बुधवार, 30 मार्च 2011

बेवजह का उतावलापन

26-11

कहते हैं कि जनता की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है और वह किसी भी घटना को बहुत जल्दी भूल जाती है.हमारे नेता लोग भले ही ऐसा मानते हों लेकिन सच्चाई यह है कि भारत की जनता इतनी भी भुलक्कड़ नहीं है कि दो-ढाई साल पहले हुए मुम्बई हमले और उसके बाद हमारे प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए बयान को भूल जाए.मुझे तो याद है और मुझे पूरा यकीन है कि आपको भी यह पूरी तरह से याद होगा कि नवम्बर,२००८ के मुम्बई हमले के बाद हमारे माननीय प्रधानमंत्री ने अपने श्रीमुख से कौन-से शब्द उगले थे.उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था कि जब तक पाकिस्तान मुम्बई हमले के दोषियों के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई नहीं करेगा तब तक भारत उससे बातचीत नहीं करेगा.साथ ही उन्होंने स्पष्ट शब्दों में पाकिस्तान को यह चेतावनी भी दी थी कि वह भारत की सहनशीलता की परीक्षा नहीं ले.अगर पाकिस्तानी आतंकवादियों की ओर से आगे कोई भी इस तरह का हमला होता है तो भारत सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी नहीं रहेगी.लेकिन हम देख रहे हैं कि भले ही पाकिस्तान समर्थित आतंकियों द्वारा २६-११ के बाद इस तरह का हमला नहीं किया गया हो,पाकिस्तान ने मुम्बई हमलों के लिए जिम्मेदार दुर्दांत आतंकवादी हाफिज सईद या किसी अन्य के खिलाफ कोई भी प्रभावी कदम नहीं उठाया है.साथ ही उसने हाफिज सईद को पूरे पाकिस्तान में घूम-घूम कर भारत विरोधी प्रचार करने की छूट भी दे रखी है.
मित्रों,ऐसे में यह सवाल उठता है कि दोनों देशों के संबंधों में ऐसा क्या हो गया है,ऐसी कौन-सी प्रगति हो गयी हैं जिससे भारत सरकार पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय बातचीत करने को उतावली हो रही है.जैसे ही यह तय हुआ कि विश्वकप के सेमीफाइनल में भारत और पाकिस्तान मोहाली में आमने-सामने होने जा रहे हैं,मनमोहन सिंह उतावले हो उठे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को बगलगीर बनाकर मैच देखने के लिए.वैसे भी यह बातचीत सिर्फ बातचीत के लिए हो रही है इससे कुछ भी निकलकर बाहर नहीं आनेवाला.निश्चित रूप से केंद्र की निगाहें कहीं और हैं और निशाना कहीं और.अगर हम सूक्ष्मान्वेषण करें तो पाएँगे कि केंद्र का मानना है कि अगर वह पाकिस्तान के साथ बातचीत प्रारंभ करती है तो इसका सीधा फायदा उसे बंगाल,केरल और असम में होनेवाले चुनावों में होगा.कहना न होगा इन तीनों राज्यों में मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी है.हो सकता है कि बातचीत शुरू करने के लिए केंद्र पर अमेरिका की तरफ से भी दबाव पड़ रहा हो.अगर विकीलीक्स के खुलासों पर भरोसा करें तो ऐसा होना असंभव भी नहीं है.
मित्रों,अगर इन बातों में तनिक भी सच्चाई है तो इसका सीधा मतलब यह है कि हमारी धर्मनिरपेक्ष केंद्र सरकार को भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति पर भरोसा नहीं है और वह यह मानती है कि हमारे मुसलमान भाई हिंदुस्तान से ज्यादा पाकिस्तानपरस्त हैं.साथ ही अगर दूसरी आशंका सच है तो इसका अर्थ यह होगा कि हमारी विदेश-नीति सम्प्रभु नहीं है और हम अमेरिका के हाथों की एक कठपुतली-मात्र हैं.
मित्रों,पिछली बार जब भारत और पाकिस्तान दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में भिड़े थे और भारत सरकार ने क्रिकेट कूटनीति का प्रयोग करते हुए पाकिस्तानी दर्शकों के लिए पलक-पांवड़े बिछा दिए थे तब भी मैंने कहा था की यह एक मूर्खतापूर्ण कदम है और पाकिस्तानी आतंकवादी दर्शक के रूप में भारत में दाखिल हो सकते हैं और ऐसा हुआ भी.पाकिस्तान से आए सैकड़ों दर्शक भारत आकर गायब हो गए.फिर हुआ मुम्बई हमला.इस हमले से पहले और इसके बाद पकडे गए कई पाकिस्तानी आतंकियों ने यह स्वीकार किया है कि वे दिल्ली मैच देखने के बहाने भारत के घुसे थे.फिर से मैच के चलते पाकिस्तानियों को जल्दी में और धड़ल्ले से वीजा बांटा जा रहा है.इस समय भारत और पंजाब सरकार का एकमात्र लक्ष्य मोहाली मैच का शांतिपूर्वक आयोजन संपन्न करवाना है.इतनी जल्दीबाजी में तो किसी भारतीय दर्शक का रिकार्ड जांचना भी संभव नहीं है.हमारी सुरक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियां अपने कर्तव्यों को लेकर कितनी तत्पर है इसे मैं एक उदाहरण द्वारा बताना चाहूँगा.अभी जब राष्ट्रमंडल खेल होने वाले थे तो संवाददाताओं को पास देने से पूर्व उनके आपराधिक रिकार्डों की जाँच होनी थी.ऐसा किए बिना ही पास बाँट दिए गए और खेल समाप्त भी हो गए.खेल की समाप्ति के कोई डेढ़-दो महीने बाद बीबीसी के एक संवाददाता जो बिहारी हैं के घर पुलिस पहुँच गयी और पूछताछ करने लगी.घरवाले डर गए और संवाददाता को बताया.पुलिस से पूछने पर पता चला कि राष्ट्रमंडल के पास को लेकर वह जाँच करने गयी थी.
मित्रों,तो क्या आप तैयार हैं मनमोहन सरकार की मूर्खता या धूर्तता के कारण अपने देश में निकट-भविष्य में होनेवाले आतंकी हमलों को अपने सीनों पर झेलने के लिए?अगर नहीं हैं तो तैयार हो जाइए क्योंकि इन्होने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया है और इसलिए इतिहास फिर से खुद को दोहरानेवाला है.

सोमवार, 28 मार्च 2011

फूट डालो और शासन करो और आरक्षण की राजनीति


jat

मित्रों,अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर जब पहली बार कलकत्ता बंदरगाह पर उतरे तो उन्हें यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि मुट्ठीभर अंग्रेज कैसे विशाल जनसंख्या वाले भारत पर शासन कर रहे हैं.लुई फिशर भले ही तब इस प्रश्न का उत्तर नहीं जानते हों;आज प्रत्येक भारतीय को पता है कि इसके लिए अंग्रेंजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति अपनाई थी.
मित्रों,अंग्रेज तो विदेशी थे और उनका एकमात्र लक्ष्य भारत से धन लूटकर इंग्लैण्ड ले जाना था लेकिन भारत में फूट डालो और शासन करो की नीति आज भी जारी है.हमारे सारे राजनैतिक दल और राजनेता इसी नीति के बल पर चुनाव जीतते हैं और देश को लूटते हैं,देश का बंटाधार करते हैं.आरक्षण की राजनीति आज जनता में फूट डालने और अपना नाकारापन छिपाने का सर्वोत्तम साधन बन गया है.याद करिए कि किस तरह आरक्षण का समर्थन कर लालू बिहार के राजा बन बैठे थे और सिवाय पिछड़ों को आरक्षण देने का समर्थन करने के उन्होंने बिहार को कुछ भी नहीं दिया था.इन श्रीमान का सीधे तौर पर मानना था कि जनता काम के आधार पर वोट नहीं देती बल्कि जाति के आधार पर देती है.
मित्रों,भारत में सदियों से आरक्षण लागू है.पहले जहाँ समाज के सारे महत्वपूर्ण काम बड़ी जातियों के लिए आरक्षित थे,अब छोटी जातियां इसका लाभ उठा रही हैं.अगर वह गलत था तो यह भी सही नहीं है क्योंकि दोनों ही स्थितियों में प्रतिभावान लोग उपेक्षित रह जाते हैं या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो समाज को उनकी प्रतिभा का समुचित लाभ नहीं मिल पाता है.आरक्षण के चलते कई बार तो अजीबोगरीब व हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जाती है,जैसे किसी उम्मीदवार को शून्य से भी कम अंक मिलने पर सफल घोषित कर दिया जाता है और सामान्य कोटि का मेधावी उम्मीदवार अच्छे अंक लाने के बावजूद असफल करार दिया जाता है.
मित्रों,यह स्थिति किसी भी तरह देशहित में नहीं है.अयोग्य लोगों को डॉक्टर,इन्जीनियर या आईएएस-आईपीएस बना देने से सेवा,निर्माण और शासन की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ना तय है और ऐसा हो भी रहा है.हमारे कुछ अवर्ण जातीय नेता सवर्णों के प्रति बदले की भावना से ग्रस्त हैं और उन्होंने अपने लम्बे राजनितिक कैरियर में बस दो ही काम किए हैं;एक-सवर्ण जातियों को मंच पर से गलियां देना और दूसरा गलत तरीके से,घपले-घोटाले करके पैसे बनाना.
मित्रों, इन दिनों केंद्र सरकार पर हिंसक-अहिंसक तरीके से दबाव बनाकर आरक्षण लेने के प्रयास जोर-शोर से चल रहे हैं.कभी जाट तो कभी गुर्जर दल-बल सहित आकर सड़कों और रेलवे ट्रैकों पर जम जाते हैं.यह जमावड़ा कभी-कभी तो २०-२० दिनों तक चलता है.कहना न होगा उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा १९९०-९१ के सरकार-प्रायोजित आरक्षण-समर्थक आन्दोलन से मिलती है.इन जातियों को लगता है कि जब अन्य जातियां हिंसक-अहिंसक आन्दोलन के बल पर आरक्षण पाने में सफल हो सकती हैं तो वे लोग क्यों नहीं हो सकते?
मित्रों,अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने के पीछे यह सोंच काम कर रही थी कि चूंकि ये लोग सामाजिक पिछड़ेपन के कारण अन्य जातियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते इसलिए इन्हें कुछ समय के लिए आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए.जाट और गुर्जर तो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं नहीं;कुछ इलाकों में तो ये आर्थिक रूप से भी काफी सशक्त हैं और प्रभु जातियों में गिने जाते हैं.फिर इन्हें कैसे आरक्षण दिया जाए?इस केंद्र सरकार की फूट डालो और शासन करो की नीति अब जातीय आरक्षण का कार्ड खेलने से एक कदम आगे जा चुकी है.केंद्र वोट बैंक की राजनीति के लिए सांप्रदायिक आरक्षण देने का प्रयास कर रहा है और वजह बता रहा है इन सम्प्रदायों के आर्थिक पिछड़ेपन को.इसी तरह बिहार में नीतीश सरकार इसी आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने का मन बना चुकी है.मैं पूछता हूँ कि आरक्षण देने की कसौटी क्या होनी चाहिए? जातीय,सांप्रदायिक या फिर व्यक्तिगत गरीबी या सामाजिक पिछड़ापन,आर्थिक पिछड़ापन या फिर आन्दोलन खड़ा कर देश को क्षति पहुँचाने की क्षमता.मेरे हिसाब से इनमें से कोई भी नहीं;क्योंकि अब नौकरियां गिनती की हैं और उम्मीदवार करोड़ों.ऐसा देखा जाता है कि वह एक व्यक्ति जो नौकरी पाने में सफल होता है अपनी पूरी जाति की भलाई के लिए हरगिज काम नहीं करता बल्कि भाई-भतीजावाद में लग जाता है.इतना ही नहीं बाद में भी ज्यादातर मामलों में इन्हीं सफल लोगों के बाल-बच्चे आरक्षण का लाभ उठाते रहते हैं.मैंने आज तक आरक्षित कोटि का ऐसा कोई भी उम्मीदवार नहीं देखा जिसने क्रीमी लेयर में आने के बावजूद आरक्षण का लाभ नहीं लिया हो.अगर हम पिछले ७०-८० साल के भारत के इतिहास को देखें और देश की सामाजिक स्थिति का तृणमूल स्तर पर अवलोकन करें तो पाएँगे कि आरक्षण सामाजिक बदलाव लाने में असफल रहा है और इसका लाभ चंद संपन्न लोग ही उठाते जा रहे हैं.
मित्रों,अब प्रश्न उठता है कि आरक्षण का विकल्प क्या है?विकल्प है कि सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को पढाई की सुविधा दी जाए और इस स्तर की सुविधा दी जाए जिससे गाँव के सरकारी स्कूलों में पढनेवाला बच्चा भी दून या दिल्ली पब्लिक स्कूल के बच्चों से प्रत्येक विषय में मुकाबला कर सके.जाहिर है कि ऐसा इंतजाम करना आरक्षण देने की तरह आसान नहीं है.अगर केंद्र या राज्य सरकारें ऐसा नहीं कर सकतीं तो फिर वह अलग से सड़कें व रेल ट्रैक बनाए जिस पर आरक्षण की मांग करने वाली जातियाँ भविष्य में धरने पर बैठ सकें.इससे यात्रियों को सड़क जाम व ट्रेनें रद्द होने की स्थिति में परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा.

शनिवार, 26 मार्च 2011

सुविधा और दुविधा के बीच झूलता भारतीय जनमानस


fukusima
मित्रों,इस ग्लोब पर निवास करनेवाले किसी भी इन्सान ने कभी ख्वाबों-ख्यालों में भी नहीं सोंचा था कि पूरी दुनिया के लिए वैज्ञानिक व तकनीकी विकास का उदाहरण माना जानेवाला जापान प्रकृति के एक हल्के-से झटके को भी सहन नहीं कर पाएगा और इस कदर हिल जाएगा.दिनकर ने पिछली शताब्दी में ही मानव को विज्ञान की खतरनाक प्रकृति के प्रति सचेत करते हुए कहा था कि रे मानव सावधान!यह विज्ञान नहीं तलवार!लेकिन तब पूरा विश्व पश्चिमी विकास के मॉडल के प्रति सम्मोहन की अवस्था में था.
मित्रों,हम जानते हैं कि पश्चिम का मानना है कि मानव और प्रकृति में लगातार संघर्ष चलता रहता है.विकास के प्रथम चरण में प्रकृति मानव पर हावी थी जबकि विकास के द्वितीय चरण में मानव प्रकृति पर भारी है.पश्चिम के अनुसार मानव का अंतिम लक्ष्य प्रकृति पर विजय पाना है और जीवन को प्राकृतिक विनाश की कीमत पर भी अधिक-से-अधिक सुविधापूर्ण बनाना है.इसलिए पश्चिम ने तरह-तरह की मशीनें बनाईं जिनमें से कईयों का प्रकृति पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा है.
मित्रों,पश्चिमी दर्शन के विपरीत भारतीय दर्शन प्रकृति पर विजय के बजाये प्रकृति की पूजा का समर्थक रहा है.वह यह नहीं कहता कि छत पर चढ़ जाने के बाद सीढ़ी को ही तोड़ देना चाहिए.बल्कि वह प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखते हुए विकास का हिमायती रहा है.यहाँ तक कि आधुनिक विश्व के महानतम नेता गाँधी का भी यही मानना था.लेकिन नेहरू पर पश्चिम का प्रभाव इतना ज्यादा था कि एडम स्मिथ के विचार गाँधी के विचारों पर भारी पड़ गए.नेहरू को आधुनिक कल-कारखाने और नहरें मंदिर की तरह पवित्र लगते थे.उनका मानना था कि अमेरिका आदि विकसित देशों की तरह अर्थव्यवस्था की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था में भी सेवा और उद्योग क्षेत्रों की हिस्सेदारी लगातार बढती जानी चाहिए और कृषि की हिस्सेदारी में तदनुसार कमी आनी चाहिए.वैसे नेहरू के समय कृषि उतनी उपेक्षित भी नहीं रही जैसी आज है.नेहरु पश्चिमी व्यवस्था पर इस कदर फ़िदा थे कि उन्होंने देश के प्रशासनिक ढांचे को भी पश्चिमी मॉडल पर भी बने रहने दिया.नेहरु युग में और नेहरु के बाद जीवन-शैली और पश्चिमी विज्ञान जो विशुद्ध रूप से भौतिकवाद पर आधारित था का जमकर अन्धानुकरण किया गया.गाँधी की तस्वीर को तो खूब अपनाया गया लेकिन गांधीवाद जो प्रकृति के साथ विकास पर आधारित था को कूड़ेदान में डाल दिया गया.
मित्रों,परिणाम हमारे सामने है.कभी अध्यात्म में विश्वगुरु रहा भारत आज दुनिया के भ्रष्टतम देशों में गिना जाता है.नेहरु द्वारा स्थापित आधुनिक मंदिर कल-कारखाने भ्रष्टाचार और चीन द्वारा उत्पन्न प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाने के कारण घाटा उगलनेवाली मशीनरी बनकर रह गए हैं और नेहरु युग में खोदी गयी ज्यादातर नहरों में पानी आते देखे कई पीढियां बीत चुकी हैं.धुआँ उगलती मशीनों ने पर्यावरण के संतुलन को ही डगमग कर दिया है.ऐसे में जबकि नदियाँ ही सूखने लगी हैं तो नहरों में पानी कहाँ से आए?पश्चिम की देन अंधभौतिकवाद का जो भी कुपरिणाम संभव है वह हम भारत में कहीं भी और किसी भी क्षेत्र में देख सकते हैं.सर्वत्र नैतिक-स्खलन का दौरे-दौरा है.कृषि बेदम है और सेवा क्षेत्र में विकास तो हो रहा है लेकिन वह विकास रोजगारविहीन विकास है.देश में यत्र-तत्र-सर्वत्र अव्यवस्था और भ्रष्टाचार व्याप्त है.देश के एक चौथाई हिस्से पर खुले तौर पर भारतीय संविधान का नहीं चीन से आयातित हिंसक विचारधारा का शासन है.
मित्रों,प्रत्येक वर्ष भारत सरकार गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए आवश्यक बन चुकी बिजली के उत्पादन में वृद्धि के लिए लक्ष्य निर्धारित करती है और व्यवस्था की कमी के चलते उसे प्राप्त नहीं कर पाती है.ऐसा माना जा रहा है कि भारत में इस समय कम-से-कम १०-१५% बिजली की कमी है.आदर्श स्थिति तो यह होती कि सौर,पवन और ज्वारभाटीय ऊर्जा द्वारा इस कमी को पाटा जाता.लेकिन भारत सरकार और आदर्श शब्द तो जैसे जानी दुश्मन हैं.भारत सरकार को तो पश्चिमी तरीके से ऊर्जा चाहिए.भले ही ऐसा करने से पर्यावरण को स्थायी और अपूरणीय नुकसान ही क्यों न हो.भारत-अमेरिका परमाणु समझौते से कभी इतनी बिजली नहीं मिलेगी जिससे परमाणु ऊर्जा भारत के कुल ऊर्जा उत्पादन में मुख्य हिस्सेदार बन सके.तब भी लगभग ९०% बिजली तापीय और अन्य परंपरागत और अपरम्परागत ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करना होगा.
मित्रों,विकास के पश्चिमी रास्ते पर चलकर जापान आज विनाशक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है और सारी दुनिया बर्बाद होते जापान को मूकदर्शक बनी देख रही है.यह सही है कि जो जापान १८६८ में मेजी पुनर्स्थापना से पहले तीर-धनुष के युग में था वही जापान मात्र ८-१० सालों में ही पश्चिम की नक़ल करके विकसित देशों की श्रेणी में आ गया और पश्चिमी साम्राज्यवादियों के साथ बराबरी के साथ बात करने लगा.जापान ने न केवल विज्ञान और तकनीक के मोर्चे पर पश्चिम की नक़ल की बल्कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के मामले में भी जमकर अन्धानुकरण किया जिसका परिणाम हुआ नागासाकी और हिरोशिमा.यह घोर आश्चर्य की बात है कि जो जापान परमाणु-हथियारों की विभीषिका का एकमात्र भोक्ता था उसने कैसे खतरनाक परमाणु ऊर्जा पर विश्वास कर लिया जबकि उसे यह भलीभांति पता था और है कि किसी भी प्राकृतिक या मानवीय भूल से उत्पन्न होनेवाली आपदा के समय परमाणु-रिएक्टर परम विनाशकारी और अनियंत्रित परमाणु-बम में बदल जाता है.
मित्रों,कुछ पश्चिमवादी भारतीय जिनमें हमारे प्रधानमंत्री भी शामिल है यह तर्क दे रहे हैं कि अब ऎसी तकनीकें उपलब्ध हैं जिससे कि किसी भी संभावित परमाणु-दुर्घटना पर पूर्णतः नियंत्रण संभव है.मैं उनलोगों से पूछना चाहता हूँ कि क्या भारत या दुनिया का कोई भी दूसरा देश तकनीक के मामले में जापान से आगे है?फिर नए परमाणु-रिएक्टर बिठाने की जिद क्यों?भारत की जनसंख्या भी काफी ज्यादा है इसलिए भी यहाँ मौतें ज्यादा होगी और जहाँ तक व्यवस्था का प्रश्न है तो इस मामले में दुनिया के कुछ ही देश ऐसे हैं भारत की स्थिति जिनके मुकाबले अच्छी है.मान लिया कि हम कानून बना देंगे और दिशा-निर्देश भी जारी कर देंगे.साथ ही यह नियम भी बना देंगे कि समय-समय पर रिएक्टरों की स्थिति की जाँच की जाएगी.लेकिन उन्हें लागू कौन कराएगा?हमारे भ्रष्ट नेता और अफसर ही न.फिर क्या गारंटी है कि हमारे नेता और अफसर चंद गाँधी-छाप कागज के टुकड़ों के लालच में नहीं आयेंगे और दूसरा-तीसरा भोपाल नहीं होगा?
मित्रों,कुल मिलाकर इस समय पूरे भारत में परमाणु-ऊर्जा को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है.बहुसंख्यक लोगों का मानना है कि भारत को इस पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए और जो धन परमाणु-ऊर्जा के उत्पादन पर खर्च किया जाना है उसे नवीकरणीय ऊर्जा के निर्माण पर खर्च किया जाए.अगर जनमानस में आशंकाएं हैं तो उन्हें बेवजह भी नहीं कहा जा सकता.हमारी सरकार की विश्वसनीयता खुद ही अनगिनत प्रश्नों के घेरे में है.ऐसे में अगर वह सुरक्षा की गारंटी देती भी है तो जनता उस पर बिलकुल ही विश्वास नहीं करेगी.लेकिन यहाँ प्रश्न सिर्फ दो-चार या दस-बीस परमाणु बिजलीघरों का ही नहीं है;यहाँ सवाल है विकास,प्रशासन और जीवन-शैली के अहम् क्षेत्रों में पश्चिम की नक़ल करने का भी.सवाल यह है कि हम इन क्षेत्रों में अपना भारतीय मॉडल विकसित करेंगे या पश्चिम का अन्धानुकरण करते हुए एक दिन जापान की तरह बर्बाद हो जाएँगे.हमारे पूर्वजों ने जो संस्कृति अपनाई थी उसी के बल पर हम आज भी गर्व के साथ माथा ऊंचा करके यह कह पा रहे हैं कि कुछ बात है हस्ती मिटती नहीं हमारी,सदियों रहा दुश्मन दौरे-जहाँ हमारा.इस समय हम दोराहे पर खड़े हैं.एक रास्ता प्राकृतिक विनाश का है और धरती पर मानव जीवन के अंत की ओर जाता है.वहीँ दूसरा रास्ता सर्वे भवन्तु सुखिनः का है और माँ वसुंधरा की,प्रकृति की रक्षा करते हुए विकास करने का है.कौन-सा रास्ता बेहतर है यह दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ है.

बुधवार, 23 मार्च 2011

बोल मेरी दिल्ली बोल

delhiबोल मेरी दिल्ली बोल,
मोल तोल के बोल;
गांवों में है घुप्प अँधेरा,
तेरे घर में अखंड रोशनी;
बोल मेरी दिल्ली बोल;
गांवों में है सूखा पड़ रहा,
तेरी सड़कों पर पानी बह रहा;
बोल मेरी दिल्ली बोल;
सज-धज के तू बनी है रानी
कहाँ से आया बिजली-पानी;
बोल मेरी दिल्ली बोल;
मोल तोल के बोल.

कदम-कदम पे उडती सड़कें,
चिकनी-चुपड़ी खिलती सड़कें;
बोल मेरी दिल्ली बोल;
अपने भाग्य पर इठलाती सड़कें,
मंत्रालयों को जाती सड़कें;
बोल मेरी दिल्ली बोल;
कहाँ से आया इतना पैसा,
बेशर्म नहीं कोई तेरे जैसा;
बोल मेरी दिल्ली बोल;
मोल तोल के बोल.

तू दूसरों का हक़ खानेवाली,
फिर क्यों न रोज मने दिवाली;
बोल मेरी दिल्ली बोल;
तेरे घर में रोज घोटाला;
तेरा मुखिया (मनमोहन सिंह) बेईमानों की खाला,
बोल मेरी दिल्ली बोल;
कब आयेंगे तेरे होश ठिकाने,
पूरा देश जब लगेगा गाने;
लालगढ़ के लाल तराने;
बोल मेरी दिल्ली बोल;
मोल तोल के बोल.

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

इस होली में आप क्या जलाने जा रहे हैं

holika dahan
होली उमंग और उल्लास का पर्व है.सारे ग़मों को भुलाकर आगे मंजिल की ओर नए उत्साह से प्रयाण करने का अवसर है.लेकिन यह तो बात हुई होली की.होली से एक दिन पहले आता है होलिका दहन.इस दिन आग जलाकर खुशियाँ मनाई जाती है.बिहार में तो कई दिन पहले से ही लकड़ियों और उपलों को जमा करके का काम प्रगति पर है.आज मैंने देखा कि चंदा वसूलने में दक्षता रखनेवालों ने इस पर्व को भी अछूता नहीं रहने दिया है.जाहिर है कि जो राशि होलिका दहन के बाद शेष बच जाएगी;भाई लोग उसका सदुपयोग दारू खरीदने में करेंगे.
तो क्या होलिका दहन का बस इतना ही महत्त्व है कि आग जलाओ और हुडदंग करो?ऐसा बिल्कुल भी नहीं है मेरे भाई.हरेक हिन्दू पर्व का सांकेतिक महत्त्व है और होलिका दहन का तो और भी ज्यादा है.जितना बड़ा त्योहार उसका प्रतीकात्मक महत्त्व भी उतना ही ज्यादा.होलिका दहन प्रतीक है बुराई पर अच्छाई की जीत का.यह हमें बताता है कि बुरे लोग चाहे जितनी भी ताकत क्यों न अर्जित कर लें भगवान उनके साथ हरगिज नहीं होते;इसलिए जीत अंत में अच्छाई की ही होती है.सोंचिए कि हिरण्यकश्यप की अपार शक्ति के आगे नन्हे-मासूम प्रह्लाद की क्या बिसात थी?लेकिन अंत में जीत भक्ति,विश्वास,दया और सत्य की ही हुई.होलिका जिसके आग में जल मरने की याद में हम होलिका दहन मनाते हैं;वह सिर्फ एक स्त्री नहीं थी बल्कि वह ईर्ष्या थी,शक्ति का दुरुपयोग भी थी और अभिमान तो थी ही.लेकिन ईर्ष्या,लालच और मदान्धता तो आज भी जिंदा है;हमारे भीतर व हमारे-आपके अंतस्तल में.इन्हें इस तरह भौतिक होलिका दहन के माध्यम से हम जला भी नहीं सकते.इन्हें जलाने के लिए हमें नवांकुरों यानि बच्चों में अच्छी शिक्षा,अच्छे संस्कारों का प्रतिस्थापन करना होगा और यह तभी संभव होगा जब हम खुद सन्मार्ग पर चलकर उनके आगे एक आदर्श प्रस्तुत करेंगे.अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो फिर कोई मतलब नहीं है प्रतीकात्मक होलिका दहन मनाने का.
तो क्या आप तैयार हैं इस होलिका दहन पर अपनी बुराईयों को जला डालने का संकल्प लेने के लिए?मैं जानता हूँ कि हम-आप ऐसा एक दिन में नहीं कर सकते;इसमें समय लगेगा.परन्तु ऐसे पवित्र संकल्प को धारण करना ही कम नहीं होगा.हो सकता है हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति में शत-प्रतिशत सफल नहीं हो पाएं लेकिन वह असफलता भी बड़ी भव्य होगी;महाराणा प्रताप की हल्दीघाटी की पराजय की तरह.तो कहिए मित्र क्या विचार है?इस होली पर आप सिर्फ घासफूस जलाने जा रहे हैं या अपनी बुराइयों को जलाने का संकल्प भी लेने जा रहे हैं?

बुधवार, 16 मार्च 2011

सड़क पर डिग्री क्यों नहीं बाँट देते सुशासन बाबू

pariksha1

मित्रों,अभी-अभी बिहार में मैट्रिक की परीक्षा समाप्त हुई है और इंटरमीडियट की अभी चल ही रही है.कुछ देखा तो कुछ सुना.कुछ अख़बारों ने भी बताया तो कुछ टी.वी.चैनलों ने.परीक्षा-सम्बन्धी गतिविधियों ने कभी सोंचने पर बाध्य किया तो कभी विचारने पर कि परीक्षा की परिभाषा क्या है और नक़ल करके पास होनेवाले बच्चों का भविष्य क्या होगा?
जहाँ तक मैं जानता हूँ और मुझे बचपन में जैसा कि बताया गया है कि पर+ईच्छा=परीक्षा यानि दूसरे की ईच्छानुसार काम करने को परीक्षा कहते हैं.हालाँकि यह परिभाषा सटीक नहीं है फिर भी इससे शब्द के निहितार्थ का तो पता चल ही जाता है.लेकिन बिहार में हर साल मैट्रिक व इंटरमीडियट की परीक्षाओं में होता क्या है?पहले तो परीक्षा का कार्यक्रम घोषित किया जाता है.फिर अख़बारों और रेडियो-टेलीविजन पर घोषणा की जाती है कि परीक्षा की तैयारियां प्रशासन द्वारा पूरी कर ली गयी हैं.इसके बाद सम्बंधित मंत्री और अधिकारियों द्वारा कदाचार रहित परीक्षा के संचालन में सहयोग की अपील प्रकाशित-प्रसारित करने के साथ ही सरकारी कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है.
फिर शुरू होती है परीक्षा.निर्धारित समय पर जब परीक्षार्थी परीक्षास्थल पर पहुँचता है तो उसके साथ राजकीय अतिथियों के सदृश व्यवहार किया जाता है.परीक्षा-भवन में तो किताबें खोलकर या जानबूझकर आँख बचाकर लिखने की छूट दी ही जाती है,बाहर से भी अभिभावकों को जिन्हें बिहार में छडपार्थी कहते हैं;मदद के लिए परीक्षा-भवन में आने दिया जाता है.पुलिस के जवानों और छडपार्थियों के बीच नूरा-कुश्ती चलती रहती है.अगर पुलिस की जगह होमगार्डों की नियुक्ति हुई तो कुछ पैसे दे देने से वे बाधक की जगह सहायक भी बन जाते हैं.ऐसा पुलिसवालों के साथ भी हो सकता है.कभी-कभी डी.एम. आदि अधिकारियों का दौरा भी होता है और तब दिखावे के लिए १०-२० परीक्षार्थियों-छडपार्थियों को गिरफ्तार कर लिया जाता है.प्रायः प्रत्येक वर्ष कुछ विषयों के प्रश्न-पत्र रहस्यमय तरीके से परीक्षा से पहले ही आउट कर दिए जाते हैं और तब सरकार उन विषयों की परीक्षा रद्द कर देती है.हालाँकि ऐसा वर्षों से चलता आ रहा है लेकिन आश्चर्य है कि सरकार अब तक लीकप्रूफ़ व्ययवस्था नहीं कर पाई है.इस तरह येन-केन-प्रकारेण किसी भी तरह से परीक्षा सरकारी भाषा में अगर कहें तो पूरी तरह से कदाचारमुक्त माहौल में संपन्न करा ली जाती है.फिर परिणाम घोषित किए जाते हैं और जिन बच्चे-बच्चियों को अपना नाम और पता लिखने का भी शऊर नहीं होता वे भी ७०-८०% अंक पा जाते हैं.उसके बाद अगर अभिभावक के पास दो नम्बरी पैसा हुआ तो घूस और डोनेशन के बल पर नौकरी भी मिल जाती है.बिहार में ऐसा आज से नहीं बल्कि तब से हो रहा है जब बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी.
मित्रों,इस सम्बन्ध में मुझे दो दशक से भी ज्यादा पुरानी एक घटना याद आ रही है.हुआ यह कि उन दिनों बिहार में समाजवादी सरकार थी और उसमें सबसे ज्यादा रसूखवाले मंत्री हमारे इलाके के ही थे.उन्होंने जबरन अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए औसत से कुछ ज्यादा तेज अपने एक ग्रामीण को दसवीं की परीक्षा में पूरे बिहार में प्रथम करवा दिया.बच्चे को आसानी से पटना के प्रतिष्ठित साईंस कॉलेज में दाखिला भी मिल गया.लेकिन जब भी क्लास होता बच्चू के पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं.डर के मारे उसने एक साल ड्रॉप करने के बाद इंटर की परीक्षा दी.अब आप ही बताएं ऐसा नंबर किस काम का?अगर पैसे और भ्रष्टाचार के बल पर नौकरी मिल भी गयी तो ऐसा व्यक्ति क्या अपने काम को सही तरीके से अंजाम दे पाएगा;नहीं न?
मित्रों,मैं जानता हूँ कि परीक्षाओं में नक़ल और कदाचार के लिए समाज भी दोषी है;लेकिन क्या साथ में सरकार दोषी नहीं है?सरकार अपने कर्तव्यों का निर्वहन उसी तरह क्यों नहीं कर रही जैसे कभी कल्याण सिंह सरकार ने यू.पी. में किया था?क्या मजबूरी है बिहार सरकार की?अगर वह कदाचार-मुक्त परीक्षा नहीं ले सकती तो बच्चे-बच्चियों को सड़क पर खड़ा करके खुलेआम डिग्री क्यों नहीं बाँट देती?इतनी नौटंकी करने की क्या जरुरत है?इससे जनता का भी करोड़ो बचेगा जो उसे परीक्षा देने-दिलाने में खर्च करने पड़ते हैं.अनिच्छा से परीक्षा लेने की क्या जरुरत है?अभी पिछले साल की ही बात है.स्नातक प्रथम-द्वितीय वर्ष की परीक्षा बी.आर.ए.बिहार विश्वविद्यालय द्वारा ली जा रही थी.मानव संसाधन विभाग के सचिव के.के.पाठक के कड़े रूख के कारण परीक्षार्थियों को हिलने तक की भी अनुमति नहीं थी.अगर एक साधारण अधिकारी इतना बड़ा परिवर्तन करा सकता है तो फिर बिहार सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती?कौन जवाब देगा;सुशासन बाबू उत्तर देंगे क्या?

मंगलवार, 15 मार्च 2011

किस-किस गलती के लिए क्षमा मांगेंगे मनमोहन

manmohan
मित्रों,इन्सान को गलतियों का पुतला माना जाता है;लेकिन यह विशेषण सिर्फ उन दोपायों के लिए सही है जो भूलवश या अज्ञानतावश गलतियाँ कर जाते हैं.मेरे कहने का मतलब यह है कि ये वे इन्सान होते हैं गलतियाँ करना जिनकी फितरत नहीं होती.लेकिन कुछ लोग गलत होते ही हैं और उनका काम ही होता है गलतियाँ करना.ये लोग अज्ञानी भी नहीं होते और अपनी गलतियों से अनजान तो बिलकुल भी नहीं.
मित्रों,दुर्भाग्यवश इन दिनों इसी दूसरी तरह का एक व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री है.पहले तो वह जानबूझकर गलतियाँ करता है,कलमाड़ी को चोरी-चोरी चुपके-चुपके राष्ट्रमंडल आयोजन समिति की कमान सौंपता है,भ्रष्टाचार के राजा ए.राजा को उसके आचरण से परिचित होते हुए भी दूरसंचार मंत्री बनाता है,घोटाला करने में उस्ताद पी.जे.थामस को विपक्ष की नेता के कड़े ऐतराज के बावजूद भ्रष्टाचार-निवारक सर्वोच्च संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग के प्रधान के पद पर बिठाता है और दागी पूर्व न्यायाधीश के.जी.बालाकृष्णन को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयुक्त का अहम पद दे देता है.इतना ही नहीं उसकी नाक के ठीक नीचे अंतरिक्ष मंत्रालय में २ लाख करोड़ के वारे-न्यारे किए जाते हैं और वह कहता है कि उसे तो पता ही नहीं था.
मित्रों,महाभारत में एक प्रसंग आता है जब चेदी नरेश शिशुपाल अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण को गालियाँ देता फिरता है.वचनबद्ध होने के कारण श्रीकृष्ण उसकी ९९ गालियों को माफ़ करते जाते हैं लेकिन जैसे ही वह १००वीं गाली देता है उनका क्षमा-पात्र भर जाता है और वे अविलम्ब उस दुष्ट का वध कर देते हैं.एक झूठ को छिपाने के लिए सैंकड़ों झूठ बोले जाने की परंपरा तो हमेशा से रही है लेकिन मनमोहन एक सच को छिपाने के लिए सैंकड़ों झूठ बोलते जाते हैं और जब सच को स्वीकार कर लेने के सिवा कोई अन्य मार्ग उनके सामने शेष नहीं रहता तब अपराधं सहस्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया की अकिंचन मुद्रा धारण करते हुए झटपट माफ़ी मांग लेते हैं.ये अंग्रेजीदां लोग शायद यह समझते हैं कि सिर्फ एक बार सॉरी बोल देने से उनके सारे गुनाह धुल जाते हैं.
मित्रों,भारत में इन दिनों कुछेक परिवारों का शासन है जिसमें सबसे प्रमुख है गाँधी-नेहरु परिवार.विधि का शासन तो देश से बिलकुल विलुप्त ही हो चुका है जबकि हमारा संविधान देश में विधि के शासन की स्पष्ट घोषणा करता है.मनमोहन जी का यह न केवल नैतिक बल्कि संवैधानिक कर्तव्य भी है कि वे छाया शासन से बाहर आएं और देश को गाँधी-नेहरु परिवार की मर्जी से चलाने के बजाए ईमानदारीपूर्वक उस तरीके से चलाएँ जिस तरीके से शासन चलाने से देश में विधि का शासन पुनर्स्थापित हो सके.अगर मनमोहन जी ऐसा नहीं कर सकते तो बेहतर होगा कि अंतिम बार देश से क्षमा मांगते हुए वे प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे दें.
दोस्तों,मनमोहन जी को यह अच्छी तरह पता है कि जनता कोई श्रीकृष्ण नहीं है जो झटपट चक्र सुदर्शन चला दे.जनता के हाथ में सिर्फ वोट देना है और लोकसभा चुनाव में अभी देरी है.वास्तव में मनमोहन सिर्फ एक राजनेता नहीं हैं बल्किन वर्तमान भारतीय राजनीति का प्रतीक भी हैं.असल में हमारी राजनीति ही बेहया और बेशर्म हो चुकी है.अब झूठ को एकमात्र सच की तरह पेश करना अपराध नहीं है वरन कला है,पैकेजिंग है,मार्केटिंग है.मनमोहन जी को भ्रम है कि वे अनगिनत बार अपनी गलतियों के लिए माफ़ी की गुहार लगाते रहेंगे और जनता उन्हें हर बार निर्विकार भाव से माफ़ करती रहेगी.उन्हें निश्चित रूप से यह पता नहीं है कि जनता कोई अक्षय-पात्र नहीं है जिसमें क्षमा का महासागर समा जाए.उनकी सरकार के बजट ने महंगाई की लाल अग्नि को और भी तीव्र कर दिया है और उस पर छाये अविश्वास के काले घटाटोप बादलों का रंग और भी गहरा होता जा रहा है.परन्तु मनमोहन जी हैं कि पुरानी गलतियों के लिए क्षमायाचना करते हुए नई गलतियाँ करने में लीन हैं.मैं मनमोहन जी को सावधान करना अपना नागरिक कर्त्तव्य समझते हुए चेता देना चाहता हूँ कि वे कृपया ऐसी स्थिति न आने दें जिसके चलते उन्हें जनता से बार-बार बेशर्मीपूर्वक माफ़ी मांगनी पड़े क्योंकि अगर वे २१वीं सदी के चतुर नेता हैं तो जनता भी २१वीं सदी वाली प्रबुद्ध जनता है.उन्हें और उनके जैसे अन्य बेईमान ईमानदारों को क्षमा करते-करते जनता का क्षमा-पात्र उपटाने लगा है.अब भारत की जनता न सिर्फ सत्ता को बदलेगी बल्कि सड़े-गले कानून और तंत्र को भी बदल दिया जाएगा.इतना ही नहीं संविधान में भी ऐसे अपेक्षित बदलाव कर दिए जाएंगे जिससे कि भविष्य में जानबूझकर गलतियाँ करके माफ़ी मांगनेवाला दूसरा मनमोहन सत्ता में नहीं आ सके.आखिर तंत्र,कानून या संविधान जनता का है,जनता द्वारा है और जनता के लिए है;जनता इनका,इनके द्वारा और इनके लिए नहीं है.बिल्कुल भी नहीं!!!
मित्रों,हमने कई बार तख़्त बदल दो ताज बदल दो,बेईमानों का राज बदल दो का नारा लगाया है लेकिन न तो तख्तो ताज ही बदला और न ही बेईमानों का राज ही समाप्त हुआ.इस समय अगर मनमोहन प्रधानमंत्री पद से हट भी जाते हैं तो उनकी सरकार द्वारा किए गए भ्रष्टाचार का मुद्दा पृष्ठभूमि में चला जाएगा और कोई दूसरा बेईमान या बेईमान ईमानदार उनकी जगह ले लेगा.फिर से वही इमोशन,ड्रामा और सस्पेंस.मित्रों इस सरकार ने चौतरफा भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे करूणानिधि परिवार से एक बार फिर से समझौता कर लिया है और यह स्वयंसिद्ध कर दिया है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी प्रभावी कदम उठाने नहीं जा रही है.इसलिए हमें इस पर दबाव बनाना-बढ़ाना होगा जिससे यह जनता द्वारा तैयार जन लोकपाल विधेयक को अक्षरशः पारित कराने को बाध्य हो जाए.मैं जानता हूँ कि यह विधेयक महान भारत के निर्माण की दिशा में बहुत छोटा कदम होगा लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक महान कार्य की शुरुआत एक छोटे-से कदम से ही होती है.

सोमवार, 7 मार्च 2011

अथ श्री भ्रष्टाचारम कथा


ghoos

सुशासन की परम कृपा से बिहार में इन दिनों सारे कार्यालय दुकानों में बदल गए हैं.भले ही इनकी दीवारों पर उच्चतम न्यायलय की सलाह के अनुसार सुविधा-शुल्कों की रेट-लिस्ट लगायी नहीं गयी है लेकिन प्रत्येक काम का रेट नियत जरुर है.यूं तो वह भी अन्य बिहारियों की तरह सरकारी कार्यालयों में जाने से बचने का भरसक प्रयास करता है लेकिन जब जाना निश्चित हो और इससे बचने का कोई मार्ग नहीं बचे तो?
मित्रों,हुआ यूं कि मेरे मित्र के परिवार ने अपने शहर में एक जमीन रजिस्ट्री कराई;९५० वर्ग फुट का छोटा-सा टुकड़ा.कब तक किराये के मकान में रहा जाए?हर चीज से मन उबता है;यहाँ तक कि जीते-जीते ज़िन्दगी से भी.जमीन रजिस्ट्री हो जाने के बाद अगली अनिवार्य प्रक्रिया होती है जमीन का दाखिल ख़ारिज या नामांतरण करवाने की.इस प्रक्रिया के द्वारा जमीन की रसीद नए खरीददार के नाम पर कटने लगती है.उसके हलके का राजस्व कर्मचारी इस बात से परिचित है कि वह एक पत्रकार है और उसने कई बार उसे हिंदुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर छपते भी देखा है.इसलिए जैसे ही उसने रजिस्ट्री की छाया-प्रति उसे दी वह निर्धारित फॉर्म निकालकर उसमें नामादि चुपचाप भरने लगा;बिना पैसे की मांग किए.इससे पहले वह अपने एक परिचित जो डी.सी.एल.आर. कार्यालय में पेशकार हैं;से इस बारे में सलाह ले चुका था.उनका कहना था कि अगर वह पत्रकार होने के नाते घूस नहीं देता है तो काम होने में काफी परेशानी आएगी.उनका मानना था कि राजस्व कर्मचारी को २५०० रूपये दे देना सही रहेगा.इसलिए उसने कर्मचारी को ही दाखिल ख़ारिज का काम सौंप दिया और २५०० रूपये भी दे दिए.कर्मचारी ने काम को आगे तो बढाया लेकिन एक महीने के बाद.
दरअसल मामला काबिल लगान का था यानि जमीन का लगान अब तक विधिवत निर्धारित नहीं था.इसलिए अंचलाधिकारी (सी.ओ.) कार्यालय से लगान निर्धारण का प्रस्ताव डी.सी.एल.आर.कार्यालय में जाना था.अगर वह पूरा सुविधाशुल्क देता तो उसे कुल ५००० रूपये देने पड़ते;२५०० अंचल कार्यालय के लिए और २५०० रूपये डी.सी.एल.आर. कार्यालय के लिए.लेकिन चूंकि डी.सी.एल.आर. के पेशकार उसके पुराने परिचित थे और उनसे उसका घरेलू सम्बन्ध था इसलिए उसे २५०० रूपये ही देने पड़े,हालाँकि यह राशि भी कम नहीं होती खासकर गरीबों के लिए.उसने कई बार अपने परिचित पेशकर जिनका जिक्र मैंने पहले भी किया है;से सी.ओ. के यहाँ से भेजा गया पत्र वहां पहुंचा या नहीं पूछा.लेकिन हमेशा उत्तर नकारात्मक रहा.अंत में उसने झुंझलाकर दो माह गुजर जाने के बाद राजस्व कर्मचारी से पत्र संख्या बताने को कहा.कई दिनों के इंतजार के बाद कर्मचारी ने संख्या बताई जिसे उसने पेशकर महोदय को दे दिया.उसे आश्चर्य हुआ कि जो पत्र दिसंबर के पूर्वार्द्ध में ही भेज दिया गया था वह दो महीने में कैसे २ किलोमीटर दूर ठिकाने तक नहीं पहुंचा.वह समझ गया था कि चूंकि पेशकार परिचित था इसलिए शर्म के मारे पैसे नहीं मांग रहा था और काम को भी आगे नहीं बढ़ा रहा था;असमंजस में था भोलाभाला.पेशकार महोदय द्वारा वस्तुस्थिति बताने में बार-बार टालमटोल करने के बाद उसे ताव आ गया और वह जा पहुंचा डी.सी.एल.आर. कार्यालय.यहाँ मैं आपको यह बताता चलूँ कि जैसा कि उसने मुझे बताया कि उसके पिताजी जो प्रोफ़ेसर हैं;के उस पेशकार पर बड़े उपकार थे.उन्होंने अन्य छात्रों की तरह ही बिना एक पैसा लिए भूतकाल में नमकहराम पेशकार की बेटी को नोट्स और गेस प्रश्नों की सूची दी थी.लेकिन जब समाज में पैसा ही सबकुछ हो जाए तो निःस्वार्थ उपकारों का कोई मोल नहीं रह जाता है.
उसे साक्षात् प्रकट हुआ देखकर पेशकार महोदय घबरा गए और जल्दी ही स्वीकृति का पत्र भेजने का आश्वासन दिया.कल होकर ही स्वीकृति का पत्र अंचलाधिकारी के यहाँ भेज भी दिया गया और पेशकर बाबू ने स्वयं फोन करने की जहमत उठाते हुए उसे पत्र संख्या भी बता दी.लेकिन राजस्व कर्मचारी ने पूछने पर बताया कि पत्र पर भूमि सुधार उपसमाहर्ता यानि डी.सी.एल.आर. का हस्ताक्षर ही नहीं है.उसके साथ फिर से धोखा हुआ था.एक बात फिर से उसे डी.सी.एल.आर.की दहलीज पर जाना पड़ा.वहां उसी कार्यालय के एक कर्मचारी ने उसे बताया कि यहाँ घूस का इतना अधिक बोलबाला है कि पेशकार बिना नजराना दिए फाईल डी.सी.एल.आर. के टेबुल पर रख ही नहीं सकता क्योंकि साहब बिना महात्मा गाँधी के दर्शन किए दस्तखत ही नहीं करेंगे;इतनी मेहनत और ईमानदारी से पढाई इसलिए तो की थी महाशय ने.फिर कोई १० दिनों के बाद राजस्व कर्मचारी ने उसे अपने निवास पर बुलाया.उसने उसे शुद्धि-पत्र तो थमा दिया लेकिन रसीद लेने के लिए परदे के पीछे अपने साले के पास भेज दिया.यह कर्मचारी भी संयोग से उसके ननिहाल के बगल के गाँव का महादलित निकला.हालाँकि जब उसने उसे २५०० रूपये दिए थे तब उसे यह बिलकुल भी पता नहीं था.साले ने परदे के पीछे जाते ही रहस्य पर से पर्दा उठाते हुए कहा कि ८९ रूपये की तो रसीद ही कट रही है;उसे भी ऊपर से १०० रूपये चाहिए.आखिर उसने भी तो मेहनत की है;पसीना बहाया है.कैसी मेहनत पता नहीं?वह इस तरह बात कर रहा था जैसे उसने ही कर्मचारी को ५-५ अवैध सहायक रखने को कहा था.यहाँ तो कर्मचारी का सारा कुनबा जमा था महाभोज में शामिल होने के लिए.खैर उसे कोर्ट में काम था और वह हड़बड़ी में था इसलिए उसने चुपचाप उसे २०० रूपये दे दिए.साथ ही एक और जमीन की रसीद भी काटने को कहा.सुनते ही एक तरफ सारी खुदाई और एक तरह जोरू के भाई ने बताया कि रसीद पुस्तिका के आखिरी पन्ने के रूप में अभी-अभी उसी की जमीन की रसीद काटी गयी है.वह इस तरह की भाषा से अपरिचित नहीं था.उसे पत्रकार होते हुए भी टहलाया जा रहा था.गुस्सा स्वाभाविक था.वह जा पहुंचा राजस्व कर्मचारी के पास और नाराजगी दिखाते हुए शिकायत की.फिर तो उसी साले साहब ने यह कहते हुए कि दाखिल ख़ारिजवालों के लिए रसीद बचाकर रखनी पड़ती है;रसीद काट दी और इस तरह दाखिल ख़ारिज का महती काम पूरा हुआ और उसने और उसके परिवार ने काफी दिनों के बाद चैन की साँस ली.मूल कथा तो यहीं समाप्त होती है अब थोड़ी इसकी समालोचना भी कर ली जाए.
हम यह भी बताते चलें कि इस समय पूरे बिहार में सुशासन के कुशासन की वजह से राजस्व रसीद की जबरदस्त किल्लत चल रही है.वजह यह है कि बिहार सरकार ने हर तरह के प्रमाण-पत्रों को निर्गत करने के लिए ताजी-गरम राजस्व रसीद लगाना अनिवार्य कर दिया है;लेकिन अतिरिक्त राजस्व रसीदों की छपाई नहीं कर पा रही है.ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है या कोई मजबूरी है कह नहीं सकता.लोग एक अदद रसीद के लिए महीनों राजस्व कर्मचारी की परिक्रमा करते रहते हैं और इस बीच उनका काम ख़राब भी हो जाता है.वांछित प्रमाण-पत्र नहीं दे पाने के चलते कईयों को तो नौकरी मिलते-मिलते भी रह जाती है.
यह एक कटु सत्य है कि बिहार में निगरानी विभाग ने जिन लोगों को रंगे हाथों घूस लेते पकड़ा है उनमें से अधिकतर राजस्व कर्मचारी हैं और अधिकतर ट्रैप-पकड़ घटनाओं में मामला दाखिल ख़ारिज का ही होता है.अगर मामला सामान्य है तो १ दाखिल ख़ारिज के लिए ढाई से तीन हजार रूपये मांगे जाते हैं और अगर काबिल लगान का मामला हो तो कांटा ५ हजार तक भी पहुँच जाता है.चूंकि जनता के सीधे संपर्क में सिर्फ राजस्व कर्मचारी होता है इसलिए जेलयात्रा भी सिर्फ उसी के हिस्से आती है जबकि उसे उस राशि में से कुछ-न-कुछ हर टेबुल पर पेश करनी पड़ती है.प्रतिदिन कम-से-कम ५ दाखिल ख़ारिज के मामले १ राजस्व कर्मचारी के पास आते हैं.अगर मोटे तौर पर हिसाब लगाएं तो ज्यादा-से-ज्यादा १५-२० हजार मासिक वेतन वाला राजस्व कर्मचारी महीने में कम-से-कम १ लाख रूपये की ऊपरी कमाई कर रहा है;अधिकारियों यथा अंचलाधिकारी वगैरह की अवैध कमाई तो और भी ज्यादा;इससे कई गुना होगी.
मित्रों,अभी आपने देखा की भ्रष्ट तंत्र घूस खाता है २७०० रूपये या ५२०० रूपये और सरकार के खाते में जाता है मात्र ८९ रूपया या इससे भी कम और सरकार कहती है कि राज्य विकास के पथ पर तीव्र गति से अग्रसर है.मित्रों,यह सच्ची कहानी तो बस एक बानगी भर है.मेरा दावा है कि आप बिहार सरकार के किसी भी कार्यालय से वाजिब काम भी बिना सुविधा-शुल्क दिए करा ही नहीं सकते.बिहार की जनता को प्रस्तावित सेवा के अधिकार से बड़ी उम्मीदें हैं.शायद इसके आने के बाद सरकारी गुंडागर्दी और रंगदारी वसूली सह ब्लैकमेलिंग बंद हो जाए और महंगाई पीड़ित बिहार की गरीब जनता की जेब में इतनी राशि बच जाया करे जिससे वह अपने आपको कुपोषित होने से बचा सके.शायद???

गुरुवार, 3 मार्च 2011

दिशाहीन आम बजट उर्फ़ राग बेमौसम

pranab mukherjee budget
मित्रों,भारत का आम बजट पेश हुए कई दिन हो चुके हैं.मैंने पहले से सोंच रखा था कि १३ मार्च को झारखण्ड लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा में शामिल हो लेने के बाद ही इस विषय पर कुछ लिखूंगा लेकिन मन कुछ इस तरह बेचैन हो उठा कि कलम उठानी पड़ी.मित्रों,बजट किसी भी देश का ऐसा वार्षिक वित्तीय विवरण होता है जिससे देश की दशा और सरकार की दिशा का पता चलता है लेकिन इस बार के बजट से न तो देश की दशा का ही पता चलता है और न ही सरकार देश को किस दिशा में ले जाना चाहती है अतिशक्तिशाली इलेक्ट्रोन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन करने पर भी इसका पता चलता है.
बजट पेश होने से पहले पूरे भारत में उम्मीद की अन्तर्वर्ती धारा बह रही थी.लोगों को आशा थी कि वित्त मंत्री महंगाई से जली हुई और इस जले पर नमक हर दफ्तर में सुविधाशुल्क देने को विवश जनता को राहत देने के लिए कोई-न-कोई कदम उठाने की घोषणा अवश्य करेंगे.लेकिन इन विषयों की चर्चा तो दूर बजट में इस बात का कोई संकेत तक नहीं था कि सरकार इन समस्याओं को गंभीर मानती भी है.जबकि बजट से पहले आई आर्थिक समीक्षा में महंगाई और भ्रष्टाचार का उड़ते-उड़ते ही सही जिक्र किया गया था.ऐसा क्यों हुआ और सरकार की नीयत क्या है यह तो बेहतर तरीके से सरकार में शामिल लोग ही बता सकते हैं;हम तो सरकार के भीतर की हलचल को बस अनुमानों के आईने में ही देख सकते हैं.
इस बार के बजट में आम नागरिकों को आयकर में प्रतिमाह १७१ रूपये की नियत छूट दी गई है और बदले में सर्विस टैक्स के रूप में प्रति माह हजारों रूपयों का बोझ लाद दिया गया है.इतना ही नहीं वित्त मंत्री इस साल मुद्रास्फीति के कम-से-कम ८.५ प्रतिशत होने का अनुमान भी लगा रहे हैं यानि आम जनता अपनी कुल कमाई में से कम-से-कम ८.५ प्रतिशत के क्षरण के लिए भी तैयार रहे.शायद इसी स्थिति को छटांक लेना और छटाँक नहीं देना और महंगाई में आटा गीला होना कहते हैं.
ऐसा भी नहीं है कि वित्त मंत्री महंगाई के वास्तविक कारणों से पूरी तरह से नावाकिफ हों.अगर ऐसा होता तो उनके बजट भाषण में द्वितीय हरित क्रांति का जिक्र तक नहीं होता.हमारे वित्त मंत्री द्वितीय हरित क्रांति को साकार होते हुए देखना तो चाहते हैं लेकिन उन्हें इसके लिए कोई जल्दीबाजी भी नहीं है.तभी तो उन्होंने बजट में इस अवश्यम्भावी क्रांति के लिए मात्र ४०० करोड़ रूपया निर्धारित किया है.पूरा पूर्वोत्तर,जहाँ पर यह कथित क्रांति होनी है;पिछले दो वर्षों से घोर अनावृष्टि का सामना कर रहा है.क्षेत्र में पीने के पानी की भी कमी हो रही है लेकिन सरकार यहाँ की जनता को हरित क्रांति का दिवास्वप्न दिखा रही है.जनमोहिनी-मनमोहिनी सरकार मात्र ४०० करोड़ रूपये में पूरे पूर्वोत्तर भारत की कृषि में क्रांति कर देना चाहती है.शायद उसका फूंक मारकर पहाड़ उड़ा देने के करतब में गंभीर विश्वास है.हालाँकि धर्मनिरपेक्ष प्रणव ने रामचरितमानस की चाहत फूंकी उड़ावन पहाड़ू पंक्ति पढ़ी है या नहीं मैं यकीं के साथ नहीं कह सकता.वर्तमान जलवायविक स्थितियों में जब तक क्षेत्र की सभी नदियों को एक-दूसरे से जोड़ नहीं दिया जाता;हरित क्रांति तो दूर की कौड़ी है ही,क्षेत्र में वर्तमान खाद्यान्न उत्पादन स्तर को बरक़रार रख पाना भी संभव नहीं है.जाहिर है कि वित्त मंत्री अगर इस तथाकथित क्रांति के प्रति सचमुच गंभीर होते तो बजट में इसके लिए कई लाख करोड़ रूपये का प्रावधान करते न कि सिर्फ ४०० करोड़ रूपये का.
मित्रों,हम जानते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था की हालत इस समय दयनीय है.बजट बनाते समय एक तरफ जहाँ वित्त मंत्री को देश में उच्च विकास दर को बनाए रखना था तो वहीँ दूसरी और उनके सामने मुद्रास्फीति को भी ८.५ प्रतिशत के स्तर पर स्थिर रखने की चुनौती थी.हालाँकि मुद्रास्फीति की यह दर भी वर्तमान परिस्थितियों में जनता को कष्ट ही देगी;इसमें संदेह नहीं.वित्त मंत्री अगर साहस दिखाते तो १९२९ की महामंदी के समय जिस तरह फ्रैंकलिन डिलानो रूजवेल्ट ने अमेरिका में न्यू डील की घोषणा की थी,वैसी ही कोई वजनदार योजना की घोषणा करते.इससे बेरोजगारी भी दूर होती और देश को दीर्घकालिक लाभ भी होता.हो सकता है कि इससे मुद्रास्फीति कुछ और ज्यादा हो जाती लेकिन जनता की जेब में ज्यादा पैसा तो आता ही;देश के समक्ष सदियों से मुंह बाए खड़ी भुखमरी और मूल्य वृद्धि की स्थायी समस्या का भी स्थायी समाधान हो जाता.
मित्रों,शायद मैंने कुछ ज्यादा ही उटपटांग तुलना कर दी है.मुझे क्रांतिकारी रूजवेल्ट की घोर यथास्थितिवादी और मजबूर मनमोहन सिंह या प्रणव मुखर्जी से तुलना नहीं करनी चाहिए थी.लेकिन जब कोई ४०० करोड़ रूपये में ही भारत जैसे विशाल देश में हरित क्रांति कराने लगे तो इतिहास के पन्नों को पलटना ही पड़ता है.प्रणव मुखर्जी बड़े भारत के बहुत बड़े नेता हैं.इसलिए वे अगर गलती भी करते हैं तो बहुत बड़ी ही करते हैं.शायद बहुत बड़ा करने के चक्कर में ही वे खाद्य तेल,सब्जियां,मोटे अनाज और डेयरी उत्पादों के उत्पादन को बढ़ावा देनेवाली पाँच अतिमहत्वकांक्षी परियोजनाओं को मात्र ३००-३०० करोड़ रूपये दे गए.हद तो उन्होंने ४०० करोड़ रूपये में हरित क्रांति करके ही कर दी थी अब बारी बेहद करने की थी.मित्रों,कोई भी वित्त मंत्री जब किसी योजना के लिए राशि का आवंटन करता है तो उसके पीछे कोई-न-कोई तर्क होता है,तथ्य होता है.दादा के पास तर्क नहीं है;कुतर्क है.वे कहते हैं कि उन्होंने इन ५ योजनाओं के लिए ३००-३०० करोड़ रूपये इसलिए दिए हैं क्योंकि उनका शुभ अंक ३ है.दादा,अगर तीन के गुणांक में ही राशि देना चाहते थे तो उन्हें कम-से-कम ३०००-३००० करोड़ रूपये देने चाहिए थे.३००-३०० रूपये में क्या होगा और क्या नहीं होगा पता नहीं लेकिन लक्ष्य तो पूरा नहीं ही होगा.वैसे दादा ने शायद इस संभावित आलोचना से बचने के लिए ही इन क्षेत्रों में उत्पादन वृद्धि के लिए कोई लक्ष्य रखा ही नहीं है.मित्रों,जिस तरह प्रश्न-पत्र में सिर्फ कठिन प्रश्न ही नहीं होते क्योंकि इससे परीक्षार्थी के आत्महत्या कर लेने की सम्भावना बढ़ जाती है उसी तरह इस बजट में भी सिर्फ जुबान को जलाकर रख देने वाली मिर्च ही नहीं है कुछ मिठाइयाँ भी है लेकिन किंचित.बुनियादी ढांचा को दुरुस्त करने और सामाजिक क्षेत्र के लिए आबंटन में भारी वृद्धि की गयी हैं;लेकिन सच्चाई यह भी है कि चूंकि यह आवंटन पहले से काफी कम था सिर्फ इसलिए वृद्धि जोरदार दिखाई दे रही है.
कुल मिलकर उद्गम से मुहाने तक यह बजट बेसुरा है और खटराग में निबद्ध है.यह बजट दिशाहीन होने की अंतिम परिणति तक दिशाहीन है और इसमें की गयी सारी घोषणाएं समय की मांग के विपरीत है.अगर सरकार को जनता व जनाकांक्षा की रंचमात्र भी चिंता होती तो वह बजट में महंगाई और भ्रष्टाचार को कम करने और मिटाने को प्रमुखता देती.अगर उसके पास इसके लिए धन की कमी थी तो वह विदेशों से कालेधन को वापस लाने की घोषणा करती न कि धनाभाव और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल के दाम बढ़ने का रोना रोती और न ही जनता खड़ी होती अपने उजड़े हुए घर की दहलीज पर ठगी-सी,अन्यमनस्क.हमें उम्मीद थी कि २०११-१२ का बजट अच्छा है या बुरा;यह अनिवार्यतः एक अनिर्णायक विवाद का विषय होगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं;बल्कि यह बजट तो बजट के औचित्य पर ही सवालिया निशान लगा गया.लगता है कि सरकार ने यह सोंचकर यह बजट पेश किया है कि चूंकि ऐसा होता ही रहा है तो हम भी ऐसा कर ही लेते हैं.वास्तव में यह बजट है ही नहीं बल्कि इसे पेश करके करके एक भ्रष्ट और निकम्मी सरकार द्वारा अपनी बेगारी को टाला गया है.