शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
हिंदी भाषा अवनति अहै टेबुलायड को उन्नति को मूल
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम १५ अगस्त, १९४७ को राजनीतिक रूप से तो आजाद हो गए लेकिन मानसिक स्तर पर हम आज भी अंगेजी के गुलाम हैं.हम आज भी अपनी राष्ट्रभाषा में बोलने में शर्म महसूस करते हैं.आजादी के बाद हमारी सरकारें हिंदी को बढ़ावा देने का झूठा दिखावा करती रही.कभी इस दिशा में गंभीर प्रयास नहीं किया गया.फ़िर भी कम-से-कम हिंदी के समाचार-पत्रों ने शुद्ध मन से इस दिशा में अपना प्रयास जारी रखा.उन्होंने बेशक लम्बे समय तक हिंदी की सेवा की.लेकिन नई शताब्दी आने तक इनकी बागडोर युवाओं के हाथों में आ चुकी थी जिनमें से अधिकतर अमेरिका/यूरोप रिटर्न थे और उनका हिंदी और हिंदी की उन्नति से कोई लेना-देना नहीं था.दूसरी तरफ पूरी दुनिया में एल.पी.जी. यानी लिब्रलाईजेशन ,प्राइवेटाईजेशन और ग्लोबलाइजेशन की धूम मची थी.पैसा भगवान बन चुका था.सारे सामाजिक मानदंड बदल चुके थे.आदर्शवाद अब सिर्फ किताबों में शोभा पा रही थी.अख़बार भी अब मिशन नहीं रह गए थे और विशुद्ध रूप से धंधा का रूप ले चुके थे.उनका उद्देश्य अब समाज या हिंदी की सेवा करना नहीं बल्कि सिर्फ पैसा कमाना रह गया था.उनकी इसी धनलोलुपता ने उनसे शुरू करवाया टेबुलायड अख़बारों का प्रकाशन.उनका मानना है कि अगर हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित भाषा में अख़बार निकले जाएँ तो ज्यादा-से-ज्यादा युवाओं को आकर्षित किया जा सकता है.इस तरह हिंदी क्षेत्रों में एक अजीब सी खिचड़ी भाषा का प्रचार शुरू कर दिया गया है और वह भी संस्थागत रूप से.निश्चित रूप से यह हिंदी के लिए नुकसानदेह और अंग्रेजी के लिए लाभकारी होने जा रहा है.कुछ लोग इसका इस आधार पर समर्थन कर रहे हैं कि भाषा को चलायमान रहना चाहिए लेकिन मैं पूछता हूँ कि हिंदी बहुप्रचलित शब्दों के बदले जबरन अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग क्यों किया जा रहा है.हाथी को एलेफैन्त और टोकरी को बास्केट,मैदान को फील्ड कहने से कैसे हिंदी का भला हो रहा है?क्या हिंदीभाषी युवा इन शब्दों के अर्थ रातों-रात भूल गए हैं?इसे जो बिकता है वो दिखता है के फार्मूले पर सही साबित करने की कोशिश की जा रही है.यह प्रवृत्ति भी गलत तर्कों पर आधारित है.हिंदी में तो सस्ते और अश्लील साहित्य का भी अपना पाठक वर्ग रहा है.अन्तर्वासना जैसी वेबसाइटें काफी लोकप्रिय रहीं हैं तो अख़बारवाले क्यों नहीं ऐसे साहित्य बेचते?अगर यह अनैतिक है तो फ़िर हिंदी के साथ सरेआम बलात्कार करना कैसे नैतिक है?जिस हिंदी की ये अखबारवाले लम्बे समय से खाते रहे हैं अब उसी (थाली) में छेद कर रहे हैं और वो भी धूम-धाम से.चाहे इनके जो भी तर्क-कुतर्क हों इन्होंने जिस हिंदी से कभी बिल गेट्स ने खतरा जताया था उस लगातार मजबूत हो रही हिंदी को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है इसमें कोई संदेह नहीं.मैं युवाओं सहित सभी हिंदीभाषियों को सचेत करना चाहूँगा कि इनके नापाक मंसूबों को सफल नहीं होने दीजिये अन्यथा हिंदी संस्कृत आधारित भाषा के बदले अंग्रेजी आधारित भाषा बनकर रह जाएगी और हम भविष्य में इस बात पर गर्व नहीं कर पाएँगे कि हमारी संस्कृति दुनिया की सबसे पुरानी जीवित संस्कृति है.वास्तव में जो संस्कृति-विनाश का काम अंग्रेज अपने २०० सालों के शासन में नहीं कर सके उसी काम का बीड़ा टेबुलायड अख़बारों ने,हमारे कुछ धनपशु भाइयों ने उठा लिया है.सावधान!
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