोड़ दिया है क्योंकि अब खेती बैलों से नहीं मशीनों से होती है नहीं तो एक जमाना वह था जब 1856 में बाबू कुंवर सिंह ने इसी मेले से अपनी सेना के लिए एकसाथ 5000 घोड़े खरीदे थे। फिर भी मेले में भीड़ कम नहीं होती। बिहार सरकार की प्रदर्शनियाँ हर साल की तरह इस साल भी लगी हैं लेकिन देखने से लगता है कि जैसे पिछले साल से कोई बदलाव नहीं किया गया है। वहीं जानकारियाँ,वहीं तस्वीरें।
मित्रों,लोगों की भगवान के प्रति आस्था में कमी आई है जिसके चलते जहाँ मेले में अपार भीड़ होती है वहीं बाबा हरिहरनाथ के मंदिर में इक्के-दुक्के लोग ही दिखते हैं। मेले में हर मजहब के लोग देखे जा सकते है। हिन्दू,मुसलमान और कुछेक विदेशी सैलानी भी। मेला घूमते-घूमते अगर थक गए हों तो बिहार सरकार के जन संपर्क विभाग के पंडाल में आ जाईए। सैंकड़ों कुर्सियाँ लगी हुई हैं और लगातार लोकगीतों का गायन चलता रहता है जिस पर नर्तक-नर्तकियाँ नृत्य भी करते रहते हैं। मेले में ही मुझे एक मित्र से कई साल बाद भेंट भी हो गई। जनाब कभी माखनलाल के नोएडा परिसर में हमारे साथ पढ़ते थे और आजकल बिहार पुलिस में सब इंस्पेक्टर हैं। नाम है-रंजय कुमार। पहले तो जनाब ने पहचाना ही नहीं लेकिन बाद में जब मैंने अपना प्रेस कार्ड दिया तब पहचान लिया।
मित्रों,कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यह मेला समाप्त हो जाएगा लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। सोनपुर मेला हमारी शान है हमारी आन है। एक स्थान पर यहाँ मनोरंजन के जितने साधन हैं,जितने खिलौने,खाद्य-सामग्री और रोजाना उपयोग में आनेवाली चीजें बिक रहीं हैं शायद दुनियाँ में ऐसा नजारा कहीं और शायद ही देखने को मिले। पिछले कई सालों से कुछ कमी प्रशासन की तरफ से भी रही है। किसी समय सोनपुर के काली घाट और हाजीपुर के कोनहारा घाट के बीच नावों का लचका पुल बनता था जो अब नहीं बनाया जाता। अगर बनता तो मेले की शोभा में चार चांद लग जाते। कल मेरी भी ईच्छा हो रही थी कि मैं पैदल ही इस पार से उस पार कोनहारा घाट चला जाऊँ लेकिन ऐसा हो न सका। एक और कमी मुझे शिद्दत से महसूस हुई और वह है शौचालय की कमी। कहने को तो प्रशासन ने बँसवारी में टाट से घेर कर शौचालय बनवा दिए हैं लेकिन वे इतने गंदे हैं कि कोई उनमें नहीं जाता और लोग यत्र-तत्र मल-त्याग करते रहते हैं जिससे घोड़ा बाजार की तरफ तो जाना भी मुश्किल हो जाता है। हमने कई महिलाओं को खुले में ही शौच करते देखा और हम नहीं समझते कि यह सब देखकर देश-विदेश से आनेवाले सैलानियों के मन में बिहार की कोई अच्छी छवि बनेगी।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 16 नवंबर 2014

दुनिया के सबसे बड़े हवाबाज और वादावीर नेता हैं नीतीश

16 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बिहार के पीएम इऩ वेटिंग नीतीश कुमार के भाषणों को सुनकर उनपर दया भी आती है और हँसी भी। आश्चर्य होता है कि नीतीश कुमार कितने झूठे और बेशर्म हैं! मैं एक बिहारी होने और पिछले सात सालों से बिहार में ही रहने के कारण यह  दावे के साथ कह सकता हूँ कि न सिर्फ भारत बल्कि पूरी वसुंधरा पर नीतीश कुमार से बड़ा दूसरा कोई वादावीर इस समय नहीं है और गजब यह कि अपने 9 सालों के काफी लंबे शासन में अपना एक भी वादा पूरा नहीं करनेवाले नीतीश भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके छठे महीने में ही उनके द्वारा किए गए वादों का हिसाब मांग रहे हैं।
मित्रों,जब 2005 का विधानसभा चुनाव चल रहा था तब नीतीश कुमार ने बिहार को सुशासन देने का वादा किया। बिहार में सुशासन तो आया नहीं मगर नौकरशाहों का शासन जरूर आ गया। मतलब कि एक अति के बदले नीतीश ने दूसरी अति को स्थापित कर दिया। इसी प्रकार जब वर्ष 2010 का विधानसभा चुनाव चल रहा था तब नीतीश कुमार ने बिहार की जनता से वादा किया कि पहली पारी में हमने कानून-व्यवस्था में सुधार किया अब अगली पारी में भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे। हालाँकि रोज-रोज बिहार में औसतन तीन-चार घूसखोरों को रंगे हाथों पकड़ा गया लेकिन इससे राज्य में भ्रष्टाचार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ा बल्कि बढ़े हुए जोखिम के मद्देनजर रेट में कई गुना की बढ़ोतरी हो गई।
मित्रों,फिर भी बिहार की जनता नीतीश सरकार से काफी हद तक संतुष्ट थी मगर इसी बीच नीतीश जी पर भारत का प्रधानमंत्री बनने का फितूर सवार हो गया और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से सांप्रदायिकता के नाम पर गठबंधन तोड़ दिया। बिहार की जनता हतप्रभ थी कि जो पार्टी पिछले 18 सालों से धर्मनिरपेक्ष थी 2014 के लोकसभा चुनावों के समय कैसे सांप्रदायिक हो गई। जनता ने नीतीश के इस घोर अवसरवादी कदम और सहयोगी दल के साथ की गई धोखेबाजी को बिल्कुल भी पसंद नहीं किया और उनकी पार्टी आज बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी है।
मित्रों,इसी तरह नीतीश जी ने कहा था कि अगर 2015 तक बिहार के हर गांव और घर में बिजली नहीं पहुँची तो वे वोट मांगने नहीं आएंगे मगर नीतीश जी अपने इस वचन पर भी कायम नहीं रहे और विधानसभा चुनावों से एक साल पहले से ही जनता के द्वार पर जा पहुँचे हैं। नीतीश जी ने अपनी धन्यवाद यात्रा और विकास यात्रा के दौरान बिहार के कई गांवों में रात बिताई और जमकर थोक में शिलान्यास किया। बेगूसराय और मोतीहारी की जनता ने जब कई महीनों के इंतजार के बाद भी पाया कि काम शुरू नहीं हो रहा है तब उन्होंने शिलापट्ट को उखाड़कर फेंक दिया। इधर नीतीश जी भी यकीनन शिलान्यासों को भूल चुके थे। मेरे क्षेत्र राघोपुर (वैशाली) की जनता भी इन दिनों काफी निराश है क्योंकि उनकी सड़क-पुल की उम्मीद धूमिल होने लगी है और इस दिशा में कहीं कोई काम होता हुआ नहीं दिख रहा है। बिहार के भूमिहीनों के साथ नीतीश कुमार ने वादा किया था कि उनको तीन-तीन डिसमिल जमीन दी जाएगी मगर हुआ कुछ नहीं। इसी तरह नीतीश जी ने बिहार के हर जिले में पॉलिटेक्निक और हर गांव में उच्च विद्यालय खोलने का वादा किया था जो शायद अब उनको याद भी नहीं है। नीतीश जी यह भी भूल गए हैं कि उन्होंने मार्क्सवादी नेता स्व. वासुदेव सिंह के इस आरोप कि बिहार सरकार प्राईवेट कंपनी बन गई है के जवाब में कहा था कि अबसे बिहार सरकार कांट्रैक्ट के आधार पर नहीं बल्कि स्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति करेगी। इसी प्रकार नीतीश कुमार महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति नहीं कर पाए जो आज तक भी नहीं हो पाई है। नीतीश कुमार ने वादा किया था कि बीपीएससी की परीक्षा अब प्रत्येक साल हुआ करेगी लेकिन वे यह वादा भी पूरा नहीं कर सके। नीतीश कुमार ने वादा किया था कि वे बिहार में कानून का राज कायम करेंगे मगर नीतीश की पहली पारी के विपरीत आज के बिहार में फिर से जंगलराज की स्थिति बन गई है। इसी तरह नीतीश कुमार ने वादा किया था कि वे कभी जाति-धर्म की राजनीति नहीं करेंगे बल्कि हमेशा विकास की राजनीति करेंगे। नीतीश जी ने कहा था कि मंदिरों-मस्जिदों और स्कूलों के पास शराब की सरकारी दुकानें नहीं खोली जाएंगी और जो दुकानें खुल गई हैं उनको बंद कर दिया जाएगा मगर अफसोस ऐसा हो न सका। नीतीश कुमार ने पटना को जलजमाव से मुक्त करने का वादा भी किया था लेकिन राजधानी पटना इस साल भी बरसात में झील में बदल गई और हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद भी बनी रही। नीतीश कुमार ने वादा किया था कि वे बिहार की शिक्षा-व्यवस्था का कायाकल्प कर देंगे मगर उन्होंने उल्टे शिक्षा को बर्बाद कर दिया। इस साल इंटर के परीक्षार्थियों के साथ कैसा मजाक हुआ यह पूरी दुनिया ने देखा है। स्क्रूटनी में कॉपियाँ जाँची नहीं गईं और कॉपियों को खोले बिना ही एक-दो नंबर बढ़ा दिए गए जिससे मेधावी छात्र-छात्राओं का एक साल बर्बाद हो गया।
मित्रों,हम कहाँ तक गिनवाएँ कि नीतीश कुमार ने कितने वादे किए थे शायद शेषनाग भी नहीं गिना पाएंगे। हाँ,हम इतना दावे के साथ कह सकते हैं कि नीतीश कुमार ने उनमें से किसी भी एक भी वादा को पूरा नहीं किया। इस प्रकार हम उनको भारत का सबसे बड़ा वादावीर के रूप में विभूषित कर सकते हैं। जहाँ तक नरेंद्र मोदी का सवाल है तो कालाधन से लेकर प्रत्येक मुद्दे और वादे पर केंद्र सरकार कायम है और संजीदगी व शीघ्रता से उस दिशा में कदम भी उठा रही है। यहाँ तक कि जी20 की बैठकों में भी मोदी का सबसे ज्यादा जोर भ्रष्टाचार और कालेधन की वापसी पर ही है। ये बात और है कि नीतीश जी की रणनीति चूँकि केंद्र सरकार की कथित विफलताओं को मुद्दा बनाकर बिहार में विधानसभा चुनाव लड़ना है इसलिए उनको केंद्र सरकार काम करती हुई दिख ही नहीं रही जबकि होना तो यह चाहिए उनको केंद्र की वर्तमान सरकार की विफलताओं के मुद्दे पर नहीं बल्कि अपनी सरकार की सफलताओं के मुद्दे पर चुनावों में जाना चाहिए।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

नीतीश की भई गति साँप छछूंदर केरी

16 नवंबर,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,रामचरितमानस में एक प्रसंग है कि कैकयी द्वारा वर मांगने के बाद राम वनवास जाने को उद्धत होते हैं। जाने से पहले जब वे अपनी जननी कौशल्या से अनुमति लेने जाते हैं तब उनकी माँ असमंजस में पड़ जाती है कि करूँ तो क्या करूँ? अगर अपने पुत्र को वन जाने से रोकती है तो पति पर वचनभंग का कलंक लगता है और अगर वनवास पर जाने को कहती है पति के प्राण चले जाएंगे। ऐसे में माता कौशल्या की स्थिति वही हो गई थी जैसी कि छुछुंदर को निगल लेने के बाद साँप की हो जाती है। साँप अगर छुछुंदर को निगल जाता है तो मर जाएगा और अगर उगल देता है तो लोकमान्यताओं के अनुसार अंधा हो जाएगा।

मित्रों,लगभग वही स्थिति इन दिनों बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी की भी है। नीतीश जी ने भाजपा से गठबंधन तोड़ तो दिया मगर लोकसभा चुनावों में बिहार की जनता ने उनके इस कदम को पसंद नहीं किया। घबराहट के मारे उन्होंने अपने चिरशत्रु लालू प्रसाद यादव के साथ नया गठबंधन बनाया और साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा मगर फिर से जनता ने उनकी पार्टी को लालू प्रसाद की पार्टी से आधी ही सीट दी। कहने का तात्पर्य यह कि एक नहीं दो-दो बार दो-दो चुनावों में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को राजद के मुकाबले आधी ताकतवाला दल साबित हो चुका है ऐसे में स्वाभाविक तौर पर अगले साल होनेवाले विधानसभा आम चुनावों में राजद उनको अपने बराबर सीट नहीं देनेवाला है। कल डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह ने सीटों के बँटवारे के लिए लोकसभा चुनाव,2014 में प्राप्त मत-प्रतिशत को आधार बनाने की मांग करके इस बात का संकेत भी दे दिया है।

मित्रों,ऐसे में नीतीश कुमार चाहते ही नहीं हैं कि महागठबंधन के तहत चुनाव लड़ा जाए और इसलिए वे जनसमर्थन जुटाने के लिए संपर्क-यात्रा पर निकले हुए हैं। एक और मोर्चे पर नीतीश जी हालत न घर के घाट वाली हो रही है। नीतीश जी ने जीतनराम मांझी को कठपुतली समझकर अपने स्थान पर मुख्यमंत्री तो बना दिया लेकिन मांझी अब सिर का दर्द बन गए हैं। वे लगातार अपने बेतुके बयानों से विवाद खड़ा कर रहे हैं और बाँकी जातियों को दरकिनार कर केवल दलितों-महादलितों के नेता बनने का प्रयास कर रहे हैं जिससे पार्टी के प्रति अन्य जातियों में गुस्सा पैदा हो रहा है। इस प्रकार नीतीश कुमार न तो मांझी को मुख्यमंत्री बनाए रख सकते हैं और न ही हटा ही पा रहे हैं।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 12 नवंबर 2014

कांग्रेस का इतिहास है इसलिए कांग्रेस अब इतिहास है

12 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बात उस समय की है जब फ्रांस का शासक नेपोलियन महान फ्रांस के सैनिक स्कूल में पढ़ता था। उसके साथ फ्रांस के बड़े-बड़े कुलीन सामंतों के लड़के पढ़ते थे। चूँकि नेपोलियन कुलीन नहीं था इसलिए वे उससे जलते थे। एक दिन उन्होंने नेपोलियन को नीचा दिखाने के लिए उससे पूछा कि तुम किस वंश के हो। नेपोलियन ने पूरी दृढ़ता के साथ उत्तर दिया कि मेरा वंश मुझसे शुरू होता है।
मित्रों,इन दिनों भारत की ऐतिहासिक राजनैतिक पार्टी कांग्रेस का भी वही हाल है जो फ्रांसीसी क्रांति के समय कुलीनों की या उनके बच्चों की थी। कांग्रेस ने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती पर पार्टी द्वारा आयोजित होनेवाले समारोह में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आमंत्रित नहीं करने की धृष्टता की है और उल्टे वो भाजपा पर अपने नेताओं को छीनने के आरोप लगा रही है। उसका यह भी कहना है कि कांग्रेस का गौरवशाली इतिहास रहा है जबकि भाजपा या मोदी को ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं है।
मित्रों,कांग्रेस अभूतपूर्व पतन के बावजूद  निश्चित रूप से यह नहीं समझ पा रही है भले ही कांग्रेस के पास अतीत में एक-से-एक तेजस्वी और तपःपूत नेता थे लेकिन आज उसके पास ऐसा एक भी नेता नहीं है जो योजना बनाने,वक्तृता,प्रशासनिक योगयता और त्याग में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पासंग में भी ठहरता हो। जनता को इतिहास नहीं वर्तमान चाहिए। आज नेहरू,आजाद,प्रसाद,पटेल,गांधी या इंदिरा नहीं आनेवाले हैं देश और कांग्रेस को चलाने बल्कि देश को वही लोग चलायेंगे जो इस समय जीवित हैं और जो कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व है वह परवर्ती मुगलों की तरह पूरी तरह से अक्षम है।
मित्रों,हमारे गांव में एक जमींदार था जिसके दरवाजे पर कभी कई-कई हाथी झूमते रहते थे। आज उसके वंशज भिखारी हो चुके हैं मगर उनके पास आज भी वह लोहे का सिक्कड़ है जिससे कि हाथियों को अतीत में बांधा जाता था। क्या आज कांग्रेस की हालत भी ऐसी ही नहीं हो गई है? कांग्रेस के दरवाजे से जनसमर्थन बटोरने वाले नेता (हाथी) तो गायब हो चुके हैं लेकिन सोनिया और राहुल आज भी उनका सिक्कड़ लेकर घूम रहे हैं मगर भारत की जनता है कि अपनी नाक पर मक्खी तक को नहीं बैठने दे रही है क्योंकि जनता को ऐसा हाथी चाहिए जो भारत को फिर से विश्वगुरू बनाए न कि कोरा सिक्कड़।
मित्रों,इसलिए कांग्रेस को अपने अतीत पर इतराने के बदले मोदी सरकार के सकारात्मक कार्यों का समर्थन और नकारात्मक कार्यों (अगर वो करे) का विरोध करना चाहिए। अगर कांग्रेस नरेंद्र मोदी को आज भी एक चायवाला समझ रही है तो निश्चित रूप से उसको और भी बुरे दिन देखने हैं क्योंकि आज नरेंद्र मोदी न सिर्फ भारत के बल्कि विश्व के सबके लोकप्रिय नेता बनकर उभरे हैं और उनकी अकुलीनता को लेकर किसी भी तरह के अपमानजनक व्यवहार को भारत की जनता किसी भी तरह बर्दाश्त नहीं करेगी और करारी प्रतिक्रिया देगी। मोदी को किसी गांधी-नेहरू के वंश से खुद को जोड़ने की कोई जरुरत नहीं है क्योंकि मोदी का वंश नेपोलियन की तरह मोदी से ही शुरू होता है और निश्चित रूप से इस कारण से मोदी पर ही समाप्त नहीं होगा क्योंकि उनका कोई परिवार नहीं है बल्कि देश के करोड़ों राष्ट्रवादी नरेंद्र मोदी के भाई-बंधु हैं।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

बिहार के लोगों को कैसे मिले इंसाफ,अदालत खाली है!

11 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,मैं पहले भी आपसे अर्ज कर चुका हूँ कि बिहार में पिछले कई महीनों से सरकार नाम की चीज ही नहीं रह गई है। अब जब सरकार ही लापता हो जाएगी तो जाहिर है कि उसका असर शासन के प्रत्येक अंग पर पड़ेगा सो बिहार की न्यायपालिका पर भी पड़ने लगा है। बिहार की अदालतों में इन दिनों मुकदमों की सुनवाई,उन पर निर्णय और निर्णय का क्रियान्वयन तो दूर की कौड़ी रही केस एडमिट तक नहीं हो रहे सिर्फ फाईल हो रहे हैं। कारण यह है अदालतों में जज हैं ही नहीं। पहले से जो सब जज थे उनको एडिशनल जज में प्रोन्नति दे दी गई और उनकी जगह किसी को भेजा ही नहीं।

मित्रों,हम हाजीपुर का ही उदाहरण लें तो यहाँ के जिला व्यवहार न्यायालय में कुल 9 सब जज हैं जिनमें से सिर्फ सब जज संख्या 8 और 9 में जज हैं बाँकी 1 से 7 तक की सब जज अदालतों में पिछले 3 महीने से कोई जज नहीं है जिससे सारा-का-सारा काम ठप्प पड़ा हुआ है। वकील और मुवक्किल अदालत आते हैं और नई तारीख लेकर वापस चले जाते हैं। चूँकि केस के एडमिशन का काम सब जज 1 के यहाँ होता है इसलिए इन दिनों नए मुकदमे भी एडमिट नहीं हो रहे सिर्फ फाईल हो रहे हैं। आप ऐसा समझने की भूल कदापि न करें कि ऐसी स्थिति सिर्फ हाजीपुर में है बल्कि ऐसी स्थिति पूरे बिहार की अदालतों में है। करीब 15-20 दिन पहले पटना हाईकोर्ट के महानिबंधक वीरेंद्र कुमार स्थिति का जायजा लेने हाजीपुर आए भी थे लेकिन उनके जाने के बाद से भी स्थिति जस-की-तस बनी हुई है।

सूत्रों के अनुसार,बिहार सरकार ने 183 मजिस्ट्रेटों को सब जज में प्रोन्नति देने का निर्णय किया है लेकिन संभावना यही है कि वे लोग अब नए साल में ही अपना नया पदभार संभालेंगे। ऐसे में वर्षों से इंसाफ के लिए अदालतों के चक्कर काट रही जनता करे भी तो क्या करें सिवाय नए जजों के इंतजार करने के? सूत्र यह भी बता रहे हैं कि मजिस्ट्रेटों को सब जज बना देने से तत्काल अदालतों में कामकाज तो शुरू हो जाएगा लेकिन मजिस्ट्रेटी में फिर मजिस्ट्रेटों की किल्लत हो जाएगी और उधर कामकाज ठप्प हो जाएगा। अगर बिहार सरकार ने हर साल न्यायाधीशों की बहाली के लिए परीक्षा का आयोजन किया होता तो निश्चित रूप से बिहार की जनता को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता लेकिन बिहार सरकार न तो सिविल सेवा और न ही न्यायिक सेवा की ही परीक्षा हर साल ले रही है।

मित्रों,जहाँ भारत के प्रधानमंत्री मिनिमन गवर्ननेंट एंड मैक्सिमम गवर्ननेंस की बात कर रहे हैं वहीं लगता है कि बिहार की वर्तमान सरकार का उद्देश्य नो गवर्ननेंस है तभी तो बिहार के सभी महकमों में अराजकता और लापतातंत्र जैसी स्थिति बनी हुई है। नो गवर्ननेंस से उपजी जिसकी लाठी उसकी भैंस की स्थिति से पीड़ित जनता जब थाने में जाती है तो पुलिस पहले तो केस ही दर्ज नहीं करती और अगर केस दर्ज हो भी जाए तो अदालतों में जज साहब हैं ही नहीं। ऐसे में कोई आत्मदाह कर रहा है,तो कोई अपना घर छोड़कर होटल में ठहर जाता है,तो कोई अपने पुरखों के गांव-शहर को सदा के लिए अलविदा कह जाता है तो कोई सीधे नक्सली बन जा रहा है। जब तंत्र न्याय नहीं देगा तो लोगों के समक्ष और विकल्प बचता भी क्या है,बचता है क्या?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 9 नवंबर 2014

जिसकी लाठी उसकी भैंस को चरितार्थ होते प्रत्यक्ष देखिए,कुछ दिन तो गुजारिए बिहार में

9 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,हमलोग जानते हैं कि इन दिनों हमलोगों की हथेली पर बाल इसलिए नहीं उग पा रहे हैं क्योंकि हम अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अच्छे कामकाज पर दिनरात तालियाँ पीटते रहते हैं लेकिन बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों में निश्चित रूप से इसलिए बाल जड़ नहीं जमा पा रहे क्योंकि बेचारे अपने दोनों हाथों को इन दिनों लगातार एक-दूसरे पर पूरी ताकत और मनोयोग से मले जा रहे हैं। बड़बोले नीतीश कुमार ने खुद को खुद ही भारत के प्रधानमंत्री पद का सर्वोत्तम उम्मीदवार घोषित कर दिया था मगर जनता ने उनके इस स्वमूल्यांकन को स्वीकार नहीं किया और उनके दावे को न केवल पूरी तरह से अस्वीकृत कर दिया बल्कि इस हालत में भी नहीं छोड़ा कि वे यह कह सकें कि हम चुनाव हारे हैं लेकिन सम्मानजनक तरीके से हारे हैं।
मित्रों,फिर हमारे अभूतपूर्व सुशासन पुरूष नीतीश जी ने बिहार की जनता से अपनी हार का बदला लेने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना दिया जो वास्तव में किसी गांव का मुखिया होने की योग्यता भी नहीं रखता। परिणामस्वरूप आज बिहार फिर से जंगलराज में पहुँच गया है। पूरे बिहार में इस समय पूरी तरह से अराजकता का साम्राज्य है। जिसके हाथ में लाठी है वह खुलकर अपनी मनमानी कर रहा है और शासन-प्रशासन भी उसकी ही मदद कर रहा है। बिहार के लोगों का सीधा मानना है कि प्रशासन सिर्फ और सिर्फ सज्जनों को दंडित करने और दुर्जनों को सम्मानित करने के लिए है। बिहार सरकार इन दिनों बस इतना ही काम करती हुई दिखाई दे रही है कि नीतीश कुमार के शासनकाल के एक-के-बाद-एक घोटाले इन दिनों सामने आ रहे हैं और पूरी बिहार सरकार उनको बचाने में जुटी हुई है।
मित्रों,फिर भी हमारे भूतपूर्व सुशासन बाबू पूरी बेशर्मी दिखाते हुए गुजरात की सरकार और गुजरात के विकास मॉडल को गरिया रहे हैं वो भी इसलिए क्योंकि कुछ दिन पहले एक भैंस किसी तरह से सूरत हवाई अड्डा परिसर में घुस गई थी और हवाई जहाज के आगे आ गई थी। निश्चित रूप से यह एक दुर्घटना थी और इसको एक दुर्घटना के रूप में ही लेना चाहिए लेकिन नीतीश जी ठहरे घोर सिद्धान्तवादी राजनीतिज्ञ सो वे इस पर भी राजनीति करने लगे जबकि उनके बड़े भाई लालू जी के आतंक राज (नीतीश कुमार जी के ही शब्दों में) में पटना हवाई अड्डे के परिसर में अक्सर नीलगायें घुस जाती थीं और इसके चलते घंटों वहाँ विमान का उड़ना और उतरना रूका रहता था। वैसे नीतीश जी के समय शायद ऐसा नहीं हुआ लेकिन अब बिहार के हर खेत में वही नीलगाय घुस चुकी हैं और उनके चलते बिहार में खेती करना घाटे का सौदा बन गया है। माफ करिएगा मैं एक आम बिहारी का रोना लेकर आपके पास बैठ गया। तो मैं कह रहा था कि अगर आप एक पर्यटक के तौर पर ऐतिहासिक बिहार का दौरा करना चाहते हैं तो एक बार जरूर आपको अपने दुस्साहस पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए क्योंकि हवाई अड्डे से बाहर आने के बाद आपके साथ कुछ भी कुछ भी हो सकता है क्योंकि बिहार में इन दिनों फिर से जंगल राज कायम हो चुका है। अगर आप अकेले आ रहे हैं तब तो फिर भी आपका अपराध क्षम्य है लेकिन अपनी पत्नी और बेटी के साथ आ रहे हैं तो जरूर आपको अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए क्योंकि इन दिनों हमारी बिहार पुलिस का मूल मंत्र यह है कि बिहार में रहने और आनेवाले लोग अपनी,अपने परिजनों और अपने सामान की रक्षा स्वयं करें। कोई न्यायालयकर्मी न्याय नहीं मिलने पर एसपी कार्यालय गेट के समक्ष आत्मदाह कर रहा है तो किसी लड़की को इस बात की चिंता है कि उसके दबंग पट्टीदार कहीं उसका तीसरी बार अपहरण न कर लें और इस डर से वो पूरे परिवारसहित घर-बार छोड़कर होटल में रूकी हुई है।
मित्रों,सबसे पहले तो आपसे टेंपो या टैक्सीवाला मनमाना पैसा मांगेगा। फिर होटलवाला आपको लूटेगा। उस पर गजब यह कि आपकी कहीं शिकायत भी नहीं सुनी जाएगी। थाने में जाएंगे तो आपको पुलिसवाला ही लूट लेगा फिर हो सकता है कि आपके पास घर वापस लौटने के लिए भी पैसे नहीं बचें। पटना के सड़क-छाप होटलों में तो आप महिलाओं के साथ रूकने की सोंचिए भी नहीं,नहीं तो जान से भी जाएंगे और ईज्जत से भी। हाँ,अकेला होने पर रूक सकते हैं लेकिन ऐसा तभी करें जब आपने फिरौती में देने के लिए लाखों-करोड़ों रूपये अलग करके रख छोड़ा हो। और अगर आप किसी भी कारण से गांधी मैदान जा रहे हैं तो एम्बुलेंस लेकर ही जाईए तो अच्छा क्योंकि हो सकता है कि आप वहाँ जाएँ टैक्सी से और वापस जिंदा या मुर्दा आएँ एम्बुलेंस में। तो यह है संक्षेप में नीतीश कुमार जी के विकास मॉडल वाले बिहार और बिहार सरकार की हालत लेकिन नीतीश जी को देखिए कि वे छलनी हँसे सूप पर जिसमें खुद ही एक हजार छेद वाली महान थेथरई वाली कहावत को चरितार्थ करने में लगे हैं। नीतीश जी माना कि गुजरात के विकास की तस्वीरें फोटोशॉप से संपादित करके बनाई गई थीं लेकिन बिहार के जो लाखों लोग गुजरात की फैक्ट्रियों में मजदूरी करके पेट पाल रहे हैं क्या वे अपने घर पर पैसा भी फोटोशॉप से ही भेजते हैं? और अभी हाल में ही सूरत के एक हीरा व्यवसायी ने अपने कर्मियों को जो कारें दिवाली-उपहार में दे दीं क्या वह खबर और उससे संबंधित तस्वीरें भी फोटोशॉप का ही कमाल थीं? नीतीश जी गुजरात मॉडल अगर फेल हो चुका है तो फिर टीवी कैमरों पर वहाँ के विकास की जो तस्वीरें दिखाई जाती हैं वो क्या बिहार में ली गई तस्वीरें होती हैं? अगर गुजरात में रोजगार नहीं है,नैनो,रिलायंस,सूती-कपड़ा उद्योग,हीरा-पॉलिशिंग उद्योग,24 घंटे बिजली कुछ भी नहीं है तो फिर वहाँ रहनेवाले लाखों बिहारियों को रोजगार क्या नीतीश कुमार जी दे रहे हैं? आपके मॉडल ने बिहार की शिक्षा और प्रशासन को चौपट कर दिया,पूरे बिहार को शराबी बना दिया,पंचायत से लेकर सचिवालय तक भाई-भतीजावाद,भ्रष्टाचार और रिश्वत को सरकारी रस्म बना दिया,बिना पैसे दिए नौकरी पाना असंभव बना दिया,बरसात में रोज आपके राज में बनाए गए पुल कभी यहाँ तो कभी वहाँ गिरते रहे,लाख छिपाने और दबाने का बावजूद रोज ही आपके शासन-काल के घोटाले सामने आ रहे हैं,कोसी के बाढ़-पीड़ित जलप्रलय के 6 साल बाद भी राहत का इंतजार कर रहे हैं और आपको फिर भी अपना मॉडल गुजरात के मॉडल से भी बेहतर नजर आ रहा है? आप गुजरात में दिन गुजारने के विज्ञापन का मजाक उड़ाने के बदले यह क्यों नहीं कहते कि जिसकी लाठी उसकी भैंस को चरितार्थ होते प्रत्यक्ष देखिए,कुछ दिन तो गुजारिए बिहार में? शायद आपके इन शब्दों में निवेदन करने से बिहार में एडवेंचर को पसंद करनेवाले पर्यटकों की आमद अचानक बढ़ जाए और आपके हाथों बिहार का कुछ भला हो ही जाए ।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 8 नवंबर 2014

बनने लगीं हाजीपुर की गलियों की सड़कें मगर किसके लिए?

8 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,वर्ष 2002 में जब दिल्ली गया तो मैंने पाया कि दिल्ली की सड़कों में हमेशा,सालोंभर काम लगा रहता है। सड़कों और डिवाईडरों को बार-बार तोड़ा जाता और बनाया जाता। तब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि ऐसा करके दिल्ली का विकास किया जा रहा है या फिर पैसों की बर्बादी? कहने को तो वह निर्माण दिल्ली की जनता की सुविधा के लिए हो रहा था लेकिन वास्तविकता तो यह थी कि सारा-का-सारा निर्माण कार्य केवल और केवल ठेकेदारों,इंजीनियरों,अफसरों और नेताओं के फायदे या सुविधा के लिए किया जा रहा था।

मित्रों,इन दिनों हाजीपुर की गलियों में भी कुछ ऐसा ही गंदा खेल चल रहा है और जनता जैसे दिल्ली में मूकदर्शक थी वैसे ही हाजीपुर में भी मूकदर्शक है। हमने अपनी खबरों में (नालियाँ बनीं मगर सड़कें गायब) 17 दिसंबर,2013 को बताया था कि हाजीपुर की गलियों में जिस तरह से नालियों का निर्माण हो रहा है उससे नहीं लगता कि इन पतली-पतली नाजुक पाइपों से होकर कभी एक बूंद भी गंदा पानी हमारे दुनिया से गुजर जाने तक गुजर सकेगा। इतना ही नहीं हमने यह भी लिखा था कि नाली निर्माण का ठेका लेनेवाली कंपनी ट्राईटेक ने शहर की सारी गलियों की सड़कों तोड़कर नाली के लिए षोडसी युवती की पतली टांगों सरीखी पाईप तो बिछा दिया लेकिन सड़कों को टूटी हुई ही छोड़ दिया जिससे हल्की बरसात होने बाद तो घर से निकलना तक मुश्किल हो जाता है।

मित्रों,हमारी खबर ने असर दिखाया और हाजीपुर की मेयर की कुर्सी चली गई। नए मेयर हैदर अली ने तत्परता दिखाई और कुर्सी संभालते ही कंपनी के परियोजना पदाधिकारी को निर्देश दिया कि कंपनी पहले नाली के काम में हो रही त्रुटियों को दूर करे और फिर सारी गलियों की सड़कों को दुरूस्त करे। (हाजीपुर टाईम्स का असर,नगर पार्षदों ने लगाई नाली बनाने वाली कंपनी को जमकर फटकार) कंपनी एक बार फिर से कोताही बरत रही है। नालियों को जस-का-तस छोड़ दिया गया है और सड़कों को बनाने का काम आरंभ कर दिया गया है। सवाल उठता है कि भविष्य में अगर नालियों ने काम नहीं किया तो इसकी जिम्मेदारी किस पर आएगी? तब क्या हाजीपुर नगर परिषद् ट्राईटेक कंपनी के खिलाफ किसी तरह कार्रवाई न करते हुए नालियों के लिए फिर से निविदा आमंत्रित करेगी और एक बार फिर से सड़कों को तोड़कर नालियाँ बनाई जाएंगी और दिल्ली की तरह ऐसा बार-बार किया जाता रहेगा जनसुविधा के नाम पर और दिल्ली की ही तरह हाजीपुर की जनता भी अपने ही पैसों की खुली लूट को मूकदर्शक बनकर देखती रहेगी? क्या इसी के लिए 1993 में भारत के संविधान में 73वाँ और 74वाँ संशोधन किया गया था? वह शक्तियों का विकेंद्रीकरण था या भ्रष्टाचार का? मॉनिटर तो सरकार को भी करना चाहिए लेकिन बिहार में सरकार है ही कहाँ? (मेरी सरकार खो गई है हुजूर)।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सोमवार, 3 नवंबर 2014

तो क्या अब भारत के हिन्दू-मुस्लिम अलग-अलग मनाएंगे त्योहार?

3 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,हमने बचपन में अपनी पाठ्य-पुस्तक में कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी की एक कहानी जो सच्ची घटना पर आधारित थी पढ़ी थी। कहानी का नाम था सुभान खाँ। इस कहानी के सुभान खाँ धर्मनिष्ठ मुसलमान हैं और हज भी कर आए हैं। जब गांव के बहुसंख्यक मुसलमान सांप्रदायिक तनाव कायम होने के बाद मंदिर पर हमला करने और प्रतिमा-भंग करने की योजना बनाते हैं तो सुभान खाँ मंदिर के द्वार पर पाँव रोपकर खड़े हो जाते हैं और मुसलमानों को चुनौती देते हैं कि परवरदिगार के पाक घर में वे लोग तभी घुस पाएंगे जब अपनी तलवार से उनके सिर को धड़ से अलग कर देंगे। अंत में मुसलमान अपने कृत्य पर शर्मिंदा होकर वापस लौट जाते हैं।
मित्रों,इन दिनों भारत के सांस्कृतिक क्षेत्र में जो कुछ भी हो रहा है उसे देश के भविष्य के लिए किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। सुभान खाँ कहानी की कथानक के विपरीत उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से उठी सांप्रदायिकता की आग अब दिल्ली को भी झुलसाने लगी है और जिसका ताजा परिणाम यह हुआ है कि इस बार दिल्ली के बवाना इलाके में मुहर्रम के जुलूस को हिन्दुओं के मुहल्लों से होकर नहीं गुजरने दिया जाएगा।
मित्रों,हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के विसर्जन के समय हम देखते हैं विसर्जकों पर अक्सर पथराव कर दिया जाता है तो कभी हिन्दू मंदिर से लाउडस्पीकर उतरवा दिया जाता है। निश्चित रूप से मुसलमानों को कतई ऐसा नहीं करना चाहिए लेकिन बवाना के हिन्दुओं ने जिस तरह से मुहर्रम के जुलूस को अपने मुहल्लों में आने से रोकने का निर्णय लिया है उसे भी किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। भारत में सदियों से हिन्दू और मुसलमान एकसाथ रहते आ रहे हैं और एकसाथ पर्व-त्योहार भी मनाते आ रहे हैं। मुझे तो पहले महनार और अब हाजीपुर में रहते हुए कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मुहर्रम सिर्फ मुसलमानों का त्योहार है फिर आज क्यों माँ के दूध में जहर घोला जा रहा है या घुलता जा रहा है? हमने तो बचपन से ही होली और मुहर्रम एकसाथ मनाए हैं और हमने तो कभी यह सोंचा भी नहीं था कि भारत में एक समय ऐसा भी आएगा जब होली पूरे भारत का त्योहार न होकर सिर्फ हिंदुओं का और मुहर्रम सिर्फ मुसलमानों का त्योहार बनकर रह जाएगा। चाहे वो हमारे पिताजी के मित्र जलाल साहब हों या अंसारी जी हमें तो कभी इस बात की भनक तक नहीं लगी कि वे लोग मुसलमान हैं और हमसे अलग हैं। महनार स्टेशन पर जब जलाल साहब रहते थे तो न जाने कितनी ही रातों को देर से ट्रेन से उतरने के बाद हमने चाची के हाथों का बना खाना खाया और वहीं पर ओसारे पर सो गया। होली में भी हमने अपने बाँकी बड़े-बुजुर्गों की ही तरह उनके पाँव पर भी अबीर रखे और आशीर्वाद लिया। ये लोग भी जब भी पिताजी से मिलते तो वालेकुमअस्सलाम नहीं कहते बल्कि हाथ जोड़कर प्रणाम करते। महनार में तो कई मुसलमान आज भी धोती पहनते हैं और मुरौवतपुर के मुसलमान जो पहले चकेयाज के उज्जैन राजपूत थे आज भी चकेयाज के राजपूतों से बेटियों की शादियों में न्योता चलाते हैं।
मित्रों,हमने माना कि मुजफ्फरनगर,मेरठ और मुरादाबाद में जो कुछ भी हुआ या सपा सरकार की शह पर किया-कराया गया वह गलत था लेकिन क्या हमें तनाव को कम करने के प्रयास नहीं करने चाहिए? क्या मुजफ्फरनगर की घटनाओं के पीछे बवाना के मुसलमानों का हाथ था? अगर नहीं तो फिर उनका बहिष्कार क्यों? मुजफ्फरनगर के पीड़ितों को निष्पक्ष रूप से न्याय मिलना ही चाहिए इससे भला कौन इंकार कर सकता है लेकिन क्या हमारे विभाजनकारी कदमों से हमें इंसाफ मिल जाएगा? बल्कि पूरे भारत के देशभक्त हिन्दुओं और मुसलमानों को आवश्यक तौर पर ऐसे कदम उठाने चाहिए जिससे भारत की एकता और अखंडता को मजबूती मिले। इस दिशा में हमें उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी के गोवध संबंधी बयान का स्वागत करना चाहिए और भारत के सभी मुसलमानों से हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि खाने के लिए बहुत सारी स्वादिष्ट और पौष्टिक खाद्य-सामग्री जब देश में मौजूद है तो फिर गो-मांस को लेकर जिद क्यों जबकि यह आपको भी पता है कि न केवल भारत के बहुसंख्यक समाज के गाय पूज्य है बल्कि खुद मोहम्मद साहब ने गो-मांस के सेवन को वर्जित बताया है।
मित्रों,भारत सदियों तक विश्वगुरू रहा है और उसने दुनिया को शून्य के अलावे भी बहुत-कुछ दिया है,मिलजुलकर शांति और प्रेम से जीने का सलीका सिखाया है। भारत को अगर सिर्फ स्वामी श्रद्धानंद जैसे हिन्दू चाहिए जो दिल्ली में हिन्दू-मुस्लिम दंगों को रोकने के लिए शहीद हो जाए तो भारत को एक भी लादेन या बगदादी जैसा मुसलमान भी नहीं चाहिए बल्कि 20 के बीस करोड़ सुभान खाँ चाहिए।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 1 नवंबर 2014

बुरी नजर वाले तू नेत्रदान कर दे

1 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,जबसे केंद्र में मोदी सरकार ने सत्ता संभाली है कुछ लोगों की बर्दाश्त करने की शक्ति एकाएक जवाब दे गई है। बेचारे यह स्वीकारने को तैयार ही नहीं हैं कि अब देश में एक काम करनेवाली सरकार है। इन दिनों ऐसे शरारती तत्त्व इस बात के इंतजार में रहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के खिलाफ कुछ बोले और जैसे ही कौलेजियम प्रणाली में बदलाव से नाराज सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश केंद्र सरकार के खिलाफ कोई तल्ख टिप्पणी करते हैं कांग्रेस,आप और साम्यवादी दलों के चुके हुए राजनेता हुआँ-हुआँ करने लगते हैं। उनको लगता है कि ऐसा करके वे सरकार को जनता के बीच इतना अधिक बदनाम कर देंगे कि मोदी नाम का प्रचंड जनमतवाला चक्रवात कमजोर पड़ जाएगा। इन दिनों कांग्रेस अपने लकवाग्रस्त पंजे को थप्पड़ की तरह हवा में बेतहाशा भाँजने में लग गई है और दनादन अपने ही गाल पर थप्पड़ ठोके जा रही है,आपिये आपे से बाहर हो गए हैं और साम्यवादी दल जो पहले लाल थे अब लाल की जगह पीले पड़ने लगे हैं।
मित्रों,ऐसे तत्त्व यह भूल गए हैं कि अब वह जमाना नहीं रहा जब सौ गीदड़ मिलकर एक शेर का शिकार कर डालते थे और बाँकी जानवर या तो तटस्थ हो जाते थे या फिर भुलावे में आकर तालियाँ पीटने लगते थे। इस बार देश की जनता न तो भुलावे में आने जा रही है और न ही तटस्थ रहनेवाली है बल्कि सबके-सब शेर के समर्थन में शेर ही बन गए हैं। इन लोगों ने काले धन के मुद्दे पर राम जेठमलानी नामक एक ऐसे देशविरोध महावकील की सहायता ली जो पिछले तीन दशक से देश की विभिन्न अदालतों में आतंकवादियों की वकालत करता आ रहा है। इस थाली के बैगन की न तो कोई विचारधारा है और न ही कोई दृष्टिकोण।
मित्रों,संस्कृत में एक श्लोक है-पुस्तकेषु तु या विद्या परहस्तगतं धनं,कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनमं अर्थात् पुस्तकों में स्थित विद्या और दूसरों के हाथों में गया धन कभी बुरे वक्त में काम नहीं आता। हमारी गीदड़ मंडली ने भी अपने लंबे सार्थक जीवन में इस बात का अनुभव किया होगा कि किसी से अपना धन वापस ले पाना ही कठिन होता है और धन छीन लेना तो कतई आसान नहीं होता। फिर उन्होंने विदेशों में जमा काले धन के मामले में कैसे सोंच लिया कि मोदी सरकार 100 दिनों में ही उसको वापस ले आएगी? लोकसभा चुनावों के दौरान नमो के लगभग सारे भाषणों के अपनी खबरों में स्थान देने के नाते हम दावे से कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी ने किसी भी मुद्दे पर यह नहीं कहा था कि वह इनको अपनी जादुई ताकत से 100 दिनों में हल कर देंगे। बल्कि उन्होंने चुनाव-प्रचार के दौरान हमेशा कहा कि वे जनता से 60 महीने मांग रहे हैं और इसलिए उनसे कामकाज का हिसाब भी पाँच साल के बाद ही लिया जाए।
मित्रों,लगता है कि हमारी हुआँ-हुआँ पार्टियाँ को मोदी सरकार के काम करने का नया तरीका पसंद नहीं आ रहा है। मोदी तमाम पुरानी परंपराओं को लगातार भंग करते जा रहे हैं और देश में एक नितांत नवीन स्वतःस्फूर्त वातावरण तैयार कर रहे हैं। देश में चलता है वाली संस्कृति दम तोड़ने लगी है और देश के क्षितिज पर ऐसा होगा और केवल ऐसा ही होगा की नई संस्कृति की लाली फूटने लगी है ऐसे में लगता है जैसे हमारे विपक्षी दलों को भय लगने लगा है कि अब उनके भविष्य का क्या होगा और उनकी राजनैतिक विचारधारा-सड़ी-गली सोंच का क्या होगा? मगर गोबयल्स के अनुयायी भूल से यह भूल जाते हैं कि आज देश की 65 प्रतिशत आबादी युवा है जिसको कोरी विचारधारा नहीं वरन् धरातल पर विकास चाहिए। उनके बेवजह शोर मचाने से सरकार को कतई प्रभावित नहीं होना चाहिए और चुपचाप अपने तरीके से अपना काम करना चाहिए। सरकार को देश की समझदार जनता की समझदारी पर पूरा भरोसा करना चाहिए क्योंकि भारत की सवा करोड़ जनता अब उन लोगों के बहकावे में बिल्कुल भी नहीं आनेवाली है जिन्होंने भारत को एक असफल राष्ट्र और एशिया का मरीज बना डाला था। साथ ही हम वैशाख के अंधों को मुफ्त में यह सलाह भी देना चाहेंगे कि या तो वे मोदी सरकार के राष्ट्रनिर्माण में सक्रिय भागेदारी करें और अगर उनको मोदी सरकार के अच्छे काम रास नहीं आ रहे हैं,उनकी आँखों को नयनसुख प्रदान नहीं कर पा रहे हैं तो कृपया मानसिक अवसाद से बचने के लिए अपने नेत्रों का दान कर दें। उनकी आँखें उनके खुद के काम आने से तो रहीं तो फिर किसी नेत्रहीन को ही क्यों न उनका लाभ मिले?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

दुर्घटना ने मिटाया हिन्दू-मुसलमान का फर्क

24 अक्तूबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आपके शहर में भी बहुत सारे ऐसे विक्षिप्त और अर्द्धविक्षिप्त लोग होंगे जिनको अपना होश ही नहीं है। कोई नहीं जानता कि वे हिन्दू हैं या मुसलमान। इनके लिए न तो कोई सुख है और न ही कोई दुःख। कहीं भी कुछ भी खा लिया और कहीं भी धरती को बिछावन और ईंटों को सिरहाना बनाकर टांग पसारकर सो गए।
मित्रों,अभी-अभी शाम ढलने से पहले एक टेम्पोवाले ने एक ऐसे ही स्थिरबुद्धि वृद्ध विक्षिप्त के पैरों को रगड़ दिया। बेचारा अपनी मस्ती में हाजीपुर के चौहट्टा चौक स्थित चबूतरे पर पांव लटकाए किसी दुकानदार के दिए सिगरेट को मजे ले-लेकर पी रहा था कि एक टेम्पोवाला उसके पैर को घायल करता हुआ निकल गया। पैर फट गया था इसलिए काफी तेजी से रक्तस्राव होने लगा। लेकिन बेचारा न तो चीखा और न ही नाराज हुआ बस अंदर-ही-अंदर दर्द को पीता हुआ लेट गया। कई लोग दौड़े सड़क के दक्षिण से मैं गया तो उत्तर से पान दुकानदार मुमताज और साईकिल मिस्त्री मकसूद भी दौड़ा। हमने चौक पर स्थित सिन्हा मेडिकल हॉल के सुनील कुमार से विनती की कि रोजगार तो रोज ही होता है आज परोपकार का काम कर लो और बेचारे की मरहम-पट्टी कर दो। सुनील ने पट्टी तो कर दी लेकिन सूई देने से हिचक रहा था।
मित्रों,मुमताज तो जैसे पागल ही हुआ जा रहा था। बार-बार जख्मी वृद्ध के पास आता और फिर सुनील के पास कहने को जाता। फिर मैंने सुनील की दुकान के मालिक प्रमोद कुमार सिन्हा से निवेदन किया तो उन्होंने सुनील को इसकी अनुमति दे दी। मुमताज ने न केवल सूई देने के लिए वृद्ध का आस्तीन ऊपर किया और सूई देने के समय हाथ पकड़ा बल्कि सुनील के सूई देने के बाद काफी देर तक सूई के स्थान को सहलाता भी रहा। इसके बाद सुनील ने पानी डालकर जमीन पर गिरे खून को साफ कर दिया। फिर वृद्ध की जान-में-जान आई और वो उठकर बैठ गया। लेकिन सवाल उठता है कि आगे उसकी पट्टी को बदलेगा कौन? क्या यह घाव उस वृद्ध की जान ले लेगा?
मित्रों,यह सच्चाई है कि हर आदमी मूल रूप से न तो हिन्दू है और न ही मुसलमान। मैंने या मुमताज या मकसूद ने इस बात की चिन्ता नहीं की कि वह वृद्ध हिन्दू है मुसलमान या कुछ और। उसके बहते खून ने हम सबकी करुणा को जगा दिया। लेकिन सच्चाई यह भी है कि हमारे करने या करवाने की भी एक सीमा थी और है। कोई ऐसी व्यवस्था तो होनी चाहिए जिससे कि ऐसे बेसहारा लोगों की समुचित देखभाल हो सके। चाहे वह व्यवस्था सरकार द्वारा हो या कुकुरमुत्ते की तरह पूरे हाजीपुर में उग आए घपलेबाज गैर सरकारी संगठनों द्वारा। अपनों के लिए तो हर कोई करता है कोई परायों के लिए भी तो करे।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2014

अपने खिलाफ कब धरना पर बैठेंगे नीतीश?


21 अक्तूबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,अपने केजरीवाल जी बड़े भाग्यशाली हैं। पहले उनको पाकिस्तान में बड़ा भाई मिला और अब भारत में भी हमारे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी केजरिया गए हैं। दोनों की शैली में फर्क बस इतना है कि केजरीवाल जी ने पहले धरना दिया फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी को यानि अपनी किस्मत को लात मारी और नीतीश जी ने इसके उलट पहले इस्तीफा दिया और अब धरने पर बैठ रहे हैं। श्री कुमार को शिकायत है कि पिछले 4 महीने में केंद्र सरकार ने बिहार की घनघोर उपेक्षा की है जैसी कि दस सालों में कांग्रेस पार्टी की सरकार ने भी नहीं की थी। तब तो सुशासन बाबू यह आरोप कांग्रेस पर लगा रहे थे और अब उसी के हाथ से उन्होंने हाथ मिला लिया है। अब इसे अवसरवाद न कहा जाए तो क्या कहा जाए?

मित्रों,पाकिस्तानी शायर मोहसिन नकवी ने क्या खूब कहा है कि बस एक ही गलती हम सारी ज़िन्दगी करते रहे मोहसिन, धूल चेहरे पर थी और हम आईना साफ़ करते रहे। बस नीतीश कुमार जी की भी इतनी-ही इतनी-सी ही समस्या है। जनता बार-बार उनको आईना दिखा रही है लेकिन श्री कुमार अपने चेहरे के बदले आईना को ही साफ करने में लगे हैं। पहले एक हवाई-परिकल्पित मुद्दे को लेकर 18 साल पुराना सुख-दुःख में जाँचा-परखा गठबंधन तोड़ा,फिर उसी लालू की गोद में छोटा भाई बनकर बैठ गए जिनके खिलाफ लड़ते हुए तमाम उम्र गुजरी थी। बिहार के शासन को जब 18 मंत्रालयों को एकसाथ देखते हुए संभाल नहीं सके और जनता ने जब गठबंधन तोड़ने और फिर से कुशासन और अराजकता फैलाने की सजा दी तो बजाए स्थिति को संभालने के रूठकर और मैदान छोड़कर ही भाग गए। जनाब चले थे प्रधानमंत्री बनने और त्यागपत्र दे दिया मुख्यमंत्री से भी। अभी हरियाणा विधानसभा चुनावों में दस जनविहीन जनसभाएँ करने के बाद भी पार्टी के एक उम्मीदवार को 114 और दूसरे को 38 वोट मिलते हैं लेकिन जनाब फिर भी अभी भी खुद को राष्ट्रीय नेता और प्रधानमंत्री पद का सबसे सुयोग्य उम्मीदवार मानते हैं। लोकसभा चुनावों में तो नीतीश जी के भाग्य ने उनका साथ दिया वरना तमाम विश्लेषक तो यह मान रहे थे कि जदयू भी बसपा की तरह ही शून्य पर आउट होने जा रही है।

मित्रों,वैसे सच्चाई यह भी है कि जब भाजपा सरकार में शामिल थी तब भी सरकार ने कई नीतिगत गलतियाँ कीं। एक के बाद एक पागलपन भरे कदमों से सरकारी शिक्षा का सर्वनाश कर दिया,गांव-गांव में शराब के ठेके खोल दिये और पूरे शासन-प्रशासन को अफसरों के हवाले कर दिया मगर ये विभाग शुरू से ही जदयू कोटे के मंत्रियों के पास थे। बाद में गठबंधन टूटने के बाद नीतीश जी को मंत्रिमंडल का विस्तार करना चाहिए था जो उन्होंने नहीं किया और 8-नौ महीनों तक एकसाथ वे 18 विभागों के मंत्री बने रहे जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि राज्य में सरकार नाम की चीज ही नहीं रही। बहुचर्चित दवा घोटाला भी उसी कालखंड की देन है।

मित्रों,मान लिया कि नीतीश जी को मुख्यमंत्री की कुर्सी के खटमल बहुत परेशान करने लगे थे लेकिन यह क्या कि उन्होंने एक बेदिमागी को अपने स्थान पर बैठा दिया जो मांझी नाम को निरर्थक साबित करते हुए पार्टी के साथ-साथ प्रदेश की नैया को भी डुबाने पर लगा हुआ है। कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी हालत के लिए नीतीश कुमार जी खुद ही जिम्मेदार हैं लेकिन लगातार जबर्दस्ती यह साबित करने में लगे हैं कि इन्हीं लोगों ने छीना दुपट्टा मेरा (मुख्यमंत्री की कुर्सी)। जबतक जनता को उनका शासन अच्छा लगा,विकासवादी लगा जनता ने उनको सिर-आँखों पर बिठाया और जब जनता को लगने लगा कि नीतीश कुमार जी रावण की तरह अभिमानी और स्वेच्छाचारी होने लगे हैं तो बिहार की जनता ने उनको अपने सिर से आहिस्ते से उतारा नहीं बल्कि सीधे जमीन पर पटक दिया। इसलिए नीतीश जी को अगर धरना देना ही है तो उनको खुद के खिलाफ,अपनी भूतकाल की नीतिगत और अवसरवादी गलतियों के खिलाफ धरना देना चाहिए। वे कहेंगे तो हम भी उस धरने में उनका दिलो-जान से साथ देंगे।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)