मित्रों, मैं वर्तमान पकौड़ा-विमर्श को देखते हुए झूठ नहीं बोलूंगा कि मैं पकौड़ों से प्रेम नहीं करता हूँ लेकिन सच यह भी है कि जबसे मेरे शरीर के भीतर डाईबीटिज का बसेरा हुआ है प्रेम में कमी आ गई है. अगर पकौड़ा जरूरी है तो उससे ज्यादा जीना जरूरी है. धीरे-धीरे हालात इतने ख़राब हो गए हैं कि मैं पकौड़ों की तरफ देखना तो दूर, जुबाँ पर उसका नाम लेना तो दूर, उसका नाम भी नहीं सुनना चाहता.
मित्रों, मगर मुझे क्या पता था कि देश में कई दशकों से चल रहे दलित-विमर्श के स्थान पर पकौड़ा-विमर्श आरम्भ हो जाएगा और मुझे भी मजबूरन पकौड़ावादी बनना पड़ेगा. जो साहित्य किसी वाद का हिस्सा न हो अर्थात निर्विवाद हो वो कम-से-कम हिंदी वांग्मय में तो साहित्य कहला ही नहीं सकता. पहले राष्ट्रवाद आया, फिर छायावाद, फिर प्रगतिवाद, फिर नव प्रयोगवाद, फिर नई कहानी नई कविता, फिर उत्तरवाद और नव उत्तरवाद, फिर समकालीन साहित्य, फिर दलित साहित्य और अब पकौड़ावाद.
मित्रों, मैं अपने देश के प्रधानमंत्री जी का इस बात के लिए आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने सबका साथ सबका विकास के अपने मूलमंत्र पर चलते हुए निहायत उपेक्षित पकौड़े को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया. साथ ही उम्मीद करता हूँ कि वे भविष्य में भिक्षा और कटोरे का जिक्र करके कटोरावादी साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत का मार्ग भी प्रशस्त करेंगे. अगर वे ऐसा करते हैं तो हिंदी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा.
मित्रों, लेकिन हम अपने विमर्श को फ़िलहाल पकौड़ा साहित्य तक ही सीमित रखना चाहेंगे क्योंकि मैं वर्तमान में जीता हूँ. तो मैं कह रहा था कि मैं चाहता हूँ कि भविष्य में पकौड़े पर कविता, कहानी ही नहीं वरन महाकाव्य और उपन्यास भी लिखे जाएं. बल्कि मैं तो चाहता हूँ कि पकौड़ा साहित्य साहित्यिक आंदोलन का रूप ले और देश के निमुछिए से लेकर कब्र में पाँव डाल चुके साहित्यकार तक फिर चाहे वो किसी भी लिंग, वर्ग, प्रदेश या संप्रदाय का हो दशकों तक पकौड़ा साहित्य रचे. पकौड़ों पर थीसिस लिखे जाएं और पकौड़ों पर पीएचडी हो. जब रसगुल्ले को लेकर दो राज्य सरकारों में मुकदमेबाजी हो सकती है तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता? अभी दो दिन पहले मैंने प्रधानमंत्री निवास के निकटवर्ती लोक कल्याण मार्ग मेट्रो स्टेशन पर एक विचित्र मशीन को देखा. वो मशीन न केवल इच्छित स्टेशन के टोकन ही दे रही थी बल्कि पैसे काटकर वापस भी कर रही थी. अगर इसी तरह सरकारी सेवाओं का मशीनीकरण होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब कटोरावाद पकौड़ावाद का स्थान लेकर हिंदी साहित्य के कारवां को आगे बढ़ाएगा।
मित्रों, अंत में मैं एक भविष्यवाणी करना चाहूंगा. वो यह कि जिस तरह से आधार को ऑक्सफ़ोर्ड ने २०१७ का शब्द घोषित किया है मैं इस बात की अभी से ही मोदी जी की तरह जापानी ढोल पीटकर भविष्यवाणी कर सकता हूँ कि ऑक्सफ़ोर्ड इस चलंत साल यानि २०१८ का शब्द पकौड़ा को ही घोषित करेगा, करना पड़ेगा. अंत में मैं चाहूंगा कि आप भी दोनों मुट्ठी बंद कर जोरदार नारा लगाएं-जय पकौड़ा, जय पकौड़ावाद. इतनी जोर से कि हमारी आवाज पश्चिमी देशों तक पहुंचे और वहां भी पकौड़ावादी साहित्यिक आंदोलन शुरू हो जाए. कब तक हम साहित्यिक आंदोलनों के मामले में पश्चिम के पीछे चलेंगे? गाना तो बजाओ भाई मेरा देश बदल रहा है, पकौड़े तल रहा है.
मित्रों, मगर मुझे क्या पता था कि देश में कई दशकों से चल रहे दलित-विमर्श के स्थान पर पकौड़ा-विमर्श आरम्भ हो जाएगा और मुझे भी मजबूरन पकौड़ावादी बनना पड़ेगा. जो साहित्य किसी वाद का हिस्सा न हो अर्थात निर्विवाद हो वो कम-से-कम हिंदी वांग्मय में तो साहित्य कहला ही नहीं सकता. पहले राष्ट्रवाद आया, फिर छायावाद, फिर प्रगतिवाद, फिर नव प्रयोगवाद, फिर नई कहानी नई कविता, फिर उत्तरवाद और नव उत्तरवाद, फिर समकालीन साहित्य, फिर दलित साहित्य और अब पकौड़ावाद.
मित्रों, मैं अपने देश के प्रधानमंत्री जी का इस बात के लिए आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने सबका साथ सबका विकास के अपने मूलमंत्र पर चलते हुए निहायत उपेक्षित पकौड़े को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया. साथ ही उम्मीद करता हूँ कि वे भविष्य में भिक्षा और कटोरे का जिक्र करके कटोरावादी साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत का मार्ग भी प्रशस्त करेंगे. अगर वे ऐसा करते हैं तो हिंदी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा.
मित्रों, लेकिन हम अपने विमर्श को फ़िलहाल पकौड़ा साहित्य तक ही सीमित रखना चाहेंगे क्योंकि मैं वर्तमान में जीता हूँ. तो मैं कह रहा था कि मैं चाहता हूँ कि भविष्य में पकौड़े पर कविता, कहानी ही नहीं वरन महाकाव्य और उपन्यास भी लिखे जाएं. बल्कि मैं तो चाहता हूँ कि पकौड़ा साहित्य साहित्यिक आंदोलन का रूप ले और देश के निमुछिए से लेकर कब्र में पाँव डाल चुके साहित्यकार तक फिर चाहे वो किसी भी लिंग, वर्ग, प्रदेश या संप्रदाय का हो दशकों तक पकौड़ा साहित्य रचे. पकौड़ों पर थीसिस लिखे जाएं और पकौड़ों पर पीएचडी हो. जब रसगुल्ले को लेकर दो राज्य सरकारों में मुकदमेबाजी हो सकती है तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता? अभी दो दिन पहले मैंने प्रधानमंत्री निवास के निकटवर्ती लोक कल्याण मार्ग मेट्रो स्टेशन पर एक विचित्र मशीन को देखा. वो मशीन न केवल इच्छित स्टेशन के टोकन ही दे रही थी बल्कि पैसे काटकर वापस भी कर रही थी. अगर इसी तरह सरकारी सेवाओं का मशीनीकरण होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब कटोरावाद पकौड़ावाद का स्थान लेकर हिंदी साहित्य के कारवां को आगे बढ़ाएगा।
मित्रों, अंत में मैं एक भविष्यवाणी करना चाहूंगा. वो यह कि जिस तरह से आधार को ऑक्सफ़ोर्ड ने २०१७ का शब्द घोषित किया है मैं इस बात की अभी से ही मोदी जी की तरह जापानी ढोल पीटकर भविष्यवाणी कर सकता हूँ कि ऑक्सफ़ोर्ड इस चलंत साल यानि २०१८ का शब्द पकौड़ा को ही घोषित करेगा, करना पड़ेगा. अंत में मैं चाहूंगा कि आप भी दोनों मुट्ठी बंद कर जोरदार नारा लगाएं-जय पकौड़ा, जय पकौड़ावाद. इतनी जोर से कि हमारी आवाज पश्चिमी देशों तक पहुंचे और वहां भी पकौड़ावादी साहित्यिक आंदोलन शुरू हो जाए. कब तक हम साहित्यिक आंदोलनों के मामले में पश्चिम के पीछे चलेंगे? गाना तो बजाओ भाई मेरा देश बदल रहा है, पकौड़े तल रहा है.
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