बुधवार, 29 दिसंबर 2021
नमामि गंगे के नाम पर हाजीपुर से धोखा?
मित्रों, हाजीपुर के लिए बरसात में जलजमाव की समस्या कोई नहीं बात नहीं है. पहले भी शहर को इस समस्या से मुक्त कराने के दावे किए गए हैं. योजनाएं बनी हैं लेकिन नतीजा सिर्फ सिफर रहा है. साल २०१३-१४ में भी घरों से रोजाना निकलनेवाले गंदे पानी की निकासी के नाम पर जमकर पैसा बनाया गया. किसी ट्राईटेक कम्पनी को ठेका दिया गया था. १२० करोड़ की योजना थी लेकिन उसकी द्वारा बिछाए गए पाइप से एक बूंद पानी नहीं निकला. बाद में उस टेंडर का क्या हुआ मैं नहीं बता सकता.
मित्रों, फिर आया २०२१ का साल. मई के अंतिम सप्ताह से जो बरसात शुरू हुई अक्तूबर तक रुकी ही नहीं. पूरे उत्तर बिहार में जल प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गई. हाजीपुर की स्थिति तो कुछ ज्यादा ही नारकीय हो गई. फिर सड़कों और घरों से पानी निकालने और डूबी हुई सडको पर ईंटों के टुकड़े गिराने का खेल शुरू हुआ.
मित्रों, भयंकर बरसात से लाभ यह हुआ कि अब फिर से एक बार हाजीपुर के घरों से जल-निकासी प्रणाली विकसित करने के लिए योजना बनने लगी. इस बार इसका जिम्मा नमामि गंगे और एक गुजरती कंपनी को दिया गया और इस बार बजट भी बढाकर ३१६ करोड़ का कर दिया गया.
मित्रों, इस बीच २७ और २८ अक्तूबर को हमारी गली जो वैशाली महिला थाना के ठीक पीछे है में सड़क को खोदकर चेंबर बनाया गया और उसको पाइप से ट्राईटेक द्वारा पूर्व में बनाए गए चेंबर से जोड़ दिया गया. लेकिन उसके बाद से आज तक हमारी गली के निवासी इंतजार कर रहे हैं क्योंकि गली के सिर्फ चार घरों के आगे ही सड़क खोदने और चेम्बर बनाने का काम किया गया जबकि चार घर बचे रह गए.
मित्रों, हाजीपुर के विधायक अवधेश सिंह जी का कहना है कि काम २४ महीने में पूरा होना है और उसके बाद १५ सालों तक रख-रखाव का काम भी उसी कंपनी को करना है जो इस काम को करने जा रही है लेकिन जिस तरीके से काम हो रहा है उससे फिर से हाजीपुर के जनमानस के मन में सन्देश उत्पन्न हो रहा है कि क्या यह काम कभी पूरा भी होगा या फिर जिस तरह २०१३-१४ में काम अधूरा रह गया था उसी तरह से अधूरा रह जाएगा? दुर्भाग्य की बात यह है कि इस बार भी अगर घोटाला होता है तो वो गंगा माँ के नाम पर होगा क्योंकि इस बार योजना के लिए राशि का आवंटन बहुचर्चित नमामि गंगे के तहत किया गया है.
शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021
अगर योगी हार गए!
मित्रों, आपने भी पढ़ा होगा कि ईसा से ३२६ साल पहले भारत पर सिकंदर ने हमला किया था लेकिन वो पंजाब तक भी नहीं पहुँच सका था क्योंकि तब भारतीयों को अहिंसा की बीमारी नहीं लगी थी. सिकंदर को एक-एक ईंच जमीन के लिए उसी तरह लड़ना पड़ा था जैसे कालांतर में पूरे यूरोप पर कब्ज़ा करनेवाले नेपोलियन को स्पेन में एक-एक ईंच के लिए जूझना पड़ा था. परिणाम यह हुआ कि जो सिकंदर मस्तक गर्वोन्नत करके तूफ़ान की तरह भारत आया था बगुले की तरह सर झुकाए अपने देश लौट गया. फिर उसके कुछ ही समय बाद सिकंदर के सेनापति रहे सेल्यूकस ने भारत पर आक्रमण किया लेकिन उसे करारी हार का सामना करना पड़ा क्योंकि तब उसे पहले से भी ज्यादा जनप्रतिरोध का सामना करना पड़ा था. फिर कई दशकों के बाद मगध के सिंहासन पर सम्राट अशोक बैठे जिन्होंने बौद्धों के बहकावे में आकर देश की जनता को अहिंसा की घुट्टी जमकर पिलाई. परिणाम यह हुआ कि उसकी मृत्यु के बाद भारत छोटे-मोटे आक्रमणों का भी जवाब नहीं दे पाया और अंततः ११९२ में दिल्ली पर मुसलमानों का कब्ज़ा हो गया. फिर सैंकड़ों सालों तक हिन्दुओं का नरसंहार और मंदिरों का विध्वंस चलता रहा. ज्यादातर हिन्दू कोऊ नृप होए हमें का हानि के मूलमंत्र पर चलते रहे. कुछेक क्षेत्रों में जैसे मालवा, राजस्थान, पूर्वोत्तर भारत, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र आदि में यद्यपि हिन्दुओं ने कभी हिम्मत नहीं हारी लेकिन आक्रमणकारियों को वो देश से बाहर नहीं निकाल पाए.
मित्रों, फिर आया २३ जून, १७५७ का दिन. बंगाल के प्लासी में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना आमने-सामने थी. जितने लोग लड़ रहे थे उससे कई गुना लोग दर्शक बनकर उपस्थित थे. देश के भाग्य का फैसला हो रहा था लेकिन लोगों के लिए जैसे यह कोई तमाशा था. फिर भगदड़ मची और सिराज के अधिकतर सैनिकों ने पाला बदल लिया. कुछ सौ अंग्रेज भारतीयों के लालच और भारतीय जनता की तटस्थता से लाभ उठाकर पूरे बंगाल, उड़ीसा और बिहार पर अधिकार कर चुके थे. उपस्थित जनता अपने ही नवाब की सेना के हारने पर ख़ुशी मना रही थी.
मित्रों, कुछ महीने बाद ही भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाला है. यह चुनाव एक चुनाव मात्र नहीं है समझिए प्लासी की तरह भारत के भविष्य का निर्णय करनेवाला युद्ध है. इसमें एक तरफ वे लोग हैं जो हिन्दू धर्म के उन्नायक हैं, हिन्दू धर्म और राष्ट्र के प्रति समर्पित हैं, जो हिन्दू धर्म के गौरव की पुनर्स्थापना में लगे हुए हैं वो वहीँ दूसरी ओर वे लोग हैं जो हिन्दुओं और हिंदुत्व के धुर विरोधी हैं, जिनके माथे पर हिन्दू साधू-सन्यासियों पर भी गोली चलवाने कलंक है. कहने का मतलब यह है कि एक तरफ हिन्दुओं की पार्टी है तो दूसरी तरफ मुसलमानों की.
मित्रों, इन दिनों ओवैसी जैसे कई नेता अपने भाषणों में यूपी पुलिस तक को धमका रहे हैं कि योगी को हारने दो फिर तुम्हें बताएंगे. मतलब जब पुलिस को धमका रहे हैं तो आम हिन्दुओं का ये लोग क्या करेंगे इसको बंगाल की चुनाव बाद की स्थिति को देखकर आसानी से समझा जा सकता है. इन दिनों पंजाब में भी हिन्दुओं की मोब लिंचिंग होने लगी है. केरल की दशा पहले से ही ख़राब है और कश्मीर में आज भी ३२ साल पहले भगा दिए गए अभागे हिन्दू अपने घर वापस नहीं लौट सके हैं. हो सकता है कि यूपी में कहीं-कहीं रोड टूटी हुई है जो बनाई जा सकती है और बनाई भी जाएगी लेकिन अगर आपको कल घर छोड़ना पर गया तो आप न जाने कहाँ-कहाँ दर-दर की ठोकरें खाते फिरेंगे. मैंने दिल्ली में विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं का दर्द देखा है.
मित्रों, इस्लाम धर्म नहीं है सेना है, मार्शल कौम है जबकि हम हिन्दुओं को तो सिर्फ प्रशासन का ही भरोसा है. भगवान न करें अगर कल उत्तर प्रदेश में सरकार बदल जाती है और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन जाता है तो निश्चित रूप से एक बार फिर से मुसलमानों का राज हो जाएगा. मैं लम्बे समय तक मुज़फ्फरनगर में रहा हूँ और जानता हूँ कि वहां दंगे हुए नहीं थे करवाए गए थे और इसलिए करवाए गए थे ताकि हिन्दुओं को उनके घरों से भगाया जा सके और उनको इसलिए दण्डित किया जा सके क्योंकि वे हिन्दू हैं. बाद में २०२० में हुए दिल्ली के दंगों के बारे में भी कोर्ट इसी निष्कर्ष पर पहुंची है.
मित्रों, ऐसा भी नहीं है कि योगी राज में बिल्कुल भी काम नहीं हुआ हो. कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधरी है, बिजली पहले आती नहीं थी अब जाती नहीं है, पूँजी निवेश बढा है. महंगाई भी अब कम हो रही है. प्रशासनिक भ्रष्टाचार घटा है और सबसे बढ़कर राम मंदिर का निर्माण आरम्भ हुआ है और काशी विश्वनाथ कोरिडोर का भव्य निर्माण हुआ है. इन सबसे बढ़कर एक आम हिन्दू का मनोबल बढा है.
मित्रों, इतना ही नहीं अगर आज हम यूपी हारते हैं तो कल पूरा भारत हार जाएँगे क्योंकि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है. अगर हम २०२२ में यूपी में भाजपा को हरा देते हैं तो निश्चित रूप से २०२४ में मोदी प्रधानमंत्री नहीं रह जाएंगे और उनकी जगह अजीबोगरीब संकर नस्ल का मंदबुद्धि जिसे हिन्दुओं से सख्त नफरत है प्रधानमंत्री बन जाएगा. फिर न जाने कब दिल्ली की गद्दी पर कोई भगवा परचम लहराने वाला वीर बैठेगा? ११९२ के बाद २०१४ आने में सदियाँ बीत गईं आगे शायद वो दिन कभी आए भी या नहीं आए. वैसे भी न तो मोदी और न ही योगी का परिवार है जो उनको चुनाव हारने से व्यक्तिगत या पारिवारिक नुकसान हो जाएगा.
रविवार, 12 दिसंबर 2021
टापी से महासागर में मछली पकड़ रहे नीतीश जी
मित्रों, उन दिनों हम अपनी नानी के गाँव वैशाली जिले के महनार थाने के जगन्नाथपुर में रहते थे. जब गाँव में बाढ़ का पानी आता तो हम बच्चे रात में टापी लेकर मछली पकड़ने निकलते. रोशनी के लिए साईंकिल के पुराने टायरों को जलाया जाता. टापी बांस की एक लम्बी बेलनाकार टोकरी होती है जिसका निचला सिरा ऊपर वाले सिरे से ज्यादा चौड़ा होता है. रात में कई मछलियाँ किनारे में उथले पानी में आ जाती थीं. हम टापी को उसके ऊपर डाल देते और फिर ऊपर से हाथ घुसाकर पकड़ लेते. इस तरह कुछेक मछली हमारे हाथ लग जाती बांकी आवाज सुनकर गहरे पानी में भाग जाती.
मित्रों, इन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी भी टापी लेकर भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों का शिकार करने निकले हैं. कभी उनका निगरानी विभाग आरा में किसी राजस्व कर्मी को घूस लेते पकड़ लेता है तो कभी हाजीपुर में किसी श्रम प्रवर्तन अधिकारी को, तो कभी बेतिया में किसी को पकड़ा जाता है तो कभी मधेपुरा में. मतलब नीतीश जी की सरकार टापी लेकर महासागर में मछली पकड़ने निकली है. कम-से-कम उसके पास जाल तो होना चाहिए जिससे एक बार में सामूहिक रूप से कई सारी मछलियाँ पकड़ी जातीं.
मित्रों, कहने की जरुरत नहीं कि बिहार का ऐसा कोई विभाग नहीं है जहाँ बिना रिश्वत दिए काम होता हो. यही कारण है कि बिहार के लोग गरीब होते जा रहे हैं और सरकारी अधिकारी और कर्मचारी धनकुबेर. इस सन्दर्भ में मुझे एक लोककथा का उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता है. उस लोककथा में एक राजा के घोड़े दुबले होते जा रहे थे जबकि उनकी देखभाल के लिए नियुक्त किए गए अधिकारी और कर्मचारी मोटे और मोटे होते जा रहे थे. राजा घोड़ों के खाने के लिए काजू-बादाम भेजता फिर भी घोड़ों का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था. लेकिन इतनी-सी बात नीतीश जी की समझ में नहीं आ रही. यही कारण है कि उनके शासन में बिहार उड़ीसा को पछाड़ कर भारत का सबसे गरीब राज्य बन गया.
मित्रों, सच्चाई तो यही है कि हाजीपुर के श्रम प्रवर्तन पदाधिकारी दीपक शर्मा तो क्या कोई भी अधिकारी-कर्मचारी वार्षिक संपत्ति विवरण में सही विवरण नहीं देता. ऐसे में टापी से मछली पकड़ने से काम नहीं चलनेवाला, तालाब में मछली पकड़ने के काम आनेवाले जाल से भी काम नहीं चलनेवाला. गंगा में मछली पकड़ने के काम आनेवाला महाजाल भी बेकार साबित होगा. आखिर बिहार सरकार भ्रष्टाचार की महासागर जो ठहरी. इसके लिए तो प्रशांत महासागर में मछली पकडनेवाला जापानी जहाज चाहिए होगा. सवाल यह भी उठता है कि कोई बिल्ली अपने ही गले में घंटी बांधेगी क्या? क्योंकि व्यापक पैमाने पर जांच होने पर निश्चित रूप से कई सारे नेता भी पकडे जाएँगे. इतना बड़ा भ्रष्ट तंत्र बिना मंत्री-मुख्यमंत्री-नेता की सहमति के तो चल ही नहीं सकता. फिर नेता लोग भी चुनाव में नामांकन के समय अपने और अपनी संपत्ति के बारे में कौन-सा सही विवरण देते हैं.
गुरुवार, 9 दिसंबर 2021
बिहार में पुलिस राज?
मित्रों, मुझे पूरा विश्वास है कि आपने भी करीब डेढ़ सौ साल पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखित अंधेर नगरी नाटक जरूर पढ़ा होगा. इसमें फांसी का फंदा पहले तैयार कर लिया जाता है फिर बाद में उस नाप की गर्दन वाले को ढूंढकर फांसी दे दी जाती है.
मित्रों, अगर मैं कहूं कि बिहार में भी इन दिनों अंधेर नगरी चौपट राजा वाली हालत है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. नीतीश जी ने वादा तो सुशासन का किया था लेकिन इनके राज में लोकतंत्र पूरी तरह से लूट तंत्र में बदल गया. वैसे मैं आज सिर्फ बिहार पुलिस की बात करूंगा. लालू राज में जहाँ पुलिस की कोई वैल्यू नहीं थी आज पुलिस ही सबकुछ है, पर ब्रह्म है. लालू राज में जहाँ गुंडे जनता को लूटते थे आज पुलिस लूट रही है. सियासतदानों को हरिजनों को लूटना था तो हरिजन थाना बना दिया, महिलाओं को लूटना था तो महिला थाना बना दिया और आम आदमी को लूटने के लिए तो अंग्रेजी राज के थाने हैं हीं जो अंग्रेजी क़ानून से देसी जनता को आज भी लूट रहे हैं.
मित्रों, हुआ यह है कि बिहार के वैशाली जिले के देसरी थाना के भिखनपुरा, कुबतपुर टोले में एक पुलिसकर्मी हैं उदय सिंह जो मोसद्दी सिंह के पुत्र हैं. पहले उनकी माली हालत काफी ख़राब थी. फिर किसी तरह से वो बिहार पुलिस में सिपाही बन गए. आज कल पटना उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के बॉडी गार्ड हैं. नौकरी के बाद जब पैसा आया तो उदय सिंह जी ने गाँव में आलीशान घर बनवाया. फिर पूरे गाँव में सिर्फ उनके ही घर में कथित रूप से बार-बार चोरी होने लगी और उदय हर बार अपने किसी-न-किसी दुश्मन को चोरी के इल्जाम में जेल भिजवाने लगे. मतलब कि घर न हुआ गाँव में अपने दुश्मनों से बदला लेने का फंदा हो गया. अभी कुछ दिन पहले उनके घर का ताला किसी ने काट दिया लेकिन घर में घुस नहीं पाया. फिर भी उदय सिंह ने अपने रसूख का प्रयोग कर अपने एक पडोसी राहुल कुमार, वल्द श्री जीतेन्द्र कुमार सिंह उर्फ़ पलट सिंह को जेल भिजवा दिया. इससे पहले पुलिस ने राहुल के घर की तलाशी भी ली लेकिन कुछ नहीं मिला क्योंकि कुछ चोरी हुआ ही नहीं था. फिर भी पूरे गाँव के विरोध के बावजूद राहुल अभी हाजीपुर जेल में है. बेचारा उदय सिंह से बार-बार पूछता रहा कि चाचा आपका क्या चोरी हुआ है लेकिन उदय ने इसका कोई जवाब नहीं दिया. अगर वो चोर होता तो गाँव छोड़कर भाग गया होता लेकिन यहाँ तो बात ही कुछ और थी. अंधेर नगरी नाटक की तरह इस बार फांसी के फंदे में उसकी गर्दन आनी थी. फंदा जान-बूझकर उनकी गर्दन की माप का बनाया गया था.
मित्रों, हमने नीतीश जी को उनके शासन की शुरुआत में ही कहा था कि आप नौकरशाही को बढ़ावा मत दीजिए. उनके अधिकारों को कम करिए, बढ़ाईए नहीं लेकिन नीतीश जी तो आज भी यूनानी कथा नायक नारसिसस की तरह आत्ममुग्धता के शिकार हैं. सो उन्होंने पुलिस के अधिकारों को कम करने के बदले और बढ़ा दिया. अब बिहार पुलिस औरंगजेब काल के मुहतसिब की तरह किसी के भी घर में कभी भी घुस सकती है यहाँ तक कि शादी-समारोह में वधु के कमरे में भी.
मित्रों, पिछले दिनों मुज़फ्फरनगर के श्रीराम कॉलेज की एक शिक्षिका ने मुझे बताया कि उनके पति जो सरकारी इंजीनियर हैं का तबादला बिहार हो गया था तब उन्होंने काफी प्रयास करके उनका तबादला रूकवाया क्योंकि उनके पति बिहार जाने से डर रहे थे. अभी मुज़फ्फरनगर के ही मेरे एक शिष्य ने मुझे फोन कर पूछा कि उसने बिहार में डाकिये की नौकरी के लिए आवेदन दिया है, क्या उसने ठीक किया? क्योंकि उसने सुन रखा है कि बिहार में घुसते ही लूट लिया जाता है. उसने यह भी कहा कि उसने सुना है कि अपराधियों से अगर बच गए तो बिहार पुलिस लूट लेती है.
मित्रों, मैं सन्न था कि बिहार के बाहर बिहार की छवि आज भी वही है जो लालू राज में थी. जब बिहार में दूसरे राज्य के लोग एक रात के लिए भी आना नहीं चाहते तो पूँजी निवेश क्या खाक करेंगे? दरअसल बिहार में घटनेवाली घटनाएँ बताती हैं कि बिहार में संवैधानिक शासन है ही नहीं बल्कि पुलिस राज है. जब यहाँ की पुलिस जज के कमरे में घुसकर उनकी पिटाई कर सकती है तो फिर आम जनता की औकात ही क्या?
मित्रों, इन्कलाब फिल्म में नायक ने दारोगा बनने के बाद अपने मोहल्ले के लोगों को आश्वस्त किया था कि मैं तो बन गया थानेदार भैया अब डर काहे का लेकिन आज जब बिहार में कोई दारोगा तो क्या सिपाही भी बनता या बनती है तो उनके पडोसी डर-सहम जाते हैं कि न जाने वो अब से वर्दी के नशे में उनको किस-किस तरह परेशान करेगा या करेगी. महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपनी सबसे प्रसिद्ध कविता राम की शक्ति पूजा में सिंह को शक्ति यानि बल और दुर्गा माता को जन रंजन यानि जन कल्याण चाहने वाला जनता का प्रतिनिधि कहा है और कहा है कि शक्ति को हमेशा जन-रंजन-चरण- तले होना चाहिए लेकिन बिहार में तो सिंह यानि नौकरशाही ने राक्षसों के बजाए जनता को ही मारना और खाना शुरू कर दिया है. बिहार के डीजीपी ने २९ मई, २०२१ को आदेश भी निकाला कि दहेज से जुड़े मामले और सात साल से कम सजा वाले मामलों में गिरफ्तारी की बजाए पहले सीआरपीसी की धारा 41 के प्रावधानों के तहत गिरफ्तारी की आवश्यकता के विषय में पुलिस अधिकारी को संतुष्ट होना होगा। इसके अलावा कोर्ट के सामने गिरफ्तार आरोपी की पेशी के समय गिरफ्तारी का कारण और सामग्री पेश करनी होगी लेकिन अराजक शासन में कोई कहां किसी की सुनता है इसलिए आज राहुल कुमार बेवजह जेल में है.
मित्रों, बिल्ली के पास दूध की रक्षा का अधिकार पहले से ही था। अब रोटी-मांस वगैरह की निगरानी भी उसके जिम्मे कर दी गई है. अब बालू की तस्करी भी बिहार पुलिस ही रोक रही है. साथ ही शराबबंदी लागू करना भी उसकी ही महती जिम्मेदारी है. यहाँ तक कि डीजीपी भी कचरे के ढेर में खाली बोतल तलाशते फिर रहे हैं.
मित्रों, बड़े ही दुःख के साथ एक बार फिर से कहना पड़ रहा है कि नीतीश जी मार्ग से भटक गए हैं. उनको बिहार की जनता ने प्रशासन में सुधार लाने के लिए मुख्यमंत्री बनाया था लेकिन वो अपना असली काम छोड़कर समाजसुधारक बन गए है जबकि इस काम करने के लिए बहुत सारे समाजसेवी पहले से ही प्रदेश में मौजूद हैं. नीतीश जी को जनता और नौकरशाहों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाकर रखना था लेकिन उन्होंने नौकरशाहों को इतने व्यापक अधिकार दे दिए कि अब वो खुद नीतीश जी की भी नहीं सुनते हैं. इस मामले में सुरेन्द्र शर्मा जी की एक कविता बड़ी ही प्रासंगिक सिद्ध होती है.
कोई फर्क नहीं पड़ता
इस देश में राजा कौरव हो या पांडव,
जनता तो बेचारी द्रौपदी है
कौरव राजा हुए तो चीर हरण के काम आएगी
और पांडव राजा हुए तो जुए में हार दी जाएगी।
बिहार की जनता को भी नीतीश नौकरशाही रूपी कौरवों के हाथों हार चुके हैं फिर चीर हरण तो होना ही है.
सोमवार, 22 नवंबर 2021
तरक्की पर है भ्रष्टाचार कि जनता सिसक रही है
तरक्की पर है भ्रष्टाचार
लुटेरी हो गई हर सरकार
लोकतंत्र हो गया है लाचार
कि जनता सिसक रही है।
होना था जहाँ पर इंसाफ
होता है वहां सात खून माफ़
रक्षक बन गए भक्षक
हर ऑफिस में है लूट-मार
हैं फूल भी अब अंगार
हफ्ता मांगे थानेदार
कि जनता सिसक रही है.
बिल्ली का है दूध पे पहरा
ऐसा क्यूं है राज है गहरा
कुछ अखबार मालिक हैं बाजारी
है जिनकी कलम भी लालच की मारी
जो हैं खबरों के व्यापारी
सच्चे पत्रकार झेलें बेकारी
न छीनो जीने का अधिकार
खून से मत छापो अखबार
कि जनता सिसक रही है.
चमका है मजहब का धंधा
कुछ आतंकी कर रहे काम गन्दा
करते हैं सियासत मौलाना
गातें है पाकिस्तान का गाना
गुंडे तो गुंडे नेता भी हुए खूंखार
पूर्वजों ने जो दिया हर बार
हुआ उनका बलिदान बेकार
कि जनता सिसक रही है.
बुधवार, 17 नवंबर 2021
दुर्योधन, अर्जुन और नई श्रीमदभगवदगीता
मित्रों, एक बार एक पिता जी अपने महाधर्मनिरपेक्ष बेटे को कुछ समझाते हुए महाभारत का उदाहरण दे रहे थे. बेटा! संघर्ष को जहाँ तक हो सके, रोकना चाहिए. महाभारत से पहले कृष्ण भी गए थे दुर्योधन के दरबार में यह प्रस्ताव लेकर कि हम युद्ध नहीं चाहते. तुम पूरा राज्य रखो. पाँडवों को सिर्फ पाँच गाँव दे दो. वे चैन से रह लेंगे, तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे. बेटे ने पूछा पर इतना अव्यवहारिक प्रस्ताव लेकर कृष्ण गए ही क्यों थे? अगर दुर्योधन प्रस्ताव को मान लेता तो?
मित्रों, पिता ने कहा कि नहीं मानता और हरगिज नहीं मानता. कृष्ण को पता था कि वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि यह उसके मूल चरित्र के विरुद्ध होता. बेटे की उत्सुकता बढती जा रही थी. उसने पूछा फिर कृष्ण ऐसा प्रोपोजल लेकर गए ही क्यों थे? पिता ने बताया वे तो सिर्फ यह सिद्ध करने गए थे कि दुर्योधन कितना धूर्त, कितना अन्यायी था. वे पाँडवों को सिर्फ यह दिखाने गए थे कि देख लो बेटा.युद्ध तो तुमको लड़ना ही होगा हर हाल में.अब भी कोई शंका है तो निकाल दो मन से. तुम कितना भी संतोषी हो जाओ. कितना भी चाहो कि घर में चैन से बैठूँ. दुर्योधन तुमसे हर हाल में लड़ेगा ही. लड़ना या न लड़ना तुम्हारा विकल्प नहीं है. बेटा फिर भी बेचारे अर्जुन को आखिर तक शंका रही. सब अपने ही तो बंधु बांधव हैं.
मित्रों, फिर पिताजी ने आगे बताया कि कृष्ण ने अठारह अध्याय तक फंडा दिया. फिर भी शंका थी. ज्यादा अक्ल वालों को ही ज्यादा शंका होती है ना! दुर्योधन को कभी शंका नहीं थी.उसे हमेशा पता था कि उसे युद्ध करना ही है. उसने गणित लगा रखा था.
मित्रों, यह तो आपलोग समझ ही गए होंगे कि इस कथा के दोनों पात्र बाप-बेटे हिन्दू थे क्योंकि धर्मनिरपेक्ष सिर्फ हिन्दू होते हैं. दूसरे मजहब वाले तो सिर्फ शर्मनिरपेक्ष होते हैं. पिताजी ने आगे बेटे को समझाया कि बेटे हम हिन्दुओं को भी समझ लेना होगा कि संघर्ष होगा या नहीं, यह विकल्प आपके पास नहीं है. आपने तो पाँच गाँव का प्रस्ताव भी देकर देख लिया. देश के दो टुकड़े मंजूर कर लिए. उसमें भी हिंदू ही खदेड़ा गया अपनी जमीन जायदाद ज्यों की त्यों छोड़कर. फिर हर बात पर विशेषाधिकार देकर भी देख लिया. हज के लिए सब्सिडी देकर देख ली, उनके लिए अलग नियम कानून (धारा 370) बनवा कर देख लिए, अलग पर्सनल लॉ देकर भी देख लिया. आप चाहे जो कर लीजिए, उनकी माँगें नहीं रुकने वाली. उन्हें सबसे स्वादिष्ट उसी गौमाता का माँस लगेगा जो आपके लिए पवित्र है. इसके बिना उन्हें भयानक कुपोषण हो रहा है. उन्हें सबसे प्यारी वही मस्जिदें हैं, जो हजारों साल पुराने आपके ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़ कर बनी हैं. उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी उसी आवाज से है जो मंदिरों की घंटियों और पूजा-पंडालों से आती हैं. ये माँगें गाय को काटने तक नहीं रुकेंगी. यह समस्या मंदिरों तक नहीं रहने वाली. धीरे-धीरे यह हमारे घर तक आने वाली है. हमारी बहू-बेटियों तक आने वाली है. अब का नया तर्क है कि तुम्हें गाय इतनी प्यारी है तो सड़कों पर क्यों घूम रही है ? हम तो काट कर खाएँगे. हमारे मजहब में लिखा है. कल कहेंगे कि तुम्हारी बेटी की इतनी इज्जत है तो वह अपना खूबसूरत चेहरा ढके बिना घर से निकलती ही क्यों है? हम तो उठा कर ले जाएँगे.
मित्रों, अनुभवी पिता ने अनुभवहीन पुत्र से कहा कि उन्हें समस्या गाय से नहीं है, हमारे अस्तित्व से है. तुम जब तक हो उन्हें तुमसे कुछ ना कुछ समस्या रहेगी. इसलिए हे अर्जुन!! और कोई शंका मत पालो. कृष्ण घंटे भर की क्लास बार-बार नहीं लगाते. 25 साल पहले कश्मीरी हिन्दुओं का सब कुछ छिन गया. वे शरणार्थी कैंपों में रहे पर फिर भी वे आतंकवादी नहीं बने. जबकि कश्मीरी मुस्लिमों को सब कुछ दिया गया. वे फिर भी आतंकवादी बन कर जन्नत को जहन्नुम बना रहे हैं। पिछले सालों की बाढ़ में सेना के जवानों ने जिनकी जानें बचाई वो उन्हीं जवानों को पत्थरों से कुचल डालने पर आमादा हैं. पुत्र इसे ही कहते हैं संस्कार. ये अंतर है धर्म और मजहब में. एक जमाना था जब लोग मामूली चोर के जनाजे में शामिल होना भी शर्मिंदगी समझते थे. और एक ये गद्दार और देशद्रोही लोग हैं जो खुलेआम पूरी बेशर्मी से एक आतंकवादी के जनाजे में शामिल होते हैं. सन्देश साफ़ है कि एक कौम देश और दुनिया की तमाम दूसरी कौमों के खिलाफ युद्ध छेड़ चुकी है. अब भी अगर आपको नहीं दिखता है तो. यकीनन आप अंधे हैं या फिर शत-प्रतिशत देशद्रोही. आज तक हिंदुओं ने किसी को हज पर जाने से नहीं रोका. लेकिन हमारी अमरनाथ यात्रा हर साल बाधित होती है. फिर भी हम ही असहिष्णु हैं!? ये तो कमाल की धर्मनिरपेक्षता है! इसलिए हे अर्जुन, संगठित होओ, सावधान रहो तभी जीवित और सुरक्षित रहोगे.
शनिवार, 13 नवंबर 2021
भारत आंशिक रूप से मुस्लिम राष्ट्र है
मित्रों, क्या आप किसी देश में वैसा होने की सोंच भी सकते हैं जैसा कि भारत में हुआ. जिस देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हुआ उस देश में उन्हीं बहुसंख्यकों को संवैधानिक तौर पर दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया जिनकी पाकिस्तान के नाम पर न सिर्फ लाखों वर्ग किमी जमीन छीन ली गयी बल्कि लाखों की संख्या में कत्लेआम हुआ. और यह सब हुआ उस आदमी के नाम पर जो बस नाम का हिन्दू था. उसका नाम था मोहन दास करमचंद गाँधी. और हुआ भी उस आदमी की हाथों जो खुद को शिक्षा से ईसाई, संस्कृति से मुस्लिम और दुर्भाग्य से हिन्दू कहता था. यानि कथित पंडित जवाहर लाल नेहरु.
मित्रों,अब जब गुरु-चेले दोनों हिन्दुओं से वैरभाव रखते हों तो विचित्र संविधान का निर्माण तो होना ही था. मैं दावे के साथ कहता हूँ कि ऐसा किसी देश के संविधान में नहीं लिखा गया है कि बहुसंख्यक अपने स्कूलों में अपने धर्मग्रंथों का पठन-पाठन नहीं कर सकते लेकिन अल्पसंख्यक ऐसा कर सकते हैं. इतना ही नहीं कानून बनाकर मुसलमानों को जमकर बच्चे पैदा करने की छूट दी गयी जबकि हिदुओं के दूसरा विवाह करने पर रोक लगा दी गई. मुसलमानों को इस बात की भी छूट दी गई कि वे शरीयत का पालन करते रहें. हिन्दुओं के लिए अलग विधान और मुसलमानों के लिए अलग विधान वाह रे संविधान.
मित्रों, १९८६ में जब सर्वोच्च न्यायालय ने शरीयत के खिलाफ फैसला दिया तो उसी नेहरु के नाती जिसने भारत के हिन्दुओं को धोखा देने के लिए अपना नाम हिन्दुओं वाला रखा हुआ था मगर शादी ईसाई लड़की से और ईसाई विधि से की थी ने संसद से कानून बनाकर भारत में फिर से शरीयत को सुनिश्चित कर दिया.
मित्रों, बाद में सोनिया-मनमोहन की सरकार ने लाल किले से घोषणा ही कर दी कि भारत के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है? फिर कहने की कुछ बचा ही कहाँ. सीधे-सीधे हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक कह दिया गया जबकि उनको दोयम दर्जे का नागरिक २६ जनवरी १९५० को ही बना दिया गया था, बस घोषणा २००४ में १५ अगस्त को की गई.
मित्रो, यह कितने आश्चर्य की बात है कि हिन्दू मंदिरों पर सरकार का हक़ है फिर भी हिन्दू पुजारी भूखों मर रहे हैं और अगर दक्षिणा में से १०-बीस रूपये जेब में रख लेते हैं तो उनके खिलाफ मुकदमा हो जाता है जबकि मस्जिदों पर सरकार का कोई अधिकार नहीं फिर भी ईमामों को प्रति माह हजारों रूपये का वेतन खुद सरकार देती है. मैं दावे के साथ कहता हूँ कि पूरे भारत में कहीं भी मुसलमानों को हज के लिए सब्सिडी नहीं दी जाती. पैसा मंदिरों का, हिन्दुओं का और हवाई यात्रा मुसलमान कर रहे.
मित्रों, इतना ही नहीं पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी के नेताओं के उसी प्रकार से पंख निकल आए हैं जैसे कि मौत आने पर चींटियों के निकल आते हैं. पहले सलमान खुर्शीद, फिर राशिद अल्वी, फिर दिग्विजय सिंह और अंत में राहुल गाँधी. कांग्रेस के इन सारे दिग्गज नेता एक के बाद एक हिन्दुओं और हिन्दू संस्कृति को गालियाँ देने में लगे हैं. कोई हिन्दुओं की तुलना दुनिया के सबसे बड़े राक्षस जेहादियों के साथ कर रहा है तो कोई रामभक्तों को ही राक्षस बता रहा है तो कोई हिन्दू धर्म और उसकी आत्मा हिंदुत्व को ही अलग बता रहा है.
मित्रों, अभी आजकल में छत्रपति शिवाजी के राज्य महाराष्ट्र में शांति मार्च निकालने के नाम पर जिस प्रकार हिन्दुओं की दुकानों और सम्पत्त्तियों को मुसलमानों ने नुकसान पहुँचाया है और जिस तरह पुलिस मूकदर्शक बनी खुद वीडियो बनाती देखी गयी उससे तो यही साबित होता है कि भारत भी अब पाकिस्तान बन चुका है. शिवसेना को तो अब अपना नाम अली सेना कर लेना चाहिए.
मित्रों, भारत को जो आंशिक रूप से २६ जनवरी १९५० से ही मुस्लिम राष्ट्र है अगर पूर्ण रूप से मुस्लिम राष्ट्र बनने से रोकना है तो सबसे पहले अल्पसंख्यक मंत्रालय को समाप्त करना चाहिए और सबके साथ एक समान नीति अपनायी जानी चाहिए, समान नागरिक संहिता लागू करना चाहिए. हमें मोदी जी से इस मामले में इसलिए भी उम्मीद है क्योंकि उन्होंने २०१४ में वादा किया था कि अब तक देश में जो चलता आ रहा है वो नहीं चलेगा.
शनिवार, 6 नवंबर 2021
महंगाई, मोदी और विपक्ष
मित्रों, इस बात में कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ महीनों में भारत की जनता महंगाई से परेशान है और इसमें सबसे ज्यादा योगदान बेशक पेट्रोलियम पदार्थों का रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि सामान की ढुलाई डीजल गाड़ियों से ही होती है. फिर अतिवृष्टि ने भी बेडा गर्क कर रखा है. किसानों को तो इससे भारी क्षति हुई ही है ग्राहकों को भी इन दिनों सब्जी खरीदना काफी महंगा पड रहा है. मेरे जिले के केला किसान तो पूरी तरह से बर्बाद ही हो गए हैं और दुर्भाग्य देखिए कि बिहार में केले की खेती का बीमा भी नहीं होता.उनका दुर्भाग्य तो यह भी है कि २०१४ में हाजीपुर की चुनावी सभा में मोदी जी उनसे उनके सारे दुःख दूर करने का वादा करके भूल गए हैं.
मित्रों, खैर सब्जी की महंगाई तो तात्कालिक और मौसमी है लेकिन बांकी वस्तुओं के मूल्य में भी भारी उछाल देखने को मिल रहा है. खासकर सरसों तेल उपभोक्ताओं का तेल निकाल रहा है. इस बीच चाहे कारण जो भी हो दिवाली से ठीक एक दिन पहले केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क घटाने का ऐलान किया है। इसके बाद अब तक देश के 22 राज्यों ने मूल्य वर्धित कर (वैट) में कटौती कर दी है। इनमें से अधिकतर बीजेपी शासित राज्य या केंद्र शासित प्रदेश हैं। वहीं, कांग्रेस शासित राज्यों में अब भी वैट की कटौती नहीं की गई है। कुल 14 राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में अब तक वैट नहीं कम किए गए हैं। ऐसे में इन राज्यों में सिर्फ केंद्र की ओर से दी गई राहत ही प्रभावी है। जिन राज्यों ने वैट पर राहत नहीं दी है, उनमें अधिकतर कांग्रेस शासित प्रदेश हैं। ये राज्य महाराष्ट्र, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, मेघालय, अंडमान और निकोबार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान हैं।
मित्रों, वैट में कटौती नहीं करने पर भाजपा की ओर से विपक्षी दलों की आलोचना की गई है। दिल्ली में तो धरना-प्रदर्शन की भी तैयारी हो रही है. बीजेपी ने कहा है कि विपक्ष पेट्रोल और डीजल की ऊंची कीमतों को लेकर केंद्र पर हमले कर रहा है, लेकिन जब केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क घटाया तब उन्होंने अपने-अपने शासन वाले राज्यों में वैट क्यों नहीं घटाया? बीजेपी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस शासित राज्य निर्मम और अक्षम हैं।
मित्रों, हमारे बिहार में एक कहावत है कि रास्ता दिखाओ तो आगे चलो अन्यथा चुपचाप रहो. यह घोर आश्चर्य की बात है कि जो विपक्ष पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के मूल्यों को लेकर आसमान सर पे उठाए था को केंद्र सरकार के कदम के बाद सांप सूंघ गया है. शायद उसने केंद्र से ऐसी अपेक्षा ही नहीं की थी या फिर यह भी हो सकता है कि उसे महंगाई में मजा आ रहा हो और वो झूठ-मूठ का घडियाली आंसू बहा रहा हो. विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गाँधी स्वयं राजनीति और देश की जनता के दुख-दर्द को गंभीरता से नहीं लेते. जब-तब विदेश के लिए निकल जाते हैं. पता नहीं बेचारे इसके लिए पैसा कहाँ से लाते हैं. बेचारे की जेब तो नोटबंदी के समय से ही फटी पड़ी है. लेकिन हम सिर्फ राहुल जी को ही क्यों दोष दें? एक
ओडिशा को छोड़कर सारे विपक्ष शासित प्रदेश अभी भी अपना खजाना भरने में लगे हैं. पहले भरेंगे और फिर खाली कर देंगे. देश-प्रदेश के हित से कोई मतलब तो है नहीं.
मित्रों, रही बात केंद्र सरकार की तो उसे सबसे पहले चीन-पाकिस्तान से ईकट्ठे निबटने की तैयारी करनी चाहिए और वो ऐसा कर भी रही है. कोरोना पहले ही काबू में आ चुका है इसलिए अब उसको लेकर चिंता की कोई बात नहीं. निकट-भविष्य में भारत में विदेशी निवेश काफी तेजी से बढेगा. मगर उसका लाभ देश और देश की जनता तो तभी होगा जब सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार और अत्यंत सुस्त न्याय प्रणाली को दुरुस्त किया जाएगा. अन्यथा भारत हमेशा मानव विकास सूचकांक के मामले में सबसे निचले पायदान पर बना रहेगा.
बुधवार, 20 अक्टूबर 2021
आखिर कब सुधरेंगे बिहार के पटवारी?
मित्रों, साल तो याद नहीं लेकिन १९८० के दशक की बात है. पिताजी हर महीने प्रसिद्ध पत्रिका कादम्बिनी लाते थे. ऐसे ही किसी साल के दिवाली अंक में चम्बल के पूर्व डाकू मोहर सिंह का साक्षात्कार छपा था. मोहर सिंह से जब पूछा गया कि वो बागी क्यों बने तो उन्होंने कहा था कि अगर गाँव का पटवारी सुधर जाए तो कोई बागी नहीं बनेगा.
मित्रों, उत्तर प्रदेश का तो पता नहीं कि वहां के पटवारी सुधरे कि नहीं लेकिन अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि बिहार के पटवारी नहीं सुधरे हैं. मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अभी भी बिहार में एक भी दाखिल ख़ारिज बिना रिश्वत दिए नहीं होता. राजस्व मंत्री की जमीन का भले ही हो गया हो. इतना ही नहीं पैसा देने पर भी दाखिल ख़ारिज में कर्मचारी सालों साल लगा देता है.
मित्रों, ईधर सरकार कहती है कि दाखिल ख़ारिज को ऑनलाइन कर दिया गया है लेकिन सच्चाई यही है कि सारे काम ऑफलाइन हो रहे हैं. इस बारे में पूछने पर एक राजस्व कर्मचारी ने दिलचस्प वाकया सुनाया. हुआ यह कि किसी किसान ने दाखिल ख़ारिज के लिए ऑनलाइन आवेदन दिया. फिर वो कर्मचारी से मिलने आया. कर्मचारी ने २५०० रूपये मांगे तो किसान ने कहा कि आप काम करिए मैं रसीद कटवाने आऊंगा तो पैसे दे दूंगा. कर्मचारी ने विश्वास करके काम करवा दिया और उसे ऑनलाइन भी कर दिया. उधर किसान चालाक निकला और कर्मचारी के पास रसीद कटवाने आया ही नहीं. जब कई महीने बीत गए तब कर्मचारी को शक हुआ और उसने चेक किया. कर्मचारी यह देखकर सन्न रह गया कि किसान ने ऑनलाइन रसीद कटवा लिया था. कर्मचारी ने बताया कि उसने अपनी जेब से सीओ और सीआई को १००० रूपये दे रखे थे. इस धोखे के बाद उस कर्मचारी ने बिना पैसे लिए ऑनलाइन दाखिल ख़ारिज करना ही बंद कर दिया. मजबूरन पार्टी को उसके पास जाना ही पड़ता है और बार-बार जाना पड़ता है.
मित्रों, हमारे एक परिचित की तो जमीन ही चोरी हो गई. बेचारे की खतियानी जमीन थी. जब वो रसीद कटवाने गया तो पता चला कि जमीन है ही नहीं. बेचारे की पाँव तले की जमीन भी खिसक गई. आजकल बेचारे डीसीएलआर कार्यालय का चक्कर काट रहे हैं.
मित्रों, अब सुनिए सरकार की तो उसे जहाँ विभाग में पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए वहीँ वो पारदर्शिता कम करने में लगी है. संशोधन करके सूचना के अधिकार की जान पहले ही निकाली जा चुकी है. पहले जहाँ बिहार भूमि वेबसाइट पर हरेक मौजा में किस-किस किसान का दाखिल ख़ारिज का आवेदन कितने महीनों या सालों से लंबित है का विवरण उपलब्ध रहता था वहीँ अब अनुपलब्ध है. अब किसान सिर्फ अपने आवेदन की स्थिति देख सकता है. न जाने सरकार ने वेबसाइट में इस तरह का संशोधन क्यों किया जिससे इस महाभ्रष्ट विभाग में और भी ज्यादा भ्रष्टाचार हो जाए.
मित्रों, आज ही यह समाचार पढने को मिला कि अब अंचलाधिकारी दाखिल ख़ारिज का काम नहीं देखेंगे लेकिन उससे होगा क्या? जो अधिकारी दाखिल ख़ारिज देखेगा क्या वो रिश्वत नहीं लेगा? फिर यह कोई सुधार तो हुआ नहीं. यह भी पढ़ा कि कानपुर आईआईटी की टीम ने कोई नया सॉफ्टवेयर बनाया है जिससे बिना रिश्वत के दाखिल ख़ारिज हो सकेगा. देखते हैं कि आगे होता क्या है? वैसे मुझे नहीं लगता कि अंचलाधिकारी, अंचल निरीक्षक और हलका कर्मचारी के पास इसका तोड़ नहीं होगा. ऐसे में ४० साल बाद वही सवाल उठता है जो चम्बल के कुख्यात डाकू मोहर सिंह ने तब उठाया था कि आखिर कब सुधरेंगे बिहार के पटवारी?
सोमवार, 18 अक्टूबर 2021
महंगाई की मार बेसुध सरकार
मित्रों, महंगाई एक ऐसी चीज है, जो कभी खबरों से बाहर नहीं होती। कभी इसके बढ़ने की खबर है, तो कभी-कभी घटने की हालाँकि ऐसा कम ही होता है। समय साक्षी है कि महंगाई ने इस देश में कई बार सरकारें भी गिरा दी हैं। हालांकि, आजकल के हालात देखकर यकीन करना मुश्किल है कि ऐसा भी होता होगा।
मित्रों, महंगाई के मोर्चे पर पिछले कुछ दिनों में आई खबरों पर नजर डालें, तो क्या दिखता है? सरकारी आंकड़ों के अनुसार सितंबर में खुदरा महंगाई की दर पांच महीने में सबसे नीचे आ गई है, जो त्योहारी सीजन में अच्छी खबर मानी जानी चाहिए। लेकिन अगर हम जनसामान्य से बात करें तो निर्धन और माध्यम वर्ग बढती महंगाई से काफी परेशान है. एक तरफ केंद्र सरकार टाटा समूह को राहत दे रही है वहीँ पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस महँगी करके गरीबों की मुट्ठी से पैसे निकाल रही है. ज्ञातव्य हो कि एयर इंडिया पर 31 अगस्त तक कुल 61,562 करोड़ बकाया था। टाटा संस 15,300 करोड़ की जिम्मेदारी लेगी और बाकी 46,262 करोड़ एआईएएचएल को हस्तांतरित किया जाएगा अर्थात ये पैसे सरकार अपने पास से चुकाएगी।
मित्रों, सरकार के पास टाटा को राहत पहुँचाने के लिए पैसे हैं, वेदांता के हेयर कट के लिए ४६ हजार करोड़ रूपये हैं लेकिन आम जनता के लिए नहीं हैं? अगर हम सरकार की भी मानें तो वस्तुओं और सेवाओं के दाम घटे नहीं हैं बल्कि उनके दाम बढ़ने की रफ़्तार घटी है. सेवा से याद आया कि आज की तारीख में शिक्षा और स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च भी लोगों को कम तकलीफ नहीं दे रहा है. निजी विद्यालयों और अस्पतालों की मनमानी कोरोना से परेशान आम आदमी को कंगाल करने पर तुली है. एक बच्चे को बारहवीं करवाने में आज १० से १५ लाख रूपये का खर्च आता है जबकि सरकारी विद्यालय सफेद हाथी बनकर रह गए हैं. इसी प्रकार निजी अस्पताल भी लोगों को लूट रहे हैं. सवाल उठता है कि इन दो क्षेत्रों के लिए कोई रेगुलेटरी क्यों नहीं है जो इनकी फीस और चार्जेज पर नियंत्रण रखता?
मित्रों, अब समाज के विभिन्न वर्गों पर महंगाई के प्रभावों पर बात करेंगे. सबसे पहले श्रमवीरों की बात. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि प्राइवेट फैक्ट्रियों में काम करनेवाले अधिकतर मजदूरों को रोजाना १२ घंटे काम करने पर भी १०-१५ हजार से ज्यादा नहीं मिलता. अभी एक लीटर सरसों तेल 210 रुपए का है. कुछ महीने पहले इसका भाव 120 रुपए लीटर था. रसोई गैस का सिलेंडर अब 1,050 रुपए का हो गया है. फूलगोभी 100 रुपए किलो तो टमाटर 60 रुपए और प्याज़ 50 रुपए. पेट्रोल ११० और डीजल भी १०० के पार है. जिससे आने वाले दिनों में महंगाई और बढ़ेगी. लेकिन राजनीतिक दलों के लिए ये कोई मुद्दा ही नहीं है. कोई भी महंगाई पर चर्चा नहीं करता. पहले पांच हज़ार रुपए में राशन आराम से आ जाता था, लेकिन अब इतने पैसे में कुछ नहीं होता. प्राइवेट नौकरी में तनख़्वाह बहुत मामूली बढ़ती है. लिहाज़ा घर खर्च चलाने के लिए कई तरह के जोड़ घटाव वाला गणित करना पड़ता है. सच तो यह है कि इस बार अधिकतर मजदूर दुर्गा पूजा में घर के लोगों के लिए कपड़ा तक नहीं ख़रीद सके. बच्चे घर से ऑनलाइन क्लास कर रहे हैं, लेकिन स्कूल है जो ट्यूशन फ़ीस के अलावा भी कई तरह की फ़ीस वसूल रहा है. दुर्भाग्यवश ये भी मुद्दा नहीं बन रहा. इतनी महँगी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब सरकारी नौकरी और घर के आस-पास काम नहीं मिलता तभी नौबत परदेश में मजदूरी काम करने तक आ जाती है. अधिकतर मजदूर किराए के एक कमरे में रहते हैं. ज़रूरत के सामान के नाम पर उनके पास एक चारपाई, पंखा, चंद बर्तन और कुछ कपड़े होते हैं. घर-परिवार से दूर रहने के बावजूद जानलेवा महंगाई के कारण उनकी सिर्फ जान बच रही है पैसा नहीं बच रहा.
मित्रों, सच तो यह है कि मांग नहीं होने से न सिर्फ क्रेता बल्कि दुकानदार भी परेशान हैं. पहले बीजेपी जब विपक्ष में थी तो ज़ोर-शोर से महंगाई पर कांग्रेस पार्टी को घेरती थी, लेकिन मोदी सरकार के ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी महंगाई को आज तक मुद्दा नहीं बना सकी. यही वजह है कि आम आदमी की कोई नहीं सुन रहा और मीडिया में केवल सरकार का गुणगान चल रहा है.गरीबों को उज्ज्वला योजना में गैस सिलेंडर मिला. तब वे नहीं जानते थे कि इसे भरवाने में इतना पैसा लगेगा. अब महंगाई इतनी अधिक है कि वे फिर से लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने लगे हैं.
त्रों, झुलसाती महंगाई ने किसानों को भी कहीं का नहीं छोड़ा है. पिछले कुछ सालों में खेती के लिए ज़रूरी चीज़ों के दाम बहुत बढ़ गए हैं. खाद की क़ीमत पहले की तुलना में दोगुनी हो चुकी है. अब आप 100 बीघा के जोतहर (मालिक) भी हैं, तो महंगाई के कारण सारी ज़मीन पर खेती नहीं करा सकते. ज़मीन परती (ख़ाली) रह जाती है. खाद, बीज, कीटनाशक, पशुओं का चारा, डीज़ल सबकी क़ीमत बढ़ चुकी है. सरकार को किसानों के दर्द से कोई सरोकार नहीं है. ५०० रूपये मासिक में आजकल होता क्या है? अब किसानों को नून-रोटी खाने के लिए भी सोचना पड़ रहा है. तेल-घी की तो बात ही नहीं है.
मित्रों, उधर जिन लोगों ने छोटे-मोटे स्कूल खोल रखे थे उनकी हालत भी कोई अच्छी नहीं है। कोविड महामारी के चलते स्कूल बंद हो गया. गैस के दाम बढ़ गए तो लोग दिन भर के लिए सब्ज़ी एक ही बार बनाकर ख़र्च कम करने की कोशिश कर रहे हैं. हरी सब्ज़ी खाना भी कम कर दिया है. कई परिवार तो कोरोना में आमदनी घटने या पूरी तरह से बंद हो जाने चलते पहले से ही इतने लाचार हो चुके हैं कि बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया और उस पर जानलेवा महंगाई की मार. लोग अपने बेटे और बेटी को पोषण वाला खाना भी नहीं दे पा रहे. उनका जीवन स्तर बहुत नीचे आ गया है. समाज में भ्रष्टाचार बढ़ा है क्योंकि लोग ज़रूरतें पूरी करने के लिए आय का ग़लत ज़रिया ढूंढ रहे हैं.
मित्रों, सच्चाई तो यह है कि सत्ता पक्ष अराजक हो गया है और आम लोग 'एकाकी' होकर सोचने लगे हैं. मोबाईल और इन्टरनेट ने उनको और भी समाज से काट कर रख दिया है. बढ़ती महंगाई से आदमी तनाव में है, लेकिन वो करे भी तो क्या करे? आम आदमी ने हालात से समझौता कर लिया है. मोदी सरकार आखिरी उम्मीद थी लेकिन अब कोई उम्मीद नजर नहीं आती.
मित्रों, रही बात सरकार की तो उसे हम इतना तो कह ही सकते हैं कि
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है
लगी है होड़ सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
शनिवार, 16 अक्टूबर 2021
अराजक होता किसान आन्दोलन
मित्रों, हम सभी जानते हैं कि भारत में लोकतंत्र है और भारतीय संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक को सरकार या सरकारी नीतियों का विरोध करने की आजादी और अधिकार दिया है. यद्यपि यह आजादी या अधिकार पूरी तरह से असीम नहीं है बल्कि इसकी कुछ सीमाएं हैं. आप आन्दोलन करिए या अपने किसी अन्य अधिकार का प्रयोग करिए लेकिन आप ऐसा करते हुए किसी और के अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकते.
मित्रों, पिछले कुछ समय से ऐसा देखा जा रहा है कि कई सरकार विरोधी आन्दोलन देशविरोधी स्वरुप अख्तियार कर ले रहे हैं. पहले एनआरसी के खिलाफ जो आन्दोलन हुए और अब जो तथाकथित किसान आन्दोलन चल रहा है दोनों ने ही बारी-बारी से अराजक रूप ग्रहण किया है. एनआरसी आन्दोलन अंततः हिन्दूविरोधी दंगों में परिणत हो गया वहीँ किसान आन्दोलन भी राह से भटकता हुआ परिलक्षित हो रहा है.
मित्रों, पहले तो तथाकथित किसानों ने राष्ट्रीय राजमार्गों पर आवागमन को बाधित किया, यहाँ तक कि सेना की गाड़ियों को भी गुजरने से रोका और अब किसान हत्या भी करने लगे हैं. पहले लखीमपुर खीरी में उन्होंने चार लोगों को पीट-पीट कर मार डाला और अब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सिन्धु बॉर्डर पर एक दलित के हाथ काटकर उसकी बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी. इन घटनाओं से ऐसा लगने लगा है कि जैसे उनको भारतीय कानून और न्यायालय का कोई डर ही नहीं है.
मित्रों, सवाल उठता है कि संघ सरकार कब तक हाथ-पर-हाथ धरे बैठी रहेगी या मूकदर्शक बनी रहेगी? मान लिया कि पंजाब में चुनाव होनेवाले हैं लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं है कि दिल्ली को एक बार फिर जलने दिया जाए. कहना न होगा अगर संघ सरकार ने २०१९-२० में समय रहते शाहीन बाग़ के अवैध धरने को समाप्त करवा दिया होता तो दिल्ली में सुनियोजित हिन्दूविरोधी-देशविरोधी दंगे नहीं हुए होते. लेकिन दंगों के बाद भी केद्र सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ बनी रही और धरने की स्वाभाविक समाप्ति की प्रतीक्षा करती रही.
मित्रों, यह देखकर काफी दुःख होता है एक बार फिर से हमारी केंद्र सरकार कथित किसान आन्दोलन को लेकर असमंजस में है. इस आन्दोलन को लेकर कोई बच्चा भी बता देगा कि इसके पीछे विदेशी फंडिंग हो रही है और किसान आन्दोलन का बस बहाना है. वास्तव में इसका उद्देश्य देश में अराजकता उत्पन्न करना है. फिर से खालिस्तानी आतंकवाद को जीवित करना है. लेकिन न तो केंद्र सरकार और न ही सुप्रीम कोर्ट को कुछ भी दिखाई दे रहा है और न ही वे इसे समाप्त करने की दिशा को कोई कठोर कदम उठाते दिख रहे हैं. क्या टिकैत के दूसरा भिंडरावाला बनने का इंतजार हो रहा है? आज से लगभग ढाई हजार साल पहले आचार्य चाणक्य ने कहा था कि दीमक लकड़ी को और रोग जिस प्रकार शरीर को खा जाते हैं उसी प्रकार अराजकता से राष्ट्र का विनाश हो जाता है अतः राज्य को हर स्थिति में कानून और व्यवस्था को बनाए रखना चाहिए. राज्य को न सिर्फ अराजकतावादियों से बल्कि राज्याधिकारियों और राज्यकर्मियों से भी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए.
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2021
निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार
ममित्रों, ऐसा देखा जा रहा है कि पिछले कुछ समय से जबसे संघ में मोदी जी की सरकार आई है लगातार सरकार और सरकार समर्थक यह बोलते आ रहे हैं कि सरकारी क्षेत्र की कंपनियों में गुणवत्ता में सुधार लाना संभव नहीं है इसलिए उनका निजीकरण कर देना चाहिए. मानो हर समस्या का एकमात्र हल निजीकरण है. तथापि प्रश्न उठता है कि क्या निजी क्षेत्र भ्रष्टाचार से सर्वथा मुक्त है?
मित्रों, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. वास्तविकता तो यह है कि निजी क्षेत्र में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना सरकारी क्षेत्र में है बल्कि किसी-किसी क्षेत्र में तो अपेक्षाकृत अधिक ही है.
मित्रों, सबसे पहले बात करते हैं बैंकिंग क्षेत्र की. यह वह क्षेत्र है जिसमें देश के गरीब लोग अपना पेट काटकर भविष्य के लिए पैसा जमा करते हैं. आपको याद होगा कि एक समय इस क्षेत्र में हेलियस और जेवीजी जैसी नन बैंकिंग कंपनियों की धूम थी. कोई दो साल में पैसे दोगुना कर रहा था तो कोई ३ साल में. तत्कालीन संघ सरकार को सब पता था कि किस तरह जनता को ठगा जा रहा है लेकिन वो ऑंखें मूंदे रही क्योंकि जेवीजी सहित कई कंपनियों में बड़े-बड़े नेताओं ने भी पैसे लगा रखे थे. फिर एक दिन वही हुआ जो होना था. इन बैंकों ने रातों-रात अपनी शाखाओं और दफ्तरों को बंद कर दिया. हजारों गरीबों की जीवनभर की कमाई लूट ली गई, हजारों ने आत्महत्या कर ली लेकिन किसी भी फरार कंपनी मालिकों और संचालकों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. आज भी सहारा इंडिया में लाखों गरीबों के पैसे फंसे हुए हैं और कदाचित डूब भी जाएंगे. फिर वही लाठी होगी, वही सांप और वही सांप का बिल. इसी तरह महाराष्ट्र में लगातार कोई-न-कोई सहकारी बैंक बंद हो रहा है और लगातार गरीबों के पैसों पर डाका पड़ रहा है. कोई ठिकाना नहीं कि आज जो एचडीएफसी, आईसीआईसीआई जैसे बैंक उदाहरण माने जाते हैं कल निवेश सम्बन्धी एक गलती के कारण या फिर जानबूझकर अपने ही परिवार या मित्र की कंपनी में निवेश कर कंपनी को दिवालिया घोषित कर देने के चलते कब डूब जाएं और कब गरीबों के लाखों करोड़ पर डाका पड़ जाए. फिर भी भारत सरकार सरकारी बैंकों का निजीकरण करने पर आमादा है. दरअसल इस समय देश में अंधा बांटे रेवड़ी वाली हालत है.
मित्रों, स्वास्थ्य एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें पूरी तरफ से निजी क्षेत्र का कब्ज़ा था और है. सरकारी अस्पताल इमरजेंसी सेवा के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं जिसका फायदा निजी क्षेत्र के अस्पताल जमकर उठाते आ रहे हैं और जनता को दोनों हाथों से लूट रहे हैं. बच्चों की नॉर्मल डेलिवरी बहुत पहले दूर की कौड़ी हो चुकी है. आए दिन हम समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि दिल्ली, पटना इत्यादि स्थानों के प्रतिष्ठित अस्पतालों ने साधारण बुखार के ईलाज के नाम पर १७ लाख-२० लाख का बिल मरीज के परिजन को थमाया या फिर गलत अंग का ऑपरेशन कर दिया या फिर मृत व्यक्ति का कई दिनों तक झूठा ईलाज करते रहे. पहले कहावत थी कि सरकारी अस्पतालों में लोग ईलाज करवाने नहीं जाते मरने जाते हैं दुर्भाग्यवश अब निजी अस्पतालों के बारे में यह कहा जाता है लोग वहां ईलाज करवाने नहीं खुद को कंगाल करवाने जाते हैं. लोग जाएँ तो जाएँ कहाँ? सरकारी में व्यवस्था नहीं है और निजी घर तक बिकवा दे रहा है.
मित्रों, अब बात करते हैं शिक्षा की. एक जमाना था जब सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में उच्च गुणवत्ता की पढाई होती थी. फिर सामाजिक न्याय वाली सरकारें आईं और सरकारी स्कूलों-कॉलेजों से पढाई गायब हो गई. अगरचे सरकारी स्कूलों के शिक्षक सिर्फ वेतन लेने स्कूल जाते हैं और अगर जाते भी हैं तो आरक्षण की कृपा से उनको खुद ही कुछ पता नहीं है तो बच्चों को बताएंगे क्या? दूसरी तरफ सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अधिकतर विभाग शिक्षक विहीन हैं क्योंकि राज्य सरकारें इनके ऊपर किए गए व्यय को वेवजह का खर्च मानती हैं. ऐसे में निजी स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय अगर कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं तथापि भ्रष्टाचार वहां भी कम नहीं है. शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारियों से हस्ताक्षर दोगुने-तिगुने वेतन पर करवाया जाता है लेकिन दिया नहीं जाता. कई बार तो पैसा उनके खाते में डाल दिया जाता है और वे बेचारे बैंक से पैसा निकालकर फिर कॉलेज-विश्वविद्यालय को वापस कर देते हैं. इतना ही नहीं निजी स्कूलों-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में भी पढाई न के बराबर होती है ज्यादातर शिक्षणेतर गतिविधियों का ही आयोजन होता है जिससे मीडिया में सुर्ख़ियों में बना रहा जा सके. कुल मिलाकर हमारी शिक्षा-व्यवस्था परीक्षा व्यवस्था बन चुकी है लेकिन न तो ढंग से परीक्षा ली जाती है और न की सम्यक तरीके से कापियों की जांच की जाती है. कई बार तो कापियों के बंडल खुलते भी नहीं हैं और परिणाम घोषित कर दिया जाता है और ऐसा न सिर्फ सरकारी बल्कि निजी शिक्षण-संस्थानों में भी होता है. निजी क्षेत्र की कृपा से शिक्षा अब ज्ञान दान नहीं व्यापार बन गयी है, विशुद्ध व्यापार.
मित्रों, अब बात करते हैं ठेके पर होनेवाले कामों की. चाहे वो सफाई हो या सड़क या पुल निर्माण या फिर टोल वसूली किसी भी क्षेत्र में ठेकेदार सही तरीके से काम नहीं करते और जमकर पैसा बनाते हैं फिर चाहे उद्घाटन से पहले ही पुल गिर क्यों न जाए.
मित्रों, आपके घर के आसपास भी आपने देखा होगा कि बैंकों और बैंकों के एटीएम के बाहर निजी सुरक्षा कंपनियों के गार्ड पहरा देते हैं. भ्रष्टाचार ने उन गरीबों को भी अछूता नहीं छोड़ा है. बेचारे हस्ताक्षर करते हैं २४ हजार पर लेकिन उनके हाथों में आता है १२-१३ हजार. मतलब यहाँ भी जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है.
मित्रों, अब बात करते हैं उस घटना की जिसने मुझे यह आलेख लिखने के लिए प्रेरित किया. अडानी पोर्ट से भारी मात्रा में हेरोईन की खेप का पकड़ा जाना. हाल में अडानी ग्रुप को सौपे गए गुजरात के मुंद्रा-अडानी बंदरगाह से एक साथ ३००० किलोग्राम हेरोईन पकड़ी गई है जिसकी कीमत १९००० करोड़ रूपये बताई जाती है. ये हेरोईन टेलकम पाउडर के नाम पर आयातित की गई थी. सोंच लीजिए निजी हाथों में पोर्ट सौंपकर हम देश की सुरक्षा को किस कदर खतरे में डाल रहे हैं. इस घटना के बाद सवाल यह भी उठता है कि क्या बड़े-बड़े धनपति पूरी तरह दूध के धुले हैं?
मित्रों, कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि निजीकरण समाधान नहीं है बल्कि इससे पहले से ज्यादा जटिल समस्याओं का जन्म होगा. रही बात भ्रष्टाचार की तो निजीकरण के बाद भी भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होनेवाला है. ऐसे में अच्छा यही रहेगा कि सरकार साफ़ मन से सरकारी क्षेत्र की कंपनियों और बैंकों की व्यवस्था को सुधारे और बार-बार यह कहना बंद करे कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है. साथ ही एनसीएलटी के माध्यम से सरकारी बैंकों को लगाए जा रहे चूना पर अविलम्ब रोक लगाए. वैसे मुझे लगता है कि इस समय देश एक बार फिर से सरकारविहीन हो गया है.
सोमवार, 27 सितंबर 2021
हिन्दू-धर्म के संगठन में परिवर्तन आवश्यक
मित्रों, एक बार विवेकान्द के शिष्यों ने उनसे प्रश्न किया कि गुरुदेव गृहस्थाश्रम बड़ा है या संन्यास?? तब स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि इसके लिए मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ. किसी नगर में एक राजा रहता था, उस नगर में जब कोई संन्यासी आता तो राजा उसे बुलाकर पूछता कि- ”भगवान! गृहस्थ बड़ा है या संन्यास?” अनेक साधु अनेक प्रकार से इसका उत्तर देते थे। कई संन्यासी को बड़ा तो बताते पर यदि वे अपना कथन सिद्ध न कर पाते तो राजा उन्हें गृहस्थ बनने की आज्ञा देता। जो गृहस्थ को उत्तम बताते उन्हें भी यही आज्ञा मिलती। इस प्रकार होते-होते एक दिन एक संन्यासी उस नगर में आ निकला और राजा ने बुलाकर वही अपना पुराना प्रश्न पूछा। संन्यासी ने उत्तर दिया- “राजन। सच पूछें तो कोई आश्रम बड़ा नहीं है, किन्तु जो अपने नियत आश्रम को कठोर कर्तव्य धर्म की तरह पालता है वही बड़ा है।” राजा ने कहा- “तो आप अपने कथन की सत्यता प्रमाणित कीजिये।“ संन्यासी ने राजा की यह बात स्वीकार कर ली और उसे साथ लेकर दूर देश की यात्रा को चल दिया। घूमते-घूमते वे दोनों एक दूसरे बड़े राजा के नगर में पहुँचे, उस दिन वहाँ की राज कन्या का स्वयंवर था, उत्सव की बड़ी भारी धूम थी। कौतुक देखने के लिये वेष बदले हुए राजा और संन्यासी भी वहीं खड़े हो गये।
मित्रों, जिस राजकन्या का स्वयंवर था, वह अत्यन्त रूपवती थी और उसके पिता के कोई अन्य सन्तान न होने के कारण उस राजा के बाद सम्पूर्ण राज्य भी उसके दामाद को ही मिलने वाला था। राजकन्या सौंदर्य को चाहने वाली थी, इसलिये उसकी इच्छा थी कि मेरा पति, अतुल सौंदर्यवान हो, हजारों प्रतिष्ठित व्यक्ति और देश-देश के राजकुमार इस स्वयंवर में जमा हुए थे। राज-कन्या उस सभा मण्डली में अपनी सखी के साथ घूमने लगी। अनेक राजा-पुत्रों तथा अन्य लोगों को उसने देखा पर उसे कोई पसन्द न आया। वे राजकुमार जो बड़ी आशा से एकत्रित हुए थे, बिल्कुल हताश हो गये। अन्त में ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो अब यह स्वयंवर बिना किसी निर्णय के अधूरा ही समाप्त हो जायगा। इसी समय एक संन्यासी वहाँ आया, सूर्य के समान उज्ज्वल काँति उसके मुख पर दमक रही थी। उसे देखते ही राजकन्या ने उसके गले में माला डाल दी। परन्तु संन्यासी ने तत्क्षण ही वह माला गले से निकाल कर फेंक दी और कहा- ”राजकन्ये। क्या तू नहीं देखती कि मैं संन्यासी हूँ? मुझे विवाह करके क्या करना है?” यह सुन कर राजकन्या के पिता ने समझा कि यह संन्यासी कदाचित भिखारी होने के कारण, विवाह करने से डरता होगा, इसलिये उसने संन्यासी से कहा- ”मेरी कन्या के साथ ही आधे राज्य के स्वामी तो आप अभी हो जायेंगे और पश्चात् सम्पूर्ण राज्य आपको ही मिलेगा। राजा के इस प्रकार कहते ही राजकन्या ने फिर वह माला उस साधु के गले में डाल दी, किन्तु संन्यासी ने फिर उसे निकाल पर फेंक दिया और बोला- ”राजन्! विवाह करना मेरा धर्म नहीं है।“ ऐसा कह कर वह तत्काल वहाँ से चला गया, परन्तु उसे देखकर राजकन्या अत्यन्त मोहित हो गई थी, अतएव वह बोली- ”विवाह करूंगी तो उसी से करूंगी, नहीं तो मर जाऊँगी।” ऐसा कह कर वह उसके पीछे चलने लगी। हमारे राजा साहब और संन्यासी यह सब हाल वहाँ खड़े हुए देख रहे थे। संन्यासी ने राजा से कहा- ”राजन्! आओ, हम दोनों भी इनके पीछे चल कर देखें कि क्या परिणाम होता है।” राजा तैयार हो गया और वे उन दोनों के पीछे थोड़े अन्तर पर चलने लगे। चलते-चलते वह संन्यासी बहुत दूर एक घोर जंगल में पहुँचा, उसके पीछे राजकन्या भी उसी जंगल में पहुँची, आगे चलकर वह संन्यासी बिल्कुल अदृश्य हो गया। बेचारी राजकन्या बड़ी दुखी हुई और घोर अरण्य में भयभीत होकर रोने लगी। इतने में राजा और संन्यासी दोनों उसके पास पहुँच गये और उससे बोले- ”राजकन्ये! डरो मत, इस जंगल में तेरी रक्षा करके हम तेरे पिता के पास तुझे कुशल पूर्वक पहुँचा देंगे। परन्तु अब अँधेरा होने लगा है, इसलिये पीछे लौटना भी ठीक नहीं, यह पास ही एक बड़ा वृक्ष है, इसके नीचे रात काट कर प्रातःकाल ही हम लोग चलेंगे।” राजकन्या को उनका कथन उचित जान पड़ा और तीनों वृक्ष के नीचे रात बिताने लगे।
मित्रों, उस वृक्ष के कोटर में पक्षियों का एक छोटा सा घोंसला था, उसमें वह पक्षी, उसकी मादी और तीन बच्चे थे, एक छोटा सा कुटुम्ब था। नर ने स्वाभाविक ही घोंसले से जरा बाहर सिर निकाल कर देखा तो उसे यह तीन अतिथि दिखाई दिये। इसलिये वह गृहस्थाश्रमी पक्षी अपनी पत्नी से बोला- “प्रिये! देखो हमारे यहाँ तीन अतिथि आये हुए हैं, जाड़ा बहुत है और घर में आग भी नहीं है।” इतना कह कर वह पक्षी उड़ गया और एक जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा कहीं से अपनी चोंच में उठा लाया और उन तीनों के आगे डाल दिया। उसे लेकर उन तीनों ने आग जलाई। परन्तु उस पक्षी को इतने से ही सन्तोष न हुआ, वह फिर बोला-”ये तो बेचारे दिनभर के भूखे जान पड़ते हैं, इनको खाने के लिये देने को हमारे घर में कुछ भी नहीं है। प्रिय, हम गृहस्थाश्रमी हैं और भूखे अतिथि को विमुख करना हमारा धर्म नहीं है, हमारे पास जो कुछ भी हो इन्हें देना चाहिये, मेरे पास तो सिर्फ मेरा देह है, यही मैं इन्हें अर्पण करता हूँ।” इतना कह कर वह पक्षी जलती हुई आग में कूद पड़ा। यह देखकर उसकी स्त्री विचार करने लगी कि ‘इस छोटे से पक्षी को खाकर इन तीनों की तृप्ति कैसे होगी? अपने पति का अनुकरण करके इनकी तृप्ति करना मेरा कर्तव्य है।’ यह सोच कर वह भी आग में कूद पड़ी। यह सब कार्य उस पक्षी के तीनों बच्चे देख रहे थे, वे भी अपने मन में विचार करने लगे कि- ”कदाचित अब भी हमारे इन अतिथियों की तृप्ति न हुई होगी, इसलिये अपने माँ बाप के पीछे इनका सत्कार हमको ही करना चाहिये।” यह कह कर वे तीनों भी आग में कूद पड़े। यह सब हाल देख कर वे तीनों बड़े चकित हुए। सुबह होने पर वे सब जंगल से चल दिये। राजा और संन्यासी ने राजकन्या को उसके पिता के पास पहुँचाया। इसके बाद संन्यासी राजा से बोला- ”राजन्!! अपने कर्तव्य का पालन करने वाला चाहे जिस परिस्थिति में हो श्रेष्ठ ही समझना चाहिये। यदि गृहस्थाश्रम स्वीकार करने की तेरी इच्छा हो, तो उस पक्षी की तरह परोपकार के लिये तुझे तैयार रहना चाहिये और यदि संन्यासी होना चाहता हो, तो उस उस यति की तरह राज लक्ष्मी और रति को भी लज्जित करने वाली सुन्दरी तक की उपेक्षा करने के लिये तुझे तैयार होना चाहिये। कठोर कर्तव्य धर्म को पालन करते हुए दोनों ही बड़े हैं।“
मित्रों, जबसे अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष और निरंजनी अखाड़ा के सचिव महंत नरेंद्र गिरि की संदिग्ध मौत हुई है यह सवाल फिर से हिन्दुओं के मन में उठने लगा है कि क्या हिन्दुओं के सर्वोच्च संगठनों से जुड़े लोग वास्तव में संन्यासी हैं भी या नहीं या गेरुआ वस्त्र धारण कर हिन्दुओं के साथ छल कर रहे हैं? उपरोक्त कथा के अनुसार इनमें से कई सारे ठग हैं. पहले भी राधे माँ और गोल्डन बाबा जैसे संन्यासी हिन्दू धर्म को कलंकित करते रहे हैं लेकिन इस बार भी अखाडा परिषद् के अध्यक्ष ही सवालों के घेरे में हैं. क्या किसी संन्यासी के लिए भोग-विलास से युक्त जीवन व्यतीत करना उचित है? चाहे वो नरेन्द्र गिरी हों या उनके शिष्य आनंद गिरी उनकी जीवन-शैली को किसी भी प्रकार से एक वास्तविक संन्यासी की जीवन-शैली तो नहीं कहा जा सकता. सवाल तो यह भी उठता है कि इन अखाड़ों और शंकराचार्यों की आज के समय में क्या और कितनी उपयोगिता है? ये लोग न तो समाज के लिए कुछ कर रहे हैं और न ही धर्मान्तरण को रोकने के लिए तृणमूल स्तर पर कुछ कर रहे हैं. तो क्या ये लोग हिन्दुओं के पैसों पर भोग-विलास में संलिप्त होकर बोझ नहीं बन गए हैं? क्या इस दिशा में अमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है?
मित्रों, ऐसे ही छद्म-संन्यासियों के बारे में ६०० साल पहले कबीर ने कहा था
मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।। टेक।।
आसन मारि मंदिर में बैठे, नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा।। 1।।
कनवां फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।। 2।।
जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होइ गैलै हिजरा।। 3।।
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँचि के होइ गैले लबरा।। 4।।
कहहि कबीर सुनो भाई साधो, जम दरबजवाँ बाँधल जैवे पकरा।। 5।।
रविवार, 19 सितंबर 2021
ईटीएम से कटे बिहार रोडवेज में टिकट
मित्रों, आप जानते होंगे पिछले कुछ सालों से मैं उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में रह रहा था। जाहिर है इस दौरान मुझे बार-बार बस यात्रा करनी पडी। मैं यह देखकर हतप्रभ था कि उत्तर प्रदेश में चलनेवाली लगभग सारी बसें सरकारी थीं। साथ ही सारी बसों में ईटीएम (इलेक्ट्रोलक्स टिकट मशीन) से टिकट काटा जा रहा था। यहां तक कि अगर एक बस के संवाहक से आप पैसा वापस लेना भूल गए हों तो दूसरी सरकारी बस के संवाहक को टिकट दिखाकर पैसा वापस ले सकते थे। न ही कोई धांधली न ही धांधली की गुजाईश।
मित्रों,अब मुज़फ्फरनगर से आते हैं मुज़फ्फरपुर। वही बिहार वाला मुज़फ्फरपुर। पिछले दिनों मुझे लगातार दस दिनों तक हाजीपुर से मुज़फ्फरपुर जाना पडा। पहले तो रेलवे रो खंगाला तो पता चला कि हाजीपुर से सुबह में ऐसी कोई पैसेंजर ट्रेन है ही नहीं जो नौ बजे से पहले मुज़फ्फरपुर पहुंचा दे। मजबूरन मुझे बस से यात्रा करनी पडी। मैंने जानबुझकर सरकारी बस को चुना हालांकि बिहार में वे अल्पसंख्यक हैं।
मित्रों, मैंने देखा सरकारी बसों के संवाहक अगरचे यात्रियों को टिकट देते ही नहीं थे और अगर जिद करने पर देते भी थे तो परचूनिया टिकट जिन पर क्रम संख्या तक अंकित नहीं होते थे बांकी रूट-किराया-गंतव्य स्थान वगैरह के ब्योरे की बाद तो दूर ही रही. एकाध संवाहक कार्बन लगाकर टिकट काट जरूर रहे थे लेकिन उसमें से भी कितना पैसे सरकारी खजाने में जाता होगा राम ही जानें. इतना ही नहीं कोई संवाहक हाजीपुर से मुजफ्फरपुर का भाड़ा ८० रूपया ले रहा था तो कोई ९०-१०० और १२०. कोई निर्धारित भाड़ा नहीं जितना लूट सको लूट लो.
मित्रों, अगर ईटीएम से टिकट कटता तो सरकारी बसों में ऐसी मनमानी और बेईमानी हरगिज नहीं होती. क्योंकि ईटीएम से टिकट में हाेने वाली गड़बड़ियों पर रोक लगेगी। यात्रियों को समय और किलोमीटर अंकित टिकट मिलेगा। ईटीएम मशीन से बस के चलने का समय, किराए की डिटेल, किलोमीटर, बस का दूसरे स्थान पर पहुंचने का समय, टैक्स, टूल टैक्स, बस के रूट की जानकारी, कंडक्टर की रिसीट ऑल टिकट का जोड़ भी मिला करेगा।
मित्रों, समझ में नहीं आता कि जो मशीन उत्तर प्रदेश की बसों में वर्षों पहले लागू हो चुकी है वो अब तक उसके पडोसी राज्य बिहार में क्यों लागू नहीं हुई? क्या नीतीश कुमार जी इतने शाहे बेखबर हैं कि उनको सरकारी बसों और उनके संवाहकों का सच पता नहीं है? या नीतीश जी भी चाहते हैं कि भ्रष्टाचार चलता रहे? हाँ, यह मेरी समझ में जरूर आ गया है कि उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बिहार से इतना आगे क्यों है?
सोमवार, 6 सितंबर 2021
जातीय जनगणना की बेतुकी मांग
मित्रों, अगर आप भारत के किसी छोटे बच्चे से भी पूछेंगे कि देश को किसने बर्बाद किया तो वो छूटते ही कहेगा नेताओं ने. दुर्भाग्य की बात है कि जैसे-जैसे नेताओं की नई पीढी आ रही है वैसे-वैसे नेताओं का देशहित से सरोकार कम होता जा रहा है। अब स्थिति इतनी खराब हो गई है कि हमारे नेता सिर्फ लोक लुभावन देश नशावन मुद्दों को ही हवा देने लगे हैं. मध्यकाल में जहाँ संत कबीर ने कहा था कि जाति न पूछो साधू की, केवल देखिए ज्ञान; मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान वहीँ हमारे वर्तमान काल के नेताओं ने जाति नाम परमेश्वर बना दिया है.
मित्रों, हमारे नेता इतने पर ही रूक जाते तो फिर भी गनीमत थी. उन्होंने यह जानते हुए पहले जातीय आरक्षण लागू किया कि हर जाति में गरीबी है. फिर पंचायत व शहरी निकाय चुनावों में यह जानते हुए जाति आधारित आरक्षण लागू किया कि लोकतंत्र बहुमत का शासन है. जाति के नाम पर पार्टी को पारिवारिक संस्था में बदल देनेवाले नेताओं का प्रतिभा का गला घोंटने के बाद भी जी नहींं भरा और अब वो जातीय जनगणना की मांग करने लगे हैं.
मित्रों, यह बात किसी से छिपी हुई नहींं है कि जब कांग्रेस राज में परिवार नियोजन का महा अभियान चला था तब सबसे ज्यादा बंध्याकरण सवर्णों ने ही करवाया था जिससे उनकी संख्या में भारी गिरावट आई. ऐसे में अगर जातीय जनगणना होती है तो सबसे ज्यादा नुकसान में वही लोग होंगे जिन्हें सबसे ज्यादा देश की चिंता होती है.
मित्रों, ऐसा इसलिए होगा क्योंकि जाति नाम परमेश्वर वाले नेतागण लगे हाथों जनसंख्या के अनुपात में जातीय आरक्षण की मांग करेंगे. फिर पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा को तोड़ दिया जाएगा और देश शत प्रतिशत आरक्षण की ओर अग्रसर हो जाएगा. फिर प्रतिभा और गुणवत्ता का कोई मायने नहीं रह जाएगा और इस तरह भारत कभी भी विश्वगुरू नहीं बन पाएगा.
मित्रों, अत: जातीय जनगणना का जमकर विरोध किया जाना चाहिए क्योंकि यह एक पश्चगामी कदम है. इससे न सिर्फ जातीय राजनीति को बढावा मिलेगा वरन प्रतिभावानों का मनोबल भी गिरेगा.
सोमवार, 16 अगस्त 2021
फिर से तालिबान
मित्रों, अफगानिस्तान में फिर से तालिबान का पदार्पण हो चुका है. अर्थात अमेरिका ने पिछले दो दशकों में तालिबान को उखाड़ फेंकने के जो भी प्रयास किए थे सब पर पानी फिर चुका है. इस बार भले भी अफगानिस्तान में लादेन या उमर नहीं हैं लेकिन फिर भी यह यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता है कि भविष्य में अफगानिस्तान फिर से इस्लामिक आतंकवाद का एक और केंद्र बनकर नहीं उभरेगा.
मित्रों, मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद व्यक्ति आधारित न थी न है बल्कि विचारधारा आधारित है. जब कुरान और हदीस ही मुसलमानों को पूरी दुनिया से काफिरों को मिटाकर इस्लाम का शासन कायम करने की आज्ञा और प्रेरणा देते हैं तो इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि जब तक इस्लाम है दुनिया में हिंसा रहेगी, आतंकवाद रहेगा.
मित्रों, अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने बाद तालिबान ने कहा है कि वे शरिया कानून के तहत महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करेंगे. लेकिन समस्या यह है कि शरिया कानून में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ही नहीं। सच्चाई तो यह है कि अफगानिस्तान में किशोर लड़कियों को घरों से जबरन उठाया जा रहा है और अपने लड़ाकों के बीच जीत की ट्रॉफी के रूप में उनको वितरित कर दिया जा रहा है.
मित्रों, अभी दो-तीन दिन पहले भारत के राजौरी में एक तीन वर्षीय बच्चे वीर सिंह की बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी गई. इस हत्या के पीछे भी वही इस्लामिक विचारधारा है जिसकी क्रूरता का कोई अंत नहीं. यह विचारधारा न तो काफिरों के प्रति नरम है और न ही मुसलमानों के प्रति. इराक और सीरिया में हम शरिया शासन देख चुके हैं जिसमें हजारों निर्दोष लोगों को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि वे मुसलमान नहीं थे. फिर भी न जाने कुछ लोग क्यों और किस आधार पर इस्लाम को शांति का धर्म बता रहे हैं.
मित्रों, तालिबान के फिर से उभरने के पीछे जहाँ अमेरिका की मूर्खता है वहीँ चीन, रूस और पाकिस्तान की धूर्तता भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है. हम नहीं जानते कि भविष्य में वैश्विक राजनीति कौन-सी दिशा पकडनेवाली है और उसमें तालिबान का क्या योगदान होगा लेकिन अफगानिस्तान में जो कुछ भी हो रहा है वो न तो भारत और न ही मानवता के हित में है. रूस न तो कभी भारत का मित्र था, न है और न होगा. वो तो बस नेहरु-गाँधी परिवार का मित्र था. इसी तरह हमें अपनी विदेश नीति अमेरिका से अलग हटकर बनानी होगी. वर्ना जिस तरह अफगानिस्तान में हमारे २२५०० करोड़ रूपये के निवेश बेकार हो गए हैं दूसरे देशों में भी होते रहेंगे.
बुधवार, 11 अगस्त 2021
अश्विनी उपाध्याय की गिरफ़्तारी
मित्रों, क्या आपने कभी देश की स्थिति के बारे में सोंचा है? क्या देश की दुरावस्था को देखकर कभी किसी रात आपकी नींद गायब हुई है? क्या आपके मन में कभी अंग्रेजी राज को देश से मिटा देने की ईच्छा आई है? आपने एकदम सही समझा है मैं गोरे अंग्रेजों की बात नहीं कर रहा बल्कि काले अंग्रेजों की बात कर रहा हूँ.
मित्रों, मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसे देश में छाई अराजकता के कारण सचमुच रातों में नींद नहीं आती. मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसने देश की समस्त बिमारियों का ईलाज ढूंढ निकाला है. मैला आंचल के डागदर बाबू ने तो सबसे बड़ी बीमारी की खोज की थी इस व्यक्ति ने उस बीमारी अर्थात गरीबी का ईलाज भी निकाल लिया है. और उस आदमी को जिसे हम पीआईएल मैन के नाम से भी जानते हैं का नाम है अश्विनी उपाध्याय.
मित्रों, यह आदमी सर्वोच्च न्यायालय का वरिष्ठ अधिवक्ता है. इस आदमी ने जंतर मंतर और देश भर में अंग्रेजी राज से चले आ रहे कानूनों को समाप्त करने की मांग करते हुए पिछले ८ अगस्त को जुलूस निकाला था. जंतर मंतर के जुलूस में कुछेक लुम्पेन यानि लम्पट लोग भी घुस आए या घुसा दिए गए और मुसलमानों के खिलाफ आपत्तिजनक नारे लगा दिए. अब मुसलमान तो ठहरे होली काऊ पवित्र गाय सो अश्विनी उपाध्याय जी को उस अपराध के लिए आनन-फानन में उन्हीं कानूनों के अंतर्गत जेल भेज दिया गया जिनको समाप्त करने की उन्होंने मांग की थी. इस देश की राजधानी में मौलाना शाद और अमानतुल्ला खान को ५६ ईंच की दाढ़ीवाले बाबा की पुलिस पकड़ना तो दूर छू भी नहीं पाती लेकिन अपनी ही पार्टी के एक निर्दोष और देशभक्त नेता को झटपट पकड़ लेती है. वाह री सरकार!
मित्रों, पकडे भी क्यों न? ऐसा करके सरकार ने एक तीर से दो शिकार जो किए हैं. मुसलमानों को बता दिया कि हम भी नमाजवादियों की तरह ही तुष्टीकरण की नीति पर चलने को तैयार हैं और अपने गले में अटकी हुई हड्डी को निगल भी गई.
मित्रों, ऐसा नहीं है कि अश्विनी जी को यह पता नहीं था कि उनकी पार्टी और उनकी पार्टी की संघ सरकार किसी भी तरह के कानूनी, प्रशासनिक या न्यायिक सुधार के खिलाफ है अर्थात यथास्थितिवादी है. फिर भी अश्विनी उपाध्याय जी ने हिम्मत नहीं हारी. ऐसा भी नहीं है कि अश्विनी जी अचानक सड़क पर उतर गए. बल्कि जब उन्होंने देखा कि उनकी पार्टी की सरकार ही उनकी देशहित के लिए नितांत आवश्यक मांगों पर भी कान नहीं दे रही है तब वे सड़क पर उतरे. अश्विनी जी बार-बार जनसंख्या-नियंत्रण कानून की मांग करते रहे. एक बार प्रधानमंत्री के समक्ष कानून के ड्राफ्ट को प्रदर्शित भी किया लेकिन हुआ कुछ भी नहीं. यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी गए लेकिन वहां भी सरकार ने कह दिया कि वह ऐसे किसी कानून के समर्थन में नहीं है. इसी तरह अश्विनी जी सर्वोच्च न्यायालय में अकेले लम्बे समय से हिन्दू अल्पसंख्यकों की लडाई लड़ते आ रहे हैं.
मित्रों, आज देश में बिना घूस दिए कोई काम नहीं होता तो इसके लिए दोषी कौन है-अंग्रेजी राज वाले कानून. वो कानून जिनका निर्माण अंग्रेजों ने भारत को लूटने और भारतीयों का दमन करने के लिए किया था. हम जानते हैं कि नारेबाजी तो बस एक बहाना है, अश्विनी उपाध्याय नामक ऊंट को पहाड़ के नीचे लाना है. लेकिन हम सरकार को आगाह करना चाहेंगे कि अश्विनी जी ने जो आन्दोलन शुरू किया है, जो मशाल जलाई है वो अब बुझेगी नहीं बल्कि और भी तेजी से धधकेगी और अंततः उसे अंग्रेजी राज के कानूनों को समाप्त करना ही होगा, भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून बनाने ही होंगे, समान शिक्षा, समान चिकित्सा, समान कर संहिता, समान पेंशन, समान दंड संहिता, समान श्रम संहिता, समान पुलिस संहिता, समान नागरिक संहिता, समान धर्मस्थल संहिता और समान जनसंख्या संहिता को लागू करना ही होगा. #IsupportAshwiniUpadhyay
सोमवार, 9 अगस्त 2021
समझौते की मेज पर भारत की एक और हार
मित्रों, जब २०१४ का लोकसभा का चुनाव प्रचार चल रहा था तब भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी बार-बार एक बात का वादा अपने भाषणों में किया करते थे कि अगर उनकी सरकार बनी तो भारत न तो किसी देश के आगे आँखें झुकाकर बात करेगा, न ही आँखें दिखाकर बात करेगा बल्कि आँखों में आँखें डालकर बात करेगा. तब लोगों ने समझा था कि उनका इशारा चीन की तरफ है. लेकिन आज जब लद्दाख में भारत और चीन की सेनाएं एक साल के तनाव के बाद वापसी कर रही है तब दूसरा ही मंजर देखने को मिला है.
मित्रों, दरअसल भारत वार्ता की मेज पर एक बार फिर से हार गया है जबकि रणनीतिक रूप से भारत की स्थिति चीन के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत थी. सैन्य मामलों के जानकार और विशेषज्ञों ने चीन के साथ हुए भारत के उस समझौते पर सवाल उठाए हैं जिसमें भारत ने अपने अधिकार क्षेत्र वाले पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील के उत्तर और दक्षिणी तट पर 10 किलोमीटर चौड़े बफ़र ज़ोन को बनाने के लिए सहमति दे दी है. जानकारों का कहना है कि डेपसांग और कुछ अन्य सक्टरों में भी डिस्इंगेजमेंट को लेकर भारत को चीन पर दबाव बनाना चाहिए था और ऐसा नहीं करके भारत ने बहुत बड़ी चूक कर दी है क्योंकि कूटनीतिक और सैन्य दृष्टि से यह क्षेत्र भारत के लिए बेहद अहम है. यह वही क्षेत्र है, जहां माना जाता है कि चीन की सेना भारत के अधिकार वाले क्षेत्र में 18 किलोमीटर तक अंदर प्रवेश कर गई है.
मित्रों, रक्षा मामलों के जानकार और कर्नल (सेवानिवृत्त) अजेय शुक्ला ने इस संबंध में बीबीसी से बात की. चीन के साथ बफ़र ज़ोन को बनाने को लेकर हुए समझौते पर बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा- "मेरी समझ में ये एक अच्छा अग्रीमेंट है क्योंकि पैंगोंग के उत्तर और दक्षिण, दोनों जगह भारत और चीन के सैनिक बिल्कुल आमने-सामने थे. किसी भी समय झड़प की आशंका बनी हुई थी और वो झड़प सिर्फ़ झड़प ना रहकर बढ़ जाए, इसकी भी पूरी आशंका बनी हुई थी. इस लिहाज़ से ख़तरा हर समय बना हुआ था, तो वहां से दोनों ओर की सेनाओं का पीछे हटना अच्छी बात थी. लेकिन यहां ये भी कहना ज़रूरी है कि यहां पर दक्षिणी पैंगोंग ही एकमात्र ऐसी जगह थी जहां भारतीय सेना अच्छी पोज़िशन पर थी.'' वो कहते हैं, ''चीन की सेनाओं की तुलना में इस जगह पर भारतीय सेना की स्थिति काफी अच्छी थी और यहां पर सारी एडवांटेज भारतीय सैनिकों के पास थी. तो यहां से डिस्इंगेजमेंट के लिए सहमति देने का मतलब अब यह है कि जो ट्रंप कार्ड हमारे हाथ में था, हम वो खेल चुके हैं. वो अब हमारे पास नहीं रहा है और अगर चीन ये बात नहीं मानता है कि बाकी जगहों से भी डिस्इंगेजमेंट करना है और वो उससे इनक़ार कर दे तो हमारे पास में कोई ट्रंप कार्ड नहीं बचा है."
मित्रों, 10 फ़रवरी को भी उन्होंने एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने पैंगोंग से जुड़ी घोषणाओं को लेकर सवाल उठाए थे. उन्होंने ट्वीट में कहा था - ''पैंगोंग सेक्टर में सेनाओं के पीछे हटने को लेकर झूठ बोला जा रहा है. कुछ हथियारबंद गाड़ियों और टैंकों को पीछे लिया गया है. सैनिकों की पोज़िशन में कोई बदलाव नहीं हुआ है. चीन को फ़िंगर 4 तक पेट्रोलिंग करने का अधिकार दे दिया गया है. इसका मतलब यह है कि एलएसी फ़िंगर 8 से फ़िगर 4 पर शिफ़्ट हो गई है.''
मित्रों, राज्यसभा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी ने भी इस संबंध में ट्वीट करके अपना मत ज़ाहिर किया है. उन्होंने लिखा है, "साल 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि कोई आया नहीं और कोई गया नहीं. चीन के लोग बहुत खुश हुए थे. लेकिन ये सच नहीं था. बाद में नरवणे ने सैनिकों को आदेश दिया कि वे एलएसी पार करें और पैंगोंग हिल को अपने कब्ज़े में लें. ताकि पीएलए के बेस पर नज़र रखें. और अब हम उन्हें वहां से हटा रहे हैं. लेकिन डेपसांग से क्या चीन पीछे हट रहा है? नहीं अभी नहीं."
मित्रों, इससे पूर्व चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद पर मौजूदा जानकारी देते हुए केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सदन में कहा था कि भारत ने हमेशा चीन को यह कहा कि द्विपक्षीय संबंध दोनों पक्षों के प्रयास से ही विकसित हो सकते हैं. साथ ही सीमा के प्रश्न को भी बातचीत के ज़रिए ही हल किया जा सकता है. वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति में किसी भी प्रकार की प्रतिकूल स्थिति का बुरा असर हमारी द्विपक्षीय बातचीत पर पड़ता है. उन्होंने कहा था कि ''टकराव वाले क्षेत्रों में डिस्इंगेजमेंट के लिए भारत का यह मत है कि 2020 की फ़ॉरवर्ड डेपलॉयमेंट्स (सैन्य तैनाती) जो एक-दूसरे के बहुत नज़दीक हैं, वो दूर हो जायें और दोनों सेनाएं वापस अपनी-अपनी स्थायी चौकियों पर लौट जाएं.'' राजनाथ सिंह ने दोनो सेनाओं के कमांडरों के बीच हुई बातचीत का भी ज़िक्र किया था. राजनाथ सिंह ने कहा था, ''अभी तक सीनियर कमांडर्स के स्तर पर नौ दौर की बातचीत हो चुकी है. हमारे इस दृष्टिकोण और बातचीत के फ़लस्वरूप चीन के साथ पैंगोंग त्सो झील के उत्तर और दक्षिण छोर पर सेनाओं के पीछे हटने का समझौता हो गया है.'' उन्होंने सदन में यह स्पष्ट शब्दों में कहा था कि - इस बातचीत में हमने कुछ भी खोया नहीं है. जबकि सच तो यह है कि भारत ने समझौते में रणनीतिक चोटियों पर से अपना पोजिशन खोया है भले ही समझौते में जमीन खोने का जिक्र नहीं हो लेकिन सच तो यह है कि चीन ने पहले भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण किया और फिर यथास्थिति को औपचारिक रूप देते हुए भारत पर बफर जोन थोप दिया. सच तो यह है कि यह एक एकतरफा समझौता है जिसमें
चीन की दोहरी-तिहरी जीत हुई है। पहली- गलवान सौदा एलएसी में थोड़े बदलाव के साथ तीन किमी चौड़ा बफर जोन बनाता है। भारत अपने पैट्रोलिंग प्वाइंट (पीपी) 14 तक पहुंच खो देता है। दूसरी- पैंगॉन्ग सौदा भारत को रणनीतिक कैलाश हाइट्स को खाली करने के लिए मजबूर करता है, जबकि तीसरी- गोगरा सौदा पांच किमी का बफर बनाता है, जिससे भारत पीपी-17 ए तक पहुंच खो देता है।
मित्रों, इस बारे में रक्षा मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी भी रक्षा मंत्री से सहमत नहीं हैं। उन्होंने इस मामले में ट्वीट किया है, ''किसी भी सौदे में कुछ दिया जाता है और कुछ लिया जाता है. लेकिन भारत ने चीन के साथ जो समझौता (पैंगोंग इलाक़े को लेकर) किया है वो बेहद सीमित है.'' रणनीतिक और सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी कहते हैं कि दो देशों के बीच समझौते लेन-देन पर आधारित होते हैं. लेकिन चीन के साथ भारत का समझौता केवल पैंगोंग इलाक़े तक सीमित है, और भारत की पेशकश है. ऐसा लगता है कि सर्दियों से पहले चीन ने जो शर्तें रखी थीं भारत ने उसे मान लिया है और पैगोंग इलाक़े को लेकर समझैता कर नो मैन्स लैंड बनाने पर तैयार हो गया है. एक अन्य ट्वीट में उन्होंने सवाल किया, ''चीन के आक्रामक रवैये के ख़िलाफ़ भारत खड़ा रहा है और उसने दिखाया है कि वो युद्ध की पूरी तैयारी के साथ भारत हिमालय की सर्दियों के मुश्किल हालातों में भी डटा रह सकता है. ऐसे में बड़े मुद्दों का हल तलाश करने की जगह अपनी मुख्य ताक़त कैलाश रेंज कंट्रोल को हारने को लेकर इस तरह के एक सीमित समझौते के लिए भारत क्यों तैयार हुआ?''
मित्रों, समझ में नहीं आता कि भारत चीन के समक्ष क्यों झुका? क्या अमेरिका में सत्ता परिवर्तन ने मोदी को हिला कर रख दिया, या फिर रूस की तरफ से कोई दबाव था, या फिर अफगानिस्तान की मौजूदा हालत ने मोदी के हाथ-पाँव फुला दिए? कहाँ गयी वो आँखें जो चीन की आँखों-में आँखें डालकर बात करनेवाली थीं? कहाँ हैं उस कविता के कटे-फटे पृष्ठ जिसको मोदी ने जनता को लुभाने के लिए कभी पढ़ा था-मैं देश नहीं झुकने दूंगा, मैं देश नहीं बिकने दूंगा? माननीय रक्षा मंत्री जी से हमें न तो पहले उम्मीद थी और न अब है क्योंकि वे तो सिर्फ कड़ी निंदा करना जानते हैं. हे गलवान के अमर शहीदों हमें माफ करना क्योंकि हमारी सरकार ने आपकी शहादत को भुला दिया है। पहले कांग्रस सरकार ऐसा करती थी अब भाजपा सरकार भी वही कर रही है.
गुरुवार, 5 अगस्त 2021
भारत कब बनेगा खेलों का विश्वगुरु?
मित्रों, भारत और चीन पड़ोसी देश हैं, दोनों बड़ी आबादी वाले देश हैं, दोनों विश्वगुरु बनने का सपना देख रहे हैं. लेकिन जब बात ओलंपिक खेलों की होती है तो चीन से तुलना करना भारतीयों के लिए काफ़ी शर्मसार करने वाली बात हो जाती है. टोक्यो में जारी ओलंपिक मुक़ाबलों में अब तक का रुझान पिछले ओलंपिक मुक़ाबलों की तरह ही नज़र आ रहा है, जहाँ चीन मेडल टैली में सबसे ऊपर है वहीँ भारत नीचे के पांच देशों में. क्या किसी के पास भारत के इस मायूस और शर्मनाक करने वाले प्रदर्शन का जवाब है?
मित्रों, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. सच तो ये है कि देश में क्रिकेट को छोड़कर किसी और स्पोर्ट्स में किसी को कोई ख़ास दिलचस्पी ही नहीं है. टोक्यो में जारी ओलंपिक खेलों से पहले भारत ने अपने 121 साल के ओलंपिक इतिहास में केवल 28 पदक जीते थे जिनमें से नौ स्वर्ण पदक रहे हैं, और इनमें से आठ अकेले हॉकी में जीते गए थे. जबकि अकेले अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स ने अपने करियर में 28 ओलंपिक पदक जीते हैं जो घनी आबादी वाले देश भारत के पूरे ओलंपिक इतिहास में (टोक्यो से पहले तक) हासिल किए गए कुल पदकों के बराबर है.
मित्रों, भारत के विपरीत चीन ने ओलंपिक मुक़ाबलों में पहली बार 1984 में हुए लॉस एंजेलिस ओलंपिक में भाग लिया था लेकिन टोक्यो से पहले इसने 525 से अधिक पदक जीत लिए थे, जिनमें 217 स्वर्ण पदक थे. टोक्यो में भी अब तक इसका प्रदर्शन ओलंपिक सुपर पावर की तरह रहा है. उसने बीजिंग में 2008 के ओलंपिक खेलों को आयोजित भी किया और 100 पदक हासिल करके पहले नंबर पर भी रहा.
मित्रों, दरअसल, चीन और भारत ओलंपिक मुक़ाबलों के हिसाब से तो अलग-अलग हालत में हैं. आखिर ओलंपिक खेलों के आयोजन के पीछे ख़ास मक़सद स्पोर्ट्स की स्पिरिट को बढ़ाना और राष्ट्रीय गौरव हासिल करना है. चीन इतने कम समय में ओलंपिक सुपर पावर कैसे बन गया? तो इसका जवाब है एक शब्द “डिज़ायर”. ये एक गहरा शब्द है जिसमें कई शब्द छिपे हैं: चाहत, मंशा, अभिलाषा, लालच और यहाँ तक कि महत्वाकांक्षा और लगन भी. जहाँ चीन में पूरे समाज के सभी तबक़े में, चाहे वो सरकारी हो या ग़ैर सरकारी, पदक हासिल करने की ज़बरदस्त चाह है. भारतीय सिर्फ सरकारी नौकरी के लालच में खेलते हैं. हमारा तंत्र और व्यवस्था इतना घटिया है कि बड़े-बड़े खिलाडी ठेला खींचते देखे जा सकते हैं. फिर खेल संगठनों में भी जमकर भ्रष्टाचार होता है. यहाँ तक कि खिलाडियों का यौन शोषण भी होता है.
मित्रों, दूसरी ओर अगर हम ८० के दशक की चीनी मीडिया पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि शुरू के सालों में तमग़ा और मेडल पाने की ये चाहत सिर्फ़ चाहत नहीं थी बल्कि ये एक जुनून था. विश्व में नंबर एक बनने की दिली तमन्ना थी. चीन की आज की पीढ़ी अपने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के उस बयान से प्रेरित होती है जिसमे उन्होंने कहा था, “खेलों में एक मज़बूत राष्ट्र बनना चीनी सपने का हिस्सा है.”. राष्ट्रपति शी का ये बयान ‘डिज़ायर’ ही पर आधारित है.
मित्रों, आम तौर से भारत के नागरिक और नेता हर मैदान में अपनी तुलना चीन से करते हैं और अक्सर चीन की तुलना में अपनी हर नाकामी को चीन के अलोकतांत्रिक होने पर थोप देते हैं, लेकिन ओलंपिक खेलों में अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देश भी बड़ी ताकत हैं. जब भारतीय चीन के प्रति इतने प्रतियोगी हैं तो खेलों का स्तर चीन की तरह क्यों नहीं? या चीन भारतीय खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा क्यों नहीं? आखिर ये कैसे संभव हुआ कि 1970 के दशक में दो ग़रीब देश, जो आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग समान थे मगर इनमें से एक खेलों में निकल गया काफ़ी आगे और दूसरा कैसे काफ़ी पीछे छूट गया? एक पदक में अमेरिका को मात दे रहा है और दूसरा उज़्बेकिस्तान जैसे ग़रीब देशों से भी पिछड़ा है? वास्तव में चीन और हिंदुस्तान की जनसंख्या लगभग समान है और हमारी अधिकांश चीजें भी समान हैं. परन्तु चीन के खिलाड़ियों की ट्रेनिंग साइंटिफ़िक और मेडिकल साइंस के आधार पर ज़्यादा ज़ोर देकर करवाई जाती है जिससे वो पदक प्राप्त करने में कामयाब रहे हैं. चीन में सब बंदोबस्त ‘रेजीमेन्टेड’ होता जिसे सबको मानना पड़ता है. भारत में ऐसा करना मुश्किल है. चीन में माता-पिता और परिवार वाले बचपन से ही अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाना चाहते हैं जबकि भारत में, खास तौर ग्रामीण क्षेत्रों में, माँ-बाप बच्चों को पढ़ाने पर और बाद में नौकरी पर ध्यान देते हैं.
मित्रों, चीन के पास सरकार के नेतृत्व वाली समग्र योजना है, खेलों में लोगों की व्यापक भागीदारी है, वहां ओलंपिक के हिसाब से लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों क्षेतों में मजबूती है, प्रतिभाओं की खोज और प्रोत्साहन के लिए विकसित तंत्र है, सरकारी और निजी क्षेत्रों के बीच तालमेल है. चीन ने अपने खेल के बुनियादी ढांचे में ज़बरदस्त सुधार किया है और वो खुद कई तरह के खेल उपकरण बना सकता है. मित्रों, भले ही रिओ ओलंपिक में चीन पदक तालिका में (70 पदकों के साथ) तीसरे स्थान पर था, लेकिन वो चर्चा इस बात पर कर रहा होगा कि वो लंदन 2012 ओलंपिक में अपने 88 पदकों की संख्या को बेहतर क्यों नहीं कर सका. इसके विपरीत, भारत अपने बैडमिंटन रजत पदक विजेता पीवी सिंधु और कुश्ती कांस्य विजेता साक्षी मलिक को भारी मात्रा में धन और प्रतिष्ठित राज्य पुरस्कारों से नवाज़ रहा है. जिमनास्ट दीपा करमाकर, जो पदक हासिल करने से चूक गईं, और निशानेबाज़ जीतू राय को भी सम्मानित किया गया, जिन्होंने पिछले दो वर्षों में स्वर्ण और रजत सहित एक दर्जन पदक जीते हैं, लेकिन रियो में वो कोई पदक न जीत सकीं.
मित्रों, टोक्यो में ओलंपिक खेल शुरू हुए एक हफ़्ते से ज़्यादा हो गया है और पिछली प्रतियोगिताओं की तरह इस बार भी भारत के जिन खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद थी वो ख़ाली हाथ देश लौट रहे हैं. भारत ने अब तक एक रजत और तीन कांस्य पदक ही जीता है जबकि चीन पर पदकों की बरसात हो रही है. ओलंपिक खेलों की समाप्ति के बाद जनता भारत की नाकामी का मातम मनाएगी और मीडिया इसका विश्लेषण करेगी और थोड़े दिनों बाद सब कुछ नॉर्मल हो जाएगा. भारत की नाकामी का दोष खिलाडियों को पूरी तरह से नहीं दिया जा सकता. दरअसल भारती में खेल संस्कृति का अभाव है, खेलों में पारिवारिक-सामाजिक भागीदारी की कमी है, खेल सरकारों की प्राथमिकता में नहीं हैं, खेल फ़ेडेरेशनों पर सियासत हावी है, खेल इंन्फ्रास्ट्रक्चर और डाइट नाकाफ़ी है, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद है, देश में ग़रीबी है और खेल से पहले नौकरी को लोग प्राथमिकता देते हैं. साथ ही प्राइवेट स्पॉन्सरशिप की भी कमी है. न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों का बजट आवश्यकता के अनुसार है, लगभग सभी राज्य सरकारों का स्पोर्ट्स बजट प्रति व्यक्ति दस पैसा भी नहीं है. ऐसी दशा में खेलों की इस दशा के लिए कौन ज़िम्मेदार है-सरकार, परिवार, समाज? मेरी मानें तो सभी.
सोमवार, 2 अगस्त 2021
पारदर्शिता घटानेवाला सुधार
मित्रों, वर्तमान राजनीति के बारे में आपका क्या ख्याल है? मेरी माने तो ऐन केन प्रकारेण सफलता या जीत प्राप्त कर लेना ही वर्तमान काल में राजनीति है लेकिन जब कोई सत्ता पा लेने के बाद भी छल करता रहे तो उसे क्या कहेंगे?
मित्रों, आपने एकदम ठीक समझा है मेरा तात्पर्य भारत के उन्हीं नेताओं से है जिनके हाथों में हमने अपने देश-प्रदेश का वर्तमान दे रखा है। वही नेता जिनकी कथनी और करनी में कोई साम्य ही नहीं है। जो कहते कुछ है और करते कुछ हैं। दिखाते कुछ हैं और होता कुछ है। कई बार उनके शब्द उनके कृत्य के नितांत विपरीत होते हैं।
मित्रों, मैं मोदीजी की बात नहीं कर रहा मैं बात कर रहा हूं बिहार के राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री रामसूरत राय जी की। दरअसल पिछले दिनों बडी धूमधाम से बिहार भूमि की वेबसाइट का नवीनीकरण किया गया है। ३१ जुलाई को बिहार के राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री श्री राम सूरत राय जी ने इसका उद्घाटन किया. निस्संदेह यह एक अच्छा कदम है क्योंकि कई सारी सुविधाएँ जो पहले से इस वेबसाइट पर जनता जनार्दन को उपलब्ध नहीं थी अब उपलब्ध है.
मित्रों, लेकिन एक सुविधा जो पहले से इस वेबसाइट पर उपलब्ध थी अब समाप्त कर दी गई है. पहले जहाँ प्रत्येक मौजा के प्रत्येक वर्ष के अब तक के सारे लंबित दाखिल ख़ारिज मामलों की स्थिति को जब चाहे तब चाहे जितनी बार देखा जा सकता था अब देखा नहीं जा सकेगा. निश्चित रूप से इससे उन निकम्मे और घूसखोर कर्मचारियों व अधिकारियों को फायदा पहुँचनेवाला है जो बिना घूस लिए जमीन का दाखिल ख़ारिज नहीं करते.
मित्रों, जहाँ पूरी दुनिया में सूचना क्रांति के इस दौर में पारदर्शिता बढ़ाने पर जो दिया जा रहा है वहीँ बिहार सरकार ने अपने सबसे भ्रष्ट विभाग में पारदर्शिता को घटानेवाला पश्चगामी कदम उठाया है. एक तरफ मंत्रीजी इस विभाग से घूसखोरी को समाप्त करने का इरादा लगातार मीडिया में जाहिर करते रहते हैं वहीँ दूसरी और उनके द्वारा वेबसाइट में प्रतिगामी परिवर्तन जिससे रिश्वतखोरी को बढ़ावा मिलेगा आश्चर्य में डालनेवाला है. निश्चित रूप से यह जनता के साथ छल है, धोखा है.
मंगलवार, 27 जुलाई 2021
ब्राह्मण सम्मेलन का नाटक
मित्रों, जब हम आईएएस की तैयारी कर रहे थे तो एक दिन अपनी कोचिंग के इतिहास के शिक्षक और इतिहास के उद्भट विद्वान ओमेन्द्र सर से पूछा था कि देश की आजादी के लिए सबसे ज्यादा फांसी पर कौन चढ़े थे तो उन्होंने बताया था कि ब्राह्मण. साथ ही आन्दोलन का स्थानीय नेतृत्व पूरे भारत में उन्होंने ही किया था. फिर नंबर आता है क्षत्रिय, कायस्थों और अन्य जातियों का.
मित्रों, अगर हम आपसे पूछें कि देश की आजादी के बाद सबसे ज्यादा नुकसान किसको हुआ है तो निश्चित रूप से आप कहेंगे सवर्णों का. आज सवर्णों की स्थिति इतनी ख़राब है, वे इतने हाशिए पर जा चुके हैं कि न तो राजनीति में उनकी कोई पूछ है और न ही समाज में.
मित्रों, आपने इतिहास की किताबों में पढ़ा होगा कि १९१८ में अंग्रेज सरकार रौलेट एक्ट लेकर आई थी जिसमें पहले गिरफ़्तारी और बाद में जाँच का प्रावधान था. सन १९८९ में तत्कालीन राजीव गाँधी की सरकार ने एक कानून बनाया जो लगभग रौलेट एक्ट ही था. वह कानून था-अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989. इस कानून में ऐसे प्रावधान हैं कि जैसे ही एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज होता है ऑंख बंद कर सबसे पहले आरोपित को गिरफ्तार किया जाएगा फिर बाद में जाँच होगी. जैसे स्कूल में पहले बच्चे को दण्डित कर दिया जाए बाद में पता लगाया जाए कि उसकी गलती थी या नहीं. इतना ही नहीं इस एक्ट में पीड़ित को तत्काल सरकार की तरफ से मुआवजा देने का भी प्रावधान है जो इस एक्ट को और भी घातक बनाता है. कई बार कोर्ट में केस झूठा साबित होने पर भी पीड़ित मुआवजे की राशि नहीं लौटाते जबकि होना यह चाहिए कि वही मुआवजा उन जालसाजों से वापस लेकर आरोपित को देना चाहिए. साथ ही झूठा मुकदमा करनेवालों जेल भी भेजना चाहिए.
मित्रों, सन १९८९ को अब ३२ साल बीत चुके हैं. पंचायत चुनावों से लेकर शिक्षण संस्थानों व ठेके तक में तमाम क्षेत्रों में आरक्षण के चलते अब एससी-एसटी समेत पिछड़ी जातियों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति वैसी नहीं रही जैसी १९८९ में थी. बल्कि कई अवर्णों के पास तो अपार धन-संपत्ति है जबकि सवर्णों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति में कल्पनातीत गिरावट आई है और बहुत से लोग तो भूखों मर रहे हैं. फिर भी एससी-एसटी एक्ट ज्यों-का-त्यों है. आरक्षण और फीस में छूट भी वैसे ही है. यहाँ मैं आपको बता दूं कि १९८९ में भी बहुत-से सवर्ण पूरी तरह से भूमिहीन थे और उनकी आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक स्थिति भी एससी-एसटी से बेहतर नहीं थी. फिर भी राजीव गाँधी जो अपनी मूर्खता के लिए विश्व प्रसिद्ध थे यह कानून लेकर आए. जाहिर है वजह वोट बैंक था. आजादी के बाद भी राष्ट्र प्रथम की सोंच रखने के कारण सवर्णों ने सबसे ज्यादा परिवार नियोजन करवाया इसलिए उनकी जनसंख्या में हिस्सेदारी लगातार घटती रही इसलिए भी वोट बैंक के रूप में उनका महत्व क्रमशः घटता गया. साथ ही हर जगह आरक्षण होने से सामाजिक प्रभाव में तो गिरावट आई ही.
मित्रों, इस बारे में मुझे एक घटना याद आ रही है. जब २००५ में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो तब के उनके मुख्य सहायक श्री शिवानन्द तिवारी ने उनसे कहा था कि बांकियों की चिंता करिए सवर्णों की चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है. वे तो बिहार का विकास देखकर ही आपको वोट दे देंगे. और ऐसा हुआ भी. इसी से समझ सकते हैं कि सवर्ण आज भी अपने से ज्यादा देश-प्रदेश का भला चाहते हैं.
मित्रों, आज एक गरीब ब्राह्मण जिस नौकरी के आवेदन के लिए १००० रूपये की फ़ीस देता है करोड़पति एससी-एसटी को कभी-कभी तो एक पैसा भी नहीं देना पड़ता है. यह कैसा न्याय है और कैसी समानता है? क्या यह अत्याचार नहीं है? क्या समय के साथ आरक्षण और फीस सम्बन्धी प्रावधानों को बदलना नहीं चाहिए? रही बात एससी-एसटी एक्ट की तो चूंकि आज एससी-एसटी बड़ी संख्या में मुखिया-सरपंच-अधिवक्ता-अधिकारी बन चुके हैं इसलिए इस कानून का सदुपयोग तो हो नहीं रहा दुरुपयोग जरूर हो रहा है और जमकर हो रहा है. कई बार तो एससी-एसटी जाति के लोग सवर्णों को पीटते भी हैं और इस एक्ट की सहायता से उनको जेल भी भिजवा देते हैं.
मित्रों, कई साल पहले आरा, बिहार में एक महादलित बीडीओ ने एक पत्रकार पर चुपके से एससी-एसटी एक्ट के तहत मुकदमा इसलिए दर्ज करवा दिया क्योंकि उसने उनका घोटाला पकड़ लिया था. अचानक बेचारे की गिरफ़्तारी भी हो गई. बाद में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने मामला संज्ञान में आने के बाद उसे जेल से बाहर निकलवाया. अब आप ही बताईए कि जब पत्रकार की ऐसी हालत कर दी गई तो बीडीओ साहब का आम सवर्ण या पिछड़ों के प्रति क्या रवैया रहता होगा.
मित्रों, इस बीच 20 मार्च 2018 को माननीय सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने स्वत: संज्ञान लेकर एससी/एसटी एक्ट में आरोपियों की शिकायत के फौरन बाद गिरफ्तारी पर रोक लगा दी । शिकायत मिलने पर एफआईआर से पहले शुरुआती जांच को जरूरी किया गया था। साथ ही अंतरिम जमानत का अधिकार दिया था। तब कोर्ट ने माना था कि इस एक्ट में तुरंत गिरफ्तारी की व्यवस्था के चलते कई बार बेकसूर लोगों को जेल जाना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- गिरफ्तारी से पहले शिकायतों की जांच निर्दोष लोगों का मौलिक अधिकार है। लेकिन, 9 अगस्त 2018 को फैसले के खिलाफ अति हिंसक प्रदर्शनों के बाद केंद्र सरकार एससी/एसटी एक्ट में बदलावों को दोबारा लागू करने के लिए संसद में संशोधित बिल लेकर आई। इसके तहत एफआईआर से पहले जांच जरूरी नहीं रह गई। जांच अफसर को गिरफ्तारी का अधिकार मिल गया और अग्रिम जमानत का प्रावधान हट गया। आश्चर्यजनक तो यह रहा कि किसी भी सवर्ण सांसद ने न तो लोकसभा में और न ही राज्यसभा में इस अन्यायपूर्ण संशोधन का विरोध किया.
मित्रों, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने ६ नवम्बर, २०२० को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि उच्च जाति के किसी व्यक्ति को उसके कानूनी अधिकारों से सिर्फ इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि उस पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (SC/ST) के किसी व्यक्ति ने आरोप लगाया है। जस्टिस एल. नागेश्वर राव की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, 'एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कोई अपराध इसलिए नहीं स्वीकार कर लिया जाएगा कि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति का है, बशर्ते यह यह साबित नहीं हो जाए कि आरोपी ने सोच-समझकर शिकायतकर्ता का उत्पीड़न उसकी जाति के कारण ही किया है।' एसटी/एसटी समुदाय के उत्पीड़न और उच्च जाति के लोगों के अधिकारों के संरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी काफी क्रांतिकारी मानी जा रही है। तीन सदस्यीय पीठ की तरफ से लिखे फैसले में जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा कि उच्च जाति के व्यक्ति ने एससी/एसटी समुदाय के किसी व्यक्ति को गाली भी दे दी हो तो भी उस पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। हां, अगर उच्च जाति के व्यक्ति ने एससी/एसटी समुदाय के व्यक्ति को जान-बूझकर प्रताड़ित करने के लिए गाली दी हो तो उस पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई जरूर की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि जब तक उत्पीड़न का कोई कार्य किसी की जाति के कारण सोच-विचार कर नहीं किया गया हो तब तक आरोपी पर एससी/एसटी ऐक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है. सर्वोच्च अदालत ने कहा कि उच्च जाति का कोई व्यक्ति अगर अपने अधिकारों की रक्षा में कोई कदम उठाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसके ऊपर स्वतः एससी/एसटी ऐक्ट के तहत आपराधिक कृत्य की तलवार लटक जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के फैसलों पर फिर से मुहर लगाते हुए कहा कि एससी/एसटी ऐक्ट के तहत उसे आपराधिक कृत्य ठहराया जा सकता है जिसे सार्वजनिक तौर पर अंजाम दिया जाए, न कि घर या चहारदिवारी के अंदर जैसे प्राइवेट प्लेस में।
मित्रों, फिर भी इसमें संदेह नहीं कि आज भी इस कानून का जमकर दुरुपयोग हो रहा है. झूठे गवाह जुटा लेना अपने देश में कोई बड़ी बात नहीं है. अभी यूपी में चुनाव होने हैं और यूपी में ब्राह्मणों की अच्छी-खासी संख्या है इसलिए सारे दल ब्राह्मण सम्मलेन आयोजित कर रहे हैं. इनमें वह दल भी शामिल है जिसने देशभर में तोड़-फोड़कर सुप्रीम कोर्ट के २० मार्च, २०१८ के फैसले को पलटवाया. आज सवर्ण और पिछड़े एससी-एसटी को मकान-दूकान किराए पर देने से डरने लगे हैं. साथ ही उनको नौकरी देने में लोग डरते हैं. एक तो भलाई करो फिर जेल भी जाओ.
मित्रों, किसी देश का कानून, व्यवस्था को बनाए रखने और समाज में शांति का माहौल बनाने में मदद कर करता है लेकिन जब किसी कानून का इस्तेमाल एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के विरुद्ध अपने फायदे के लिए होने लगता है तो फिर उस कानून में बदलाव की आवश्यकता होती है। पिछले दिनों एक खबर आयी कि एक व्यक्ति विष्णु तिवारी नामक ललितपुर का ब्राह्मण SC/ST एक्ट के तहत बलात्कार के आरोप में 20 वर्षों से सश्रम कारावास में आगरा केंद्रीय कारागार में कैद था अब जा कर निर्दोष साबित हुआ है। आखिर हमारे देश का कानून किस प्रकार से उस व्यक्ति के गुज़रे हुए 20 वर्ष वापस कर सकता है? यह तो सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसे ना जाने कितने उदाहरण देश में भरे पड़े है जो न केवल यह दिखाते हैं कि कैसे SC/ ST का दुरुपयोग होता है बल्कि उसका इस्तेमाल आपसी रंजिश के कारण भी किया जा रहा है। दरअसल, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में Scheduled Castes and the Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989 (Vishnu v. State of UP) के तहत बलात्कार, आपराधिक धमकी जैसे आरोपों के कारण 20 साल से जेल में बंद एक व्यक्ति को आरोप मुक्त किया है। डॉ. कौशल जयेंद्र ठाकर और गौतम चौधरी की पीठ ने एक ऐसे व्यक्ति को बरी कर दिया जो झूठे बलात्कार और दलित अत्याचार मामले में बीस साल से अधिक समय तक जेल में रहा। रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने पाया कि घटना की तारीख, यानी 16.9.2000 से आरोपी जेल में है यानी 20 साल से। उस व्यक्ति को आईपीसी की धारा 376, 506 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 (1) (xii) के साथ धारा 3 (2) (v) के तहत गिरफ्तार किया गया था. अब जाकर कोर्ट ने तथ्यों और चिकित्सा रिपोर्टों को सुनते हुए मामले को खारिज कर दिया और आरोपी को आपसी रंजिश का शिकार पाया. मेडिकल रिपोर्ट में चोटों और यौन हमले का कोई संकेत नहीं है। इसके अलावा, अदालत ने पाया कि शिकायतकर्ता ने शिकायत एक ही मकसद के कारण की थी। दोनों पक्षों के बीच पहले से भूमि विवाद था जिसके कारण अभियोजन पक्ष ने यौन उत्पीड़न के मामले को दायर किया ।
मित्रों, सुनवाई के दौरान, अदालत ने दोहराया कि अगर कोई भूमि विवाद में हैं तो उस व्यक्ति के खिलाफ SC/ST अधिनियम के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। कोर्ट के अनुसार, “हमारी जाँच पड़ताल में, चिकित्सा प्रमाण यह स्पष्ट करते है कि डॉक्टर को किसी भी प्रकार का शुक्राणु नहीं मिला था। डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से कहा कि जबरन संभोग का भी कोई संकेत नहीं मिला और ना ही किसी प्रकार की अंदरूनी चोट थी।” रिकॉर्ड पर तथ्यों और सबूतों के मद्देनज़र, अदालत ने आश्वस्त किया था कि आरोपी को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है, इसलिए आदेश को बदल कर आरोपी को बरी कर दिया गया. बता दें कि इकोनोमिक टाइम्स कि रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने बताया था कि 2016 में SC/ST एक्ट के अंदर 8900 केस गलत थे। राजस्थान पुलिस के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत 2020 में राजस्थान के अंदर 40 प्रतिशत से अधिक मामले फर्जी पाए गए। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2018 में यह कहा था कि ये निर्दोष नागरिकों और पब्लिक सर्वेंट को “ब्लैकमेल” करने का एक साधन बन गया है। 1989 अधिनियम न सिर्फ निर्दोष को दंडित करता है और यहां तक कि संदिग्ध अपराधियों को अग्रिम जमानत भी नहीं देता। फिर अदालत ने कहा कि कानून का इस्तेमाल केवल शिकायतकर्ता की शिकायत मात्र से आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लूटने के लिए किया जाता है। यानी देखा जाए तो इस कानून का जितना उपयोग होता है, उससे अधिक दुरुपयोग होता है। एक व्यक्ति के जीवन के 20 वर्ष जेल में ही गुजर गये वो भी केवल झूठे आरोपों के आधार पर, इससे बड़ी विडंबना शायद ही हो सकती है। इतना ही नहीं मुकदमे में सारी जमीन तक बिक गई और सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ा. इस दौरान परिजनों ने भी उसकी सुध नहीं ली.
मित्रों, उसकी जवानी के वो बीस साल, जब वो अपनी मेहनत और कोशिशों से अपने और अपने परिवार के लिए जमाने भर की खुशियां खरीद सकता था, वो बीस साल उसे कौन वापस करेगा? जो उसने बगैर किसी गुनाह के ही सलाखों के पीछे निकाल दिए. उसकी जवानी के वो बीस साल, जब वो अपनी मेहनत और कोशिशों से अपने और अपने परिवार के लिए जमाने भर की खुशियां खरीद सकता था, वो बीस साल उसे कौन वापस करेगा? उसे उसके मां-बाप कौन लौटाएगा, जो जवान बेटे के गम के तड़प-तड़प कर इस दुनिया से दूर चले गए. उसे उसके उन दो बड़े भाइयों से कौन मिलवाएगा, जिन्हें विष्णु का इंतज़ार भरी जवानी में लील गया. सबसे बडी़ विसंगति तो यह रही कि विष्णु चीख-चीख कर कहता रहा कि वो नाबालिग है, १७ साल का है लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई।
मित्रों, सच्चाई तो यह है किसी भी दल को ब्राह्मणों की समस्याओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है. कोई भी दल इस काले आधुनिक रौलेट एक्ट को बदलने का वादा नहीं कर रहा लेकिन सबको ब्राह्मणों का वोट चाहिए. बांकी सवर्ण तो किसी गिनती में ही नहीं हैं इसलिए उनके लिए कोई जातीय सम्मेलन नहीं हो रहा. सवाल उठता है कि क्या ब्राह्मण सहित सारी गैर एससी-एसटी जातियों को इस कानून को समाप्त करने की न सही सुप्रीम कोर्ट के २० मार्च, २०१८ के निर्णय के अनुकूल बनाने की मांग नहीं करनी चाहिए? आखिर कब तक सवर्ण बतौर शिवानन्द तिवारी देश-प्रदेश हित में अपने निजी हितों को कुर्बान करते रहेंगे? आखिर यह कैसा नाटक है कि जो कोई पार्टी कभी तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार का आह्वान करती है वो आज ब्राह्मणों का झूठा सम्मान करने का नाटक कर रही है? अगर सचमुच ये पार्टियाँ ब्राह्मणों का सम्मान करती हैं तो उनको सबसे पहले एससी-एसटी एक्ट में बदलाव के वादे को अपने अपने घोषणा-पत्र में शामिल करना चाहिए क्योंकि एससी-एसटी एक्ट का सर्वाधिक दुरुपयोग बसपा के शासन में ही होता है.
गुरुवार, 22 जुलाई 2021
अफगानिस्तान बनने को ओर अग्रसर भारत
मित्रों, हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं कि भारत में लोकतंत्र है जिसके तीन भाग हैं-कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका. परन्तु जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ी हमारी समझ में आया कि भारत में तंत्र तो है लेकिन भ्रष्ट, कामचोर व सडा-गला लोकतंत्र है. हमने नया संविधान तो बना लिया लेकिन कानून वही बरक़रार रखे जिनके माध्यम से अंग्रेज हमें लूटते थे. मेरा मतलब आईपीसी, न्यायिक प्रक्रिया और भारतीय प्रशासनिक सेवा से है. अब जब कानून ही गड़बड़ है तो व्यवस्था कैसे सही होगी?
मित्रों, हमारे देश की कार्यपालिका का तो कहना ही क्या! ये बिना तालाब के मछली पाल लेती है, बिना नदी के पुल बना देती है और बिना बांध बने उसमें छेद भी कर देती है. जहाँ देखिए वहां सिर्फ छेद ही छेद है. न्यायपालिका पहले तो तारीख-पे-तारीख देकर पीड़ितों अथवा दिवंगत पीड़ित-पीडिताओं के परिजनों को थका डालती है फिर कई दशकों के बाद कह देती है कि नो वन किल्ड जेसिका. न्यायमूर्ति से चंद कदम पर बैठा उनका पेशकार मुट्ठी गरम कर रहा होता है मगर न्याय की मूर्ति जी को कुछ नजर नहीं आता फिर ऐसा व्यक्ति कैसे न्याय दे सकता है. उस पर गजब यह कि न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति करता है जिससे जमकर भाई-भतीजावाद हो रहा है.
मित्रों, व्यवस्थापिका की तो खुद की पूरी व्यवस्था चरमराई हुई है. अब वहां छंटे हुए बदमाश बैठते हैं. सरकारों ने व्यवस्थापिका पर पूरी तरह से कब्ज़ा कर लिया है. विपक्ष भी नैतिक रूप से पतित हो चुका है. फिर कैसी व्यवस्था? अभी ऑक्सीजन की कमी से कोरोना मरीजों की अकालमृत्यु को ही लें तो भारत की समस्त राज्य सरकारें और संघ सरकार भी एक स्वर में कह रही है कि ऑक्सीजन की कमी से देश में कोई नहीं मरा. जबकि हमने अपनी और कैमरों की आँखों से देखा है कि ऑक्सीजन की कमी से देश में हजारों लोग मरे हैं. मतलब कि संसद में संघ सरकार झूठ बोल रही है और प्रमाण-सहित झूठ बोल रही है. विपक्षी दलों की भी जहाँ-जहाँ सरकारें हैं वे सरकारें भी झूठ बोल रही हैं फिर जनता के लिए लड़ेगा कौन?
मित्रों, मैं एक बार फिर से दोहरा रहा हूँ कि भारत में लोकतंत्र है. बस कागज़ी लोकतंत्र है जो सिर्फ कागजों पर ही नज़र आता है. तंत्र मस्त है लोक पस्त है. चाहे लोक बचें या न बचें तंत्र बचा रहेगा. वास्तव में ऑक्सीजन की जरुरत लोक से ज्यादा तंत्र को है. अंग्रेजी हुकूमत के सारे अवशेषों यथा कानून, शिक्षा-प्रणाली, न्याय प्रक्रिया, पुलिस और प्रशासनिक तंत्र को मिटाना होगा वर्ना एक दिन तंत्र भी नहीं बचेगा, बचेगी तो बस अराजकता और भारत भी अफगानिस्तान बनकर रह जाएगा.
शनिवार, 17 जुलाई 2021
दानिश सिद्दीकी को श्रद्धांजलि
मित्रों, चलिए पहले एक कहानी हो जाए. एक भेड़िया था और एक खरगोश था. भेड़िया बहुत दिनों से खरगोश को खाने के चक्कर में था और बराबर खरगोश को परेशान कर उससे झगड़ने का सुअवसर खोजता रहता था लेकिन खरगोश था कि सबकुछ बर्दाश्त कर जाता था. फिर एक दिन भेड़ियों ने खरगोश का चौतरफा रास्ता रोक लिया. अब खरगोश के सामने कोई विकल्प ही नहीं रहा सो उसने भेड़िये को चेतावनी दी कि वो उसका रास्ता नहीं रोके नहीं तो अंजाम अच्छा नहीं होगा. बस भेड़िये को बहाना मिल गया और उसने खरगोश पर हमला कर दिया. खरगोश ने भी बदले में कुछ भेड़ियों को मार गिराया. मित्रों, अब तो जैसे मीडिया में आग लग गई. पहले से तैयार बैठी खरगोशविरोधी मीडिया ने आनन-फानन में खरगोश को दंगा भड़काने का दोषी घोषित दिया. कुछ मीडिया समूह ने तो यहाँ तक कह दिया कि खरगोशों ने दंगों और भेड़ियों के सामूहिक संहार कि पूर्व योजना बना रखी थी. जंगल की विकीपीडिया की भी यही राय थी.
मित्रों, मेरा मतलब पूरी तरह भारत कि राजधानी दिल्ली के २०२० के दंगों से है. आश्चर्य की बात है कि उस समय दानिश सिद्दीकी नामक महान फोटोग्राफर को पुलिसकर्मी पर पिस्तौल ताने शाहरूख या जाबिर हुसैन के घर से चल रही गतिविधियों की कोई तस्वीर खींचने का मौका नहीं मिला लेकिन रामभक्त गोपाल की तस्वीर खींचने का महान अवसर जरूर मिल गया. जहाँ दानिश मंदिर और हिन्दुओं के स्कूल-घर और गाड़ियों के जलने की कोई तस्वीर नहीं खींच पाए वहीँ जली मस्जिदों पर उन्होंने खूब कैमरा चमकाया. आप ही बताईए ऊपरवाली कहानी में दानिश जैसे लोगों को किसका साथ देना चाहिए था खरगोशों का या भेड़ियों का.
मित्रों, यहाँ बात दूसरी है कि दानिश की हत्या हो चुकी है और हुई भी है भेड़ियों के हाथों. दानिश को भारत में कुछ भी अच्छा नहीं लगता था. मोदी सरकार तो बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स को अच्छी नहीं लगती है. जबकि सच्चाई तो यह है कि मोदी और योगी सरकार ने जितना मुसलमानों के लिए किया है उतना किसी ने नहीं किया. फिर भी जो लोग भारत में भी तालिबान जैसा शरियत का शासन चाहते हैं उनको मोदी कहाँ सुहानेवाले हैं?
मित्रों, पता नहीं ऐसा क्यों है लेकिन सच्चाई यही है कि कुछ महान अंतर्राष्ट्रीय ख्याति वाले पुरस्कार सिर्फ उनके लिए है जो भारत विरोधी हैं, हिंदूविरोधी हैं. दानिश को भी पुलित्ज़र मिल चुका था. मित्रों, क्या अब भी इस बात में कोई संदेह है कि इस्लाम हिंसक और मानवताविरोधी मजहब है? तालिबान ने जीते हुए ईलाकों के मौलवियों से १५ साल से बड़ी अविवाहित और विधवा स्त्रियों कि सूची मांगी है. क्यों? क्या वे उनको पुरस्कार देंगे? फिर वो स्त्रियाँ तो काफ़िर भी नहीं हैं. फिर क्यों किया जाएगा उनका जबरन निकाह जो उनको रोज-रोज बलात्कार जैसा दर्द देगा? क्यों? इस्लाम तो महिलाओं को बहुत सम्मान देता है न? क्या यही सम्मान है? तालिबानियों ने तो आत्मसमर्पण करनेवालों को भी नहीं बख्शा और तभी-का-तभी उड़ा दिया. इस बारे में कुरान की क्या राय है?
मित्रों, आज दानिश दुनिया में नहीं हैं. उन्होंने जब भी मौका मिला भारत और हिन्दुओं को बदनाम किया. उन हिन्दुओं को जिनसे अच्छा पड़ोसी हो ही नहीं सकता. दानिश को उसका खुदा जन्नत नसीब करे क्योंकि वो अपने खुदा के अत्यंत नेक बन्दों के हाथों अल्लाह हो अकबर के नारों के बीच मारा गया है. काश, दानिश की हत्या से भारत के अन्य महान पुरस्कार विजेता पत्रकार शिक्षा लेते और अपनी सोंच सचमुच निष्पक्ष कर लेते! हमें अमेरिकावाले न्यूयॉर्क टाइम्स से तो कोई उम्मीद नहीं है लेकिन भारतवाले न्यूयॉर्क टाइम्स वाले तो सुधर जाओ.