गुरुवार, 24 सितंबर 2020

बिचौलियों के पक्ष में लामबंद विपक्ष

मित्रों, सुदामा पांडे धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक रहे हैं। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति देखने को मिलती है. उनकी एक कविता जो देखने में काफी छोटी है देश के हालात को इतनी सटीकता और सुन्दरता से बयां करती है कि बस देखते ही बनता है. वह कविता है रोटी और संसद. कविता कुछ इस प्रकार है- रोटी और संसद एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूँ-- 'यह तीसरा आदमी कौन है ?' मेरे देश की संसद मौन है। मित्रों, मेरे, आपके और धूमिल जी के देश की संसद सचमुच इस प्रश्न पर ७३ साल तक मौन थी कि यह तीसरा आदमी कौन है लेकिन अब संसद ने मौन का परित्याग कर दिया है और किसानों को इस तीसरे आदमी के चंगुल से आजाद कर दिया है. लेकिन यह क्या सारे कथित किसानहितैषी दल किसानों की आज़ादी के विरोध में एकजुट हो गये हैं. इस सन्दर्भ में मुझे संस्कृत की एक कथा याद आ रही है. एक जंगल में एक तालाब था जिसमें बहुत सारी मछलियाँ थीं. तालाब के किनारे एक विशाल वृक्ष था जिस पर एक बगुला रहता था. एक बार बरसात न होने के कारण तालाब सूखने लगा. मछलियाँ घबरा गईं. बगुले ने मछलियों से कहा कि उसने थोड़ी ही दूर पर एक और तालाब देख रखा है जिसमें बहुत पानी है. अगर मछलियाँ चाहें तो वो बारी-बारी से उनको उस तालाब तक पहुंचा देगा. इस प्रकार रोज बगुला एक मछली को पंजे में दबाकर उड़ता और थोड़ी दूर स्थित एक पेड़ की डाल पर ले जाकर खा जाता. धीरे-धीरे तालाब की सारी मछलियाँ समाप्त हो गईं. लेकिन एक केकड़ा अभी भी बचा हुआ था. बगुले ने उसके सामने भी वही प्रस्ताव रखा. केकड़े को शुरू से ही बगुले पर शक था इसलिए उसने शर्त रख दी कि वो बगुले के पंजे में दबकर नहीं जाएगा क्योंकि उसे ऊंचाई से डर लगता है. बल्कि वो तो बगुले की गर्दन को पकड़ कर जाएगा. बगुला चूंकि लालच में अँधा था अतः तैयार हो गया. बगुला जैसे ही उस पेड़ के पास पहुँचा जहाँ उसने मछलियों को मारा था उसने केंकड़े से कहा कि अब तुम भी मरने के लिए तैयार हो जाओ. लेकिन केंकड़े ने तभी उसका गला ही काट दिया. मित्रों, इस समय विपक्षी दल भी खुद को बगुला और किसानों को मछली समझ रहे हैं. कृषि विधेयक में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे किसानों को हानि हो बल्कि उनको फसल कटने से पहले ही फसल की गारंटी मिलने वाली है लेकिन विपक्षी दल कृषि-क्षेत्र में व्याप्त बिचौलियों को बचाने के लिए गोलबंद हो गए हैं. एक अनुमान के अनुसार अगर अंतिम उपभोक्ता कोई कृषि-उत्पाद खरीदता है तो उसका मात्र १० से २३ प्रतिशत ही किसानों को मिलता है बांकी बिचौलिए ले उड़ते हैं. फिर क्या कारण है कि विपक्ष बिचौलियों के पक्ष में खड़ा है और दिखावा किसान हितैषी होने का कर रहा है. क्या कारण है कि आजादी के समय जो किसान मात्र साढ़े तीन क्विंटल गेहूं बेचकर एक तोला सोना खरीद लेता था लेकिन आज वही किसान ज्यादा फसल उपजाकर भी २० क्विंटल गेहूं बेचने के बाद भी एक तोला सोना नहीं खरीद सकता? किसने ऐसी व्यवस्था बनाई जिससे किसान आजादी के बाद एपीएमसी अर्थात the Agricultural Produce & Livestock Market Committee के बंधक बनकर रह गए? माल महाराज के मिर्जा खेले होली? मित्रों, आज यह कड़वा सत्य है कि देश के ९९ प्रतिशत युवा और ७६ प्रतिशत किसान खेती करना नहीं चाहते. आज़ादी के समय जो कृषि-क्षेत्र देश की जीडीपी में ५० प्रतिशत से ज्यादा का योगदान देता था पिछली सरकारों की गलत नीतियों के कारण आज १३ प्रतिशत योगदान कर पा रहा है. विपक्ष के पाखंड की पराकाष्ठा तो देखिए कि जिस कांग्रेस पार्टी ने अपने २०१४ और २०१९ के घोषणा-पत्र में एपीएमसी के शिकंजे से किसानों को आजाद करवाने के वादे किए थे आज वही इस कानून का सिर्फ इसलिए विरोध कर रही है क्योंकि उसे विरोध करना है. मित्रों, महाकवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है जो कुछ इस प्रकार है- १० बाई १० के कमरे में बैठा व्यापारी सोने का हो गया, मगर १० बीघा खेत में खड़ा किसान माटी का हो गया. सवाल उठता है है कि कोरोना जैसे विकट समय में भी देश की अर्थव्यवस्था को सहारा देनेवाला किसान कब तक माटी का होता रहेगा और कब तक बिचौलिए उसकी मेहनत पर मौज उड़ाते रहेंगे? आखिर विपक्ष क्यों किसानों को सोने का नहीं होने देना चाह रहा? एक सवाल किसानों से भी है कि आखिर किसान कब मछली के बदले केंकड़ा बनेगा?

सोमवार, 14 सितंबर 2020

रघुवंश प्रसाद सिंह को श्रद्धांजलि

 

मित्रों, रघुवंश प्रसाद सिंह को मैं तब से जानता हूँ जब मैं चार-पांच साल का रहा होऊंगा. वो मेरे पिताजी से दो बैच पीछे पढ़ते थे. पिताजी महनार हाई स्कूल में थे और रघुवंश बाबू महनार रोड स्टेशन स्थित चमरहरा हाई स्कूल में. मेरे पिताजी से उनकी तब की जान-पहचान थी. मेरे पिताजी की शादी तभी हो गई थी जब वो दसवीं में पढ़ते थे  और मेरा ननिहाल रघुवंश बाबू के पडोसी गाँव में था इस नाते भी रघुवंश बाबू हमारे लिए घर के आदमी थे, मामा थे. रघुवंश बाबू को जेपी आन्दोलन के दौरान पिताजी ने कई बार गिरफ़्तारी से बचाया था. थोडा बड़ा हुआ तो १९८५ में पिताजी सैनिक स्कूल की परीक्षा दिलवाने पटना ले गए तब भी हम रघुवंश बाबू के अगस्त क्रांति मार्ग स्थित मंत्री आवास पर रुके थे. उनकी पत्नी शाम में आकर हम लोगों से मिलती और बातें करती. उनका बड़ा बेटा भी मेरे साथ सैनिक स्कूल प्रवेश परीक्षा देने जाता था. तब रघुवंश बाबू अधिकतर अपने विधानसभा क्षेत्र बेलसंड में रहते. मैं सोंचता कि बेलसंड तो काफी विकसित होगा क्योंकि नेताजी हमेशा क्षेत्र में ही रहते हैं.उस मंत्री आवास की भी एक कहानी पिताजी सुनाते हैं जो उनको स्वयं रघुवंश बाबू ने कही थी. हुआ यह कि रघुवंश बाबू जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बने और उनको वह आवास रहने को दिया गया. फिर १९८० में कांग्रेस की सरकार बन गई और रघुवंश बाबू मंत्री नहीं रहे. डॉ. जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बने तो रघुवंश बाबू को आवास खाली करने की नोटिस दे दी गई. तब अद्भभुत प्रतिउत्पन्नमतित्व के धनी रघुवंश बाबू ने विधानसभा में जगन्नाथ मिश्र जी से कहा बाबा मंत्री पद तो ले लिए अब आवास भी ले लेंगे क्या? और वह आवास फिर से रघुवंश बाबू के पास ही रह गया.

मित्रों, फिर लालू जी आए और पूरे बिहार को जंगल में बदल दिया. तब रघुवंश बाबू लालूजी के साथ ही थे. उन्होंने कभी लालूजी का विरोध नहीं किया. मुझे लगता है कि रघुवंश बाबू सुविधावादी नेता थे. लालू के नाम पर उनको चुनाव जीतना था कोई लालू जी को रघुवंश बाबू के नाम पर जीतना तो था नहीं इसलिए जब तक रघुवंश बाबू जीतते रहे चुप रहे. इस बीच लालू जी ने अनगिनत पाप किए, हत्याएं करवाईं, बलात्कार करवाए, अपहरण करवाए, घोटाले किए. यहाँ तक कि अनपढ़ पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया लेकिन रघुवंश बाबू चुप रहे. दरअसल वे पिछलगुआ नेता थे. पहले कर्पूरी ठाकुर के पिछलगुआ रहे जो उनके नाना के गाँव के थे और बाद में लालू और लालू परिवार के. आगे बढ़कर नेतृत्व देने की उनमें न तो क्षमता थी और न ही हिम्मत. मुझे याद है कि १९९५ के विधानसभा चुनाव के बाद जब राजपूत जाति के लोग उनके पास किसी काम से गए तो उन्होंने यह कहकर उनसे मिलने से मना कर दिया था कि इनलोगों ने उनके दल को वोट नहीं दिया है. लगभग उसी कालखंड में  एक बार जवाहर बाबू जो एलएस कॉलेज में रघुवंश बाबू और रामचंद्र पूर्वे के सहपाठी रह चुके थे और महनार के आरपीएस कॉलेज में गणित के प्राध्यापक थे रघुवंश बाबू के पास अपने बेटे के लिए नौकरी मांगने गए. तब रघुवंश बाबू ने पास में सड़क पर नंग-धडंग खेल रहे बच्चे को दिखाकर कहा कि जवाहर हम तो चाहते हैं कि इस बच्चे को भी नौकरी दे दूं. बेचारे जवाहर बाबू शर्म से पानी-पानी हो गए. तब पिताजी भी जवाहर बाबू के साथ थे.

मित्रों, इसी बीच मेरी छोटी दीदी की शादी १९९६ में बेलसंड के नोनौरा गाँव में ठीक हुई. जब हम तिलक लेकर गाँव गए तो पता चला कि बेलसंड तो बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका है. न तो कहीं पर सड़कें थीं और न ही बिजली. कच्ची सड़कों पर कई फुट मोटी धूल की परत. बागमती पर पुल के होने का तो सवाल ही नहीं था. तब मैंने सोंचा कि नेताजी तो हमेशा क्षेत्र में ही रहते थे फिर करते क्या थे क्षेत्र में रहकर.

मित्रों, बाद में रघुवंश बाबू सांसद और केंद्रीय मंत्री बने. मनरेगा लेकर आए जिसके माध्यम से हर साल हजारों करोड़ों की हेरा-फेरी होती है. गड्ढा खोदो और भरो. इस योजना ने किसानों का जीना मुहाल कर दिया. कृषि मजदूर मनरेगा में चले गए. मजदूरी बेतहाशा बढ़ गई. उधर राजद की लगाम लालू जी के हाथों से निकलकर उनके बेटों के हाथों में चली गई और रघुवंश बाबू जैसे लालू जी से भी सीनियर नेताओं की हालत वही हो गई जो जीजा के आने के बाद फूफा की हो जाती है. इधर पार्टी में पूछ नहीं रही और उधर जनता ने भी रिजेक्ट कर दिया. राजपूत उनके साथ थे नहीं पिछड़े भी मोदी के साथ हो लिए. उससे भी बुरा समय तब आया जब लालू जी के बड़े बेटे ने उनको एक लोटा पानी कह दिया. यहाँ मैं आपको बता दूं कि जिस रामा सिंह को लेकर सारा विवाद हुआ वो भी महनार के ही हैं और रघुवंश बाबू भी. रामा सिंह भी हमारे नजदीकी है और महनार स्टेशन के पास स्थित आरपीएस कॉलेज में पिताजी के विद्यार्थी भी रह चुके हैं. यहाँ हम यह भी बता दे कि रामा सिंह रघुवंश बाबू के चचेरे भाई रघुपति को कई बार महनार विधानसभा क्षेत्र में पटखनी दे चुके हैं. बाद में संयोगवश उनकी रघुवंश बाबू से भी टक्कर हो गयी जिसमें रघुवंश बाबू हार गए.

मित्रों, समय का फेर देखिए कि जिन राजपूतों को लालू और लालू परिवार अपना पक्का शत्रु समझते थे लालू के दोनों बेटों को इस बार विधानसभा पहुँचने के लिए उनका ही वोट चाहिए और वो वोट रामा दिलवा सकते हैं रघुवंश नहीं दिलवा सकते थे. सवाल उठता है कि रघुवंश अभी किस दल में थे. शायद किसी दल में नहीं. लेकिन जीवित रहते तो शायद जदयू में जाते. अंत में मैं कहना चाहूँगा कि उन्होंने जाते-जाते बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी को पत्र लिखकर किसानों का दिल जीत लिया है. उन्होंने पत्र में मांग की थी कि मनरेगा में संशोधन करके प्रावधान किया जाए कि मनरेगा के मजदूर न सिर्फ एससी-एसटी बल्कि सारे किसानों के खेतों में काम करें और भुगतान सरकार करे. अपने एक आलेख मन रे (सुर में) न गा यानी मनरेगा में हमने भी २०१० में इस आशय की मांग की थी. अगर रघुवंश बाबू की इस अंतिम इच्छा को लागू कर दिया जाता है तो निश्चित रूप से कृषि के क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी और किसान समाज हमेशा के लिए उनका ऋणी हो जाएगा.

मित्रों, अंत में मैं यह कहकर विराम चाहूँगा कि तमाम कमियों और गलतियों के बावजूद रघुवंश बाबू घनघोर ईमानदार थे इसमें कोई संदेह नहीं. और लालू जो भ्रष्टाचार के पर्याय हैं की पार्टी में रहकर भी ईमानदार थे ये उनके कद को और भी ऊंचा बनाता है. वो दौर राजनीति में गिरावट का था. लालू जी जबरदस्ती तो सत्ता में आए नहीं थे जनता ने उनको बार-बार चुना था. और उस गिरावट के दौर में भी रघुवंश बाबू गिरे नहीं अपने मूल्यों और सिद्धांतों को कम-से-कम व्यक्तिगत तौर पर बनाए रखा. रघुवंश बाबू श्रीकृष्ण तो नहीं लेकिन भीष्म पितामह तो थे. और दुर्योधनों के इस काल में भीष्म होना भी कोई कम बड़ी बात नहीं है. ऐसे महामानव को श्रद्धांजलि.

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

ईसाई मिशनरी हिंदुत्व के लिए खतरा


मित्रों, भारत में जब इसाईयत काआगमन हुआ तब भी उनके इरादे खतरनाक थे. इतिहास साक्षी है कि कालीकट के हिन्दू राजा जमोरिन ने बड़ी ही गर्मजोशी से १४९८ में वास्कोडिगामा का स्वागत किया था लेकिन वास्कोडिगामा जब दोबारा आया तो तोप लेकर आया और सीधे जमोरिन पर हमला बोल दिया. हजारों हिन्दुओं को मार दिया गया, हजारों को जबरन ईसाई बना दिया गया और इस कुत्सित कृत्य में उसका साथ दिया तथाकथित संत जेवियर ने जिसके नाम पर भारत में हजारों स्कूल हैं.  

मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि मुसलमानों की ही तरह हिंदुत्व के प्रति ईसाईयों के मन में भी प्रारंभ से ही वैर था. बाद में जब अंग्रेजों ने पूरे भारत पर कब्ज़ा कर लिया तब भी लार्ड क्लाईव से लेकर लार्ड माउंटबेटन तक जितने भी गवर्नर, गवर्नर जनरल या वायसराय हुए सबके मन में भारत को ईसाई देश बना देने का सपना पल रहा था. भारत को अफ्रीका समझने वाले लार्ड कैनिंग ने तो ब्रिटिश सरकार को भेजे पत्रों में दावा किया था कि पचास साल बाद भारत में कोई हिन्दू नहीं बचेगा. लेकिन हमारे सनातन धर्म की जड़ें इतनी गहरी थीं कि ईसाई मिशनरी शासन में होते हुए भी हिंदुत्व का बाल भी बांका नहीं कर पाए.

मित्रों, फिर हमारा देश आजाद हुआ लेकिन दुर्भाग्यवश देश पर खुद को दुर्घटनावश हिन्दू कहनेवाले हिंदुविरोधी नेहरु और उसके परिवार का शासन कायम हो गया. फिर नेहरु के नाती राजीव गाँधी ने जो सिर्फ नाम का हिन्दू था एक रोमन कैथोलिक महिला से शादी कर ली. कहीं-न-कहीं इस महिला के दिमाग में भी वही सपना पल रहा था जो कभी लार्ड कैनिंग या जेवियर ने देखा था. फिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा और सोनिया को २००४ में भारत की बागडोर सँभालने का मौका मिला. सोनिया को सिर्फ ईसाई नेता पसंद थे. उनमें से कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने हिन्दुओं को धोखा देने के लिए नाम हिन्दुओं वाला ही रखा था लेकिन थे ईसाई. उन दस सालों में ईसाई मिशनरियों की मौज रही. पूरे जोर-शोर से धर्म-प्रचार, प्रलोभन और धर्मान्तरण का गन्दा खेल खेला गया. इस गर्हित कुकर्म में वामपंथियों और नक्सलियों ने भी उनका भरपूर साथ दिया. कई स्थानों पर तो ईसाई मिशनरियों और वामपंथियों ने मिलकर उद्योंग-धंधे भी बंद करवा दिए जिससे भारत को बारी आर्थिक क्षति भी हुई.

मित्रों, वो कहते हैं कि हर दिन की एक शाम भी होती है. तो वर्ष २०१४ में सोनिया शासन समाप्त हो गया और हिंदुत्व का शासन शुरू हुआ. फिर शुरू हुई एनजीओ की धड-पकड़. लेकिन अब ईसाई मिशनरियों ने भोले-भाले वनवासी हिन्दुओं को बरगलाने के लिए नए हथकंडे अपना लिए. अब ईसा मसीह भी कृष्णा और राम की वेश-भूषा में आ गए. 

मित्रों, यह बड़े ही हर्ष का विषय है कि भारत सरकार ने भारत में धर्मान्तरण करवाने वाले १३ बड़े ईसाई मिशनरी संगठनों की विदेशी फंडिंग रोक दी है. तथापि हवाला से पैसा आने का खतरा अब भी बना रहेगा. ऐसे में यह जरुरी है कि कानून बनाकर हिन्दू धर्म से धर्मान्तरण को अपराध घोषित किया जाए और हमारे जो भाई-बन्धु ईसाई बन गए हैं उनको वापस हिन्दू धर्म में लाया जाए. हमारे लिए एक-एक हिन्दू महत्वपूर्ण है. याद रखिए स्वामी विवेकानंद ने कहा था-एक हिंदू का धर्मान्तरण केवल एक हिंदू का कम होना नहीं, बल्कि एक शत्रु का बढ़ना है। साथ ही हिन्दू-संगठनों को सर्वहारा वर्ग को वो सब उपलब्ध करवाना होगा जो उनको ईसाई मिशनरी उपलब्ध करवाते हैं.

बुधवार, 2 सितंबर 2020

जीडीपी में गिरावट अप्रत्याशित नहीं

 

मित्रों, केंद्रीय सांख्यिकी मंत्रालय ने सोमवार को जीडीपी के आंकड़े जारी कर दिए हैं जिसमें यह नकारात्मक रूप से 23.9 फ़ीसदी रही है. भारतीय अर्थव्यवस्था में इसे 1996 के बाद ऐतिहासिक गिरावट माना गया है और इसका प्रमुख कारण कोरोना वायरस और उसके कारण लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन को बताया जा रहा है. निश्चित रूप से यह भारत के लिए बड़ा झटका है और इससे 2025 तक अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन (खरब) डॉलर की इकोनॉमी बनाने का सपना अब पूरा होता नहीं दिख रहा है. जीडीपी पिछले चार दशकों में पहली बार इतनी गिरी है और बेरोज़गारी अब तक के चरम पर है. विकास के बड़े इंजन, खपत, निजी निवेश या निर्यात ठप्प पड़े हैं. ऊपर से यह है कि सरकार के पास मंदी से बाहर निकलने और ख़र्च करने की क्षमता नहीं है. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि
भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में सबसे बुरी तरह बिगड़ी है. अमरीका की अर्थव्यवस्था में जहां इसी तिमाही में 9.5 फ़ीसदी की गिरावट है, वहीं जापान की अर्थव्यवस्था में 7.6 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.

मित्रों, अर्थव्यवस्था के आंकड़ों के मामले में भारत की तस्वीर कुछ अलग है क्योंकि यहां अधिकतर लोग ‘अनियमित’ रोज़गार में लगे हैं जिसमें काम के लिए कोई लिखित क़रार नहीं होता और अकसर ये लोग सरकार के दायरे से बाहर होते हैं, इनमें रिक्शावाले, टेलर, दिहाड़ी मज़दूर और किसान शामिल हैं. अर्थशास्त्री मानते हैं कि आधिकारिक आंकड़ों में अर्थव्यवस्था के इस हिस्से को नज़रअंदाज़ करना होता है जबकि पूरा नुक़सान तो और भी अधिक हो सकता है. 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश की अर्थव्यवस्था कुछ ही सालों पहले 8 फ़ीसदी की विकास दर से बढ़ रही थी जो दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक थी. लेकिन कोरोना वायरस महामारी से पहले ही इसमें गिरावट शुरू हुई. उदाहरण के लिए पिछले साल अगस्त में कार बिक्री में 32 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई जो दो दशकों में सबसे अधिक थी. सोमवार को आए आंकड़ों में उपभोक्ता ख़र्च, निजी निवेश और आयात बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. व्यापार, होटल और ट्रांसपोर्ट जैसे क्षेत्र में 47 फ़ीसदी की गिरावट आई है. एक समय भारत का सबसे मज़बूत रहा निर्माण उद्योग 39 फ़ीसदी तक सिकुड़ गया है. सिर्फ़ कृषि क्षेत्र से ही अच्छी ख़बर आई है जो मानसून की अच्छी बारिश के कारण 3 फ़ीसदी से 3.4 फ़ीसदी के दर से विकसित हुआ है. 2019 में भारत की जीडीपी 2900 करोड़ की थी जो अमरीका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी. हालांकि, कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था 10 फ़ीसदी छोटी हो जाएगी. भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस की मार से पहले ही कमज़ोर हालत में थी लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन में मैन्युफ़ैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन जैसे उद्योगों पर बड़ा असर डाला और व्यावसायिक गतिविधियां तकरीबन ठप्प पड़ गईं. आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने इंटरव्यू के दौरान बेहद विश्वास से कहा था कि आरबीआई कमज़ोर आर्थिक स्थिरता या बैंकिंग प्रणाली को महामारी के झटके से बचा सकता है, इसमें अगले स्तर का आर्थिक प्रोत्साहन दिए जाने का अनुमान लगाया गया है. 

मित्रों, कई लोग अर्थव्यवस्था की बुरी हालत के लिए सीधे तौर पर भारत सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं जबकि वास्तविकता कुछ और ही है. मोटे तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट के दो कारण हैं। पहला कोरोना और दूसरा चीन के साथ चल रहा तनाव। हम सभी जानते हैं कि जब कोरोना महामारी का वैश्विक विस्फोट हुआ तब भारत ने अर्थव्यवस्था पर जनता की प्राणरक्षा को तरजीह दी। देहात में कहावत है जिंदा रहेंगे तो बकरी चराकर भी रह लेंगे। भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की जो स्थिति है उसमें पूर्ण लॉकडाऊन के सिवा सरकार के पास और कोई विकल्प भी नहीं था। जब कोरोना महामारी नियंत्रण में होगी और सबकुछ खुल जाएगा तो जीडीपी खुद ही दौड़ने लगेगी। दूसरी तरफ चीन पर हमारी अर्थव्यवस्था की निर्भरता के चलते भी जीडीपी पर बुरा असर पड़ा है। चीन हमारी इसी मजबूरी का फायदा उठाकर लद्दाख पर कब्जा करना चाहता है। जो चींजे या कच्चा माल भारत में पहले बनता था अब सस्ता होने के कारण चीन से आ रहा है। भारत को इस पर रोक लगानी होगी भले ही इससे तात्कालिक नुकसान हो। भारत सरकार ऐसा ही कर रही है इसलिए भी हमारी अर्थव्यवस्था दबाव में है। लेकिन यह दबाव या गिरावट तात्कालिक है क्योंकि जब सारी आर्थिक गतिविधियां ही रूक जाएगी तो अर्थव्यवस्था तो गिरेगी ही। फिर जब सबकुछ खुल जाएगा तो जीडीपी भी उडान भरने लगेगी. बस अगली तिमाही का इंतजार करिए.