शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

यातना शिविर से यातना शिविर तक

मित्रों,जर्मन तानाशाह हिटलर का नाम कानों में पड़ते ही उससे जुडी सबसे पहली बात जो हमारे जेहन में आती है वो है उसके द्वारा किया गया यहूदियों का लोमहर्षक संहार.उसके द्वारा लगाए गए यातना-शिविरों से जीवित बच गए कई लोगों ने अपना जो अनुभव बयां किया और विजेता मित्र देशों के सैनिकों ने जो कुछ अपनी नंगी आँखों से देखा;वीभत्स और जुगुप्सा रसों की चरम अभिव्यक्ति कर सकने में परम सक्षम है.द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह स्वाभाविक था कि लगभग पूरी दुनिया में यहूदियों के प्रति सहानुभूति की लहर दौड़ पड़े.परिणामस्वरूप १४ मई,१९४८ को इंग्लैण्ड और संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर एक स्वतंत्र यहूदी इस्राईल राष्ट्र की फिलिस्तीन की पवित्र भूमि पर स्थापना की गयी.यह स्थापना अरबों के सख्त विरोध के बाबजूद तो की ही गयी थी साथ ही इस उम्मीद पर की गयी थी कि फिलिस्तीन में यहूदी और मुसलमान एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करते हुए विकास के पथ पर हँसी-ख़ुशी अग्रसर हो सकेंगे.लेकिन ऐसा हो न सका.अरब देशों ने एकजुट होकर इस्राईल पर उसका नामोनिशान मिटा देने के ध्येय से १९४८,१९६७ और १९७३ में तीन बार भीषण आक्रमण किया और मुँह की खाते रहे.नतीजतन इस्राईल ने फिलिस्तीन के बचे हुए लगभग सारे अरब प्रदेशों पर अधिकार कर लिया.साथ ही,प्रत्येक यहूदी के मन में यह धारणा घर कर गयी कि मुसलमान कभी उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार कर ही नहीं सकते.
                  मित्रों,यह बेहद बिडम्बनापूर्ण और दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन यहूदियों पर द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान घोर अमानुषिक अत्याचार किए गए वही यहूदी इस्राईल की स्थापना के बाद अरब अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की घोर अवहेलना करने लगे.कितने आश्चर्य का विषय है कि जर्मनी की यातना शिविरों की चीखों और आँसुओं से जन्मा यह देश स्वयं वर्तमान विश्व का मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघनकर्ता बन गया है.वैसे तो इस्राईल द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के सैंकड़ों या उससे भी अधिक ऐसे मामले हैं जिनका जिक्र यहाँ किया जा सकता है परन्तु वर्तमान में जो वाकया सबसे ज्यादा चर्चा में है वो है पश्चिमी तट के अर्रबा निवासी खादर अदनान का.खादर अदनान अपने गृहनगर अर्रबा में बेकरी चलाता है.३३-३४ साल का है.उसे पहली बार १९९९ में इस्राईली सैनिकों ने गिरफ्तार किया था और तब से कुल मिलकर उसके साथ ऐसा नौ बार हो चुका है.अब तक उसे ६ सालों से भी ज्यादा जेलों में बिताने पड़े हैं.अंतिम बार १७ दिसंबर २०११ को अर्द्धरात्रि के बाद उसे उसके घर से उठा लिया गया.न तो कभी उसका गुनाह ही बताया गया और न ही जेल में कोई मानवोचित सुविधा ही दी गयी.अदनान ने जब पाया कि मौखिक विरोध का कोई असर दिख नहीं रहा तो बैठ गया आमरण अनशन पर जो २१ फरवरी तक यानि ६६ दिनों तक जारी रहा.अदनान की मांग थी कि इस्राईल उसे यातना देना और मारना-पीटना बंद करे.अदनान पर उसकी पिछली गिरफ्तारियों की ही तरह अब तक औपचारिक रूप से कोई आरोप नहीं लगाया गया है.उसे बस जुबानी शांति और व्यवस्था के लिए खतरा बताया गया है जिसका कोई मतलब नहीं है.खादर की यह भी मांग थी कि या तो उस पर मुकदमा चलाया जाए या फिर रिहा किया जाए.बाद में जब पूरे फिलिस्तीन में अदनान के समर्थन में सांकेतिक भूख हड़ताल और प्रदर्शन होने लगे तथा दूसरे अरब-मुस्लिम कैदी भी अनशन पर बैठ गए तब जाकर इस्राईल की नींद खुली और उसने उसकी प्रशासनिक हिरासत को लगातार दूसरा विस्तार नहीं देने की घोषणा कर दी.
              मित्रों,मालूम हो कि इस्राईल में अभी तक संविधान की स्थापना नहीं हो पाई है और न्यायालय द्वारा समय-समय पर दी गए निर्णयों जिनको वे लोग बुनियादी कानून कहते हैं के आधार पर शासन चलाया जाता है.न तो वहां के नागरिकों को औपचारिक रूप से मौलिक अधिकार ही प्राप्त हैं और न ही मानव अधिकार ही क्योंकि संविधान है ही नहीं और संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार घोषणा को वहां का सर्वोच्च न्यायालय कई वर्ष पहले अवैध घोषित कर चुका है.सैन्यादेश १९५१ के तहत इस्राईल प्रशासन किसी को भी ६ महीने के लिए प्रशासनिक हिरासत के तहत जेल में कैद रख सकता है और इस हिरासत को अनिश्चित काल तक प्रत्येक ६ महीने पर बढ़ा भी सकता है.इस तरह इस्राईल दुनिया के उन कुछेक देशों में से है जहाँ यातना और मानवाधिकारों के उल्लंघन को वैधानिक मान्यता मिली हुई है.जिस देश में इस तरह की सैद्धांतिक कानूनी व्यवस्था हो वहां मानवाधिकारों की क्या व्यावहारिक स्थिति हो सकती है;सहज ही समझा जा सकता है.यह तथ्य भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि इस काले कानून का प्रयोग इस्राईल का प्रशासन केवल अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ ही करता है.
           मित्रों,वैसे तो भारत में भी बहुत-से ऐसे कैदी हैं जिनकी पूरी-की-पूरी उम्र ही विचाराधीन कैदी के रूप में निकल गयी लेकिन हमारे यहाँ ऐसा किसी खास धर्म या जाति के खिलाफ जानबूझकर नहीं किया जाता.खादर अदनान एक अकेला ऐसा अरब नहीं है जिसको ज़िन्दगी के कई अमूल्य सालों तक बेवजह बिना कोई कारण बताए इस्राईली जेलों में रखा गया.अभी भी सैंकड़ों निर्द्होश अरब इस्राईली जेलों में अमानुषिक यंत्रणाओं को झेलते हुए अपनी रिहाई का इन्तजार कर रहे हैं.ऐसा भी नहीं है कि दुनिया में या संयुक्त राष्ट्र संघ में इसके खिलाफ आवाज नहीं उठती लेकिन वो नक्कारखाने की तूती बनकर रह जाती है क्योंकि इस्राईल के खिलाफ किसी भी तरह के प्रस्ताव को अमेरिका वीटो लगाकर निष्प्रभावी बना देता है.न जाने क्यों उसे ईरान और ईराक में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन तो दिखाई देता है लेकिन इस्राईल का जिक्र होते ही वो एकाएक बापू का बन्दर बन जाता है.समय साक्षी है कि एक समय इसी तरह की तुष्टिकरण की नीति पर इंग्लैंड उस जर्मन तानाशाह हिटलर के मामले में चल रहा था जिसका जिक्र मैंने इस आलेख के प्रारंभ में किया है और जिसका परिणाम था;जैसा कि आप सब भी जानते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध.समय अपने आपको दोहराता है और कितनी बेशर्मी से दोहराता है कि जो समुदाय एक समय यंत्रणाओं का सबसे बड़ा भोक्ता था आज सबसे बड़ा कर्ता बन बैठा है.
           मित्रों,जब विरोध और सुधार के सारे मार्ग बंद हो जाते हैं तब बचता है गांधीवाद.खादर अदनान ने इसका बड़ी ही खूबसूरती से प्रयोग भी किया है और सारे उन अरबों को एक नई राह भी दिखा दी है कि कतिपय परिस्थितियों में सत्य और अहिंसा से ज्यादा प्रभावी पंथ कोई और नहीं होता.अरबों को चाहिए कि वे खून-खराबी बंद करें और सत्याग्रह की नीति का निष्ठापूर्वक अनुशरण करें.उन्हें अपनी लडाई खुद ही लड़नी होगी.अरब देशों के शासक अपने निहित स्वार्थों के चलते अमेरिका के हुक्म के गुलाम बन चुके हैं और उनकी कोई मदद नहीं करने वाले.वे अपने हित में उनका उपयोग करते आ रहे हैं और करते रहेंगे.जब गांधीवाद २०वीं शताब्दी में दुनियाभर पर शासन करनेवाले अंग्रेजों को झुका सकता है तो वर्तमान २१वीं सदी में अमेरिका और इस्राईल को क्यों नहीं?अगर उनका संकल्प दृढ रहा और विश्वास सच्चा रहा तो वह दिन दूर नहीं कि जर्मन यातना शिविरों में जन्म लेनेवाला देश इस्राईल बहुत जल्दी अपने क्षेत्राधिकार में चल रहे अगणित अघोषित यातना शिविरों (जेलों) को बंद करने के लिए बाध्य हो जाएगा.अंत में दुनियाभर के स्वतंत्रताप्रेमियों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे अपने-अपने देश में इस्राईल द्वारा मानवाधिकारों के धृष्टतापूर्ण उल्लंघन के विरुद्ध आवाज उठाएँ और अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव बनाएँ जिससे कि वे इस्राईल पर वैश्विक मंचों के साथ-साथ कूटनीतिक वैकल्पिक मार्गों द्वारा भी दबाव बनाने को बाध्य हो जाएँ.                      

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

नई उभरती चुनौतियाँ और भारतीय कूटनीति

मित्रों,एक कहावत है और वह बिलकुल माकूल भी है कि इस दुनिया में कोई भी शह टुच्ची राजनीति से बचकर नहीं रह सकता.राजनीति की जद में परिवार से लेकर विश्व यानि हर कोई है.वैश्विक राजनीति भी घरेलू राजनीति की तरह निरंतर परिवर्तनशील है और यहाँ भी वही सिद्धांत काम करता है यानि कोई न तो किसी का स्थायी मित्र होता है और न ही स्थायी शत्रु.वैश्विक कूटनीति में भी किसी देश का दूसरे देश का शत्रु या मित्र होना केवल एक चीज पर निर्भर करता है और वो है परिस्थिति.
        मित्रों,भारत नेहरु के ज़माने से ही ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर के मार्ग पर यानि कथित गुटनिरपेक्षता की नीति पर चलता आ रहा है और उसने इसका भारी खामियाजा अपनी कई लाख वर्ग किलोमीटर भूमि चीन और पाकिस्तान के हाथों खोकर भुगता भी है.वर्तमान में भी हमारे लिए अब भी दुनिया की कूटनीतिक जलवायु माकूल नहीं है.चीन और पाकिस्तान के इरादे अब भी हमारे प्रति नेक नहीं हैं.दुर्भाग्यवश हमारे दोनों चिरशत्रुओं की मित्रता रात दूनी दिन चौगुनी की रफ़्तार से बढती चली जा रही है.अभी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में इस बात की चर्चा बड़े ही जोर-शोर से चल रही है कि पाकिस्तान अपने द्वारा १९४७ में कब्जाए गए कश्मीर को चीन को सौंपने जा रहा है.इस तरह की दुखद संभावित स्थितियों से अगर भारत को बचना है तो उसे जल्द-से-जल्द अपनी मर्जी से ओढ़े गए गुटनिरपेक्षता के चोले को सदा-सदा के लिए उतार फेंकना होगा.खुदा न करे कभी अगर चीन और पाकिस्तान दोनों ने भारत के खिलाफ एक साथ युद्ध का मोर्चा खोल दिया तो बिना अमेरिकादि पश्चिमी देशों और जापान-आस्ट्रेलिया जैसे पूर्वी देशों की सहायता के हम शायद अपना अस्तित्व भी नहीं बचा पाएँगे.
                   मित्रों,भारत के सामने जो सबसे ताज़ी चुनौती कूटनीतिक मोर्चे पर आ खड़ी हुई है वो भारत के कथित ऐतिहासिक मित्र ईरान और पश्चिमी देशों में चल रही शीतयुद्ध जैसी खींचतान के चलते.पश्चिमी देश और ईस्राइल ईरान के परमाणु कार्यक्रम को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते हैं मगर ईरान रूकने को तैयार ही नहीं है.उन्होंने ईरान पर कई तरह के व्यापारिक और आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए हैं लेकिन नई परिस्थितियों में ईरान के लिए संकटमोचक बनकर उभरा है भारत.शायद इसके लिए ५ राज्यों का विधानसभा चुनाव भी जिम्मेदार है.यह तो हुआ भारत-ईरान संबंधों का एक पहलू.इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ईरान को भारत के सरोकारों से कुछ ज्यादा लेना-देना नहीं है और वो भारत को एक ऐसा मजबूर देश समझता है जो अपने कुल तेल आयत का १२% उससे करके काफी हद तक उस पर आश्रित है.तभी तो उसने दिल्ली में इस्राइली दूतावास के सदस्य के परिजनों पर संदिग्ध हमला करने की गुस्ताखी की है.हालाँकि अभी तक हमारी चिरकारी सुरक्षा-एजेंसियां किसी नतीजे पर नहीं पहुंची हैं और अगर हम उनकी योग्यता को मद्देनजर रखें तो कभी पहुँचनेवाली भी नहीं हैं परन्तु जार्जिया और थाईलैंड में हुए विस्फोटों से मिलनेवाली संभावनाओं की कड़ियों को अगर हम दिल्ली-विस्फोट से जोड़कर देखें तो काफी हद तक धुंध साफ़ हो जाती है कि दिल्ली-हमला भी ईरान प्रायोजित ही था.यदि यह सत्य है तो स्पष्ट हो जाता है कि भले ही भारत ईरान को अपना अभिन्न मित्र माने वो भारत को अपना मित्र तक नहीं मानता.वैसे अगर हम कश्मीर के मुद्दे पर विभिन्न मंचों पर समय-समय पर ईरान की नीतियों को देखें तो पाएँगे कि उसने हमेशा पाकिस्तान का साथ दिया भारत का नहीं.उसके सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्ला खोमेनी तो लगातार दुनियाभर के मुसलमानों से कश्मीरी अलगाववादियों की सहायता करने की अपील भी करते रहे हैं.फिर भी न जाने किन मजबूरियों के कारण भारत-सरकार ईरान से एकतरफा और जबरदस्ती की दोस्ती गांठने पर तुली हुई हैं?भारत कोई विधवाओं का देश नहीं है कि कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा भारत की पवित्र भूमि को अपने कुत्सित स्वार्थों का रणक्षेत्र बना दे.निश्चित रूप से ईरान ने दिल्ली में ईस्राइली दूतावासकर्मियों पर हमला करके जो कुछ भी किया है वह भारत की शान में गुस्ताखी है,हमारी संप्रभुता पर हमला है,हमारी गैरत को एक ललकार है और इसे हम भारतवासी हरगिज सहन नहीं करनेवाले!
                मित्रों,जहाँ तक ईस्राइल का सवाल है तो उसने कभी भारत-विरोधी तेवर नहीं दिखाए हैं और लगभग निःस्वार्थ भाव से हमारी मदद करता रहा है.आज भी सामरिक तकनीक के मामले में काफी हद तक हम उस पर निर्भर हैं जबकि हमने नेहरु-युग से ही फिलिस्तीनियों का बिना शर्त समर्थन करके उसे बार-बार चिढ़ाया है.हम नहीं चाहते कि दोनों में से किसी एक का नामोनिशान विश्व के मानचित्र से मिट जाए.दुनिया का इकलौता यहूदी राष्ट्र ईस्राइल और मुस्लिम देश फिलिस्तीन दोनों रहें और फले-फूलें परन्तु उस क्षेत्र में स्थायी शांति तभी कायम हो सकती है जब दोनों ही पक्ष सहअस्तित्व के सिद्धांतों को स्वीकार कर लें.
                     मित्रों,यह अति कड़वा सत्य है और भविष्य में भारत की परेशानियाँ बढ़ानेवाला भी कि दुनियाभर में मुसलमानों के बीच कट्टरता नए उभार पर है और मिस्र से लेकर मालदीव तक उदारवादी शक्तियां हाशिए पर चली गईं हैं और कट्टरवादियों को धरती और आकाश के बीच सिर्फ एक ही धर्म चाहिए इस्लाम और दूसरा कोई नहीं.यह सर्वविदित है कि हिन्दूबहुल भारत में मुसलमानों को जितनी आजादी,सुविधाएँ और अधिकार प्राप्त हैं उतनी किसी इस्लामिक देश में भी नहीं है.फिर भी हमारे कुछ मुसलमान भाई अपनी जेहादी मानसिकता को त्याग नहीं पा रहे हैं अन्यथा भारत में इन्डियन मुजाहिद्दीन और सिम्मी जैसे आतंकवादी संगठन नहीं होते जिन्होंने शायद दिल्ली हमले में भी ईरान की मदद की है.
              मित्रों,आज ईरान वैश्विक राजनीति में अकेला पड़ता जा रहा है.ऐसे में उसके साथ चिपके रहने की हमारी जिद हानिकारक ही सिद्ध होगी.माना कि आयातित तेल का ज्यादा मूल्य देकर हमें सम्बन्ध-विच्छेद का मूल्य चुकाना पड़ सकता है लेकिन उससे भी कहीं कई गुना ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी जब हम उसके साथ रहेंगे.इस सन्दर्भ में मुझे अकबर-बीरबल कथा से एक कथा का सन्दर्भ लेना समीचीन मालूम पड़ता है.हुआ यह कि बादशाह अकबर एक दोपहर को बीरबल के साथ भोजन कर रहे थे.तभी उन्हें न जाने क्या सूझी कि लगे बैगन की बड़ाई करने जिसे कुछ ही समय पहले पुर्तगाली भारत में लेकर आए थे.बीरबल ने भी कहा कि 'बजा फ़रमाया हुजूर,बैगन तो सभी सब्जियों का राजा है" फिर कुछ लम्हों तक ईधर-उधर की बातें करने के बाद अकबर लगे बैगन की बुराई करने परन्तु बीरबल तो हमेशा की तरह सचेत थे.सो उन्होंने भी तुरंत हामी भर दी और यहाँ तक कह दिया कि "हुजूर मैं तो कहता हूँ कि इसकी खेती पर ही प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए."अकबर चौंके और पूछा कि बीरबल पहले यह तो निर्णय कर लो कि बैगन अच्छा है या ख़राब.बीरबल ने भी छूटते ही कहा कि "हुजूर,बैगन जाए चूल्हे की भांड में,मुझे क्या?मुझे तो बस आपसे मतलब है जो मेरी रोजी-रोटी चलते हैं,आप कहते हैं कि बैगन अच्छा है तो अच्छा है और आप कहते हैं कि बुरा है तो बुरा है."इसी तरह भारत-सरकार को भी ईरान को नहीं बल्कि अपने हितों को ध्यान में रखना चाहिए.ईरान भी तो यही कर रहा है.

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

बेनजीर,बेमिसाल,अतुल्य बिहार

मित्रों,कुछ ही साल पहले भारत के अन्य राज्यों में बिहार की छवि इतनी ज्यादा ख़राब थी कि 'बिहारी' शब्द सबसे भद्दी गाली में परिवर्तित हो गया था.तब बिहार एक भ्रष्ट,नाकारा और जंगलराज सदृश शासन के लिए जाना जाता था.उस दौर में लालू और बिहार को लेकर कई चुटकुले बनाए और चलाए गए और उनमें से कई तो सुपरहिट भी हुए.उन दिनों जापान के कथित प्रधानमत्री के कथित बिहार दौरे और राज्य की अनपढ़ मुख्यमंत्री राबड़ी देवी से उनकी कथित मुलाकात के फ़साने ने इतनी स्वतःस्फूर्त लोकप्रियता और स्वीकार्यता हासिल की कि बहुत जल्दी यह फ़साना हकीकत जैसा बन गया.
             मित्रों,वो कहते हैं न कि दिन चाहे कितने भी बुरे क्यों न हों गुजर ही जाते हैं.इस दुनिया में कभी किसी की चलती हमेशा के लिए नहीं होती.कोई मिले हुए अवसर को भुना लेता है तो कोई सिर्फ हाथ मलता रह जाता है.एक वक्त था जब लालू राजनीतिक रूप से इतने शक्तिशाली होकर उभरे थे कि वे दिल्ली की गद्दी का फैसला भी करने लगे.चाहते तो उस दो साल की अवधि में बिहार को भारत के विकास का ईंजन बना डालते लेकिन सत्ता और अपार जनसमर्थन की ताड़ी पीकर मस्त लालू को तो जैसे विकास के नाम से ही नफरत थी.उन पर तो जैसे घोटाला करने का फितूर सवार था.वे उन दिनों अक्सर मंच से कहते कि "ये आईटी-फाईटी क्या होता है?कहीं विकास करने से वोट मिलता है?" परिणाम यह हुआ कि विकास की होड़ में रिवर्स गीयर चलता बिहार लगातार पीछे होता गया और अन्य राज्य आगे निकलते गए.फिर तो वह समय भी आया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जो बिहार विकास की दौड़ में दूसरे स्थान पर था;शर्मनाक तरीके से नीचे से प्रथम आने लगा.
                          मित्रों,धीरे-धीरे कई कारणों से बिहार की जनता लालू की जोकरई और राबड़ी के कुशासन से उबती गयी.जो बिहारी मजबूर और मजदूर होकर दूसरे राज्यों में रोजी-रोटी की तलाश में गए और जिन्हें सिर्फ बिहार से होने के कारण सबसे ज्यादा जलालत भी झेलनी पड़ी उन्होंने ही पहली बार विकास का मतलब समझा और असर भी देखा.कहना न होगा कि उनमें से ज्यादातर को लालू का परंपरागत वोटर माना जाता था.अंत में उनकी विकास की भूख इतनी बढ़ गयी कि उन्होंने और उनके परिवारवालों ने मसखरे लालू एंड फेमिली को सत्ता की भैंस की पीठ पर से जिस पर वे आगे से चढ़ा करते थे,धडाम से नीचे पटक दिया.वो कहते हैं न कि "सब कुछ गँवा के होश में आए तो क्या किया?"फिर लालू की नींद खुली और वे लगे रेलवे द्वारा विकास करवाने लेकिन एक तरफ जहाँ इसकी एक सीमा थी वहीँ दूसरी ओर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.बिहार को सुशासन मिल चुका था;कानून का राज और विकासपरक शासन.
            मित्रों,फिर तो नीतीश और मोदी के कुशल नेतृत्व में बिहार विकास की पटरी पर इस तरह सरपट भागा कि नंबर एक गुजरात से टक्कर लेने लगा.बिहारी मेहनती तो थे ही.यह कहावत यूं ही तो प्रचलित नहीं हुई थी कि 'जो न कटे आड़ी से सो कटे बिहारी से'.सरकार की आमदनी बढ़ी तो खर्च भी बढ़ा और भ्रष्टाचारियों की बांछें खिल आई.मुफ्ते माल बाप का माल समझकर लगे लूटने.तब नीतीश कुमार की गठबंधन सरकार ने कई दशकों से निष्क्रिय पड़े निगरानी विभाग को अतिसक्रिय कर दिया.लोग रोजाना कहीं-न-कहीं घूस लेते पकडे जाने लगे.सरकारी सोंच यह थी कि इससे घूसखोरों की समाज में भद्द पिटेगी और वे घूस लेना छोड़ देंगे.
                       मित्रों,परन्तु ऐसा हुआ नहीं.तब तक भ्रष्टाचरण को समाज में पूरी तरह से मान्यता प्राप्त हो चुकी थी और भ्रष्टाचारी पूरी तरह से निर्लज्ज भी हो चुके थे.जेल की हवा खाकर आते और फिर से घूस खाने लगते.तब नीतीश सरकार ने एक भ्रष्टाचार निरोधक कानून का निर्माण किया जो पूरे भारत में अपनी तरह का पहला और अनूठा प्रयोग था.अब भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर आरोपी की आय से अधिक संपत्ति जब्त की जा सकती थी और अवैध कमाई से अर्जित संपत्ति की सूचना देनेवाले को अधिकतम ५ लाख रूपये तक ईनाम देने का भी प्रावधान किया गया.कई बड़े-बड़े अवकाशप्राप्त अधिकारियों की संपत्तियों को जब्त कर उनमें सरकारी स्कूल खोले गए.परन्तु पहल तेजी से परवान नहीं चढ़ सकी और जमकर मुकदमेबाजी का सहारा लिया जाने लगा.इसी बीच बेलगाम तंत्र के मुँह में "सेवा का अधिकार" का लगाम डालने का भी प्रयास किया गया.परन्तु छोटे-बड़े घोटालों पर रोक नहीं लग सकी.इंदिरा आवास योजना और मनरेगा तो मानो भ्रष्टाचार का निवास-स्थान ही बनती जा रही थी.असली समस्या तो शायद यह थी कि बिहार सरकार में वर्तमान में कार्यरत वैसे अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ क्या किया जाए जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप सही पाए गए हैं और जो जेल से बाहर आते ही फिर से घूस लेते पकड़े गए हैं.निलंबन से कुछ ज्यादा होने-जानेवाला था नहीं.एक बार जेल-यात्रा कर लेने के बाद जेल जाने का भय भी मन से रफूचक्कर हो चुका था.पुनर्नियुक्त होने पर फिर से वे भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते.वेतन आधा मिले या पूरा इससे भी उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ना था क्योंकि जितना उनका मासिक वेतन था उतना तो वे एक दिन में ही बना लेते थे.
                मित्रों,अब जाकर बिहार सरकार ने पूरे भारत के सामने बेमिसाल नजीर पेश करते हुए "न तबादला,न निलंबन;सीधे बर्खास्तगी" का ब्रह्मास्त्र चला दिया है.मैंने भी कई महीने पहले ही अपने कई आलेखों में इसकी मांग उठाई थी और कहा था कि निलंबन और स्थानांतरण से कुछ भी नहीं हासिल होनेवाला इन्हें तो अब नौकरी से निकालकर जेल भेज दो और संपत्ति जब्त कर इन पर आपराधिक मुक़दमा भी चलाओ.इनके पीछे,इनकी पढाई के पीछे समाज और सरकार ने इसलिए पैसे पानी की तरह नहीं बहाए कि ये पढलिख कर उसको ही खोखला करने लगें.वो कहते हैं न कि अगर छोटे बच्चों की कक्षा को शांत करना हो तो सिर्फ एक की धुनाई कर दो और अगर यह फार्मूला भी विफल हो जाता है तब सबको बारी-बारी से पीटो.अभी तो सिर्फ ८ बी.डी.ओ. और ५ पुलिस अधिकारी बर्खास्त हुए हैं शायद बाँकी अधिकारी वक़्त के इशारे को समझकर संभल जाएँ और अगर नहीं संभलते हैं तो जाएँ अपने घर.हमें नहीं चाहिए उनकी लूटमार सेवा.इस बर्खास्तगी को पूरे देश में अभियान की तरह चलाना चाहिए तब जाकर मिटेगा या फिर प्रभावकारी सीमा तक घटेगा भ्रष्टाचार.जिन लोगों को लगता है कि सिर्फ सत्ता बदलने से कुछ नहीं बदलता उन्हें बिहार की तरफ विस्फारित नेत्रों से देखना चाहिए जहाँ सत्ता बदलने से शासन का चरित्र बदला,शासन-प्रशासन की परिभाषा ही बदल गयी.माना कि अभी भी सच्चा सुशासन लाने की दिशा में कई कदम उठाए जाने की जरूरत है.कुछ कमियां हैं,कुछ खामियां हैं,दाल में कुछ काला है लेकिन लालू-राबड़ी काल की तरह पूरी-की-पूरी दाल ही काली नहीं है.अब देश में सबके पीछे-पीछे चलनेवाला बिहार सबसे आगे चल रहा है;निरंतर उदाहरण-पर-उदाहरण स्थापित करता हुआ;अपनी स्वर्णिम विकास यात्रा में लगातार मील का पत्थर स्थापित करता हुआ.

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

कांग्रेस हराओ देश बचाओ

मित्रों,भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की विधानसभा के पहले चरण के मतदान में अब कुछ ही घंटे शेष रह गए हैं.इस समय सारे दल और उनके नेता जनता को लुभाने में लगे हुए हैं और इस दिशा में सबसे आगे है भारत की सबसे पुरानी मगर इस समय की सबसे भ्रष्ट और झूठी पार्टी कांगेस पार्टी.इसने एक ही बार में अपने सारे तीर छोड़ दिए हैं.मुस्लिमों को आरक्षण,युवराज्ञी प्रियंका गाँधी वाड्रा द्वारा प्रचार और युवराज राहुल गाँधी द्वारा राज्य का कथित विकास करने का वादा.बड़ी ही सफाई से पार्टी एक ही बार में देश और प्रदेश को पीछे धकेलने और आगे ले जाने वाले दोनों तरह के वादे किए जा रही है.
                   मित्रों,कुछ साल पहले कुछ इसी तरह के वादे करके यह पार्टी केंद्र में सत्ता में आई थी.परन्तु किया क्या?सिर्फ और सिर्फ सत्ता का दुरुपयोग.इसकी पूरी-की-पूरी सरकार सिर्फ एशिया में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी भ्रष्टाचार के मामले में अव्वल है.इसका लगभग प्रत्येक मंत्री अपनी मनमानी करके अपनी तिजोरी भरने में लगा हुआ है और प्रधानमंत्री व्यस्त हैं इन सबसे पूरी तरह से अनजान होने का स्वांग रचने में.श्री मनमोहन सिंह को शायद यह नहीं पता है कि वे कोई अपना या सोनिया गाँधी का घर नहीं चला रहे है वरन देश को चला रहे हैं.यहाँ इस कुर्सी पर उनकी छोटी-सी भूल और लापरवाही देश में भयानक तबाही ला सकती है जैसा कि २-जी स्पेक्ट्रम मामले में हुआ भी है लेकिन हमारा नेहरू परिवार अभी भी उन्हें सर्वोत्तम सिद्ध करने की जिद पकडे हुए है.तो क्या हम इस चुनाव में इस परिवार की इस गलत धारणा को गलत साबित नहीं कर देंगे?
               मित्रों,इस समय देश में चारों तरफ अराजकता का माहौल है.भ्रष्टाचार अपने चरम पर है,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो किसी भी लोकतंत्र की धुरी होती है;को केवल इसलिए कुचला जा रहा है ताकि कोई जागृत नागरिक केंद्र की कांग्रेस सरकार की आलोचना नहीं कर सके और चूंकि कांग्रेसी युवराज्ञी प्रियंका गाँधी फरमा रहीं हैं कि उनकी और उनके परिवार की नजर में मनमोहन इस समय भी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं इसलिए निकट-भविष्य में देश में वर्तमान स्थितियों में कोई बदलाव आने की उस स्थिति में कोई सम्भावना नहीं रह जाती है कि अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश चुनाव जीत जाती है.इसका दूसरा मतलब यह भी हुआ कि केंद्र सरकार में जो कुछ भी हो रहा है वह कांग्रेस की सुशासन की परिभाषा के अंतर्गत है और हो सकता है जीत के बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भी इस मनमोहिनी सुशासन को आजमाए.
             मित्रों,पिछले दो लोकसभा चुनाव इस बात के गवाह है कि जब-जब कांग्रेस जीती है जनता की हार हुई है.महंगाई बढ़ी है,भ्रष्टाचार बढ़ा है और साथ ही बढ़ा है कालेधन के जमाकर्ताओं और भ्रष्टाचारियों को केंद्र सरकार का संरक्षण भी.इसलिए अगर आपको अपने प्रदेश की संभावित बर्बादी को रोकना है तो राहुल गाँधी के भ्रष्टाचार के साथ विकास के वादे को पूरी तरह से अंगूठा दिखाते हुए जब भी मतदान करें तो उसी उम्मीदवार के पक्ष में करें जो कांग्रेसी उम्मीदवार को हराने में सक्षम हो.
                दोस्तों,इस बात की भी प्रबल सम्भावना बन रही है कि चुनावों के बाद कांग्रेस समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लेगी.इसलिए आप कांग्रेस के साथ-साथ सपा को भी सीधे-सीधे ख़ारिज करिए.माया जी की माया के तो आप प्रत्यक्ष गवाह भी हैं और भोक्ता भी इसलिए उनको वोट देने का तो सवाल ही नहीं.हालाँकि कांग्रेस यह दावा कर रही है कि वो चुनावों के बाद किसी भी अन्य राजनीतिक दल का समर्थन नहीं करेगी.किन्तु ऐसा वो पहले ही बिहार में बार-बार कर चुकी है.१९९० के बाद बिहार विधानसभा के प्रत्येक चुनाव में वह राजद से अलग होकर चुनाव लडती रही और इसी तरह हर बार यह वादा और दावा करती रही कि चुनावों के बाद वो किसी के साथ भी गठबंधन नहीं करने जा रही है.किन्तु चुनावों के बाद एक बार तो सोनिया गाँधी ने ऐसा भी किया कि अपने सारे-के-सारे विधायकों को एकबारगी लालू-राबड़ी सरकार में मंत्री बनवा डाला.
               मित्रों,दैवात आपके हाथों में सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे भारतवर्ष की तक़दीर और तस्वीर को बदलने का मौका आया है.इस सुअवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाईए और अपने महान राज्य कांग्रेस के खूनी पंजे के शिकंजे में जाने से बचाईए अन्यथा बाद में सिवाय पछतावे के आपके पास कोई और विकल्प नहीं बचेगा.न तो आपकी आजादी ही बचेगी और न ही देश में लोकतंत्र ही बचेगा.जहाँ तक राहुल के विकास के वादे का सवाल है तो केंद्र सरकार के आंकड़े खुद ही चीख-चीखकर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि देश के उन्हीं राज्यों में विकास-दर इस समय सबसे ज्यादा तेज है जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में नहीं है और यह तो आप भी भली-भांति जानते हैं कि रोजगार के अवसर वहीं पर ज्यादा उत्पन्न होते हैं जहाँ विकास की रफ़्तार ज्यादा तेज होती है.इसलिए दोस्तों कांग्रेस के झूठे वायदों से बचिए,इसके झूठे नेताओं से सतर्क रहिए.आपको तो याद  ही होगा कि इन्होने हाल-फिलहाल में ही लोकपाल के मुद्दे पर थोक में देश से वादे किए हैं.और फिर उतनी ही बेहयाई और बेरहमी से उन वादों को तोड़ा भी है.